उत्पादव्ययध्रौव्य: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 41: | Line 41: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/5</span> <p class="SanskritText">चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत् उभयनिमित्तवशाद् भावांतरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मृत्पिंडस्य घटपर्यायवत्।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/5</span> <p class="SanskritText">चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत् उभयनिमित्तवशाद् भावांतरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मृत्पिंडस्य घटपर्यायवत्।</p> | ||
<p class="HindiText">= चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं छोड़ते। फिर भी अंतरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं छोड़ते। फिर भी अंतरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/30/1/594/32)</span></p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">उत्पादः प्रादुर्भावः।....यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते। न च तेन स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथावधित्वमवलंबते। तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्ममानं तेनोत्पादेनलक्ष्यते।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">उत्पादः प्रादुर्भावः।....यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते। न च तेन स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथावधित्वमवलंबते। तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्ममानं तेनोत्पादेनलक्ष्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोनेपर निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादसे लक्षित होता है, किंतु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है, उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी, जो कि उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्यके सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत् होनेपर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, वह उत्पादसे लक्षित होता है।</p> | <p class="HindiText">= जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोनेपर निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादसे लक्षित होता है, किंतु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है, उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी, जो कि उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्यके सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत् होनेपर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, वह उत्पादसे लक्षित होता है।</p> | ||
Line 50: | Line 50: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5</span> <p class="SanskritText">द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5</span> <p class="SanskritText">द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद।</p> | <p class="HindiText">= उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/14)</span></p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 111</span><p class="PrakritText"> एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। सदसब्भावणिबद्धं प्रादुब्भावं सदा लभदि।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 111</span><p class="PrakritText"> एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। सदसब्भावणिबद्धं प्रादुब्भावं सदा लभदि।</p> | ||
<p class="HindiText">= ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य स्वभावमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको सदा प्राप्त करता है।</p> | <p class="HindiText">= ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य स्वभावमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको सदा प्राप्त करता है।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 201 )</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3">3. स्वनिमित्तक उत्पाद</p> | <p class="HindiText" id="1.3">3. स्वनिमित्तक उत्पाद</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5</span> <p class="SanskritText">स्वनिमित्तस्तावदनंतानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5</span> <p class="SanskritText">स्वनिमित्तस्तावदनंतानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= स्वनिमित्तक उत्पाद यथा-प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अंतर अगुरुलघुगुण स्वीकार किये गये हैं। जिनका छह स्थान पतित हानि और वृद्धिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे होता है।</p> | <p class="HindiText">= स्वनिमित्तक उत्पाद यथा-प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अंतर अगुरुलघुगुण स्वीकार किये गये हैं। जिनका छह स्थान पतित हानि और वृद्धिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे होता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/14)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.4">4. परप्रत्यय उत्पाद</p> | <p class="HindiText" id="1.4">4. परप्रत्यय उत्पाद</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/7</span> <p class="SanskritText">परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात्क्षणे क्षणे तेषां भेदात्तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/7</span> <p class="SanskritText">परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात्क्षणे क्षणे तेषां भेदात्तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते।</p> | ||
<p class="HindiText">= परप्रत्यय भी उत्पाद और व्यय होता है। यथा-ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्वादिकी गति, स्थिति और अवगाहनमें कारण हैं। चूँकि इन गति आदिकमें क्षण-क्षणमें अंतर पड़ता है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार धर्मादिक द्रव्योंमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है।</p> | <p class="HindiText">= परप्रत्यय भी उत्पाद और व्यय होता है। यथा-ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्वादिकी गति, स्थिति और अवगाहनमें कारण हैं। चूँकि इन गति आदिकमें क्षण-क्षणमें अंतर पड़ता है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार धर्मादिक द्रव्योंमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/16)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.5">5. सदुत्पाद</p> | <p class="HindiText" id="1.5">5. सदुत्पाद</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 112</span><p class="SanskritText"> द्रव्यस्थ पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्तेः प्रादुर्भावः तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रच्यवनात् द्रव्यमनन्यदेव। ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्स सदुत्पादः।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 112</span><p class="SanskritText"> द्रव्यस्थ पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्तेः प्रादुर्भावः तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रच्यवनात् द्रव्यमनन्यदेव। ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्स सदुत्पादः।</p> | ||
<p class="HindiText">= द्रव्यके जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिका अच्युतत्व होनेसे द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यत्वके द्वारा द्रव्यका सदुत्पाद निश्चित होता है।</p> | <p class="HindiText">= द्रव्यके जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिका अच्युतत्व होनेसे द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यत्वके द्वारा द्रव्यका सदुत्पाद निश्चित होता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 201)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.6">6. असदुत्पाद</p> | <p class="HindiText" id="1.6">6. असदुत्पाद</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 113</span> <p class="SanskritText">पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवंत्यसंत एव। यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव। ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्यासदुत्पादः।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 113</span> <p class="SanskritText">पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवंत्यसंत एव। यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव। ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्यासदुत्पादः।</p> | ||
