अंधश्रद्धान: Difference between revisions
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<strong>1. परीक्षा रहित अंध श्रद्धान अकिंचित्कर</strong></p> | <strong>1. परीक्षा रहित अंध श्रद्धान अकिंचित्कर</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/7/3 </span>जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो। </span> = <span class="HindiText">शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है।</span></p> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 1/7/3) </span>जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो। </span> = <span class="HindiText">शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/319/7 </span>जो निर्णय करनै का विचार करतैं ही सम्यक्त्व को दोष लागै, तो अष्टसहस्री में आज्ञाप्रधानतैं परीक्षा प्रधान को उत्तम क्यों कहा ?</p> | <span class="GRef"> (मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/319/7) </span>जो निर्णय करनै का विचार करतैं ही सम्यक्त्व को दोष लागै, तो अष्टसहस्री में आज्ञाप्रधानतैं परीक्षा प्रधान को उत्तम क्यों कहा ?</p> | ||
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<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/18/381/13 </span>जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हों तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय।</p> | <span class="GRef"> (मोक्षमार्ग प्रकाशक/18/381/13) </span>जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हों तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय।</p> | ||
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सत्ता स्वरूप/पृ.102 (जिसकी सत्ता का निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्व की सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है। ऐसी जिनकी आम्नाय है।</p> | सत्ता स्वरूप/पृ.102 (जिसकी सत्ता का निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्व की सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है। ऐसी जिनकी आम्नाय है।</p> | ||
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<span class="SanskritText">भद्रबाहु चरित्र/प्र.6 पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:।</span> = <span class="HindiText">न तो मुझे वीर भगवान् का कोई पक्ष है और न कपिलादिकों से द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है।</span></p> | <span class="SanskritText">(भद्रबाहु चरित्र/प्र.6) पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:।</span> = <span class="HindiText">न तो मुझे वीर भगवान् का कोई पक्ष है और न कपिलादिकों से द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है।</span></p> | ||
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English Tatwarth Sutra/Page 15-Right Belief is not identical with blind faith, its authority is neither external nor autocratic = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन अंध श्रद्धान की भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है।</span></p> | English Tatwarth Sutra/Page 15-Right Belief is not identical with blind faith, its authority is neither external nor autocratic = <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन अंध श्रद्धान की भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है।</span></p> | ||
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<span class="HindiText">देखें [[ आगम#3.4.9 | आगम - 3.4.9 ]]आगम की विरोधी दो बातों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वाले के यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे संदेह नहीं हो सकता।</span></p> | <span class="HindiText">देखें [[ आगम#3.4.9 | आगम - 3.4.9 ]]आगम की विरोधी दो बातों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वाले के यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे संदेह नहीं हो सकता।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/561/1006/13 </span>तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिर्विना आप्तवचनाश्रयेण ईषन्निर्णयलक्षणया...।</span> = <span class="HindiText">बिना प्रमाण नय आदि के द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान् ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त वचनों के द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञा के द्वारा श्रद्धान होता है।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/561/1006/13) </span>तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिर्विना आप्तवचनाश्रयेण ईषन्निर्णयलक्षणया...।</span> = <span class="HindiText">बिना प्रमाण नय आदि के द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान् ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त वचनों के द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञा के द्वारा श्रद्धान होता है।</span></p> | ||
