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<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">वस्तु में दो प्रकार के धर्म हैं क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती। आगे-पीछे होने के कारण पर्याय क्रमवर्ती धर्म है और युगपत् पाये जाने के कारण गुण अक्रमवर्ती या सहवर्ती धर्म है। क्रमवर्ती को ऊर्ध्व प्रचय और अक्रमवर्ती को तिर्यक् प्रचय भी कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> क्रम का | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> क्रम का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/13/1/523/26<span class="SanskritText"> कालभेदेन वृत्ति: क्रम:।</span>=<span class="HindiText">काल भेद से वृत्ति होना क्रम कहलाता है।</span><br /> | ||
स्या.म./5/33/19 <span class="SanskritText">क्रमो हि पौर्वापर्यम् ।</span>=<span class="HindiText">पूर्वक्रम और अपरक्रम...।</span><br /> | |||
स.भ.त./ | स.भ.त./33/1 <span class="SanskritText">यदा तावदस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदास्त्यादिरूपैकशब्दस्य नास्तित्वाद्यनेकधर्मबोधने शक्त्यभावात्क्रम:।</span>=<span class="HindiText">जब अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्मों की देश काल आदि के भेद से कथन की इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्द की नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मों के बोधन करने में शक्ति न होने से नित्य पूर्वापर भाव या अनुक्रम से जो निरूपण है, उसको क्रम कहते हैं।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./167<span class="SanskritText"> अस्त्यत्र य: प्रसिद्ध: क्रम इति धातुश्च पाद-विक्षेपे। क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेष:।</span>=<span class="HindiText">यहाँ पर पैरों से गमन करने रूप अर्थ में प्रसिद्ध जो क्रम यह एक धातु है उस धातु का ही पादविक्षेप रूप अपने अर्थ को उल्लंघन करने से ‘‘जो क्रमण करे सो क्रम’’ यह रूप सिद्ध होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्रम के भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्रम के भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | ||
स.म./ | स.म./5/33/20 <span class="SanskritText">देशक्रम: कालक्रमश्चाभिधीयते न चैकान्तविनाशिनि सास्ति।</span>=<span class="HindiText">सर्वथा अनित्य पदार्थ में देशक्रम और कालक्रम नहीं हो सकता।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./174 <span class="SanskritText">विष्कम्भ क्रम इति वा क्रम: प्रवाहस्य कारणं तस्य।</span>=<span class="HindiText">प्रतिसमय होने वाले द्रव्य के उत्पाद व्ययरूप प्रवाहक्रम में जो कारण स्वकालरूप अंशकल्पना है अथवा जो विष्कम्भरूप क्रम है।...।174।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> पर्याय व गुण के अर्थ में क्रम अक्रम | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> पर्याय व गुण के अर्थ में क्रम अक्रम शब्द का प्रयोग</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./2 <span class="SanskritText">क्रमरक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याया:।</span>=<span class="HindiText">वह क्रमरूप (पर्याय) अक्रमरूप (गुण) प्रवर्तमान अनेकों भाव जिसका स्वभाव होने से जिसने गुण और पर्यायों को अंगीकार किया हो -ऐसा है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> क्रमवर्त्तित्व का लक्षण</strong></span><strong><BR></strong>पं.ध./पू./169,175 <span class="SanskritText">अयमर्थ: प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते चैक:। अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथादेशम् ।169। क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च। स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति।175।</span>=<span class="HindiText">क्रमशब्द के निरूक्त्यंशका सारांश यह है कि द्रव्यत्व को नहीं छोड़ करके पहले होने वाली एक पर्याय को नाश करके और एक अर्थात् दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, तथा उसके नाश होने पर और अन्य पर्याय उत्पन्न होती है। इस क्रम में कभी भी अन्तर नहीं पड़ता है, इस अपेक्षा पर्यायों को क्रमवर्ती कहते हैं।169। यह वह है किन्तु वह नहीं है अथवा यह वैसा है किन्तु वैसा नहीं है इस प्रकार के क्रम में व्यतिरेक पुरस्सर विशिष्ट ही क्रमवर्तित्व है।175। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> देश व कालक्रम के लक्षण</strong></span><BR> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> देश व कालक्रम के लक्षण</strong></span><BR> | ||
