सत्य: Difference between revisions
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<p class="HindiText"><b>1. सत्य निर्देश</b></p> | <p class="HindiText"><b>1. सत्य निर्देश</b></p> | ||
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<li class="HindiText">सत्य धर्म का लक्षण</li> | <li class="HindiText">[[ #1 | सत्य धर्म का लक्षण ]]</li> | ||
<li class="HindiText">सत्य महाव्रत का लक्षण</li> | <li class="HindiText">[[ #2 | सत्य महाव्रत का लक्षण ]]</li> | ||
<li class="HindiText">सत्य अणुव्रत का लक्षण</li> | <li class="HindiText">[[ #3 | सत्य अणुव्रत का लक्षण ]]</li> | ||
<li class="HindiText">सत्य के भेद</li> | <li class="HindiText">[[ #4 |सत्य के भेद ]]</li> | ||
<li class="HindiText">जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश</li> | <li class="HindiText">[[ #5 |जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश ]]</li> | ||
<li class="HindiText">जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण</li> | <li class="HindiText">[[ #6 |जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण]]</li> | ||
<li class="HindiText">सत्य की भावनाएँ</li> | <li class="HindiText">[[ #7 |सत्य की भावनाएँ]]</li> | ||
<li class="HindiText">सत्याणुव्रत के अतिचार</li> | <li class="HindiText">[[ #1.8 |सत्याणुव्रत के अतिचार]]</li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #8.1 | अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असत्य भी सत्य है]]</li> | <li class="HindiText">[[ #8.1 | अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असत्य भी सत्य है]]</li> | ||
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<li class="HindiText">[[ #8.8 | सत्यधर्म व भाषा समिति में अंतर]]</li> | <li class="HindiText">[[ #8.8 | सत्यधर्म व भाषा समिति में अंतर]]</li> | ||
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<p class="HindiText"><b>1. सत्य धर्म का लक्षण</b></p> | <p class="HindiText" id = "1"><b>1. सत्य धर्म का लक्षण</b></p> | ||
<span class="GRef">बारसअणुवेक्खा//74</span><p class=" PrakritText "> परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74। </p> <p class="HindiText">जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।</p> | <span class="GRef">बारसअणुवेक्खा//74</span><p class=" PrakritText "> परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74। </p> <p class="HindiText">जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।</p> | ||
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<span class="GRef">कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398</span> <p class=" PrakritText "> जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।</p> <p class="HindiText">जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।</p> | <span class="GRef">कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398</span> <p class=" PrakritText "> जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।</p> <p class="HindiText">जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।</p> | ||
<p class="HindiText"><b>2. सत्य महाव्रत का लक्षण</b></p> | <p class="HindiText" id ="2"><b>2. सत्य महाव्रत का लक्षण</b></p> | ||
<span class="GRef">नियमसार/57</span><p class=" PrakritText "> रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57। </p> <p class="HindiText">राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।</p> | <span class="GRef">नियमसार/57</span><p class=" PrakritText "> रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57। </p> <p class="HindiText">राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।</p> | ||
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<span class="GRef">मूलाचार/6, 290</span> <p class="SanskritText"> रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290। </p> <p class="HindiText">राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा-रहित वचन को छोड़ना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वासघातक दूसरे को पीड़ाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।</p> | <span class="GRef">मूलाचार/6, 290</span> <p class="SanskritText"> रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290। </p> <p class="HindiText">राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा-रहित वचन को छोड़ना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वासघातक दूसरे को पीड़ाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।</p> | ||
<p class="HindiText"><b>3. सत्य अणुव्रत का लक्षण</b></p> | <p class="HindiText" id ="3"><b>3. सत्य अणुव्रत का लक्षण</b></p> | ||
<span class="GRef">रत्नकरण्डश्रावकाचार/55</span> <p class="SanskritText"> स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।</p> <p class="HindiText"> स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।</p> | <span class="GRef">रत्नकरण्डश्रावकाचार/55</span> <p class="SanskritText"> स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।</p> <p class="HindiText"> स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।</p> | ||