Line 72: | Line 72: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/300/5</span> <p class="SanskritText">पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पत्तौ पिंडाकृतिर्व्ययः।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/300/5</span> <p class="SanskritText">पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पत्तौ पिंडाकृतिर्व्ययः।</p> | ||
<p class="HindiText">= पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं। जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिंडरूप आकार का त्याग हो जाता है।</p> | <p class="HindiText">= पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं। जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिंडरूप आकार का त्याग हो जाता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/30/2/495/1)</span></p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">व्ययः प्रच्यवनं।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">व्ययः प्रच्यवनं।</p> | ||
<p class="HindiText">= व्यय प्रच्युति है। (अर्थात् पूर्व अवस्थाका नष्ट होना)।</p> | <p class="HindiText">= व्यय प्रच्युति है। (अर्थात् पूर्व अवस्थाका नष्ट होना)।</p> | ||
Line 78: | Line 78: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/300/7</span> <p class="SanskritText">अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः। ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। यथा मृत्पिंडघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/300/7</span> <p class="SanskritText">अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः। ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। यथा मृत्पिंडघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः।</p> | ||
<p class="HindiText">= जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किंतु वह `ध्रुवति' अर्थात् स्थिर रहता है। इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं। तथा इस ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टीके पिंड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टीका अन्वय बना रहता है।</p> | <p class="HindiText">= जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किंतु वह `ध्रुवति' अर्थात् स्थिर रहता है। इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं। तथा इस ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टीके पिंड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टीका अन्वय बना रहता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/30/3/495/3)</span></p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">ध्रौव्यमवस्थितिः।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95</span> <p class="SanskritText">ध्रौव्यमवस्थितिः।</p> | ||
<p class="HindiText">= ध्रौव्य अवस्थिति है।</p> | <p class="HindiText">= ध्रौव्य अवस्थिति है।</p> | ||
Line 87: | Line 87: | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/30</span> <p class="SanskritText">उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥30॥</p> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/30</span> <p class="SanskritText">उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥30॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त है वह सत् है।</p> | <p class="HindiText">= जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त है वह सत् है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 10)</span> <span class="GRef">(समयसार / आत्मख्याति गाथा 2)</span> <span class="GRef">(प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 99)</span> <span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 237)</span></p> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 89 </span><p class="SanskritText">वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामी। तस्मादुत्पादस्थितभंगमयं तत् सदेतदिह नियमात्।</p> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 89 </span><p class="SanskritText">वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामी। तस्मादुत्पादस्थितभंगमयं तत् सदेतदिह नियमात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है, इसलिए यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है।</p> | <p class="HindiText">= जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है, इसलिए यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 86)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.2">2. तीनों एक सत् के ही अंश हैं</p> | <p class="HindiText" id="2.2">2. तीनों एक सत् के ही अंश हैं</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 101</span> <p class="SanskritText">पर्यायास्तूत्पादव्ययध्रौव्यैरालंबयंते उत्पादव्ययध्रौव्याणामंशधर्मत्वाद्बीजांकुरपादपवत्।....द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा....प्रतिभांति।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 101</span> <p class="SanskritText">पर्यायास्तूत्पादव्ययध्रौव्यैरालंबयंते उत्पादव्ययध्रौव्याणामंशधर्मत्वाद्बीजांकुरपादपवत्।....द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा....प्रतिभांति।</p> | ||
Line 106: | Line 106: | ||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/32</span> <p class="SanskritText">अर्पितानर्पितसिद्धे ।32।</p> | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/32</span> <p class="SanskritText">अर्पितानर्पितसिद्धे ।32।</p> | ||
<p class="HindiText">= मुख्यता और गौणताकी अपेक्षा एक वस्तुमें विरोधी मालूम पड़नेवाले दो धर्मोंकी सिद्धि होती है। द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है।</p> | <p class="HindiText">= मुख्यता और गौणताकी अपेक्षा एक वस्तुमें विरोधी मालूम पड़नेवाले दो धर्मोंकी सिद्धि होती है। द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है।</p> | ||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 54</span> <p class="PrakritText">एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धम् विरुद्धम् ।54। | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 54</span> <p class="PrakritText">एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धम् विरुद्धम् ।54। <span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 54)</span> द्रव्यार्थिकनयोपदेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः। तस्यैव पर्य्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशो शदुत्पादश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस प्रकार जीवको सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, ऐसा जिनवरोंने कहा है, जो कि अन्योन्य विरुद्ध तथापि अविरुद्ध है ॥54॥ क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं है और असत्का उत्पाद नहीं है, तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और असत्का उत्पाद भी है।</p> | <p class="HindiText">= इस प्रकार जीवको सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, ऐसा जिनवरोंने कहा है, जो कि अन्योन्य विरुद्ध तथापि अविरुद्ध है ॥54॥ क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं है और असत्का उत्पाद नहीं है, तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और असत्का उत्पाद भी है।</p> | ||
<span class="GRef">आप्तमीमांसा श्लोक 57</span> <p class="SanskritText">न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ॥57॥</p> | <span class="GRef">आप्तमीमांसा श्लोक 57</span> <p class="SanskritText">न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ॥57॥</p> | ||
Line 115: | Line 115: | ||
