गणित I.1.6: Difference between revisions
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<li><strong name="I.1.6" id="I.1.6"><span class="HindiText"> उपमा प्रमाण की प्रयोग विधि</span></strong> <br>ति.प./ | <li><strong name="I.1.6" id="I.1.6"><span class="HindiText"> उपमा प्रमाण की प्रयोग विधि</span></strong> <br>ति.प./1/110‐113 <span class="PrakritGatha">उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाणं च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणिं।110। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं। वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव।111। भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं। हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्खाणं।112। चामरदुंदुहिपोढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं। उज्जाणपहुदियाणं संखा आदंगुलं णेया।113।</span>=<span class="HindiText">उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादिक का प्रमाण जाना जाता है।110। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।111। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी या रथ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभी, पीठ, छत्र (अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषों की सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिए।111‐113। (रा.वा./3/38/6/207/33) </span><br> | ||
ति.प./ | ति.प./1/94 <span class="PrakritGatha">ववहारुद्धारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।94।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पल्य के तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पल्य से संख्या (द्रव्य प्रमाण); द्वितीय से द्वीप समुद्रादि (की संख्या) और तृतीय से कर्मों का (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है।</span> (ज.प./13/36); (त्रि.सा./93) स.सि./3/38/233/5<span class="SanskritText"> तत्र पल्यं त्रिविधम्‐व्यवहारपल्यमुद्धारपल्यमद्धापल्यमिति। अन्वर्थसंज्ञा एता: आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपल्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लौमकच्छेदैर्द्वीपसमुद्रा: संख्यायन्त इति। तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थ:। ...अर्धतृतीयोद्धारसागारोपमानां यावन्तो रोमच्छेदास्तावन्तो द्वीपसमुद्रा। ...अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्मस्थितिर्भवस्थितिरायु:स्थिति: कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या।</span>=<span class="HindiText">पल्य तीन प्रकार का है—व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य। ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदि के पल्य को व्यवहारपल्य कहते हैं; क्योंकि यह आगे के दो पल्यों का मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तु का प्रमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है। उद्धारपल्य में से निकाले गये रोम के छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्धापल्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागर के जितने रोम खण्ड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।...अद्धापल्य के द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए। (रा.वा./3/38/7/208/7,22); (ह.पु./7/51‐52); (ज.प./13/28‐31) </span><br>रा.वा./3/38/5/पृष्ठ/पंक्ति<span class="SanskritText"> यत्र संख्येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।206/29। यत्रावलिकाया कार्यं तत्र जघन्ययुक्तासंख्येयग्राह्यम् ।207/3। यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।207/13। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघन्ययुक्तानन्तं ग्राह्यम् ।207/16। यत्राऽनन्तानन्तमार्गणा तत्राजघन्योत्कृष्टाऽनन्ताऽनन्तं ग्राह्यम् ।507/23।</span> =<span class="HindiText">जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है। जहाँ आवली से प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येय के स्थानों में अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशि के प्रमाण में जघन्य युक्तानन्त लिया जाता है। जहाँ अनन्तानन्त का प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त लेना चाहिए। </span>ह.पु./7/22 <span class="SanskritText">सोध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोका: प्रमीयन्ते बुधैस्तथा।52।</span>=<span class="HindiText">द्वीपसागरों के एक दिशा के विस्तार को दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलय के अन्त भाग को स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकों का प्रमाण निकालते हैं। </span></li> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
- उपमा प्रमाण की प्रयोग विधि
ति.प./1/110‐113 उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाणं च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणिं।110। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं। वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव।111। भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं। हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्खाणं।112। चामरदुंदुहिपोढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं। उज्जाणपहुदियाणं संखा आदंगुलं णेया।113।=उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादिक का प्रमाण जाना जाता है।110। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।111। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी या रथ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभी, पीठ, छत्र (अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषों की सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिए।111‐113। (रा.वा./3/38/6/207/33)
ति.प./1/94 ववहारुद्धारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।94।=व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पल्य के तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पल्य से संख्या (द्रव्य प्रमाण); द्वितीय से द्वीप समुद्रादि (की संख्या) और तृतीय से कर्मों का (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है। (ज.प./13/36); (त्रि.सा./93) स.सि./3/38/233/5 तत्र पल्यं त्रिविधम्‐व्यवहारपल्यमुद्धारपल्यमद्धापल्यमिति। अन्वर्थसंज्ञा एता: आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपल्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लौमकच्छेदैर्द्वीपसमुद्रा: संख्यायन्त इति। तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थ:। ...अर्धतृतीयोद्धारसागारोपमानां यावन्तो रोमच्छेदास्तावन्तो द्वीपसमुद्रा। ...अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्मस्थितिर्भवस्थितिरायु:स्थिति: कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या।=पल्य तीन प्रकार का है—व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य। ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदि के पल्य को व्यवहारपल्य कहते हैं; क्योंकि यह आगे के दो पल्यों का मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तु का प्रमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है। उद्धारपल्य में से निकाले गये रोम के छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्धापल्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागर के जितने रोम खण्ड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।...अद्धापल्य के द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए। (रा.वा./3/38/7/208/7,22); (ह.पु./7/51‐52); (ज.प./13/28‐31)
रा.वा./3/38/5/पृष्ठ/पंक्ति यत्र संख्येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।206/29। यत्रावलिकाया कार्यं तत्र जघन्ययुक्तासंख्येयग्राह्यम् ।207/3। यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।207/13। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघन्ययुक्तानन्तं ग्राह्यम् ।207/16। यत्राऽनन्तानन्तमार्गणा तत्राजघन्योत्कृष्टाऽनन्ताऽनन्तं ग्राह्यम् ।507/23। =जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है। जहाँ आवली से प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येय के स्थानों में अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशि के प्रमाण में जघन्य युक्तानन्त लिया जाता है। जहाँ अनन्तानन्त का प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त लेना चाहिए। ह.पु./7/22 सोध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोका: प्रमीयन्ते बुधैस्तथा।52।=द्वीपसागरों के एक दिशा के विस्तार को दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलय के अन्त भाग को स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकों का प्रमाण निकालते हैं।