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<p><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/210 </span><span class="PrakritText">अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सच्चवयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं।210।</span> =<span class="HindiText">राग से अथवा द्वेष से झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए।</span></p> | <p><span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/210 </span><span class="PrakritText">अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सच्चवयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं।210।</span> =<span class="HindiText">राग से अथवा द्वेष से झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/333-334 </span><span class="PrakritText">हिंसा वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिट्ठुरं वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि।333। हिद-मिद वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं। धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो विदियो।334।</span> <span class="HindiText">=जो हिंसा का वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को संतोषकारक वचन बोलता है, और धर्म का प्रकाशन करने वाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।333-334।</span></p> | <p><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/333-334 </span><span class="PrakritText">हिंसा वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिट्ठुरं वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि।333। हिद-मिद वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं। धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो विदियो।334।</span> <span class="HindiText">=जो हिंसा का वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को संतोषकारक वचन बोलता है, और धर्म का प्रकाशन करने वाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।333-334।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>4. सत्य के भेद</strong></p> | <p class="HindiText" id ="4"><strong>4. सत्य के भेद</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> भगवती आराधना/1193/1189 </span><span class="PrakritText">जणवदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चववहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण।1193।</span> | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना/1193/1189 </span><span class="PrakritText">जणवदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चववहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण।1193।</span> | ||
<span class="HindiText">जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, संभावना, व्यवहार, भाव और उपमासत्य ऐसे सत्य के 10 भेद हैं। (मू.आ./308); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/222 </span>)।</span></p> | <span class="HindiText">जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, संभावना, व्यवहार, भाव और उपमासत्य ऐसे सत्य के 10 भेद हैं। (मू.आ./308); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/222 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/75/20 </span><span class="SanskritText">दशविध: सत्यसद्भाव: नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन।</span> =<span class="HindiText">सत्य के दश भेद हैं - नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समयसत्य। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/117/6 </span>); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/218/1 </span>)।</span></p> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/75/20 </span><span class="SanskritText">दशविध: सत्यसद्भाव: नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन।</span> =<span class="HindiText">सत्य के दश भेद हैं - नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समयसत्य। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/117/6 </span>); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/218/1 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>5. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id ="5"><strong>5. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/41-43 </span><span class="SanskritText">यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि, सत्यासत्यं वचो वेदत् ।41। असत्यं वय वासोऽंधो, रंधयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् ।42। यत्स्वस्य नास्ति तत्कल्ये दास्यामीत्यादिसंविदा। व्यवहारं विरुंधानं, नासत्यासत्यमालपेत् ।43।</span> =<span class="HindiText">जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तु के विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करने वाले सत्यासत्य वचन को बोलना चाहिए।41। सत्याणुव्रत के पालक श्रावक के द्वारा वस्त्र को बुनो और भात को पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा काल की मर्यादा का उल्लंघन करके देने से असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं।42। सत्याणुव्रत को पालन करने वाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रात:काल दूँगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञा के द्वारा लोक व्यवहार को बाधा देने वाले असत्यासत्य वचन को नहीं बोले।43।</span></p> | <p><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/4/41-43 </span><span class="SanskritText">यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि, सत्यासत्यं वचो वेदत् ।41। असत्यं वय वासोऽंधो, रंधयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् ।42। यत्स्वस्य नास्ति तत्कल्ये दास्यामीत्यादिसंविदा। व्यवहारं विरुंधानं, नासत्यासत्यमालपेत् ।43।</span> =<span class="HindiText">जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तु के विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करने वाले सत्यासत्य वचन को बोलना चाहिए।41। सत्याणुव्रत के पालक श्रावक के द्वारा वस्त्र को बुनो और भात को पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा काल की मर्यादा का उल्लंघन करके देने से असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं।42। सत्याणुव्रत को पालन करने वाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रात:काल दूँगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञा के द्वारा लोक व्यवहार को बाधा देने वाले असत्यासत्य वचन को नहीं बोले।