स्या.म./5/33/20 <span class="SanskritText">नानादेशकालव्याप्तिदेशक्रम: कालक्रमश्च।</span>=<span class="HindiText">अनेक देशों में रहने वाला देशक्रम और अनेक कालों में रहने वाला कालक्रम। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> ऊर्ध्व व तिर्यंग् प्रचय का लक्षण</strong></span><strong><BR></strong> | ||
यु.अ./<span class="SanskritText"> | यु.अ./<span class="SanskritText">माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई पृ090 तत्र ऊर्ध्वतासामान्यं क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्यं द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्यं नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्यं सदृशपरिणामरूपम् ।</span>=<span class="HindiText">क्रमभावी पर्यायों में एकत्वरूप अन्वय के प्रत्यय (ज्ञान) द्वारा ग्राह्य जो द्रव्य सामान्य है वही ऊर्ध्वता सामान्य है। और अनेक द्रव्यों में अथवा अनेक पर्यायों में जो सादृश्यता का बोध कराने वाला सदृश परिणाम होता है वह तिर्यक् सामान्य है।</span><BR> प्र.सा./त.प्र./141 <span class="SanskritText">प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचय: समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तूर्ध्वप्रचय:। तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात् पुद्गलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तैकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचय:। न पुन: कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन सांशत्वाद्द्रव्यवृत्ते: सर्वद्रव्याणामनिवारित एव। अयं तु विशेषसमयविशिष्टवृत्तिप्रचय: शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचय: समयप्रचय: एव कालस्योर्ध्वप्रचय:। शेषद्रव्याणां वृत्तेर्हि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समयविशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वत: समयभूतत्वात्तन्नास्ति।</span>=<span class="HindiText">प्रदेशों का समूह तिर्यक् प्रचय और समय विशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है। वहाँ आकाश अवस्थित (स्थिर) अनन्तप्रदेश वाला है। धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेश वाले हैं। जीव अनवस्थित असंख्य प्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यत: अनेक प्रदेशित्व की शक्ति से युक्त एक प्रदेशवाला है, तथा पर्यायत: दो अथवा बहुत प्रदेशवाला है, इसलिए उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु काल के (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति की अपेक्षा से एक प्रदेशवाला है। ऊर्ध्वप्रचय तो सब द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन कोटियों (भूत, वर्तमान, भविष्यत् ऐसे तीन कालों) को स्पर्श करती है, इसलिए अंशों से युक्त है। परन्तु इतना अन्तर है कि समय विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय है, और समयों का प्रचय काल द्रव्य का ऊर्ध्वप्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) है, इसलिए वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और काल की तो स्वत: समयभूत है, इसलिए वह समयविशिष्ट नहीं है। </span><BR> | ||
