क्षपित कर्मांशिक: Difference between revisions
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<li name="1" id="1"><strong class="HindiText"> लक्षण</strong> <br>कर्मप्रकृति/ | <li name="1" id="1"><strong class="HindiText"> लक्षण</strong> <br>कर्मप्रकृति/94-100/पृ.94 <span class="PrakritText">पल्लासंखियभागेण कम्मट्ठिइमच्छिओ णिगोएसु। सुहमेस (सु.) भवियजोगं जहण्णयं कट्टु निग्गम्म।94। जोग्गेसु (सु.) संखवारे सम्मत्तं लभिय देसवीरियं च। अट्टुक्खुत्तो विरई संजोयणट्ठा य तइवारे।95। <br>पडसवसमित्तु मोहं लहुं खवेंतो भवे खवियकम्मो।96। हस्सगुणसंकमद्धाए पूरयित्वा समीससम्मत्तं। चिरसंमत्ता मिच्छत्तंग्गयस्सुव्वलणथोगो सिं।100।</span>=<span class="HindiText">जो जीव पल्य के असंख्यात वें भाग से हीन सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद पर्याय में रहा और भव्य जीव के योग्य जघन्य प्रदेश कर्मसंचयपूर्वक सूक्ष्म निगोद से निकलकर बादर पृथिवी हुआ और अन्तर्मुहूर्त काल में निकलकर तथा सात माह में ही गर्भ से उत्पन्न होकर पूर्वकोटि आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न और विरतियोग्य त्रसों में हुआ तथा आठ वर्ष में संयम को प्राप्त करके संयमसहित ही मनुष्यायु पूर्ण कर पुन: देव, बादर, पृथिवी कायिक व मनुष्यों में अनेक बार उत्पन्न होता हुआ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात बार सम्यक्त्व, उससे स्वल्पकालिक देशविरति, आठ बार विरति को प्राप्त कर व आठ ही बार अनन्तानुबंधी का विसंयोजन व चार बार मोहनीय का उपशम कर शीघ्र ही कर्मों का क्षय करता है, वह उत्कृष्ट क्षपित कर्मांशिक होता है। (ध.6/1,9-8/12/257 की टिप्पणी उद्धृत) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गुणित कर्मांशिक का लक्षण</strong></span><br>कर्मप्रकृति/गा. | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> गुणित कर्मांशिक का लक्षण</strong></span><br>कर्मप्रकृति/गा. 74-82/पृ. 187-189 <span class="PrakritText">जो बायरतसकालेणूण कम्मट्ठिइं तु पुढवीए। बायरा (रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेयरद्धासु।74। जोगकसाउक्कोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च। जोगजहण्णेणुवरिल्लठिइणिसेगं बहुं क्किच्चा।75। बायरतसेसु तक्कालमेव मंते य सत्तमरिवईए सव्वलहुं पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो।76। जोगजवमज्झुवरिं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तु कसायउक्कस्सं।77। जोगक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते।78। संछोभणाए दोण्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए।82।</span>=<span class="HindiText">जो जीव अनेक भवों में उत्तरोत्तर गुणितक्रम से कर्म प्रदेशों का बन्ध करता रहा है उसे गुणितकर्मांशिक कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवों से लेकर पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर त्रसकाय में परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवी में जाने योग्य होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवी में नारक पर्याय को धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदशों का संचय करता है और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु के शेष रहने पर त्रिचरम और द्विचरम समय में वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थान को तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थान को भी पूर्ण करता है, वह जीव उसी नारक पर्याय के अन्तिम समय में सम्पूर्ण गुणितकर्मांशिक होता है।</span> (ध.6/1,9,8,12/257 की टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत) गो.