43।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>6. जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id ="6"><strong>6. जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> मूलाचार/309-313</span> <span class="PrakritText">जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सव्वभासाए। बहुजणसंमदमवि होदि जं तु लोए तहा देवी।309। ठवणा ठविदं जह देबदाणि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया।310। अण्णं अपेच्छसिद्धं पडुच्चसत्यं जहा हवदि दिग्घं। ववहारेण य सच्चं रज्झदि कूरो जहा लोए।311। संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति। जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लेत्थे।312। हिंसादिदोसविसुद्धं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया।313।</span> | <p><span class="GRef"> मूलाचार/309-313</span> <span class="PrakritText">जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सव्वभासाए। बहुजणसंमदमवि होदि जं तु लोए तहा देवी।309। ठवणा ठविदं जह देबदाणि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया।310। अण्णं अपेच्छसिद्धं पडुच्चसत्यं जहा हवदि दिग्घं। ववहारेण य सच्चं रज्झदि कूरो जहा लोए।311। संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति। जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लेत्थे।312। हिंसादिदोसविसुद्धं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया।313।</span> | ||
<span class="HindiText">जो सब भाषाओं से भात के नाम पृथक्-पृथक् बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनों के द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोक में राजा की स्त्री को देवी कहना।309। जो अर्हंत आदि की पाषाण आदि में स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूप के बहुतपने से कहना कि बगुलों की पंक्ति सफेद होती है वह रूपसत्य है।310। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे ‘यह दीर्घ है’ यहाँ ह्रस्व की अपेक्षा से है। जो लोक में ‘भात पकता’ है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहारसत्य है।311। जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह संभावना सत्य है। जैसे इंद्र इच्छा करे तो जंबूद्वीप को उलट सकता है।312। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसी ने पूछा कि, ‘चोर देखा, उसने कहा कि, ‘नहीं देखा है’। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि कहना। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/विजयोदया टीका/1193/1189/11</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/223-224/481/2 </span>)</span></p> | <span class="HindiText">जो सब भाषाओं से भात के नाम पृथक्-पृथक् बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनों के द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोक में राजा की स्त्री को देवी कहना।309। जो अर्हंत आदि की पाषाण आदि में स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूप के बहुतपने से कहना कि बगुलों की पंक्ति सफेद होती है वह रूपसत्य है।310। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे ‘यह दीर्घ है’ यहाँ ह्रस्व की अपेक्षा से है। जो लोक में ‘भात पकता’ है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहारसत्य है।311। जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह संभावना सत्य है। जैसे इंद्र इच्छा करे तो जंबूद्वीप को उलट सकता है।312। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसी ने पूछा कि, ‘चोर देखा, उसने कहा कि, ‘नहीं देखा है’। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि कहना। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/विजयोदया टीका/1193/1189/11</span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/223-224/481/2 </span>)</span></p> | ||
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</span>=<span class="HindiText">पदार्थों के न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को नामसत्य कहते हैं जैसे इंद्र इत्यादि। पदार्थ का सन्निधान न होने पर भी रूपमात्र की अपेक्षा जो कहा जाता है वह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी ‘पुरुष’ इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जो जूऐं के पाँसे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावों की अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढ़ि में सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणों के होने पर भी पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होने से ‘पंकज’ इत्यादि वचनप्रयोग। सुगंधित धूपचूर्ण के लेपन और घिसने में अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह (सैन्यरचना) आदि में भिन्न द्रव्यों की विभाग विधि के अनुसार की जाने वाली रचना को प्रगट करने वाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है। आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर राजा, गण, पाखंड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करने वाला है वह देशसत्य है। छद्मस्थ ज्ञानी के द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होने पर भी संयत अथवा संयतासंयत के अपने गुणों का पालन करने के लिए ‘यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है’ इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह भावसत्य है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छद द्रव्य व उनकी पर्यायों की यथार्थतो को प्रगट करने वाला है वह समयसत्य है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/117/8 </span>); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/218/2 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/62/2 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/47 </span>)।