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<strong>3. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषय में अंध श्रद्धान करने का आदेश</strong></p> | <strong>3. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषय में अंध श्रद्धान करने का आदेश</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"><span class="GRef"> भगवती आराधना/36/128 </span>धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य। आणाए सद्दहंतो समत्ताराहओ भणिदो।36।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल व जीव इन छह द्रव्यों को जिनेश्वर की आज्ञा से श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्व का आराधक होता है।36।</span></p> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> (भगवती आराधना/36/128) </span>धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य। आणाए सद्दहंतो समत्ताराहओ भणिदो।36।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल व जीव इन छह द्रव्यों को जिनेश्वर की आज्ञा से श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्व का आराधक होता है।36।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/202 </span>पर उद्धृत...स्वयं मंदबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:...।</span> = <span class="HindiText">स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर - श्री जिनेंद्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओं से खंडित नहीं हो सकता, अत: जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेंद्र की आज्ञा के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। (<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>टी./12/12/28/पर उद्धृत)।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह टीका/48/202) </span>पर उद्धृत...स्वयं मंदबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:...।</span> = <span class="HindiText">स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर - श्री जिनेंद्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओं से खंडित नहीं हो सकता, अत: जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेंद्र की आज्ञा के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। (<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>टी./12/12/28/पर उद्धृत)।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">पं.वि./1/128 निश्चेतव्यो जिनेंद्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्य: सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालं कोलाहलेन। सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाज:।128।</span> = <span class="HindiText">हे भव्य जीवो ! आपको जिनेंद्रदेव के विषय में व उनकी वाणी के विषयभूत परोक्ष पदार्थों के विषय में उसी को प्रमाण करना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहल से क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्था के रहने पर सिद्धांत मार्ग से आये हुए आत्मानुभव से प्रबोध को प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन व ज्ञान की निधि स्वरूप आत्मा के विषय में प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए।128।</span></p> | <span class="SanskritText">(पं.वि./1/128) निश्चेतव्यो जिनेंद्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्य: सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालं कोलाहलेन। सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाज:।128।</span> = <span class="HindiText">हे भव्य जीवो ! आपको जिनेंद्रदेव के विषय में व उनकी वाणी के विषयभूत परोक्ष पदार्थों के विषय में उसी को प्रमाण करना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहल से क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्था के रहने पर सिद्धांत मार्ग से आये हुए आत्मानुभव से प्रबोध को प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन व ज्ञान की निधि स्वरूप आत्मा के विषय में प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए।128।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/2/25 </span>धर्मादीनधिगम्य सच्छ्रुतनयन्यासानुयोगै: सुधी:, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरान् ।25।</span> = <span class="HindiText">विशिष्ट ज्ञान के धारकों को समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किंतु मंदज्ञानियों को केवल आज्ञा के अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिए।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (अनगारधर्मामृत/2/25) </span>धर्मादीनधिगम्य सच्छ्रुतनयन्यासानुयोगै: सुधी:, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरान् ।25।</span> = <span class="HindiText">विशिष्ट ज्ञान के धारकों को समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किंतु मंदज्ञानियों को केवल आज्ञा के अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिए।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/22/68/6 </span>कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किंतु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विचारो न कर्तव्य:। ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति।</span> = <span class="HindiText">काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्य के विषय में परमागम के अविरोध से ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसार की वृद्धि होती है।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (द्रव्यसंग्रह टीका/22/68/6) </span>कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किंतु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विचारो न कर्तव्य:। ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति।</span> = <span class="HindiText">काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्य के विषय में परमागम के अविरोध से ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसार की वृद्धि होती है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/482 </span>अर्थवशादत्र सूत्रे (सूत्रार्थे) शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मांतरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:।482।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म, दूरवर्ती और अंतरित पदार्थ सम्यग्दृष्टि के आस्तिक्य के गोचर हैं अत: उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगम में प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती।482।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/482) </span>अर्थवशादत्र सूत्रे (सूत्रार्थे) शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मांतरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:।482।</span> =<span class="HindiText">सूक्ष्म, दूरवर्ती और अंतरित पदार्थ सम्यग्दृष्टि के आस्तिक्य के गोचर हैं अत: उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगम में प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती।482।</span></p> | ||
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देखें [[ आगम#3.4.9 | आगम - 3.4.9 ]]छद्मस्थों को विरोधी सूत्रों के प्राप्त होने पर विशिष्ट ज्ञानी के अभाव में दोनों का संग्रह कर लेना चाहिए।</p> | देखें [[ आगम#3.4.9 | आगम - 3.4.9 ]]छद्मस्थों को विरोधी सूत्रों के प्राप्त होने पर विशिष्ट ज्ञानी के अभाव में दोनों का संग्रह कर लेना चाहिए।</p> | ||
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देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1]] | देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1 | सम्यग्दर्शन - I.1/2]] तत्त्वादि पर अंधश्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है।</p> | ||
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<strong>4. क्षयोपशम की हीनता में तत्त्व सूत्रों का भी अंध श्रद्धान कर लेना योग्य है</strong></p> | <strong>4. क्षयोपशम की हीनता में तत्त्व सूत्रों का भी अंध श्रद्धान कर लेना योग्य है</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/324 </span>जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।</span> =<span class="HindiText">जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसंद करता हूँ। वह भी श्रद्धावान् है।324।</span></p> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/324) </span>जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।</span> =<span class="HindiText">जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसंद करता हूँ। वह भी श्रद्धावान् है।324।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">पं.वि./1/125 य: कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमंध:।125। </span>=<span class="HindiText">जो सर्वज्ञ के भी वचन में संदिग्ध होकर अपनी बुद्धि से तत्त्व के विषय में अन्यथा कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्ति के द्वारा देखे गये आकाश में विचरते हुए पक्षियों की संख्या के विषय में विवाद करने वाले अंध के समान आचरण करता है।125। (पं.वि./13/34)।</span></p> | <span class="SanskritText">(पं.वि./1/125) य: कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमंध:।125। </span>=<span class="HindiText">जो सर्वज्ञ के भी वचन में संदिग्ध होकर अपनी बुद्धि से तत्त्व के विषय में अन्यथा कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्ति के द्वारा देखे गये आकाश में विचरते हुए पक्षियों की संख्या के विषय में विवाद करने वाले अंध के समान आचरण करता है।125। (पं.वि./13/34)।</span></p> | ||
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<strong>5. अंध श्रद्धान की विधि का कारण व प्रयोजन</strong></p> | <strong>5. अंध श्रद्धान की विधि का कारण व प्रयोजन</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1045 </span>सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रागेवात्रापि दर्शिता:। नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैर्ज्ञातुं शक्या न चान्यथा।1045।</span> =<span class="HindiText">पहले भी कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवर्ती और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणी के द्वारा ही जाने जा सकते हैं किंतु अन्यथा नहीं जाने जा सकते।1045।</span><p class="HindiText" style="margin-left: 40px;">देखें [[ श्रद्धान#2.5 | श्रद्धान - 2.5]]।</p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1045) </span>सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रागेवात्रापि दर्शिता:। नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैर्ज्ञातुं शक्या न चान्यथा।1045।</span> =<span class="HindiText">पहले भी कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवर्ती और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणी के द्वारा ही जाने जा सकते हैं किंतु अन्यथा नहीं जाने जा सकते।1045।</span><p class="HindiText" style="margin-left: 40px;">देखें [[ श्रद्धान#2.5 | श्रद्धान - 2.5]]।</p> | ||
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Revision as of 22:54, 4 December 2022
1. परीक्षा रहित अंध श्रद्धान अकिंचित्कर
(कषायपाहुड़ 1/7/3) जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो। = शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/319/7) जो निर्णय करनै का विचार करतैं ही सम्यक्त्व को दोष लागै, तो अष्टसहस्री में आज्ञाप्रधानतैं परीक्षा प्रधान को उत्तम क्यों कहा ?