<span class="GRef">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13/$180/216/4</span> <p class="SanskritText">सतः आविर्भाव एव उत्पादः, तस्यैव तिरोभाव एव विनाशः इति। द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम्।</p> | <span class="GRef">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13/$180/216/4</span> <p class="SanskritText">सतः आविर्भाव एव उत्पादः, तस्यैव तिरोभाव एव विनाशः इति। द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम्।</p> | ||
<p class="HindiText">= मध्यम अवस्थामें द्रव्यत्वक अविनाभावी उत्पाद व्यय और ध्रुवरूप त्रिलक्षणत्वकी युगपत् उपलब्धि होनेसे जीवमें द्रव्यपना सिद्ध ही है। विशेषार्थ-जिस प्रकार मध्यम अवस्थाके अर्थात् जवानीके चैतन्यमें अनंतरपूर्ववर्ती बचपनके चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी सिद्धि होती है, इसी प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्यरूप त्रिलक्षणत्वकी एक साथ उपलब्धि होती है। उसी प्रकार जन्मके प्रथम समयका चैतन्य भी त्रिलक्षणात्मक ही सिद्ध होता है। अर्थ-सत्का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनष्ट होती है, ऐसा निश्चित हो जाता है।</p> | <p class="HindiText">= मध्यम अवस्थामें द्रव्यत्वक अविनाभावी उत्पाद व्यय और ध्रुवरूप त्रिलक्षणत्वकी युगपत् उपलब्धि होनेसे जीवमें द्रव्यपना सिद्ध ही है। विशेषार्थ-जिस प्रकार मध्यम अवस्थाके अर्थात् जवानीके चैतन्यमें अनंतरपूर्ववर्ती बचपनके चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी सिद्धि होती है, इसी प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्यरूप त्रिलक्षणत्वकी एक साथ उपलब्धि होती है। उसी प्रकार जन्मके प्रथम समयका चैतन्य भी त्रिलक्षणात्मक ही सिद्ध होता है। अर्थ-सत्का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनष्ट होती है, ऐसा निश्चित हो जाता है।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 27)</span> <span class="GRef">( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 91,198)</span></p> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 90,91</span> <p class="SanskritText">न हि पुनरुत्पादस्थितिभंगमयं तद्विनापि परिणामात्। असतो जन्मत्वादिह सतो विनाशस्य दुर्निवारत्वात् ॥90॥ द्रव्यं ततः कथं चिदुत्पद्यते हि भावेन। व्येति तदन्येन पुनर्नैतद्द्वितयं हि वस्तुतया ॥91॥</p> | <span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 90,91</span> <p class="SanskritText">न हि पुनरुत्पादस्थितिभंगमयं तद्विनापि परिणामात्। असतो जन्मत्वादिह सतो विनाशस्य दुर्निवारत्वात् ॥90॥ द्रव्यं ततः कथं चिदुत्पद्यते हि भावेन। व्येति तदन्येन पुनर्नैतद्द्वितयं हि वस्तुतया ॥91॥</p> | ||
<p class="HindiText">= वह सत् भी परिणामके बिना उत्पादस्थिति भंगरूप नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा माननेपर जगत्में असत्का जन्म और सत्का विनाश दुर्निवार हो जायेगा ॥90॥ इसलिए निश्चयसे द्रव्य कथंचित् किसी अवस्थासे उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्थासे नष्ट होता है, किंतु परमार्थ रीतिसे निश्चय करके ये दोनों (उत्पाद और विनाश) है ही नहीं ॥91॥</p> | <p class="HindiText">= वह सत् भी परिणामके बिना उत्पादस्थिति भंगरूप नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा माननेपर जगत्में असत्का जन्म और सत्का विनाश दुर्निवार हो जायेगा ॥90॥ इसलिए निश्चयसे द्रव्य कथंचित् किसी अवस्थासे उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्थासे नष्ट होता है, किंतु परमार्थ रीतिसे निश्चय करके ये दोनों (उत्पाद और विनाश) है ही नहीं ॥91॥</p> | ||
Line 123: | Line 123: | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 100-101 </span><p class="PrakritText">ण भवा भंगविहिणा भंगा वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।10। उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।101।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 100-101 </span><p class="PrakritText">ण भवा भंगविहिणा भंगा वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।10। उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।101।</p> | ||
<p class="HindiText">= `उत्पाद' भंगसे रहित नहीं होता और भंग बिना उत्पादके नहीं होता। उत्पाद तथा भंग (ये दोनों ही) ध्रौव्य पदार्थके बिना नहीं होते ।100। उत्पाद ध्रौव्य और व्यय पर्यायोंमें वर्तते हैं, पर्यायें नियमसे द्रव्यमें होती हैं; इसलिए वह सब द्रव्य है ।101।</p> | <p class="HindiText">= `उत्पाद' भंगसे रहित नहीं होता और भंग बिना उत्पादके नहीं होता। उत्पाद तथा भंग (ये दोनों ही) ध्रौव्य पदार्थके बिना नहीं होते ।100। उत्पाद ध्रौव्य और व्यय पर्यायोंमें वर्तते हैं, पर्यायें नियमसे द्रव्यमें होती हैं; इसलिए वह सब द्रव्य है ।101।</p> | ||
<p>(विशेष देखें | <p>(विशेष देखें <span class="GRef">(प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका टीका)</span> </p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/30/9-11/495-496</span> <p class="SanskritText">व्ययोत्पादाव्यतिरेकाद् द्रव्यस्य ध्रौव्यानुपपत्तिरिति चेत्; न; अभिहितानवबोधात् ।9। स्ववचनविरोधाच्च ।10। उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा लक्ष्यलक्षणभावानुपपत्तिरिति चेत्; न; अन्यत्वानन्यत्वं प्रत्यनेकांतोपपत्तेः ।11।</p> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/30/9-11/495-496</span> <p class="SanskritText">व्ययोत्पादाव्यतिरेकाद् द्रव्यस्य ध्रौव्यानुपपत्तिरिति चेत्; न; अभिहितानवबोधात् ।9। स्ववचनविरोधाच्च ।10। उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा लक्ष्यलक्षणभावानुपपत्तिरिति चेत्; न; अन्यत्वानन्यत्वं प्रत्यनेकांतोपपत्तेः ।11।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-व्यय और उत्पाद क्योंकि द्रव्यसे अभिन्न होते हैं, अतः द्रव्यध्रुव नहीं रह सकता? उत्तर-शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा। क्योंकि हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, किंतु कथंचित् कहते हैं। दूसरे इस प्रकारकी शंकाओंसे स्ववचन विरोध भी आता है, क्योंकि यदि आपका हेतु साधकत्वसे सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा। प्रश्न-उत्पादादिकोंका तथा द्रव्यका एकत्व हो जानेसे दोनोंमें लक्ष्यलक्षण भावका अभाव हो जायेगा? उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनमें कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है ऐसा अनेकांत है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-व्यय और उत्पाद क्योंकि द्रव्यसे अभिन्न होते हैं, अतः द्रव्यध्रुव नहीं रह सकता? उत्तर-शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा। क्योंकि हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, किंतु कथंचित् कहते हैं। दूसरे इस प्रकारकी शंकाओंसे स्ववचन विरोध भी आता है, क्योंकि यदि आपका हेतु साधकत्वसे सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा। प्रश्न-उत्पादादिकोंका तथा द्रव्यका एकत्व हो जानेसे दोनोंमें लक्ष्यलक्षण भावका अभाव हो जायेगा? उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनमें कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है ऐसा अनेकांत है।</p> | ||
Line 129: | Line 129: | ||
<p class="HindiText">= (ऋजुसूत्र नयसे) विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विवक्षित पर्यायका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूपसे नहीं पाया जाता यदि कहा जाय कि प्रथम समयमें पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है, सो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि उस (नय) में प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है। यदि कहा जाय कि उत्पाद ही अवस्थान है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भावको छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण (इस नयमें) पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ।</p> | <p class="HindiText">= (ऋजुसूत्र नयसे) विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विवक्षित पर्यायका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूपसे नहीं पाया जाता यदि कहा जाय कि प्रथम समयमें पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है, सो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि उस (नय) में प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है। यदि कहा जाय कि उत्पाद ही अवस्थान है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भावको छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण (इस नयमें) पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ।</p> | ||
