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'''सत्य--''' जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में | <p class="HindiText">'''सत्य--''' जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व व पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित व मित वचन को सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह असत्य भी क्यों न हो । सत्य वचन अनेक प्रकार के होते हैं। </p> | ||
<p class="HindiText"><b>1. सत्य निर्देश</b></p> | |||
<p class="HindiText"><b>1. सत्य धर्म का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">बारसअणुवेक्खा//74</span><p class=" PrakritText "> परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74। </p> <p class="HindiText">जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोडकर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।</p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/ 9/6/412/7</span> <p class="SanskritText"> सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते।</p> <p class="HindiText">अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।</p> (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/9/596/7</span>) (<span class="GRef">चारित्रसार/63/3</span>) (<span class="GRef">अनगार धर्मामृत/6/35</span>)</p> | |||
<span class="GRef">भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/46/154/16</span> <p class="SanskritText"> सतां साधूनां हितभाषणं सत्यम् ।</p> <p class="HindiText">मुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महित कर भाषण बोलना, यह सत्य धर्म है।</p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसार/6/17</span> <p class="SanskritText"> ज्ञानचारित्रशिक्षादौ स धर्म: मुनिगद्यते । धर्मोपबृंहणार्थं यत् साधु सत्यं तदुच्यते । 17। </p> <p class="HindiText">धर्म की वृद्धि के लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहाता है। इस धर्म के व्यवहार की आवश्यकता ज्ञान चारित्र के सिखाने आदि में लगती है।</p> | |||
<span class="GRef">पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/91</span> <p class="SanskritText"> स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च। वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम् ।91।</p> <p class="HindiText"> मुनियों को सदैव ही स्वपर हितकारक, परिमित तथा अमृत के सद्दश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए । यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए ।91।</p> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398</span> <p class=" PrakritText "> जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।</p> <p class="HindiText">जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>2. महाव्रत का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">नियमसार/57</span><p class=" PrakritText "> रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57। </p> <p class="HindiText">राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोडता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।</p> | |||
<span class="GRef">मूलाचार/6, 290</span> <p class="SanskritText"> रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290। </p> <p class="HindiText">राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा रहित वचन को छोडना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वास घातक दूसरे को पीडाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।</p> | |||
<p class="HindiText">3. सत्य अणुव्रत का लक्षण</p> | |||
<span class="GRef">रत्नकरण्डश्रावकाचार/55</span> <p class="SanskritText"> स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।</p> <p class="HindiText"> स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।</p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/8</span><p class="SanskritText"> स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीरि द्वितीयमणुव्रतम् ।। <p class="HindiText">गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृनविनाश और ग्राम विनाश के</p> | |||
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Revision as of 16:29, 23 December 2022
सत्य-- जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व व पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित व मित वचन को सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह असत्य भी क्यों न हो । सत्य वचन अनेक प्रकार के होते हैं।
1. सत्य निर्देश
1. सत्य धर्म का लक्षण
बारसअणुवेक्खा//74
परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74।
जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोडकर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि/ 9/6/412/7
सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते।
अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।
( राजवार्तिक/9/6/9/596/7) (चारित्रसार/63/3) (अनगार धर्मामृत/6/35)
भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/46/154/16
सतां साधूनां हितभाषणं सत्यम् ।
मुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महित कर भाषण बोलना, यह सत्य धर्म है।
तत्त्वार्थसार/6/17
ज्ञानचारित्रशिक्षादौ स धर्म: मुनिगद्यते । धर्मोपबृंहणार्थं यत् साधु सत्यं तदुच्यते । 17।
धर्म की वृद्धि के लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहाता है। इस धर्म के व्यवहार की आवश्यकता ज्ञान चारित्र के सिखाने आदि में लगती है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/91
स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च। वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम् ।91।
मुनियों को सदैव ही स्वपर हितकारक, परिमित तथा अमृत के सद्दश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए । यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए ।91।
कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398
जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।
जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।
2. महाव्रत का लक्षण
नियमसार/57
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57।
राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोडता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।
मूलाचार/6, 290
रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290।
राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा रहित वचन को छोडना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वास घातक दूसरे को पीडाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।
3. सत्य अणुव्रत का लक्षण
रत्नकरण्डश्रावकाचार/55
स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।
स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/8
स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीरि द्वितीयमणुव्रतम् ।।
गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृनविनाश और ग्राम विनाश के
