रुचकवर: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) मध्यलोक का तेरहवां द्वीप एक सागर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.619 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) मध्यलोक का तेरहवां द्वीप एक सागर । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#619|हरिवंशपुराण - 5.619]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) इस नाम के द्वीप के मध्य स्थित वलयाकार एक पर्वत । यह एक हजार योजन गहरा, चौरासी हजार योजन ऊँचा और बयालीस हजार योजन चौड़ा है इसके शिखर पर चारों दिशाओं में एक हजार योजन चौड़े और पाँच सौ योजन ऊँचे चार कूट है । इनमें पूर्व दिशा में नंद्यावर्त, दक्षिण में स्वस्तिक, पश्चिम में श्रीवृक्ष और उत्तर में वर्धमानक कूट है । इन कूटों पर क्रमश: पद्मोत्तर, स्वहस्ती, नीलक और अंजनगिरि नाम के देव रहते हैं ये चारों देव दिग्गजेंद्र कहलाते हैं । इसके पूर्व में आठ कूट हैं जिनके नाम एवं वहाँ की देवियां ये हैं― </p> | <p id="2" class="HindiText">(2) इस नाम के द्वीप के मध्य स्थित वलयाकार एक पर्वत । यह एक हजार योजन गहरा, चौरासी हजार योजन ऊँचा और बयालीस हजार योजन चौड़ा है इसके शिखर पर चारों दिशाओं में एक हजार योजन चौड़े और पाँच सौ योजन ऊँचे चार कूट है । इनमें पूर्व दिशा में नंद्यावर्त, दक्षिण में स्वस्तिक, पश्चिम में श्रीवृक्ष और उत्तर में वर्धमानक कूट है । इन कूटों पर क्रमश: पद्मोत्तर, स्वहस्ती, नीलक और अंजनगिरि नाम के देव रहते हैं ये चारों देव दिग्गजेंद्र कहलाते हैं । इसके पूर्व में आठ कूट हैं जिनके नाम एवं वहाँ की देवियां ये हैं― </p> | ||
<p>पूर्व में विद्यमान आठ कूट एवं देवियाँ</p> | <p>पूर्व में विद्यमान आठ कूट एवं देवियाँ</p> | ||
<p>कूट का नाम देवी का नाम</p> | <p>कूट का नाम देवी का नाम</p> | ||
Line 54: | Line 54: | ||
<p>नैऋत्य सर्वरत्नकूट जयंती देवी</p> | <p>नैऋत्य सर्वरत्नकूट जयंती देवी</p> | ||
<p>वायव्य रलोच्चयकूट अपराजिता देवी </p> | <p>वायव्य रलोच्चयकूट अपराजिता देवी </p> | ||
<p>इस पर्वत के ऊपर चारों ओर एक-एक जिनमंदिर है । इन मंदिरों के प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.699-728 </span></p> | <p>इस पर्वत के ऊपर चारों ओर एक-एक जिनमंदिर है । इन मंदिरों के प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#699|हरिवंशपुराण - 5.699-728]] </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
(1) मध्यलोक का तेरहवां द्वीप एक सागर । हरिवंशपुराण - 5.619
(2) इस नाम के द्वीप के मध्य स्थित वलयाकार एक पर्वत । यह एक हजार योजन गहरा, चौरासी हजार योजन ऊँचा और बयालीस हजार योजन चौड़ा है इसके शिखर पर चारों दिशाओं में एक हजार योजन चौड़े और पाँच सौ योजन ऊँचे चार कूट है । इनमें पूर्व दिशा में नंद्यावर्त, दक्षिण में स्वस्तिक, पश्चिम में श्रीवृक्ष और उत्तर में वर्धमानक कूट है । इन कूटों पर क्रमश: पद्मोत्तर, स्वहस्ती, नीलक और अंजनगिरि नाम के देव रहते हैं ये चारों देव दिग्गजेंद्र कहलाते हैं । इसके पूर्व में आठ कूट हैं जिनके नाम एवं वहाँ की देवियां ये हैं―
पूर्व में विद्यमान आठ कूट एवं देवियाँ
कूट का नाम देवी का नाम
1. वैडूर्य विजया
2. कांचन वैजयंती
3. कनक जयंती
4. अरिष्ट अपराजिता
5. दिक्नंदन नंदा
6. स्वस्तिकनंद नंदोत्तरा
7. अंजन आनंदा
8. अंजनमूलक नांदीवर्धना
दक्षिण में विद्यमान आठ कूट एम देवियाँ
1. अमोध स्वस्थिता
2. सुप्रबुद्ध सुप्रिधि
3. मंदरकूट सुप्रबुद्धा
4. विमल यशोधरा
5. रुचक लक्ष्मीमती
6. रुचकोत्तर कीर्तिमती
7. चंद्र वसुंधरा
8. सुप्रतिष्ठ चित्रा
पश्चिम में विद्यनाम आठ कूट एवं देवियाँ
1. लोहिताख्य इला
2. जगत्कुसुम सुरा
3. नलिन पृथिवी
4. पद्मकूट पद्मावती
5. कुमुद कांचना
6. सौमनस नवमिका
7. यश:कूट शीता
8. भद्रकूट भद्रिका
उत्तर में विद्यमान आठ कूट एवं देवियाँ
1. स्फटिक लंबुसा
2. अंक मिश्रकेशी
3. अंजनक पुंडरीकिणी
4. कांचन वारुणी
5. रजत आशा
6. कुंडल ह्री
7. रुचक श्री
8. सुदर्शन धृति
इनके अतिरिक्त चारों दिशाओं और विदिशाओं में एक-एक कूट और है । उनके नाम हैं―
दिशा कूट देवी जो वहाँ रहती है
1. पूर्व विमल चित्रा
2. पश्चिम स्वयंप्रभ त्रिशिरस्
3. उत्तर नित्योद्योत सूत्रामणि
4. दक्षिण नित्यालोक कनकचित्रा
5. ऐशान वैडूर्य रुचका
6. आग्नेय रुचक रुचकोज्ज्वला
7. नैऋत्य मणिप्रभ रुचकाभा
8 वायव्य रुचकोत्तम रुचकप्रभा
विदिशाओं मे निम्न चार कूट और हैं―
दिशा-नाम कूट-नाम देवी-नाम
ऐशान रत्नकूट विजयादेवी
आग्नेय रत्नप्रभकूट वैजयंती देवी
नैऋत्य सर्वरत्नकूट जयंती देवी
वायव्य रलोच्चयकूट अपराजिता देवी
इस पर्वत के ऊपर चारों ओर एक-एक जिनमंदिर है । इन मंदिरों के प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है । हरिवंशपुराण - 5.699-728