<span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 21/265/15 </span><p class="SanskritText">ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यंते न वा। यदि भिद्यंते कथमेकं वस्तुवयात्मकम्। न भिद्यंते चेत् तथापि कथमेकं त्रयात्मकम्। उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद् भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात् रूपादिवदिति। न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम्। न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेक्षाः खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः। तथाहि। उत्पादः केवलो नास्ति। स्थितिविगमरहितत्वात् कूर्मरोमवत्। तथा विनाशः केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तद्वत्। एवं स्थितिः केवला नास्ति विनाशोत्पादशून्यत्वात् तद्वदेव। इत्यन्योन्यायेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम्। तथा चोक्तम्-"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।1। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रत। अगोरसव्रतो नोभे तस्माद् वस्तुत्रयात्मकम् ।2।</p> | <span class="GRef">स्याद्वादमंजरी श्लोक 21/265/15 </span><p class="SanskritText">ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यंते न वा। यदि भिद्यंते कथमेकं वस्तुवयात्मकम्। न भिद्यंते चेत् तथापि कथमेकं त्रयात्मकम्। उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद् भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात् रूपादिवदिति। न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम्। न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेक्षाः खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः। तथाहि। उत्पादः केवलो नास्ति। स्थितिविगमरहितत्वात् कूर्मरोमवत्। तथा विनाशः केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तद्वत्। एवं स्थितिः केवला नास्ति विनाशोत्पादशून्यत्वात् तद्वदेव। इत्यन्योन्यायेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम्। तथा चोक्तम्-"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।1। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रत। अगोरसव्रतो नोभे तस्माद् वस्तुत्रयात्मकम् ।2।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न? यदि उत्पादादि परस्पर भिन्न हैं तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप नहीं कहा जा सकता। यदि वे परस्पर अभिन्न हैं तो उत्पादादिमें से किसी एकको ही स्वीकार करना चाहिए। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोग उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें कथंचित् भेद मानते हैं अतएव उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका लक्षण भिन्न-भिन्न है, इसलिए रूपादिकी तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्यभी कथंचित् भिन्न हैं। उत्पाद आदिका भिन्न लक्षणपना असिद्ध भी नहीं है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा माननेसे उनका आकाशपुष्पकी तरह अभाव मानना पड़ेगा। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोंके नाश और स्थितिके बिना, बालोंका केवल उत्पाद होना संभव नहीं है, उसी तरह व्यय और ध्रौव्यसे रहित केवल उत्पादका होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार उत्पाद और ध्रौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिए। समंतभद्राचार्यने कहा भी है- | <p class="HindiText">= प्रश्न-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न? यदि उत्पादादि परस्पर भिन्न हैं तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप नहीं कहा जा सकता। यदि वे परस्पर अभिन्न हैं तो उत्पादादिमें से किसी एकको ही स्वीकार करना चाहिए। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोग उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें कथंचित् भेद मानते हैं अतएव उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका लक्षण भिन्न-भिन्न है, इसलिए रूपादिकी तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्यभी कथंचित् भिन्न हैं। उत्पाद आदिका भिन्न लक्षणपना असिद्ध भी नहीं है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा माननेसे उनका आकाशपुष्पकी तरह अभाव मानना पड़ेगा। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोंके नाश और स्थितिके बिना, बालोंका केवल उत्पाद होना संभव नहीं है, उसी तरह व्यय और ध्रौव्यसे रहित केवल उत्पादका होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार उत्पाद और ध्रौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिए। समंतभद्राचार्यने कहा भी है-<span class="GRef">( आप्तमीमांसा 59-60 )</span>। "घड़े, मुकुट और सोनेके चाहने वाले पुरुष (सोनेके) घड़ेके नाश, मुकुटके उत्पाद और सोनेकी स्थिति में क्रमसे शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते हैं। दूधका व्रत लेने वाला पुरुष दही नहीं खाता, दहीका नियम लेनेवाला पुरुष दूध नहीं पीता और गोरसका व्रत लेनेवाला पुरुष दूध और दही दोनों नहीं खाता। इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 100)</span></p> | ||
<span class="GRef">न्यायदीपिका 3/$79/123/5</span> <p class="SanskritText">तस्माज्जीवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्यदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनयविस्तारविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव।</p> | <span class="GRef">न्यायदीपिका 3/$79/123/5</span> <p class="SanskritText">तस्माज्जीवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्यदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनयविस्तारविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव।</p> | ||
<p class="HindiText">= जीवद्रव्यकी अपेक्षासे अभेद है और मनुष्य तथा देव पर्यायों की अपेक्षासे भेद है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयोंकी दृष्टिसे भेद और अभेदके माननेमें कोई विरोध नहीं है दोनों प्रामाणिक हैं।</p> | <p class="HindiText">= जीवद्रव्यकी अपेक्षासे अभेद है और मनुष्य तथा देव पर्यायों की अपेक्षासे भेद है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयोंकी दृष्टिसे भेद और अभेदके माननेमें कोई विरोध नहीं है दोनों प्रामाणिक हैं।</p> | ||
Line 164: | Line 164: | ||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 11</span> <p class="PrakritText">उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो। विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।</p> | <span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 11</span> <p class="PrakritText">उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो। विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।</p> | ||
<p class="HindiText">= द्रव्यका उत्पाद या विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसीकी पर्यायें विनाश उत्पाद व ध्रुवता करती हैं ।11।</p> | <p class="HindiText">= द्रव्यका उत्पाद या विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसीकी पर्यायें विनाश उत्पाद व ध्रुवता करती हैं ।11।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 201)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी /मूल 179</span> <p class="SanskritText">इदं भवति पूर्वपूर्वभावविनाशेन नश्यतोंऽशस्य। यदि वा तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन जायमानस्य ।179।</p> | <span class="GRef">पंचाध्यायी /मूल 179</span> <p class="SanskritText">इदं भवति पूर्वपूर्वभावविनाशेन नश्यतोंऽशस्य। यदि वा तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन जायमानस्य ।179।</p> | ||
<p class="HindiText">= वह परिणमन पूर्वपूर्व भावके विनाश रूपसे नष्ट होनेवाले अंशका और केवल उत्तर-उत्तर भावके उत्पादरूप उत्पन्न होनेवाले अंशका है, परंतु द्रव्यका नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= वह परिणमन पूर्वपूर्व भावके विनाश रूपसे नष्ट होनेवाले अंशका और केवल उत्तर-उत्तर भावके उत्पादरूप उत्पन्न होनेवाले अंशका है, परंतु द्रव्यका नहीं है।</p> | ||