प.मु./ | प.मु./5/4-5 <span class="SanskritText">सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5।</span>=<span class="HindiText">समान परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे—गोत्व सामान्य क्योंकि खाडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्य समान रीति से रहता है। स.भ.त./77/10 में उद्धृत तथा पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं जैसे—मिट्टी। क्योंकि स्थास, कोश, कुसूल आदि जितनी पर्यायें हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।</span> प्र.सा./ता.वृ./93/120/13 <span class="HindiText">एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यग्सामान्यं भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा—नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकार: सिद्धजातिप्रत्यय:। नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोऽन्वय ऊर्ध्वतासामान्यं भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा—य एव केवलज्ञानोत्पत्तिलक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीति।</span> =<span class="HindiText">एक काल में नाना व्यक्तिगत अन्वय को तिर्यक् सामान्य कहते हैं जैसे—नाना सिद्ध जीवों में ‘यह भी सिद्ध हैं, यह भी सिद्ध हैं’ ऐसा अनुगताकार सिद्ध जाति सामान्य का ज्ञान। नाना कालों में एक व्यक्तिगत अन्वय को ऊर्ध्वसामान्य कहते हैं। जैसे—केवलज्ञान के उत्पत्तिक्षण में जो मुक्तात्मा हैं वही द्वितीयादि क्षणों में भी हैं ऐसी प्रतीति। </span><BR>प्र.सा./ता.वृ./131/200/9<span class="SanskritText"> तिर्यक्प्रचया: तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते।...ऊर्ध्वप्रचय इत्यूर्ध्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते।</span> =<span class="HindiText">तिर्यक् प्रचय को तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं।...ऊर्ध्वप्रचय को ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य वा क्रमानेकान्त भी कहते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ॰276 महेन्द्रकुमार काशी—प्रत्येकं परिसमाप्तया व्यक्तिषु वृत्ति अगोचरत्वाच्च अनेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक् सामान्यमुक्तम् ।=अनेक व्यक्तियों में, प्रत्येक में समाप्त होने वाली वृत्ति को देखने से जो सदृश परिणामात्मकपना प्राप्त होता है, वह तिर्यक्सामान्य है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती का | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती का समन्वय</strong> </span><BR>पं.ध./पू./417 <span class="SanskritText">न विरुद्धं क्रमवर्ति च सदिति तथानादितोऽपि परिणामि। अक्रमवर्ति सदित्यपि न विरुद्धं सदैकरूपत्वात् ।417।</span>=<span class="HindiText">सत् क्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह अनादिकाल से क्रम से परिणमनशील है और सत् अक्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि परिणमन करता हुआ भी सत् एकरूप है–सदृश है।</span></li> | ||
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<li class="HindiText"> सहभाव व अविनाभाव–देखें | <li class="HindiText"> सहभाव व अविनाभाव–देखें [[ अविनाभाव ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> उपक्रम, देयक्रम, अनुलोमक्रम, | <li class="HindiText"> उपक्रम, देयक्रम, अनुलोमक्रम, प्रतिलोमक्रम–देखें [[ वह वह नाम ]]। </li> | ||
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<li class="HindiText"> सत् वही जो माला के दानों वत् क्रमवर्ती परिणमन करता | <li class="HindiText"> सत् वही जो माला के दानों वत् क्रमवर्ती परिणमन करता रहे–देखें [[ परिणमन#1 | परिणमन - 1 ]]क।</li> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
वस्तु में दो प्रकार के धर्म हैं क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती। आगे-पीछे होने के कारण पर्याय क्रमवर्ती धर्म है और युगपत् पाये जाने के कारण गुण अक्रमवर्ती या सहवर्ती धर्म है। क्रमवर्ती को ऊर्ध्व प्रचय और अक्रमवर्ती को तिर्यक् प्रचय भी कहते हैं।
- क्रम का सामान्य लक्षण
रा.वा./6/13/1/523/26 कालभेदेन वृत्ति: क्रम:।=काल भेद से वृत्ति होना क्रम कहलाता है।
स्या.म./5/33/19 क्रमो हि पौर्वापर्यम् ।=पूर्वक्रम और अपरक्रम...।
