क्षपकश्रेणी: Difference between revisions
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<p> मुक्ति सोपान । इस पर आरूढ़ वे जीव होते हैं जो उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होकर अप्रमत्त रहते हैं तथा कर्म प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न करके उन्हें योगबल से मूलोच्छिन्न कर देते हैं । ऐसा जीव अप्रवृत्तकरण (अध:प्रवृत्तकरण) को करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में पहुंचता है । फिर पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यानाग्नि से अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, इन आठ कषायों, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, छ: नौ कषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया को दग्ध कर और लोभ को सूक्ष्म कर सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । इसके पश्चात् संज्वलन लोभ का अन्त करके वह मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करता है । फिर वह बारहवें क्षणिकषाय नामक गुणस्थान को प्राप्त कर एकत्व वितर्क शुक्लध्यान से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का भी नाश कर देता हे । <span class="GRef"> महापुराण 20.241-242, 47. 246, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 56.88-98 </span></p> | |||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == देखें श्रेणी - 2।
पुराणकोष से
मुक्ति सोपान । इस पर आरूढ़ वे जीव होते हैं जो उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होकर अप्रमत्त रहते हैं तथा कर्म प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न करके उन्हें योगबल से मूलोच्छिन्न कर देते हैं । ऐसा जीव अप्रवृत्तकरण (अध:प्रवृत्तकरण) को करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में पहुंचता है । फिर पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यानाग्नि से अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, इन आठ कषायों, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, छ: नौ कषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया को दग्ध कर और लोभ को सूक्ष्म कर सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । इसके पश्चात् संज्वलन लोभ का अन्त करके वह मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करता है । फिर वह बारहवें क्षणिकषाय नामक गुणस्थान को प्राप्त कर एकत्व वितर्क शुक्लध्यान से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का भी नाश कर देता हे । महापुराण 20.241-242, 47. 246, हरिवंशपुराण 56.88-98