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">पदार्थों के न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को नामसत्य कहते हैं जैसे इंद्र इत्यादि। पदार्थ का सन्निधान न होने पर भी रूपमात्र की अपेक्षा जो कहा जाता है वह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी ‘पुरुष’ इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जो जूऐं के पाँसे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावों की अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढ़ि में सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणों के होने पर भी पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होने से ‘पंकज’ इत्यादि वचनप्रयोग। सुगंधित धूपचूर्ण के लेपन और घिसने में अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह (सैन्यरचना) आदि में भिन्न द्रव्यों की विभाग विधि के अनुसार की जाने वाली रचना को प्रगट करने वाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है। आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर राजा, गण, पाखंड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करने वाला है वह देशसत्य है। छद्मस्थ ज्ञानी के द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होने पर भी संयत अथवा संयतासंयत के अपने गुणों का पालन करने के लिए ‘यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है’ इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह भावसत्य है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छद द्रव्य व उनकी पर्यायों की यथार्थतो को प्रगट करने वाला है वह समयसत्य है। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,2/117/8 </span>); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/218/2 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/62/2 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/4/47 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText">आमंत्रणी आदि भाषाओं में कथंचित् सत्यासत्यपना। - देखें [[ भाषा ]]।</p> | <p class="HindiText">आमंत्रणी आदि भाषाओं में कथंचित् सत्यासत्यपना। - देखें [[ भाषा ]]।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>7. सत्य की भावनाएँ</strong></p> | <p class="HindiText" id ="7"><strong>7. सत्य की भावनाएँ</strong></p> | ||
<p class="HindiText">1. सत्यधर्म की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText">1. सत्यधर्म की अपेक्षा</p> | ||
<p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/27/599/18 </span><span class="SanskritText">सत्यवाचि प्रतिष्ठिता: सर्वा गुणसंपद:। अनृतभाषिणं बंधवोऽपि अवमन्यते(न्ते) मित्राणि च परित्यजंति, जिह्वाच्छेदनसर्वस्वहरणादिव्यसनभागपि भवति।</span> =<span class="HindiText">सभी गुण संपदाएँ सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बंधुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा छेदन, सर्व धन हरण आदि दंड उसे भुगतने पड़ते हैं। (<span class="GRef"> चारित्रसार/65/4 </span>)।</span></p> | <p><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/27/599/18 </span><span class="SanskritText">सत्यवाचि प्रतिष्ठिता: सर्वा गुणसंपद:। अनृतभाषिणं बंधवोऽपि अवमन्यते(न्ते) मित्राणि च परित्यजंति, जिह्वाच्छेदनसर्वस्वहरणादिव्यसनभागपि भवति।</span> =<span class="HindiText">सभी गुण संपदाएँ सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बंधुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा छेदन, सर्व धन हरण आदि दंड उसे भुगतने पड़ते हैं। (<span class="GRef"> चारित्रसार/65/4 </span>)।</span></p> | ||
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<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/5 </span>क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पंच।5।</p> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/5 </span>क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पंच।5।</p> | ||
<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/9/347/6 </span><span class="SanskritText">अनृतवादीऽश्रद्धेयोभवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदु:खितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति अनृतवचनादुपरम: श्रेयान् ।...एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम् ।</span>=<span class="HindiText">1. क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। 2. असत्यवादी का कोई श्रद्धान नहीं करता। वह इस लोक में जिह्वाछेद आदि दु:खों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दु:खी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है, उनसे बहुत प्रकार की आपत्तियों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचन का त्याग श्रेयस्कर है।...इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।</span></p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/9/347/6 </span><span class="SanskritText">अनृतवादीऽश्रद्धेयोभवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदु:खितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति अनृतवचनादुपरम: श्रेयान् ।...एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम् ।</span>=<span class="HindiText">1. क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। 2. असत्यवादी का कोई श्रद्धान नहीं करता। वह इस लोक में जिह्वाछेद आदि दु:खों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दु:खी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है, उनसे बहुत प्रकार की आपत्तियों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचन का त्याग श्रेयस्कर है।...इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>8. सत्याणुव्रत के अतिचार</strong></p> | <p class="HindiText" id ="8"><strong>8. सत्याणुव्रत के अतिचार</strong></p> | ||