स.भ.त./33/1 यदा तावदस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदास्त्यादिरूपैकशब्दस्य नास्तित्वाद्यनेकधर्मबोधने शक्त्यभावात्क्रम:।=जब अस्तित्व और नास्तित्व आदि धर्मों की देश काल आदि के भेद से कथन की इच्छा है तब अस्तित्व आदि रूप एक ही शब्द की नास्तित्व आदि रूप अनेक धर्मों के बोधन करने में शक्ति न होने से नित्य पूर्वापर भाव या अनुक्रम से जो निरूपण है, उसको क्रम कहते हैं।
पं.ध./पू./167 अस्त्यत्र य: प्रसिद्ध: क्रम इति धातुश्च पाद-विक्षेपे। क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेष:।=यहाँ पर पैरों से गमन करने रूप अर्थ में प्रसिद्ध जो क्रम यह एक धातु है उस धातु का ही पादविक्षेप रूप अपने अर्थ को उल्लंघन करने से ‘‘जो क्रमण करे सो क्रम’’ यह रूप सिद्ध होता है।
- क्रम के भेदों का निर्देश
स.म./5/33/20 देशक्रम: कालक्रमश्चाभिधीयते न चैकान्तविनाशिनि सास्ति।=सर्वथा अनित्य पदार्थ में देशक्रम और कालक्रम नहीं हो सकता।
पं.ध./पू./174 विष्कम्भ क्रम इति वा क्रम: प्रवाहस्य कारणं तस्य।=प्रतिसमय होने वाले द्रव्य के उत्पाद व्ययरूप प्रवाहक्रम में जो कारण स्वकालरूप अंशकल्पना है अथवा जो विष्कम्भरूप क्रम है।...।174।
- पर्याय व गुण के अर्थ में क्रम अक्रम शब्द का प्रयोग
स.सा./आ./2 क्रमरक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याया:।=वह क्रमरूप (पर्याय) अक्रमरूप (गुण) प्रवर्तमान अनेकों भाव जिसका स्वभाव होने से जिसने गुण और पर्यायों को अंगीकार किया हो -ऐसा है।
- क्रमवर्त्तित्व का लक्षण
पं.ध./पू./169,175 अयमर्थ: प्रागेकं जातं उच्छिद्य जायते चैक:। अथ नष्टे सति तस्मिन्नन्योऽप्युत्पद्यते यथादेशम् ।169। क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्टं च। स भवति भवति न सोऽयं भवति तथाथ च तथा न भवतीति।175।=क्रमशब्द के निरूक्त्यंशका सारांश यह है कि द्रव्यत्व को नहीं छोड़ करके पहले होने वाली एक पर्याय को नाश करके और एक अर्थात् दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, तथा उसके नाश होने पर और अन्य पर्याय उत्पन्न होती है। इस क्रम में कभी भी अन्तर नहीं पड़ता है, इस अपेक्षा पर्यायों को क्रमवर्ती कहते हैं।169। यह वह है किन्तु वह नहीं है अथवा यह वैसा है किन्तु वैसा नहीं है इस प्रकार के क्रम में व्यतिरेक पुरस्सर विशिष्ट ही क्रमवर्तित्व है।175। - देश व कालक्रम के लक्षण
स्या.म./5/33/20 नानादेशकालव्याप्तिदेशक्रम: कालक्रमश्च।=अनेक देशों में रहने वाला देशक्रम और अनेक कालों में रहने वाला कालक्रम। - ऊर्ध्व व तिर्यंग् प्रचय का लक्षण
यु.अ./माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई पृ090 तत्र ऊर्ध्वतासामान्यं क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्यं द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्यं नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्यं सदृशपरिणामरूपम् ।=क्रमभावी पर्यायों में एकत्वरूप अन्वय के प्रत्यय (ज्ञान) द्वारा ग्राह्य जो द्रव्य सामान्य है वही ऊर्ध्वता सामान्य है। और अनेक द्रव्यों में अथवा अनेक पर्यायों में जो सादृश्यता का बोध कराने वाला सदृश परिणाम होता है वह तिर्यक् सामान्य है।
प्र.सा./त.प्र./141 प्रदेशप्रचयो हि तिर्यक्प्रचय: समयविशिष्टवृत्तिप्रचयस्तूर्ध्वप्रचय:। तत्राकाशस्यावस्थितानन्तप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मयोरवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वाज्जीवस्यानवस्थितासंख्येयप्रदेशत्वात् पुद्गलस्य द्रव्येणानेकप्रदेशत्वशक्तियुक्तैकप्रदेशत्वात्पर्यायेण द्विबहुप्रदेशत्वाच्चास्ति तिर्यक्प्रचय:। न पुन: कालस्य शक्त्या व्यक्त्या चैकप्रदेशत्वात् । ऊर्ध्वप्रचयस्तु त्रिकोटिस्पर्शित्वेन सांशत्वाद्द्रव्यवृत्ते: सर्वद्रव्याणामनिवारित एव। अयं तु विशेषसमयविशिष्टवृत्तिप्रचय: शेषद्रव्याणामूर्ध्वप्रचय: समयप्रचय: एव कालस्योर्ध्वप्रचय:। शेषद्रव्याणां वृत्तेर्हि समयादर्थान्तरभूतत्वादस्ति समयविशिष्टत्वम् । कालवृत्तेस्तु स्वत: समयभूतत्वात्तन्नास्ति।