स्थान: Difference between revisions
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Revision as of 22:36, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. स्थान सामान्य का लक्षण
1. अनुभाग के अर्थ में
धवला 5/1,7,1/189/1 किं ठाणं। उप्पत्ति हेऊ ट्ठाणं। = भाव की उत्पत्ति के कारण को स्थान कहते हैं।
धवला 6/1,9-2,1/79/3 तिष्ठत्यस्यां संख्यायामस्मिन् वा अवस्थाविशेषे प्रकृतय: इति स्थानम् । ठाणं ठिदी अवट्ठाणमिदि एयट्ठो। = जिसमें संख्या,अथवा जिस अवस्था विशेष में प्रकृतियाँ ठहरती हैं, उसे स्थान कहते हैं। स्थान, स्थिति और अवस्थान तीनों एकार्थक हैं।
धवला 12/4,2,7,200/111/12 एगजीवम्मि एक्कम्हि समए जो दीसदि कम्माणुभागो तं ठाणं णाम। = एक जीव में एक समय में जो कर्मानुभाग दिखता है, उसे स्थान कहते हैं।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/226/272/10 अविभागप्रतिच्छेदसमूहो वर्ग:, वर्गसमूहो वर्गणा। वर्गणासमूह: स्पर्धकं। स्पर्धकसमूहो गुणहानि:। गुणहानिसमूह: स्थानमिति ज्ञातव्यम् । = अविभागी प्रतिच्छेदों का समूह वर्ग, वर्ग का समूह वर्गणा, वर्गणा का समूह स्पर्धक, स्पर्धक का समूह गुणहानि और गुणहानि का समूह स्थान है।
लब्धिसार/ भाषा./285/236/12 एक जीवकैं एक कालविषै (प्रकृति बंध, अनुभाग बंध आदि) संभवैं ताका नाम स्थान है।
2. जगह विशेष के अर्थ में
धवला 13/5,5,64/336/3 समुद्रावरुद्ध: व्रज: स्थानं नाम निम्नगावरुद्धं वा। = समुद्र से अवरुद्ध अथवा नदी से अवरुद्ध व्रज का नाम स्थान है।
अनगारधर्मामृत/8/84 स्थीयते येन तत्स्थानं वंदनायां द्विधा मतम् । उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम् ।84। = (वंदना प्रकरण में) वंदना करने वाला शरीर की जिस आकृति अथवा क्रिया द्वारा एक ही जगह पर स्थित रहे उसको स्थान कहते हैं...।84।
2. स्थान के भेद-
1. अध्यात्म स्थानादि
समयसार/52-55 ...णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभायठाणाणि।52। जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणठाणया केई।53। णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा।54। णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा।55। = जीव के अध्यात्म स्थान भी नहीं हैं और अनुभाग स्थान भी नहीं है।52। जीव के योगस्थान भी नहीं, बंधस्थान भी नहीं, उदयस्थान भी नहीं, कोई मार्गणास्थान भी नहीं है।53। स्थितिबंधस्थान भी नहीं, अथवा संक्लेश स्थान भी नहीं, विशुद्धि स्थान भी नहीं, अथवा संयम लब्धि स्थान भी नहीं है।54। और जीव के जीव स्थान भी नहीं अथवा गुणस्थान भी नहीं है, क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।55। (अर्थात् आगम में निम्न नाम के स्थानों का उल्लेख यत्रतत्र मिलता है।)
2. निक्षेप रूप स्थान
नोट-नाम, स्थापना, आदि के भेद देखें निक्षेप - 1.2 ( धवला 10/4,2,4,175/434/8 )।
चार्ट
भाव निक्षेप रूपभेद-देखें भाव ।
3. निक्षेप रूप भेदों के लक्षण
धवला 10/2,4,4,175/434/10 जं त्तं धुवं तं सिद्धाणमोगाहणट्ठाणं। कुदो। तेसिमोगाहणाए वड्ढि-हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवट्ठाणादो। जं तमद्धुवं सच्चित्तट्ठाणं तं संसारत्थाण जीवाणमोहगाहणा। कुदो। तत्थ वडि्ढहाणीणमुवलंभादो। ...जं तं संकोच-विकोचणप्पयमब्भंतरसच्चित्तट्ठाणं तं सव्वेसिं सजोगजीवाणं जीवदव्व। जं तं तव्विहीणमब्भंतरं सच्चित्तट्ठाणं तं केवलणाण-दंसणहराणं अमोक्खट्ठिदिबंधपरिणयाणंसिद्धाणंअजोगिकेवलीणंवा जीवदव्वं। = जो ध्रुव सचित्त स्थान है, वह सिद्धों का अवगाहना स्थान है, क्योंकि वृद्धि व हानि का अभाव होने से उनकी अवगाहना स्थिर स्वरूप से अवस्थित है। जो अध्रुव सचित्तस्थान है, वह संसारी जीवों की अवगाहना है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि पायी जाती है।...संकोच विकोचात्मक अभ्यंतर सचित्त स्थान है, वह योग युक्त सब जीवों का जीव द्रव्य है। जो तद्विहीन अभ्यंतर सचित्त स्थान है, वह केवलज्ञान व केवलदर्शन को धारण करने वाले एवं मोक्ष व स्थितिबंध से परिणत ऐसे सिद्धों अथवा अयोगकेवलियों का जीव द्रव्य है।
नोट-शेष निक्षेपरूप भेदों के लक्षण-देखें निक्षेप ।
* अन्य संबंधित विषय
1. अध्यात्म आदि स्थानों के लक्षण-देखें वह वह नाम ।
2. जीव स्थान-देखें जीव समास ।
3. स्वस्थान स्वस्थान व विहारवत्स्व-स्वस्थान-देखें क्षेत्र - 1।
पुराणकोष से
संगीत के शरीर स्वर का एक भेद । हरिवंशपुराण 19.148