<p><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/26 </span><span class="SanskritText">मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियांयासापहारसाकारमंत्रभेदा:।26।</span> =<span class="HindiText">मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।26। [<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार </span>में साकारमंत्र के स्थान पर पैशुन्य है।] (<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/56 </span>)।</span></p> | <p><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/7/26 </span><span class="SanskritText">मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियांयासापहारसाकारमंत्रभेदा:।26।</span> =<span class="HindiText">मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।26। [<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार </span>में साकारमंत्र के स्थान पर पैशुन्य है।] (<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/56 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/45 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादेशं रहोभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांश्शविस्मर्त्रनुज्ञां मंत्रभेदं च तद्व्रत:।45। | <p><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/45 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादेशं रहोभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांश्शविस्मर्त्रनुज्ञां मंत्रभेदं च तद्व्रत:।45। |
Revision as of 13:08, 15 March 2023
सिद्धांतकोष से
जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व व पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित व मित वचन को सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह असत्य भी क्यों न हो । सत्य वचन अनेक प्रकार के होते हैं।
1. सत्य निर्देश
- सत्य धर्म का लक्षण
- सत्य महाव्रत का लक्षण
- सत्य अणुव्रत का लक्षण
- सत्य के भेद
- जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश
- जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण
- सत्य की भावनाएँ
- सत्याणुव्रत के अतिचार
1. सत्य धर्म का लक्षण
बारसअणुवेक्खा//74
परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । 74।
जो मुनि दूसरे को क्लेश पहुंचाने वाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरे के हित करने वाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्य धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि/ 9/6/412/7
सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते।
अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।
( राजवार्तिक/9/6/9/596/7) (चारित्रसार/63/3) (अनगार धर्मामृत/6/35)
भगवती आराधना/ विजयोदयी टीका/46/154/16
सतां साधूनां हितभाषणं सत्यम् ।
मुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महित कर भाषण बोलना, यह सत्य धर्म है।
तत्त्वार्थसार/6/17
ज्ञानचारित्रशिक्षादौ स धर्म: मुनि गद्यते । धर्मोपबृंहणार्थं यत् साधु सत्यं तदुच्यते । 17।
धर्म की वृद्धि के लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहलाता है। इस धर्म के व्यवहार की आवश्यकता ज्ञान चारित्र के सिखाने आदि में लगती है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका/1/91
स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च। वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम् ।91।
मुनियों को सदैव ही स्व-पर हितकारक, परिमित तथा अमृत के सदृश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए । यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए ।91।
कार्तिकेयअनुप्रेक्षा/मूल/398
जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो। 398।
जो जिन आचारों को पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचन का कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है । 398।
2. सत्य महाव्रत का लक्षण
नियमसार/57
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव।57।
राग से, द्वेष से अथवा मोह से होने वाले, मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत है। 57।
मूलाचार/6, 290
रागादीहिं असच्चं चत्ता परतावसच्चवयणोत्तिं । सुत्तत्थाणंवि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं ।6। हस्सभयकोहलोहामणिवचिकायेण सव्वकालम्मि । मोसं ण य भासिज्जो पच्चयघादी हवदि एसो ।290।
राग, द्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोडना और द्वादशांग के अर्थ कहने में अपेक्षा-रहित वचन को छोड़ना सत्य महाव्रत है ।6। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभ से मन-वचन-काय कर किसी समय में भी विश्वासघातक दूसरे को पीड़ाकारक वचन न बोलों। यह सत्य व्रत है। 290।
3. सत्य अणुव्रत का लक्षण
रत्नकरण्डश्रावकाचार/55
स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त: स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55।।
स्थूल झूठ तो न आप बोले, न दूसरों से बुलवाये, तथा जिस वचन से विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप बोलें और न दूसरों से बुलवायें, ऐसे उसको सत्पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि/7/20/358/8
स्नेहमोहादिवशाद् गृहविनाशे ग्रामविनाशे वा कारणमित्यभिमतादसत्यवचनान्निवृत्तो गृहीरि द्वितीयमणुव्रतम् ।।
गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृह-विनाश और ग्राम-विनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा अणुव्रत है। ( राजवार्तिक/7/20/2/547/8 )।
वसुनंदी श्रावकाचार/210 अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सच्चवयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं।210। =राग से अथवा द्वेष से झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/333-334 हिंसा वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिट्ठुरं वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि।333। हिद-मिद वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं। धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो विदियो।334। =जो हिंसा का वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को संतोषकारक वचन बोलता है, और धर्म का प्रकाशन करने वाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।333-334।
4. सत्य के भेद