जी./मू./251 <span class="PrakritText">जीवासया हु भव अद्धाउस्सं जोगसं किलेसो य। ओकट्टुक्कट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे।251।</span>=<span class="HindiText">गुणित कर्मांशिक कहिए उत्कृष्ट (कर्म प्रदेश) संचय जाकै होइ ऐसा कोई जीव तीहिं विषै उत्कृष्ट संचय को कारण ये छह आवश्यक होइ। </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गुणित क्षपित घोलमान का लक्षण</strong> <br>ध. | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> गुणित क्षपित घोलमान का लक्षण</strong> <br>ध.6/1,9,8,12/258/11 विशेषार्थ—जो जीव उपर्युक्त प्रकार से न गुणित कर्मांशिक है और न क्षपित कर्मांशिक हैं, किन्तु अनवस्थितरूप से कर्मसंचय करता है वह गुणित क्षपित घोलमान है।</li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> क्षपित कर्मांशिक क्षायिक श्रेणी ही मांडता है</strong> </span><br>पं.सं./प्रा./ | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> क्षपित कर्मांशिक क्षायिक श्रेणी ही मांडता है</strong> </span><br>पं.सं./प्रा./5/488 टीका–<span class="SanskritText">क्षपित कर्मांशो जीव: उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति।</span>=<span class="HindiText">क्षपित कर्मांशिक जीव नियम से क्षपक श्रेणी ही मांडता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> गुणित कर्मांशिक के छह | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> गुणित कर्मांशिक के छह आवश्यक</strong> </span><br>गो.जी./मू./251 <span class="PrakritText">आवासया हु भवअद्धाउस्संजोगसंकिलेसो य। ओकट्टुक्कट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे।</span>=<span class="HindiText">गुणित कर्मांशिक कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होय ऐसा जो जीव तींहि विषै उत्कृष्ट संचय कौ कारण ये छह आवश्यक होइ, तातै उत्कृष्ट संचय करने वाले जीव के ये छह आवश्यक कहिये—भवाद्धा, आयुर्बल, योग, संक्लेश, अपकर्षण, उत्कर्षण।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> गुणित कर्मांशिक जीवों में | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> गुणित कर्मांशिक जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशघात एक समय प्रबद्ध ही होता है इससे कम नहीं</strong> </span><br>ध.12/4,2,13,222/446/14<span class="PrakritText"> गुणिदकम्मं सियम्मि उक्कस्सेण जदि खओ होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति गुरूवदेसादो।</span>=<span class="HindiText">गुणित कर्मांशिक जीव में उत्कृष्ट रूप से यदि क्षय होता है तो समय प्रबद्ध का ही क्षय होता है। ऐसा गुरु का उपदेश है।</span></li> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
- लक्षण
कर्मप्रकृति/94-100/पृ.94 पल्लासंखियभागेण कम्मट्ठिइमच्छिओ णिगोएसु। सुहमेस (सु.) भवियजोगं जहण्णयं कट्टु निग्गम्म।94। जोग्गेसु (सु.) संखवारे सम्मत्तं लभिय देसवीरियं च। अट्टुक्खुत्तो विरई संजोयणट्ठा य तइवारे।95।
पडसवसमित्तु मोहं लहुं खवेंतो भवे खवियकम्मो।96। हस्सगुणसंकमद्धाए पूरयित्वा समीससम्मत्तं। चिरसंमत्ता मिच्छत्तंग्गयस्सुव्वलणथोगो सिं।100।=जो जीव पल्य के असंख्यात वें भाग से हीन सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद पर्याय में रहा और भव्य जीव के योग्य जघन्य प्रदेश कर्मसंचयपूर्वक सूक्ष्म निगोद से निकलकर बादर पृथिवी हुआ और अन्तर्मुहूर्त काल में निकलकर तथा सात माह में ही गर्भ से उत्पन्न होकर पूर्वकोटि आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न और विरतियोग्य त्रसों में हुआ तथा आठ वर्ष में संयम को प्राप्त करके संयमसहित ही मनुष्यायु पूर्ण कर पुन: देव, बादर, पृथिवी कायिक व मनुष्यों में अनेक बार उत्पन्न होता हुआ पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात बार सम्यक्त्व, उससे स्वल्पकालिक देशविरति, आठ बार विरति को प्राप्त कर व आठ ही बार अनन्तानुबंधी का विसंयोजन व चार बार मोहनीय का उपशम कर शीघ्र ही कर्मों का क्षय करता है, वह उत्कृष्ट क्षपित कर्मांशिक होता है। (ध.6/1,9-8/12/257 की टिप्पणी उद्धृत) - गुणित कर्मांशिक का लक्षण