Line 195: | Line 195: | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/1</span> <p class="SanskritText">अत्र चोद्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत्। क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः। उत्पादाभावाच्च व्यायाभावइति। अतः सर्वद्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति। तन्न; किं कारणम्। अन्यथोपपत्तेः। क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते। तद्यथा द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।.....षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च।</p> | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/1</span> <p class="SanskritText">अत्र चोद्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत्। क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः। उत्पादाभावाच्च व्यायाभावइति। अतः सर्वद्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति। तन्न; किं कारणम्। अन्यथोपपत्तेः। क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते। तद्यथा द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।.....षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च।</p> | ||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन-सकता, क्योंकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नहीं बननेसे इनका व्यय भी नहीं बनता। अतः `सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं', इस कल्पनाका व्याघात हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि इनमें उत्पादादि तीन अन्य प्रकारसे बन जाते हैं। यद्यपि इन धर्मादि द्रव्योंमें क्रिया निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद। तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे (स्वनिमित्तक) होता है।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन-सकता, क्योंकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नहीं बननेसे इनका व्यय भी नहीं बनता। अतः `सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं', इस कल्पनाका व्याघात हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि इनमें उत्पादादि तीन अन्य प्रकारसे बन जाते हैं। यद्यपि इन धर्मादि द्रव्योंमें क्रिया निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद। तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे (स्वनिमित्तक) होता है।</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/10)</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.10">10. मुक्त आत्माओंमें भी तीनों देखे जा सकते हैं</p> | <p class="HindiText" id="3.10">10. मुक्त आत्माओंमें भी तीनों देखे जा सकते हैं</p> | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 17</span><p class="PrakritText"> भंगविहीणो य भवो संभव परिवज्जिदो विणासो हि। विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ।17।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 17</span><p class="PrakritText"> भंगविहीणो य भवो संभव परिवज्जिदो विणासो हि। विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ।17।</p> | ||
Line 201: | Line 201: | ||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 18/12</span> <p class="SanskritText">सुवर्णगोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे। यद्यपि.....1. संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशोभवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति। अथवा 2. ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भंगत्रयेण परिणमंति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्त्यपेक्षया भंगत्रयेण परिणमति। 3. षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यापेक्षया वा भंगत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम्।</p> | <span class="GRef">प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 18/12</span> <p class="SanskritText">सुवर्णगोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे। यद्यपि.....1. संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशोभवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति। अथवा 2. ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भंगत्रयेण परिणमंति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्त्यपेक्षया भंगत्रयेण परिणमति। 3. षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यापेक्षया वा भंगत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम्।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस प्रकार स्वर्ण, गोरस, मिट्टी व पुरुषादि मूर्त द्रव्यों में उत्पादादि तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार अमूर्त मुक्त जीव में भी जानना। 1. यद्यपि संसार की जन्ममरण रूप कारण समयसार की पर्याय का विनाश हो जाता है परंतु केवलज्ञानादि की व्यक्ति रूप कार्य समयसार रूप पर्याय का उत्पाद भी हो जाता है, और दोनों पर्यायों से परिणत आत्मद्रव्य रूप से ध्रौव्यत्व भी बना रहता है, क्योंकि, वह एक पदार्थ है। 2. अथवा दूसरी प्रकार से-ज्ञेय पदार्थों में प्रतिक्षण तीनों भंगों द्वारा परिणमन होता रहता है और ज्ञान भी परिच्छित्ति की अपेक्षा तदनुसार ही तीनों भंगों से परिणमन करता रहता है। 3. तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघु गण में होनेवाली वृद्धिहानि की अपेक्षा भी तीनों भंग तहाँ जानने चाहिए। ऐसा सूत्र का तात्पर्य है।</p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार स्वर्ण, गोरस, मिट्टी व पुरुषादि मूर्त द्रव्यों में उत्पादादि तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार अमूर्त मुक्त जीव में भी जानना। 1. यद्यपि संसार की जन्ममरण रूप कारण समयसार की पर्याय का विनाश हो जाता है परंतु केवलज्ञानादि की व्यक्ति रूप कार्य समयसार रूप पर्याय का उत्पाद भी हो जाता है, और दोनों पर्यायों से परिणत आत्मद्रव्य रूप से ध्रौव्यत्व भी बना रहता है, क्योंकि, वह एक पदार्थ है। 2. अथवा दूसरी प्रकार से-ज्ञेय पदार्थों में प्रतिक्षण तीनों भंगों द्वारा परिणमन होता रहता है और ज्ञान भी परिच्छित्ति की अपेक्षा तदनुसार ही तीनों भंगों से परिणमन करता रहता है। 3. तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघु गण में होनेवाली वृद्धिहानि की अपेक्षा भी तीनों भंग तहाँ जानने चाहिए। ऐसा सूत्र का तात्पर्य है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/56)</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/46/1)</span></p> | ||
<p class="HindiText">• उत्पादव्यय सापेक्ष निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय - देखें [[ नय#IV.2 | नय - IV.2]]।</p> | <p class="HindiText">• उत्पादव्यय सापेक्ष निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय - देखें [[ नय#IV.2 | नय - IV.2]]।</p> | ||
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
सत् यद्यपि त्रिकाल नित्य है, परंतु उसमें बराबर परिणमन होते रहनेके कारण उसमें नित्य ही किसी एक अवस्थाका उत्पाद तथा किसी पूर्ववाली अन्य अवस्थाका व्यय होता रहता है इसलिए पदार्थ नित्य होते हुए भी कथंचित् अनित्य है और अनित्य होते हुए भी कथंचित् नित्य है। वस्तुमें ही नहीं उसके प्रत्येक गुणमें भी यह स्वाभाविक व्यवस्था निराबाध सिद्ध है।
- भेद व लक्षण
- उत्पाद सामान्य का लक्षण
- उत्पाद के भेद
- स्वनिमित्तक उत्पाद
- परप्रत्यय उत्पाद
- सदुत्पाद
- असदुत्पाद
- व्यय का लक्षण
- ध्रौव्य का लक्षण
- उत्पादिक तीनोंका समन्वय
- उत्पादादिक तीनों से युक्त ही वस्तु सत् है
- तीनों एक सत् के ही अंश हैं
- वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है
- कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय
- उत्पादिक में परस्पर भेद व अभेद का समन्वय
- उत्पादादिक में समय भेद नहीं है
- उत्पादादिक में समय के भेदाभेद विषयक समन्वय
- द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं
- संपूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्यांश नहीं
- द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है, उस समय वैसा ही होता है
- उत्पाद व्यय द्रव्यांश में नहीं पर्यायांशमें होते है