भगवती आराधना/1193/1189 जणवदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चववहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण।1193। जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, संभावना, व्यवहार, भाव और उपमासत्य ऐसे सत्य के 10 भेद हैं। (मू.आ./308); ( गोम्मटसार जीवकांड/222 )।
राजवार्तिक/1/20/12/75/20 दशविध: सत्यसद्भाव: नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन। =सत्य के दश भेद हैं - नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समयसत्य। ( धवला 1/1,1,2/117/6 ); ( धवला 9/4,1,45/218/1 )।
5. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश
सागार धर्मामृत/4/41-43 यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि, सत्यासत्यं वचो वेदत् ।41। असत्यं वय वासोऽंधो, रंधयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् ।42। यत्स्वस्य नास्ति तत्कल्ये दास्यामीत्यादिसंविदा। व्यवहारं विरुंधानं, नासत्यासत्यमालपेत् ।43। =जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तु के विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करने वाले सत्यासत्य वचन को बोलना चाहिए।41। सत्याणुव्रत के पालक श्रावक के द्वारा वस्त्र को बुनो और भात को पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा काल की मर्यादा का उल्लंघन करके देने से असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं।42। सत्याणुव्रत को पालन करने वाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रात:काल दूँगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञा के द्वारा लोक व्यवहार को बाधा देने वाले असत्यासत्य वचन को नहीं बोले।43।
6. जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण
मूलाचार/309-313 जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सव्वभासाए। बहुजणसंमदमवि होदि जं तु लोए तहा देवी।309। ठवणा ठविदं जह देबदाणि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया।310। अण्णं अपेच्छसिद्धं पडुच्चसत्यं जहा हवदि दिग्घं। ववहारेण य सच्चं रज्झदि कूरो जहा लोए।311। संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति। जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लेत्थे।312। हिंसादिदोसविसुद्धं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया।313। जो सब भाषाओं से भात के नाम पृथक्-पृथक् बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनों के द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोक में राजा की स्त्री को देवी कहना।309। जो अर्हंत आदि की पाषाण आदि में स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूप के बहुतपने से कहना कि बगुलों की पंक्ति सफेद होती है वह रूपसत्य है।310। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे ‘यह दीर्घ है’ यहाँ ह्रस्व की अपेक्षा से है। जो लोक में ‘भात पकता’ है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहारसत्य है।311। जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह संभावना सत्य है। जैसे इंद्र इच्छा करे तो जंबूद्वीप को उलट सकता है।312। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसी ने पूछा कि, ‘चोर देखा, उसने कहा कि, ‘नहीं देखा है’। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि कहना। ( भगवती आराधना/विजयोदया टीका/1193/1189/11); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/223-224/481/2 )
राजवार्तिक/1/20/12/75/21 तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद्वयवहारार्थं संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम, इंद्र इत्यादि। यदर्थासंनिधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम्, यथा चित्रपुरुषादिषु असत्यमपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि। असत्यप्यर्थे यत्कार्यार्थं स्थापितं द्यूताक्षनिक्षेपादिषु तत् स्थापनासत्यम् । आदिमदनादिमदौपशमिकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचन तत्प्रतीत्यसत्यम् । यल्लोके संवृत्यानीतं वचस्तत् संवृतिसत्यं यथा पृथिव्याद्यनेककारणत्वेऽपि सति ‘पंके जातं पंकजम्’ इत्यादि। धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्म-मकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौंच-व्यूहादिषु वा सचेतनेतरद्रव्याणां यथा भागविधिसंनिवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत् संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशज्जनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापकं यद्वच: तत् जनपदसत्यम् । ग्रामनगरराजगणपाखंडजातिकुलादिधर्माणामुपदेष्ट्ट यद्वच: तद् देशसत्यम् । छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थं प्रासुकमिदमप्रासुकमित्यादि यद्वच: तत् भावसत्यम् । प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामगमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं यद्वच: तत् समयसत्यम् । =पदार्थों के न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को नामसत्य कहते हैं जैसे इंद्र इत्यादि। पदार्थ का सन्निधान न होने पर भी रूपमात्र की अपेक्षा जो कहा जाता है वह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी ‘पुरुष’ इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जो जूऐं के पाँसे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावों की अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढ़ि में सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणों के होने पर भी पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होने से ‘पंकज’ इत्यादि वचनप्रयोग। सुगंधित धूपचूर्ण के लेपन और घिसने में अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह (सैन्यरचना) आदि में भिन्न द्रव्यों की विभाग विधि के अनुसार की जाने वाली रचना को प्रगट करने वाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है। आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर राजा, गण, पाखंड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करने वाला है वह देशसत्य है। छद्मस्थ ज्ञानी के द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होने पर भी संयत अथवा संयतासंयत के अपने गुणों का पालन करने के लिए ‘यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है’ इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह भावसत्य है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छद द्रव्य व उनकी पर्यायों की यथार्थतो को प्रगट करने वाला है वह समयसत्य है। ( धवला 1/1,1,2/117/8 ); ( धवला 9/4,1,45/218/2 ); ( चारित्रसार/62/2 ); ( अनगारधर्मामृत/4/47 )।