यह पेज जोडा है।।
नाम प्रकृति | उत्कृष्ठ अनुभाग | जघन्य अनुभाग |
---|---|---|
ज्ञानावरणीय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
दर्शनावरणीय 4 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
निद्रा, प्रचला | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
स्त्यानगृद्धि | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अंतराय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय |
मिथ्यात्व | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अनंतानुबंधी चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सातिशय मिथ्यादृष्टि;/चरम |
अप्रत्याख्यान चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
प्रत्याख्यान चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | प्रमत्तसंयत सन्मुख अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
संज्वलन चतु. | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
हास्य, रति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
अरति, शोक | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अप्रमत्तसंयत सन्मुख प्रमत्तसंयत |
भय, जुगुप्सा | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
स्त्री, नपुंसक वेद | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
पुरुष वेद | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति से पहला समय; |
साता | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
असाता | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
नरकायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
तिर्यंचायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
मनुष्यायु | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
देवायु | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
नरक द्विक | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि;सम्यग्दृष्टि |
तिर्यक् द्विक | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | सप्तम पू. नारकी. |
मनुष्य द्विक | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि; |
देव द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि, तिर्यंच, मनुष्य |
एकेंद्रिय जाति | मिथ्यादृष्टि देव | मध्य परिणामों युक्त जीव मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच;देव, नारकी |
2-4 इंद्रिय जाति | मिथ्यादृष्टि;मनुष्य,तिर्यंच; | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
पंचेंद्रिय जाति | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
औदारिक द्विक | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी |
वैक्रियक द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
आहारक द्विक | क्षपकश्रेणी | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
तैजस शरीर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
कार्मण शरीर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
निर्माण | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
प्रशस्त वर्णादि 4 | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
अप्रशस्त वर्णादि 4 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; मध्य परिणामों युक्त जीव;. मिथ्यादृष्टि |
सम चतुरस्र संस्थान | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
शेष पाँच संस्थान | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
वज्र ऋषभ नाराच | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
वज्र नाराच आदि 4 | सम्यग्दृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
असंप्राप्त सृपाटिका | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी | मध्य परिणामों युक्त जीव; मिथ्यादृष्टि |
अगुरुलघु | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
उपघात | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
परघात | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
आतप | मिथ्यादृष्टि देव | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव;मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक से ईशान |
उद्योत | मिथ्यादृष्टि देव | मिथ्यादृष्टि देव, नारकी |
उच्छ्वास | सूक्ष्मसांपराय का चरम समय | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
प्रशस्त विहायोगति | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
अप्रशस्त विहायोगति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
प्रत्येक | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
साधारण | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
त्रस | क्षपकश्रेणी | |
स्थावर | मिथ्यादृष्टि देव | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि देव मनुष्य,तिर्यंच |
सुभग | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
दुर्भग | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
सुस्वर | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
दुस्स्वर | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
शुभ | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अशुभ | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
सूक्ष्म | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
बादर | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
पर्याप्त | क्षपकश्रेणी | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि |
अपर्याप्त | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच | मिथ्यादृष्टि मनुष्य,तिर्यंच |
स्थिर | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अस्थिर | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
आदेय | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अनादेय | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
यशःकीर्ति | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
अयशःकीर्ति | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि |
तीर्थंकर | क्षपकश्रेणी | नारकी सन्मुख अविरतसम्यग्दृष्टि |
उच्च गोत्र | क्षपकश्रेणी | मध्य परिणामों युक्त जीव;मिथ्यादृष्टि |
नीच गोत्र | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | सप्तम पृथ्वी नारकी मिथ्यादृष्टि |
अंतराय 5 | तीव्र संक्लेश या कषाययुक्त जीव; चतुर्गति के जीव; मिथ्यादृष्टि | अपूर्वकरण गुणस्थान में उस प्रकृति की बंधव्युच्छित्ति से पहला समय; |
5. अनुभाग विषयक अन्य प्ररूपणाओं का सूचीपत्र
नाम प्रकृति | विषय | जघन्य उत्कृष्ठ पद | भुजगारादि पद | जघन्य उत्कृष्ठ वृद्धि | षड्गुण वृद्धि |
---|---|---|---|---|---|
.-- | -- | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ | महाबंध पुस्तक $...पृष्ठ |
1. मूल प्रकृति | संनिकर्ष | 4/172-181/74-79 | -- | -- | -- |
भंगविचय | 4/182-185/79-81 | 4/285/131-132 | -- | -- | |
अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ | 4/371-386/168-176 | -- | -- | 4/360-361/163-164 | |
2. उत्तरप्रकृति | संनिकर्ष | 5/1-308/1-126 | -- | -- | -- |
-- | भंगविचय | 5/309-313/126-129 | 5/492-497/276-78 | -- | 5/617/362 |
-- | अनुभाग अध्यवसाय स्थान संबंधी सर्व प्ररूपणाएँ | 5/626-658/372-398 | -- | -- | -- |