- उत्पाद व्ययको द्रव्य का अंश कहनेका कारण
- पर्याय भी कथंचित् ध्रुव है
- द्रव्य गुण पर्याय भी तीनों सत् हैं
- पर्याय सर्वथा सत् नहीं है
- लोकाकाशमें भी तीनों पाये जाते हैं
- धर्मादि द्रव्योंमें परिणमन है पर परिस्पंद नहीं
- मुक्त आत्माओंमें भी तीनों देखे जा सकते हैं।
• द्रव्य अपने परिणमनमें स्वतंत्र है - देखें कारण - II.1
• वस्तु जिस अपेक्षा से नित्य है उसी अपेक्षा से अनित्य नहीं है - देखें अनेकांत - 5
1. भेद व लक्षण
1. उत्पाद सामान्यका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/5चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत् उभयनिमित्तवशाद् भावांतरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मृत्पिंडस्य घटपर्यायवत्।
= चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं छोड़ते। फिर भी अंतरंग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय जो नवीन अवस्थाकी प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 5/30/1/594/32)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95उत्पादः प्रादुर्भावः।....यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते। न च तेन स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथावधित्वमवलंबते। तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुग्रहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्ममानं तेनोत्पादेनलक्ष्यते।
= जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोनेपर निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादसे लक्षित होता है, किंतु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है, उसी प्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी, जो कि उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्यके सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएँ करता है वह-अंतरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत् होनेपर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, वह उत्पादसे लक्षित होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 201तत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यग्रं परिणतस्य तस्य सतः। सदसद्भावनिबद्धं तदतद्भावत्वन्नयादेशात्।
= सत्-तद्भाव और अतद्भावको विषय करनेवाले नयकी अपेक्षासे सद्भाव तथा असद्भावसे युक्त है। इसलिए उत्पादादिकमें नवीनरूपसे परिणत उस सत्की अवस्थाका नाम उत्पाद है।
(और भी - देखें परिणाम )
2. उत्पाद के भेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।
= उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद।
(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/14)
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 111एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं। सदसब्भावणिबद्धं प्रादुब्भावं सदा लभदि।
= ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य स्वभावमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको सदा प्राप्त करता है।
( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 201 )
3. स्वनिमित्तक उत्पाद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/5स्वनिमित्तस्तावदनंतानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च।
= स्वनिमित्तक उत्पाद यथा-प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अंतर अगुरुलघुगुण स्वीकार किये गये हैं। जिनका छह स्थान पतित हानि और वृद्धिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/14)
4. परप्रत्यय उत्पाद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/7परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वात्क्षणे क्षणे तेषां भेदात्तद्धेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवह्रियते।
= परप्रत्यय भी उत्पाद और व्यय होता है। यथा-ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्वादिकी गति, स्थिति और अवगाहनमें कारण हैं। चूँकि इन गति आदिकमें क्षण-क्षणमें अंतर पड़ता है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार धर्मादिक द्रव्योंमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/16)
5. सदुत्पाद
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 112द्रव्यस्थ पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्तेः प्रादुर्भावः तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रच्यवनात् द्रव्यमनन्यदेव। ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्स सदुत्पादः।
= द्रव्यके जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिका अच्युतत्व होनेसे द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यत्वके द्वारा द्रव्यका सदुत्पाद निश्चित होता है।
( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 201)
6. असदुत्पाद
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 113पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवंत्यसंत एव। यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव। ततः पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्यासदुत्पादः।
= पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिके कालमें ही सत् होनेसे उससे अन्य कालोंमें असत् ही हैं। और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ जो क्रमानुपाती स्वकालमें उत्पाद होता है, उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्त्व होनेसे पर्यायें अन्य हैं। इसलिए पर्यायोंकी अन्यताके द्वारा द्रव्यका असदुत्पाद निश्चित् होता है।
7. व्ययका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/300/5पूर्वभावविगमनं व्ययः। यथा घटोत्पत्तौ पिंडाकृतिर्व्ययः।
= पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं। जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिंडरूप आकार का त्याग हो जाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/30/2/495/1)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95व्ययः प्रच्यवनं।
= व्यय प्रच्युति है। (अर्थात् पूर्व अवस्थाका नष्ट होना)।
8. ध्रौव्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/30/300/7अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः। ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। यथा मृत्पिंडघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः।
= जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किंतु वह `ध्रुवति' अर्थात् स्थिर रहता है। इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं। तथा इस ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टीके पिंड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टीका अन्वय बना रहता है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/30/3/495/3)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95ध्रौव्यमवस्थितिः।
= ध्रौव्य अवस्थिति है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 204तद्भावाव्ययमिति वा ध्रौव्यं तत्रापि सम्यगयमर्थः। यः पूर्वपरिणामो भवति स पश्चात् स एव परिणामः।
= तद्भावसे वस्तुका नाश न होना, यह जो ध्रौव्यका लक्षण बताया गया है, उसका भी ठीक अर्थ यह है कि जो जो परिणाम (स्वभाव) पहिले था वह वह परिणाम ही पीछे होता रहता है।
2. उत्पादादिक तीनों का समन्वय
1. उत्पादादिक तीनोंसे युक्त ही वस्तु सत् है
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/30उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥30॥
= जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे युक्त है वह सत् है।
(पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 10) (समयसार / आत्मख्याति गाथा 2) (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 99) (कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 237)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 89वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामी। तस्मादुत्पादस्थितभंगमयं तत् सदेतदिह नियमात्।
= जैसे वस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है, इसलिए यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है।
(पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 86)
2. तीनों एक सत् के ही अंश हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 101पर्यायास्तूत्पादव्ययध्रौव्यैरालंबयंते उत्पादव्ययध्रौव्याणामंशधर्मत्वाद्बीजांकुरपादपवत्।....द्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशा....प्रतिभांति।