आमंत्रणी आदि भाषाओं में कथंचित् सत्यासत्यपना। - देखें भाषा ।
7. सत्य की भावनाएँ
1. सत्यधर्म की अपेक्षा
राजवार्तिक/9/6/27/599/18 सत्यवाचि प्रतिष्ठिता: सर्वा गुणसंपद:। अनृतभाषिणं बंधवोऽपि अवमन्यते(न्ते) मित्राणि च परित्यजंति, जिह्वाच्छेदनसर्वस्वहरणादिव्यसनभागपि भवति। =सभी गुण संपदाएँ सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बंधुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा छेदन, सर्व धन हरण आदि दंड उसे भुगतने पड़ते हैं। ( चारित्रसार/65/4 )।
2. सत्यव्रत की अपेक्षा
मूलाचार/338 कोहभयलोहहासपइण्णा अणुवीचिभासणं चेव। विदियस्स भावणावो वदस्स पंचेव ता होंति। =क्रोध, भय, लोभ, हास्य, इनका त्याग और सूत्रानुसार बोलना - ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएँ हैं। ( भावपाहुड़/ मूल/33)।
तत्त्वार्थसूत्र/7/5 क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पंच।5।
सर्वार्थसिद्धि/7/9/347/6 अनृतवादीऽश्रद्धेयोभवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदु:खितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति अनृतवचनादुपरम: श्रेयान् ।...एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम् ।=1. क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। 2. असत्यवादी का कोई श्रद्धान नहीं करता। वह इस लोक में जिह्वाछेद आदि दु:खों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दु:खी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है, उनसे बहुत प्रकार की आपत्तियों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचन का त्याग श्रेयस्कर है।...इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।
8. सत्याणुव्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/26 मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियांयासापहारसाकारमंत्रभेदा:।26। =मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।26। [ रत्नकरंड श्रावकाचार में साकारमंत्र के स्थान पर पैशुन्य है।] ( रत्नकरंड श्रावकाचार/56 )।
सागार धर्मामृत/45 मिथ्यादेशं रहोभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांश्शविस्मर्त्रनुज्ञां मंत्रभेदं च तद्व्रत:।45। =सत्याणुव्रत को पालने वाले श्रावकों को मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्या, कूटलेखक्रिया, न्यस्तांशविस्मर्त्रनुज्ञा और मंत्रभेद इन पाँचों अतिचारों का त्याग कर देना चाहिए।45।
* सत्यव्रत की भावनाओं व अतिचारों संबंधी विशेष विचार - देखें व्रत - 2।
सत्यासत्य व हिताहित वचन विवेक
1. अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असत्य भी सत्य है
कुरल/3/2 संकटाकीर्णजीवानामुद्धारकरणेच्छया। कथिता साधुभिर्जातु मृषोक्तिरमृषैव सा।2।=उस झूठ में भी सत्यता की विशेषता है जिसके परिणाम में नियम से भलाई ही होती है।2।=(आराधनासार/3/8)।
चारित्रसार/ टीका/2 यद्विद्यमानार्थविषयं प्राणिपीड़ाकारणं तत्सत्यमप्यसत्यम् । =विद्यमान पदार्थों को विद्यमान कहने वाले वचन और प्राणियों को पीड़ा देने वाले हों तो वे सत्य होकर भी असत्य माने जाते हैं।
ज्ञानार्णव/9/3 असत्यमपि तत्सत्यं यत्सत्त्वाशंसकं वच:। सावद्यं यच्च पुष्णाति तत्सत्यमपि निंदितम् ।3। =जो वचन जीवों का इष्ट हित करने वाला हो वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पाप सहित हिंसारूप कार्य को पुष्ट करता हो वह सत्य भी हो तो असत्य और निंदनीय है। (आचारसार/5/22-23)।
अनगारधर्मामृत/4/42 सत्यं प्रियं हितं चाहु: सूनृतं सूनृतव्रता:। तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ।42। =जो वचन प्रशस्त, कल्याणकारक तथा सुनने वाले को आह्लाद उत्पन्न करने वाला, उपकारी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रतियों ने सत्य कहा है। किंतु उस सत्य को सत्य न समझना जो अप्रिय और अहितकर हो।
लाटी संहिता/6/6,7 सत्यमपि असत्यतां याति क्वचिद्धिंसानुबंधत:।6। असत्यं सत्यतां याति क्कचिज्जीवस्य रक्षणात् ।7। =जिन वचनों से जीवों की हिंसा संभव हो ऐसे सत्य वचन भी असत्य हैं।6। इसी प्रकार कहीं-कहीं जीवों की रक्षा होने से असत्य वचन भी सत्य कहलाते हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/413/15
जो झूठ भी है अर साँचा प्रयोजन कौ पोषै तौ वाकौ झूठ न कहिये बहुरि साँच भी अर झूठा प्रयोजन कौं पोषै तौ वह झूठ ही है।
2. कटु भी हितोपदेश असत्य नहीं
भगवती आराधना/357/561 पत्थं हिदयाणिट्ठं पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स। कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स।357। =हे मुनिगण ! तुम अपने संघवासी मुनियों से हितकर वचन बोलो, यद्यपि वह हृदय को अप्रिय हो तो कोई हरकत नहीं है। जैसे-कटुक भी औषध परिणाम में मधुर और कल्याणकारक होता है वैसे तुम्हारा भाषण मुनि का कल्याण करेगा।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/100 हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।=समस्त ही अनृत वचनों का प्रमाद सहित योग निर्दिष्ट होने से हेयोपादेयादि अनुष्ठानों का कहना झूठ नहीं होता। [हेयोपादेय का उपदेश करने वाले मुनिराज के वचनों में नवरसपूर्ण विषयों का वर्णन होने पर भी तथा पाप की निंदा करने से पापी जीवों को अप्रिय लगने पर भी तथा अपने बंधुओं को हितोपदेश के कारण दुखी होते हुए भी उन्हें असत्य का दोष नहीं है, क्योंकि उन्हें प्रमादयोग नहीं है। (पं.टोडरमल)]।
* कठोर भी हितोपदेश की इष्टता - देखें उपदेश - 3।
3. असत्य संभाषण का निषेध
भगवती आराधना/847,850/975,977 अलियं सकिं पि भणिदं घादं कुणदि बहुगाण सव्वाणं। अदिसंकिदो य सयमवि होदि अलियभासणो पुरिसो।847। परलोगम्मि वि दोस्सा ते चेव हवंति अलियवादिस्स। मोसादीए दोसे जत्तेण वि परिहरंतस्स।850। =एक बार बोला हुआ असत्य भाषण अनेक बार बोले सत्य भाषणों का संहार करता है। असत्यवादी स्वयं डरता है तथा शंकायुक्त है कि मेरा असत्य भाषण प्रकट होगा तो मेरा नाश होगा।847। असत्य भाषी के अविश्वास आदि दोष परलोक में भी प्राप्त होते हैं परजन्म में प्रयत्न से इनका त्याग करने पर भी इन दोषों का उसके ऊपर आरोप आता है।850।
