कुशील साधु: Difference between revisions
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भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./1301−1302<span class="PrakritText"> इंदियचोरपरद्धा कसायसावदभएण वा केई। उम्मग्गेण पलायंति साधुसत्थस्स दूरेण।1301। तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता। सण्णाणदीसु पडिदा किलेससुत्तेण बुढ्ढंति।1302।</span>=<span class="HindiText">कितनेक मुनि इन्द्रिय चोरों से पीड़ित होते हैं और कषाय रूप श्वापदों से ग्रहण किये जाते हैं, तब साधुमार्ग का त्याग कर उन्मार्ग में पलायन करते हैं।1301। साधुसार्थ से दूर पलायन जिन्होंने किया है ऐसे वे मुनि कुशील प्रतिसेवना-कुशील नामक भ्रष्टमुनि के सदोष आचरणरूप वन में उन्मार्ग से भागते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की वांछा रूपी नदी में पड़कर दुःखरूप प्रवाह में डूबते हैं।1302।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/46/460/8 <span class="SanskritText">कुशीला द्विविधा-प्रतिसेवनाकुशीला: कषाय-कुशीला इति। अविविक्तपरिग्रहा: परिपूर्णोभया: कथंचिदुत्तरगुणविराधिन: प्रतिसेवनाकुशीला:। वशीकृतान्यकषायोदया: संज्वलनमात्रतन्त्रा: कषायकुशीला:।<br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/47/461/14 प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते। कषायकुशीलप्रतिसेवना नास्ति</span>।= | ||
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<li><span class="HindiText"> कुशील दो प्रकार के होते हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। जो परिग्रह से घिरे रहते हैं, जो मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं, लेकिन कभी-कभी उत्तर गुणों की विराधना करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं। | <li><span class="HindiText"> कुशील दो प्रकार के होते हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। जो परिग्रह से घिरे रहते हैं, जो मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं, लेकिन कभी-कभी उत्तर गुणों की विराधना करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं। जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को जीत लिया है और जो केवल संज्वलन कषाय के आधीन हैं वे कषायकुशील कहलाते हैं (रा.वा./9/46/3/636/24); (चा.सा./101/4)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText">प्रतिसेवना कुशील मूलगुणों की विराधना न करता हुआ उत्तरगुणों की विराधना की प्रतिसेवना करने वाला होता है। कषाय कुशील...के प्रतिसेवना नहीं होती।</span><br /> | <li><span class="HindiText">प्रतिसेवना कुशील मूलगुणों की विराधना न करता हुआ उत्तरगुणों की विराधना की प्रतिसेवना करने वाला होता है। कषाय कुशील...के प्रतिसेवना नहीं होती।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/46/3/636/26<span class="SanskritText"> ग्रीष्मे जङ्घाप्रक्षालनादिसेवनाद्वशीकृतान्यकषायोदया: संज्वलनमात्रतन्त्रत्वात् कषायकुशीला:।</span><span class="HindiText">=ग्रीष्म काल में जंघाप्रक्षालन आदि का सेवन करने की इच्छा होने से जिनके संज्वलन कषाय जगती है और अन्य कषायें वश में हो चुकी हैं वे कषाय कुशील हैं।</span><br /> | ||
<br>भा.पा./टी./ | <br>भा.पा./टी./14/137/19<span class="SanskritText"> क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलै: परिहीन: संघस्याविनयकारी, कुशील उच्यते।</span><span class="HindiText">=क्रोधादि कषायों से कलुषित आत्मावाले, तथा व्रत, गुण और शीलों से जो रहित हैं, और संघ का अविनय करने वाले हैं वे कषाय कुशील कहलाते हैं।<br /> | ||
रा.वा./हिं/ | रा.वा./हिं/9/46/764 ‘‘यहाँ परिग्रह शब्द का अर्थ गृहस्थवत् नहीं लेना। मुनिनि के कमण्डल पीछी पुस्तक का आलम्बन है, गुरु शिष्यानि का सम्बन्ध है, सो ही परिग्रह जानना।’’ </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> कुशील साधु | <li><span class="HindiText"><strong> कुशील साधु सम्बन्धी विषय—</strong>देखें [[ साधु#5 | साधु - 5]]।</span></li> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
- कुशील साधु का लक्षण
भ.आ./मू./1301−1302 इंदियचोरपरद्धा कसायसावदभएण वा केई। उम्मग्गेण पलायंति साधुसत्थस्स दूरेण।1301। तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता। सण्णाणदीसु पडिदा किलेससुत्तेण बुढ्ढंति।1302।=कितनेक मुनि इन्द्रिय चोरों से पीड़ित होते हैं और कषाय रूप श्वापदों से ग्रहण किये जाते हैं, तब साधुमार्ग का त्याग कर उन्मार्ग में पलायन करते हैं।1301। साधुसार्थ से दूर पलायन जिन्होंने किया है ऐसे वे मुनि कुशील प्रतिसेवना-कुशील नामक भ्रष्टमुनि के सदोष आचरणरूप वन में उन्मार्ग से भागते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की वांछा रूपी नदी में पड़कर दुःखरूप प्रवाह में डूबते हैं।1302।
स.सि./9/46/460/8 कुशीला द्विविधा-प्रतिसेवनाकुशीला: कषाय-कुशीला इति। अविविक्तपरिग्रहा: परिपूर्णोभया: कथंचिदुत्तरगुणविराधिन: प्रतिसेवनाकुशीला:। वशीकृतान्यकषायोदया: संज्वलनमात्रतन्त्रा: कषायकुशीला:।
स.सि./9/47/461/14 प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते। कषायकुशीलप्रतिसेवना नास्ति।=- कुशील दो प्रकार के होते हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। जो परिग्रह से घिरे रहते हैं, जो मूल और उत्तर गुणों में परिपूर्ण हैं, लेकिन कभी-कभी उत्तर गुणों की विराधना करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं। जिन्होंने अन्य कषायों के उदय को जीत लिया है और जो केवल संज्वलन कषाय के आधीन हैं वे कषायकुशील कहलाते हैं (रा.वा./9/46/3/636/24); (चा.सा./101/4)
- प्रतिसेवना कुशील मूलगुणों की विराधना न करता हुआ उत्तरगुणों की विराधना की प्रतिसेवना करने वाला होता है। कषाय कुशील...के प्रतिसेवना नहीं होती।
रा.वा./9/46/3/636/26 ग्रीष्मे जङ्घाप्रक्षालनादिसेवनाद्वशीकृतान्यकषायोदया: संज्वलनमात्रतन्त्रत्वात् कषायकुशीला:।=ग्रीष्म काल में जंघाप्रक्षालन आदि का सेवन करने की इच्छा होने से जिनके संज्वलन कषाय जगती है और अन्य कषायें वश में हो चुकी हैं वे कषाय कुशील हैं।
भा.पा./टी./14/137/19 क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलै: परिहीन: संघस्याविनयकारी, कुशील उच्यते।=क्रोधादि कषायों से कलुषित आत्मावाले, तथा व्रत, गुण और शीलों से जो रहित हैं, और संघ का अविनय करने वाले हैं वे कषाय कुशील कहलाते हैं।
रा.वा./हिं/9/46/764 ‘‘यहाँ परिग्रह शब्द का अर्थ गृहस्थवत् नहीं लेना। मुनिनि के कमण्डल पीछी पुस्तक का आलम्बन है, गुरु शिष्यानि का सम्बन्ध है, सो ही परिग्रह जानना।’’
- कुशील साधु सम्बन्धी विषय—देखें साधु - 5।