आश्रम: Difference between revisions
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<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 39/152</span> <p class="SanskritText">ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥152॥</p> | <span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 39/152</span> <p class="SanskritText">ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥152॥</p> | ||
<p class="HindiText">= ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं।</p> | <p class="HindiText">= ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 41/5 में उपासकाध्ययनसे उद्धृत)</span> <span class="GRef">(सागार धर्मामृत अधिकार 7/20)</span> </p> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> सागार और अनगार के भेद से द्विविध तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चतुर्विध । ये चारों उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 39.152 </span>। <span class="GRef"> पद्मपुराण 5.196 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> सागार और अनगार के भेद से द्विविध तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चतुर्विध । ये चारों उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 39.152 </span>। <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#196|पद्मपुराण -5. 196]] </span></p> | ||
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Revision as of 22:16, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 55
विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानाश्रमम्।
= विशुद्ध ज्ञान व दर्शन की प्रधानता रूप आश्रम..अर्थात् ज्ञान दर्शन की प्रधानता ही आश्रम की लक्षण है।
चतुः आश्रम निर्देश
महापुराण सर्ग संख्या 39/152
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥152॥
= ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम हैं जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं।
(चारित्रसार पृष्ठ 41/5 में उपासकाध्ययनसे उद्धृत) (सागार धर्मामृत अधिकार 7/20)
पुराणकोष से
सागार और अनगार के भेद से द्विविध तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चतुर्विध । ये चारों उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । महापुराण 39.152 । पद्मपुराण -5. 196