= पर्यायें उत्पादव्ययध्रौव्यके द्वारा अवलंबित हैं, क्योंकि, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अंशोंके धर्म हैं-बीज, अंकुर व वृक्षत्वकी भाँति। द्रव्यके नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव और अवस्थित रहनेवाला भाव, ये तीनों अंश भासित होते हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 203-228ध्रौव्यं सत् कथंचिद् पर्यायार्थाच्च केवलं न सतः। उत्पादव्ययवदिदं तच्चैकांशं न सर्वदेशं स्यात् ॥203॥ तत्रानित्यनिदानं ध्वंसोत्पादद्वयं सतस्तस्य। नित्यनिदानं ध्रुवमिति तत् त्रयमप्यंशभेदः स्यात् ।206। ननु चोत्पादध्वंसौ द्वावप्यंशात्मकौभवेतां हि। ध्रौव्यं त्रिकालविषयं तत्कथमंशात्मकं भवेदिति चेत् ॥218॥ न पुनः सतो हि सर्गः केनचिदंशैकभागमात्रेण। सहारो वा ध्रौव्यं वृक्षे फलपुष्पपत्रवन्न स्यात् ॥225॥
= पर्यायार्थिकनयसे `ध्रौव्य' भी कथंचित् सत्का होता है, केवल सत्का नहीं। इसलिए उत्पादव्ययकी तरह यह ध्रौव्य भी सत्का एक अंश है सर्वदेश नहीं है ॥203॥ उस सत्यकी अनित्यताका मूलकारण व्यय और उत्पाद हैं, तथा नित्यताका मूलकारण ध्रौव्य है। इस प्रकार वे तीनों ही सत्के अंशात्मक भेद हैं ॥206॥ प्रश्न-निश्चयसे उत्पाद और व्यय ये दोनों भले अशस्वरूप होवें, किंतु त्रिकालगोचर जो ध्रौव्य है, वह कैसे अंशात्मक होगा? ॥218॥ उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये तीनों अंश अर्थांतरोंकी तरह अनेक नहीं हैं ॥219॥ बल्कि ये तीनों एक सत्के ही अंश हैं ॥224॥ वृक्षमें फल फूल तथा पत्तेकी तरह किसी अंशरूप एक भागसे सत्का उत्पाद अथवा व्यय और ध्रौव्य होते हों, ऐसा भी नहीं है ॥225॥ वास्तवमें वे उत्पादिक न स्वतंत्र अंशोंके होते हैं और न केवल अंशोंके। बल्कि अंशोंसे युक्त अंशोंके होते हैं ॥228॥
3. वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है।
स्वयंभू स्त्रोत्र श्लोक /24न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्। नैवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥24॥
= यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उत्पाद व अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किंतु उस समय अंधकाररूप पुद्गलपर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।
आप्तमीमांसा 37,41नित्यैकांतपक्षेऽपिविक्रिया नोपपद्यते। प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ॥37॥ क्षणिकैकांतपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः। प्रत्यभिज्ञानाद्यभावान्न कार्यारंभः कुतः फलम् ॥41॥
= नित्य एकांत पक्षमें पूर्व अवस्थाके परित्याग रूप और उत्तर अवस्थाके ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती, अतः कार्योत्पत्तिके पूर्वमें ही कर्ता आदि कारकोंका अभाव रहेगा। और जब कारक ही न रहेंगे तब भला फिर प्रमाण और उसके फलकी संभावना कैसे की जा सकती है? अर्थात् उनका भी अभाव ही रहेगा ॥37॥ क्षणिक एकांत पक्षमें भी प्रेत्यभावादि अर्थात् परलोक, बंध, मोक्ष आदि असंभव हो जायेंगे। और प्रत्यभिज्ञान व स्मरणज्ञान आदिके अभावसे कार्यका प्रारंभ ही संभव न हो सकेगा। तब कार्यके आरंभ बिना पुण्य पाप व सुख-दुःख आदि फल काहे से होंगे ॥41॥
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 8/19/7न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा विद्यमानमात्रं वस्तु। सर्वथानित्यत्वस्तुनस्तत्त्वतः क्रमभुवां भावानामभावात्कुतो विकारवत्त्वम्। सर्वथा क्षणिकस्य च तत्त्वतः प्रत्यभिज्ञानाभावात् कुत एक संतानत्वम्। ततः प्रत्यभिज्ञानहेतुभूतेन केनचित्स्वरूपेण ध्रौव्यमालंब्यमानं काभ्यां चित्क्रमप्रवृत्ताभ्यां स्वरूपाभ्यां प्रलोयमानमुपजायमानं चेककालमेव परमार्थ तस्त्रितयीमवस्थां बिभ्राणं वस्तु सदवबोध्यम्।
= विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिकरूप होती है। सर्वथा नित्य वस्तुको वास्तवमें क्रमभावी भावोंका अभाव होनेसे विकार (परिणाम) कहाँसे होगा? और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तवमें प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एक प्रवाहपना कहाँसे रहेगा? इसलिए प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपमें ध्रुव रहती हुई और किन्हीं दो क्रमवर्ती स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई-इस प्रकार परमार्थतः एक ही कालमें त्रिगुणी अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु सत् जानना।
4. कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/32अर्पितानर्पितसिद्धे ।32।
= मुख्यता और गौणताकी अपेक्षा एक वस्तुमें विरोधी मालूम पड़नेवाले दो धर्मोंकी सिद्धि होती है। द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है।
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 54एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो। इदि जिणवरेहिं भणिदं अण्णोण्णविरुद्धम् विरुद्धम् ।54। (पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 54) द्रव्यार्थिकनयोपदेशेन न सत्प्रणाशो नासदुत्पादः। तस्यैव पर्य्यायार्थिकनयादेशेन सत्प्रणाशो शदुत्पादश्च।
= इस प्रकार जीवको सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, ऐसा जिनवरोंने कहा है, जो कि अन्योन्य विरुद्ध तथापि अविरुद्ध है ॥54॥ क्योंकि जीवको द्रव्यार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश नहीं है और असत्का उत्पाद नहीं है, तथा उसीको पर्यायार्थिकनयके कथनसे सत्का नाश है और असत्का उत्पाद भी है।
आप्तमीमांसा श्लोक 57न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ॥57॥
= वस्तु सामान्यकी अपेक्षा तो न उत्पन्न है और न विनष्ट, क्योंकि प्रगट अन्वय स्वरूप है। और विशेष स्वरूपसे उपजै भी है, विनशै भी है। युगपत् एक वस्तुको देखनेपर वह उपजै भी है, विनशै भी है और स्थिर भी रहे है।
न्यायबिंदु / मूल या टीका श्लोक 1/118/435भेदज्ञानात् प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि। अभेदज्ञानतः सिद्धा स्थितिरंशेन केनचित् ।118।
= भेद ज्ञानसे यदि उत्पाद और विनाश प्रतीत होता है तो अभेदज्ञानसे वह सत् या द्रव्य किसी एक स्थिति अंश रूपसे भी सिद्ध है। (विशेष देखो टीका)
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13/$35/54/1ण च जीवस्स दव्वत्तमसिद्धं; मज्झावत्थाए अक्कमेण दव्वत्ताविणाभावितिलक्खणत्तुवलंभादो।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13/$180/216/4सतः आविर्भाव एव उत्पादः, तस्यैव तिरोभाव एव विनाशः इति। द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम्।
= मध्यम अवस्थामें द्रव्यत्वक अविनाभावी उत्पाद व्यय और ध्रुवरूप त्रिलक्षणत्वकी युगपत् उपलब्धि होनेसे जीवमें द्रव्यपना सिद्ध ही है। विशेषार्थ-जिस प्रकार मध्यम अवस्थाके अर्थात् जवानीके चैतन्यमें अनंतरपूर्ववर्ती बचपनके चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी सिद्धि होती है, इसी प्रकार उत्पादव्ययध्रौव्यरूप त्रिलक्षणत्वकी एक साथ उपलब्धि होती है। उसी प्रकार जन्मके प्रथम समयका चैतन्य भी त्रिलक्षणात्मक ही सिद्ध होता है। अर्थ-सत्का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनष्ट होती है, ऐसा निश्चित हो जाता है।
(योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 27) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 91,198)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 90,91न हि पुनरुत्पादस्थितिभंगमयं तद्विनापि परिणामात्। असतो जन्मत्वादिह सतो विनाशस्य दुर्निवारत्वात् ॥90॥ द्रव्यं ततः कथं चिदुत्पद्यते हि भावेन। व्येति तदन्येन पुनर्नैतद्द्वितयं हि वस्तुतया ॥91॥
= वह सत् भी परिणामके बिना उत्पादस्थिति भंगरूप नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा माननेपर जगत्में असत्का जन्म और सत्का विनाश दुर्निवार हो जायेगा ॥90॥ इसलिए निश्चयसे द्रव्य कथंचित् किसी अवस्थासे उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्थासे नष्ट होता है, किंतु परमार्थ रीतिसे निश्चय करके ये दोनों (उत्पाद और विनाश) है ही नहीं ॥91॥
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 120-123, 184; 339-340नियत परिणामित्वादुत्पादव्ययमया य एव गुणाः। टंकोत्कीर्णन्यायात्त एव नित्या यथा स्वरूपत्वात् ॥120॥ न हि पुनरेकेषामिह भवति गुणानां निरन्वयो नाशः। अपरेषामुत्पादो द्रव्यं यत्तद्द्वयाधारम् ॥121॥ दृष्टांताभासोऽयं स्याद्धि विपक्षस्य मृत्तिकायां हि। एके नश्यंति गुणाः जायंते पाकजा गुणास्त्वन्ये ॥122॥ तत्रोत्तरमिति सम्यक् सत्यां तत्र च तथाविधायां हि। किं पृथिवीत्वं नष्टं न नष्टमथ चेत्तथा कथं न स्यात् ॥123॥ अयमर्थः पूर्वं यो भावः सोऽप्युत्तरत्र भावश्च। भूत्वा भवनं भावो नष्टोत्पन्नं न भाव इह कश्चित् ॥184॥ अयमर्थो वस्तु यथा केवलमिह दृश्यते न परिणामः। नित्यं तदव्ययादिह सर्वं स्यादन्वयार्थनययोगात् ।339। अपि च यदा परिणामः केवलमिह दृश्यते न किल वस्तु। अभिनवभावाभावादनित्यमंशनयात् ॥340॥