=प्रदेशों का समूह तिर्यक् प्रचय और समय विशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है। वहाँ आकाश अवस्थित (स्थिर) अनन्तप्रदेश वाला है। धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेश वाले हैं। जीव अनवस्थित असंख्य प्रदेशी है और पुद्गल द्रव्यत: अनेक प्रदेशित्व की शक्ति से युक्त एक प्रदेशवाला है, तथा पर्यायत: दो अथवा बहुत प्रदेशवाला है, इसलिए उनके तिर्यक्प्रचय है; परन्तु काल के (तिर्यक्प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति की अपेक्षा से एक प्रदेशवाला है। ऊर्ध्वप्रचय तो सब द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन कोटियों (भूत, वर्तमान, भविष्यत् ऐसे तीन कालों) को स्पर्श करती है, इसलिए अंशों से युक्त है। परन्तु इतना अन्तर है कि समय विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्वप्रचय है, और समयों का प्रचय काल द्रव्य का ऊर्ध्वप्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) है, इसलिए वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और काल की तो स्वत: समयभूत है, इसलिए वह समयविशिष्ट नहीं है।
प.मु./5/4-5 सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविर्वतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5।=समान परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे—गोत्व सामान्य क्योंकि खाडी मुंडी आदि गौवों में गोत्व सामान्य समान रीति से रहता है। स.भ.त./77/10 में उद्धृत तथा पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं जैसे—मिट्टी। क्योंकि स्थास, कोश, कुसूल आदि जितनी पर्यायें हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूप से रहती है। प्र.सा./ता.वृ./93/120/13 एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यग्सामान्यं भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा—नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकार: सिद्धजातिप्रत्यय:। नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोऽन्वय ऊर्ध्वतासामान्यं भण्यते। तत्र दृष्टान्तो यथा—य एव केवलज्ञानोत्पत्तिलक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीति। =एक काल में नाना व्यक्तिगत अन्वय को तिर्यक् सामान्य कहते हैं जैसे—नाना सिद्ध जीवों में ‘यह भी सिद्ध हैं, यह भी सिद्ध हैं’ ऐसा अनुगताकार सिद्ध जाति सामान्य का ज्ञान। नाना कालों में एक व्यक्तिगत अन्वय को ऊर्ध्वसामान्य कहते हैं। जैसे—केवलज्ञान के उत्पत्तिक्षण में जो मुक्तात्मा हैं वही द्वितीयादि क्षणों में भी हैं ऐसी प्रतीति।
प्र.सा./ता.वृ./131/200/9 तिर्यक्प्रचया: तिर्यक्सामान्यमिति विस्तारसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते।...ऊर्ध्वप्रचय इत्यूर्ध्वसामान्यमित्यायतसामान्यमिति क्रमानेकान्त इति च भण्यते। =तिर्यक् प्रचय को तिर्यक्सामान्य, विस्तारसामान्य और अक्रमानेकान्त भी कहते हैं।...ऊर्ध्वप्रचय को ऊर्ध्वसामान्य, आयतसामान्य वा क्रमानेकान्त भी कहते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड/पृ॰276 महेन्द्रकुमार काशी—प्रत्येकं परिसमाप्तया व्यक्तिषु वृत्ति अगोचरत्वाच्च अनेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक् सामान्यमुक्तम् ।=अनेक व्यक्तियों में, प्रत्येक में समाप्त होने वाली वृत्ति को देखने से जो सदृश परिणामात्मकपना प्राप्त होता है, वह तिर्यक्सामान्य है। - क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती का समन्वय
पं.ध./पू./417 न विरुद्धं क्रमवर्ति च सदिति तथानादितोऽपि परिणामि। अक्रमवर्ति सदित्यपि न विरुद्धं सदैकरूपत्वात् ।417।=सत् क्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह अनादिकाल से क्रम से परिणमनशील है और सत् अक्रमवर्ती है यह भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि परिणमन करता हुआ भी सत् एकरूप है–सदृश है। - अन्य सम्बन्धित विषय
- सहभाव व अविनाभाव–देखें अविनाभाव ।
- उपक्रम, देयक्रम, अनुलोमक्रम, प्रतिलोमक्रम–देखें वह वह नाम ।
- वस्तु में दो प्रकार के धर्म होते हैं—सहभावी व क्रमभावी–देखें गुण - 3.2।
- पर्याय वस्तु के क्रमभावी धर्म हैं–देखें पर्याय - 2।
- गुण वस्तु के सहभावी या अक्रमभावी धर्म हैं–देखें गुण - 3।
- सत् वही जो माला के दानों वत् क्रमवर्ती परिणमन करता रहे–देखें परिणमन - 1 क।