कर्मप्रकृति/गा. 74-82/पृ. 187-189 जो बायरतसकालेणूण कम्मट्ठिइं तु पुढवीए। बायरा (रि) पज्जत्तापज्जत्तगदीहेयरद्धासु।74। जोगकसाउक्कोसो बहुसो निच्चमवि आउबंधं च। जोगजहण्णेणुवरिल्लठिइणिसेगं बहुं क्किच्चा।75। बायरतसेसु तक्कालमेव मंते य सत्तमरिवईए सव्वलहुं पज्जत्तो जोगकसायाहिओ बहुसो।76। जोगजवमज्झुवरिं मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए पुरित्तु कसायउक्कस्सं।77। जोगक्कोसं चरिम-दुचरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो पगयं तेणेह सामित्ते।78। संछोभणाए दोण्हं मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं मिच्छत्तगए तमतमाए।82।=जो जीव अनेक भवों में उत्तरोत्तर गुणितक्रम से कर्म प्रदेशों का बन्ध करता रहा है उसे गुणितकर्मांशिक कहते हैं। जो जीव उत्कृष्ट योगों सहित बादर पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त भवों से लेकर पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण बादर त्रसकाय में परिभ्रमण करके जितने बार सातवीं पृथिवी में जाने योग्य होता है उतनी बार जाकर पश्चात् सप्तम पृथिवी में नारक पर्याय को धारण कर शीघ्रातिशीघ्र पर्याप्त होकर उत्कृष्ट योगस्थानों व उत्कृष्ट कषायों सहित होता हुआ उत्कृष्ट कर्मप्रदशों का संचय करता है और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु के शेष रहने पर त्रिचरम और द्विचरम समय में वर्तमान रहकर उत्कृष्ट संक्लेशस्थान को तथा चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगस्थान को भी पूर्ण करता है, वह जीव उसी नारक पर्याय के अन्तिम समय में सम्पूर्ण गुणितकर्मांशिक होता है। (ध.6/1,9,8,12/257 की टिप्पणी व विशेषार्थ से उद्धृत) गो.जी./मू./251 जीवासया हु भव अद्धाउस्सं जोगसं किलेसो य। ओकट्टुक्कट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे।251।=गुणित कर्मांशिक कहिए उत्कृष्ट (कर्म प्रदेश) संचय जाकै होइ ऐसा कोई जीव तीहिं विषै उत्कृष्ट संचय को कारण ये छह आवश्यक होइ। - गुणित क्षपित घोलमान का लक्षण
ध.6/1,9,8,12/258/11 विशेषार्थ—जो जीव उपर्युक्त प्रकार से न गुणित कर्मांशिक है और न क्षपित कर्मांशिक हैं, किन्तु अनवस्थितरूप से कर्मसंचय करता है वह गुणित क्षपित घोलमान है। - क्षपित कर्मांशिक क्षायिक श्रेणी ही मांडता है
पं.सं./प्रा./5/488 टीका–क्षपित कर्मांशो जीव: उपरि नियमेन क्षपकश्रेणिमेवारोहति।=क्षपित कर्मांशिक जीव नियम से क्षपक श्रेणी ही मांडता है। - गुणित कर्मांशिक के छह आवश्यक
गो.जी./मू./251 आवासया हु भवअद्धाउस्संजोगसंकिलेसो य। ओकट्टुक्कट्टणया छच्चेदे गुणिदकम्मंसे।=गुणित कर्मांशिक कहिए उत्कृष्ट संचय जाकै होय ऐसा जो जीव तींहि विषै उत्कृष्ट संचय कौ कारण ये छह आवश्यक होइ, तातै उत्कृष्ट संचय करने वाले जीव के ये छह आवश्यक कहिये—भवाद्धा, आयुर्बल, योग, संक्लेश, अपकर्षण, उत्कर्षण। - गुणित कर्मांशिक जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशघात एक समय प्रबद्ध ही होता है इससे कम नहीं
ध.12/4,2,13,222/446/14 गुणिदकम्मं सियम्मि उक्कस्सेण जदि खओ होदि तो एगसमयपबद्धो चेव झिज्जदि त्ति गुरूवदेसादो।=गुणित कर्मांशिक जीव में उत्कृष्ट रूप से यदि क्षय होता है तो समय प्रबद्ध का ही क्षय होता है। ऐसा गुरु का उपदेश है।