कुरल/12/6 नीतिं मन: परित्यज्य कुमार्गं यदि धावते। सर्वनाशं विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ।6। =जब तुम्हारा मन सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर झुकने लगे तो समझ कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है।
4. कटु संभाषण का निषेध
कुरल काव्य/13/8,9 एकमेव पदं वाण्यामस्ति चेन्मर्मघातकम् । विनष्टास्तर्हि विज्ञेया उपकारा: पुराकृता:।8। दग्धमंगं पुन: साधु जायते कालपाकत:। कालपाकत:। कालपाकमपि प्राप्य न प्ररोहति वावक्षतम् ।9।
कुरल काव्य/14/9 विद्याविनयसंपन्न: शालीनो गुणवान् नर:। प्रमादादपि दुर्वाक्यं न ब्रूते हि कदाचन।9। =यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सब भलाई नष्ट हुई समझो।8। आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है।9। अवाच्य तथा अपशब्द, भूलकर भी संयमी पुरुष के मुख से नहीं निकलेंगे।
5. व्यर्थ संभाषण का निषेध
कुरल काव्य/20/7,10 उचितं बुध चेद् भाति कुर्या: कर्कशभाषणम् । परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम् ।7। वाचस्ता एव वक्तव्या या: श्लोघ्या: सम्यमानवै:। वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या वृथोक्तय:।10। =यदि समझदार को मालूम पड़े तो मुख से कठोर शब्द कह ले, क्योंकि यह निरर्थक भाषण से कहीं अच्छा है।7। मुख से बोलने योग्य वचनों का ही तू उच्चारण कर, परंतु निरर्थक शब्द मुख से मत निकाल।10।
6. सत्य की महत्ता
भगवती आराधना/835-852 ण डहदि अग्गी सच्चेण णरं जलं च तं ण बुड्डेइ। सच्चबलियं खु पुरिसं ण वहदि तिक्खा गिरिणदी वि।838। सच्चेण देवदावो णवंति पुरिसस्स ठंति व वसम्मि। सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खं च।839। =सत्यवादी को अग्नि जलाती नहीं, पानी उसको डुबोने में असमर्थ होता है। सत्य भाषण ही जिसका सामर्थ्य है ऐसे मनुष्य को बड़े वेग से पर्वत से कूदने वाली नदी नहीं बहा सकती।838। सत्य के प्रभाव से देवता उनका वंदन करते हैं, उसके वश होते हैं, सत्य के प्रभाव से पिशाच भाग जाता है तथा देवता उनके रक्षण करते हैं।839। ( ज्ञानार्णव/9/28 )।
कुरल काव्य/10/3,5
स्नेहपूर्णा, दयादृष्टिर्हार्दिकी या च वाक्सुधा। एतयोरेव मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा।3। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे। अन्यद्धि भूषणं शिष्टैर्नादृतं सभ्यसंसदि।5।
कुरल काव्य/30/7 न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन। सत्यमेव परो धर्म: किं परैर्धंर्मसाधनै:।7। =हृदय से निकली हुई मधुर वाणी और ममतामयी स्निग्ध दृष्टि में ही धर्म का निवासस्थान है।3। नम्रता और प्रिय-संभाषण, बस ये ही मनुष्य के आभूषण हैं अन्य नहीं।5। असत्य भाषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेश का पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्म को पालन करने की आवश्यकता नहीं है।7।
ज्ञानार्णव/9/27,29 व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् । चरणज्ञानयोर्बीजं सत्यसंज्ञं व्रतं मतम् ।27। चंद्रमूर्तिरिवानंदं वर्द्धयंती जगत्त्रये। स्वर्गिभिर्ध्रियते मूर्ध्नां कीर्ति: सत्योत्थिता नृणाम् ।29। =सत्यव्रत श्रुत और यमों का स्थान है, विद्या और विनय का भूषण है, और सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र उत्पन्न करने का कारण सत्य वचन ही है।27। तीन लोकों में चंद्रमा के समान आनंद को बढ़ाने वाली सत्यवचन से उत्पन्न हुई मनुष्यों की कीर्ति को देवता भी मस्तक पर धारण करते हैं।29। (पं.वि./1/92-93)।
7. धर्मापत्ति के समय सत्य का त्याग भी न्याय है
सागार धर्मामृत/4/39 कन्यागोक्ष्मालीक-कूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।39। =व्रती श्रावक कन्या अलीक, गोअलीक, पृथ्वी अलीक, कूटस्थ अलीक और न्यासालाप की तरह अपने तथा पर की विपत्ति के हेतु सत्य को भी छोड़ता हुआ सत्याणुव्रतधारी कहलाता है।39।
अमितगति श्रावकाचार/6/47 सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारंभतापभयजनकं । पापं विमोक्तुकामै: सुजनैरिव पापिनां वृत्तम् ।=पापारंभ को छोड़ने की वाँछा वाला पुरुष पर जीवों को पीड़ाकारक आरंभ, भय व संताप जनक ऐसे सत्य वचन को भी छोड़े।47।
* धर्म हानि के समय बिना बुलाये भी बोले - देखें वाद ।
8. सत्यधर्म व भाषा समिति में अंतर
सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/7 ननु चैतद् भाषासमितावंतर्भवति। नैष दोष:; समितौ प्रवर्तमानो मुनि: साधुष्यसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्रूयात् अन्यथा रागादनर्थदंडदोष: स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थ:। इह पुन: संत: प्रब्रजितास्तद्भवता वा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृंहणार्थम् ।=प्रश्न - इसका (सत्य का) भाषा समिति में अंतर्भाव नहीं होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्यों में भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होने से अनर्थदंड दोष लगता है यह वचन समिति का अभिप्राय है। किंतु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तों में साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्र के शिक्षण के निमित्त बहुविध कर्तव्यों की सूचना देता है और यह सब धर्म की अभिवृद्धि के अभिप्राय से करता है। इसलिए सत्य धर्म का भाषा समिति में अंतर्भाव नहीं होता। ( राजवार्तिक/9/6/10/596/9 )।
सत्य का अहिंसा में अंतर्भाव - देखें अहिंसा - 3।
पुराणकोष से
(1) विद्यमान या अविद्यमान वस्तु का निरूपण करने वाला प्राणि-हितैषी वचन । ये वचन दस प्रकार के होते हैं― 1. नाम सत्य 2. रूपसत्य 3. स्थापना सत्य 4. प्रतीत्यसत्य 5. संवृतिसत्य 6. संयोजनासत्य 7. जनपदसत्य 8. देशसत्य 9. भावसत्य और 10. समयसत्य । हरिवंशपुराण 10. 98-107, 120
(2) उत्तम क्षमा आदि रूप में कहे गये दस धर्मों में एक धर्म । यह धर्म वैराग्यवृद्धि का कारण होता है । महापुराण 36.157, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.8
(3) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.175