(मोक्षमार्ग प्रकाशक/18/381/13) जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हों तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय।
सत्ता स्वरूप/पृ.102 (जिसकी सत्ता का निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्व की सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है। ऐसी जिनकी आम्नाय है।
(भद्रबाहु चरित्र/प्र.6) पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:। = न तो मुझे वीर भगवान् का कोई पक्ष है और न कपिलादिकों से द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है।
English Tatwarth Sutra/Page 15-Right Belief is not identical with blind faith, its authority is neither external nor autocratic = सम्यग्दर्शन अंध श्रद्धान की भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है।
2. अंधश्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षण वाला होता है
देखें आगम - 3.4.9 आगम की विरोधी दो बातों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वाले के यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे संदेह नहीं हो सकता।
(गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/561/1006/13) तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिर्विना आप्तवचनाश्रयेण ईषन्निर्णयलक्षणया...। = बिना प्रमाण नय आदि के द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान् ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त वचनों के द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञा के द्वारा श्रद्धान होता है।
3. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषय में अंध श्रद्धान करने का आदेश
(भगवती आराधना/36/128) धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य। आणाए सद्दहंतो समत्ताराहओ भणिदो।36। = धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल व जीव इन छह द्रव्यों को जिनेश्वर की आज्ञा से श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्व का आराधक होता है।36।
(द्रव्यसंग्रह टीका/48/202) पर उद्धृत...स्वयं मंदबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:...। = स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर - श्री जिनेंद्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओं से खंडित नहीं हो सकता, अत: जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेंद्र की आज्ञा के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। ( दर्शनपाहुड़/ टी./12/12/28/पर उद्धृत)।
(पं.वि./1/128) निश्चेतव्यो जिनेंद्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्य: सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालं कोलाहलेन। सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाज:।128। = हे भव्य जीवो ! आपको जिनेंद्रदेव के विषय में व उनकी वाणी के विषयभूत परोक्ष पदार्थों के विषय में उसी को प्रमाण करना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहल से क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्था के रहने पर सिद्धांत मार्ग से आये हुए आत्मानुभव से प्रबोध को प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन व ज्ञान की निधि स्वरूप आत्मा के विषय में प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए।128।
(अनगारधर्मामृत/2/25) धर्मादीनधिगम्य सच्छ्रुतनयन्यासानुयोगै: सुधी:, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरान् ।25। = विशिष्ट ज्ञान के धारकों को समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किंतु मंदज्ञानियों को केवल आज्ञा के अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिए।
(द्रव्यसंग्रह टीका/22/68/6) कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किंतु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विचारो न कर्तव्य:। ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति। = काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्य के विषय में परमागम के अविरोध से ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसार की वृद्धि होती है।
(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/482) अर्थवशादत्र सूत्रे (सूत्रार्थे) शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मांतरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:।482। =सूक्ष्म, दूरवर्ती और अंतरित पदार्थ सम्यग्दृष्टि के आस्तिक्य के गोचर हैं अत: उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगम में प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती।482।
देखें आगम - 3.4.9 छद्मस्थों को विरोधी सूत्रों के प्राप्त होने पर विशिष्ट ज्ञानी के अभाव में दोनों का संग्रह कर लेना चाहिए।
देखें सम्यग्दर्शन - I.1/2 तत्त्वादि पर अंधश्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है।
4. क्षयोपशम की हीनता में तत्त्व सूत्रों का भी अंध श्रद्धान कर लेना योग्य है
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/324) जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324। =जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसंद करता हूँ। वह भी श्रद्धावान् है।324।
(पं.वि./1/125) य: कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमंध:।125। =जो सर्वज्ञ के भी वचन में संदिग्ध होकर अपनी बुद्धि से तत्त्व के विषय में अन्यथा कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्ति के द्वारा देखे गये आकाश में विचरते हुए पक्षियों की संख्या के विषय में विवाद करने वाले अंध के समान आचरण करता है।125। (पं.वि./13/34)।
5. अंध श्रद्धान की विधि का कारण व प्रयोजन
देखें आगम - 6.4 अतींद्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवों के द्वारा कल्पित युक्तियों से रहित निर्णय के लिए हेतुता नहीं पायी जाती। इसलिए उपदेश को प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए।
(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1045) सूक्ष्मांतरितदूरार्था: प्रागेवात्रापि दर्शिता:। नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैर्ज्ञातुं शक्या न चान्यथा।1045। =पहले भी कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवर्ती और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणी के द्वारा ही जाने जा सकते हैं किंतु अन्यथा नहीं जाने जा सकते।1045।
देखें श्रद्धान - 2.5।