= नियमसे जो गुण हो परिणमनशील होनेके कारणसे उत्पादव्ययमयी कहलाते हैं, वही गुण टंकोत्कीर्ण न्यायसे अपने-अपने स्वरूपको कभी भी उल्लंघन न करनेके कारण नित्य कहलाते हैं ॥120॥ परंतु ऐसा नहीं है कि यहाँ किसी गुणका तो निरन्वय नाश होना माना गया हो तथा दूसरे गुणोंका उत्पाद माना गया हो। और इसी प्रकार नवीन-नवीन गुणोंके उत्पाद और व्ययका आधारभूत कोई द्रव्य होता हो ॥121॥ गुणोंको नष्ट व उत्पन्न माननेवाले वैशेषिकोंका `पिठरपाक' विषयक यह दृष्टांताभास है कि मिट्टीरूप द्रव्यमें घड़ा बन जाने पर कुछ गुण तो नष्ट हो जाते हैं और दूसरे पक्वगुण उत्पन्न हो जाते हैं ॥122॥ इस विषयमें यह उत्तर है कि इस मिट्टीमें-से क्या उसका मिट्टीपना नाश हो गया? यदि नष्ट नहीं होता तो वह निरूपण कैसे न मानी जाय ॥123॥ सारांश यह है कि पहले जो भाव था, उत्तरकालमें भी वही भाव है, क्योंकि यहाँ हो होकर होना यही भाव है। नाश होकर उत्पन्न होना ऐसा भाव माना नहीं गया ॥184॥ सारांश यह है कि जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है, और परिणाम दृष्टिगत नहीं होते, उस समय तहाँ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वस्तुपनेका नाश नहीं होनेके कारण संपूर्ण वस्तु नित्य है ॥339॥ अथवा जिस समय यहाँ निश्चयसे केवल परिणाम दृष्टिगत होते हैं और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे नवीन पर्यायकी उत्पत्ति तथा पूर्व पर्यायका अभाव होनेके कारण संपूर्ण वस्तु ही अनित्य है ॥340॥
5. उत्पादादिकमें परस्पर भेद व अभेदका समन्वय
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 100-101ण भवा भंगविहिणा भंगा वा णत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ।10। उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।101।
= `उत्पाद' भंगसे रहित नहीं होता और भंग बिना उत्पादके नहीं होता। उत्पाद तथा भंग (ये दोनों ही) ध्रौव्य पदार्थके बिना नहीं होते ।100। उत्पाद ध्रौव्य और व्यय पर्यायोंमें वर्तते हैं, पर्यायें नियमसे द्रव्यमें होती हैं; इसलिए वह सब द्रव्य है ।101।
(विशेष देखें (प्रवचनसार/तत्व प्रदीपिका टीका)
राजवार्तिक अध्याय 5/30/9-11/495-496व्ययोत्पादाव्यतिरेकाद् द्रव्यस्य ध्रौव्यानुपपत्तिरिति चेत्; न; अभिहितानवबोधात् ।9। स्ववचनविरोधाच्च ।10। उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा लक्ष्यलक्षणभावानुपपत्तिरिति चेत्; न; अन्यत्वानन्यत्वं प्रत्यनेकांतोपपत्तेः ।11।
= प्रश्न-व्यय और उत्पाद क्योंकि द्रव्यसे अभिन्न होते हैं, अतः द्रव्यध्रुव नहीं रह सकता? उत्तर-शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा। क्योंकि हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, किंतु कथंचित् कहते हैं। दूसरे इस प्रकारकी शंकाओंसे स्ववचन विरोध भी आता है, क्योंकि यदि आपका हेतु साधकत्वसे सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा। प्रश्न-उत्पादादिकोंका तथा द्रव्यका एकत्व हो जानेसे दोनोंमें लक्ष्यलक्षण भावका अभाव हो जायेगा? उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनमें कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है ऐसा अनेकांत है।
धवला पुस्तक 10/4,2,3,3/16/1अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासवदिरित्तअवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदिंयादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणाए कारणाभावादो। ण च उप्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पाद्दलक्खणभाववदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अवट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं।
= (ऋजुसूत्र नयसे) विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विवक्षित पर्यायका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतंत्र रूपसे नहीं पाया जाता यदि कहा जाय कि प्रथम समयमें पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयोंमें उसका अवस्थान होता है, सो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि उस (नय) में प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है। यदि कहा जाय कि उत्पाद ही अवस्थान है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भावको छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण (इस नयमें) पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 21/265/15ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यंते न वा। यदि भिद्यंते कथमेकं वस्तुवयात्मकम्। न भिद्यंते चेत् तथापि कथमेकं त्रयात्मकम्। उत्पादविनाशध्रौव्याणि स्याद् भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वात् रूपादिवदिति। न च भिन्नलक्षणत्वमसिद्धम्। न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेक्षाः खपुष्पवदसत्त्वापत्तेः। तथाहि। उत्पादः केवलो नास्ति। स्थितिविगमरहितत्वात् कूर्मरोमवत्। तथा विनाशः केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात् तद्वत्। एवं स्थितिः केवला नास्ति विनाशोत्पादशून्यत्वात् तद्वदेव। इत्यन्योन्यायेक्षाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम्। तथा चोक्तम्-"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।1। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रत। अगोरसव्रतो नोभे तस्माद् वस्तुत्रयात्मकम् ।2।
= प्रश्न-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न? यदि उत्पादादि परस्पर भिन्न हैं तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप नहीं कहा जा सकता। यदि वे परस्पर अभिन्न हैं तो उत्पादादिमें से किसी एकको ही स्वीकार करना चाहिए। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोग उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमें कथंचित् भेद मानते हैं अतएव उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका लक्षण भिन्न-भिन्न है, इसलिए रूपादिकी तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्यभी कथंचित् भिन्न हैं। उत्पाद आदिका भिन्न लक्षणपना असिद्ध भी नहीं है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा माननेसे उनका आकाशपुष्पकी तरह अभाव मानना पड़ेगा। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोंके नाश और स्थितिके बिना, बालोंका केवल उत्पाद होना संभव नहीं है, उसी तरह व्यय और ध्रौव्यसे रहित केवल उत्पादका होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार उत्पाद और ध्रौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिए। समंतभद्राचार्यने कहा भी है-( आप्तमीमांसा 59-60 )। "घड़े, मुकुट और सोनेके चाहने वाले पुरुष (सोनेके) घड़ेके नाश, मुकुटके उत्पाद और सोनेकी स्थिति में क्रमसे शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते हैं। दूधका व्रत लेने वाला पुरुष दही नहीं खाता, दहीका नियम लेनेवाला पुरुष दूध नहीं पीता और गोरसका व्रत लेनेवाला पुरुष दूध और दही दोनों नहीं खाता। इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है।
( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 100)
न्यायदीपिका 3/$79/123/5तस्माज्जीवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्यदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनयविस्तारविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव।
= जीवद्रव्यकी अपेक्षासे अभेद है और मनुष्य तथा देव पर्यायों की अपेक्षासे भेद है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयोंकी दृष्टिसे भेद और अभेदके माननेमें कोई विरोध नहीं है दोनों प्रामाणिक हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 217अयमर्थो यदि भेदः स्यादुन्मज्जति तदा हि तत् त्रितयम् अपि तत्त्रितयं निमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेदः ।217।
= सारांश यह है कि जिस समय भेद विवक्षित होता है उस समय निश्चयसे वे उत्पादादिक तीनों प्रतीत होने लगते हैं, और जिस समय वह भेद मूलसे ही विवक्षित नहीं किया जाता उस समय वे तीनों भी प्रतीत नहीं होते हैं।
6. उत्पादादिक में समय भेद नहीं है
आप्तमीमांसा 59घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।59।
= स्वर्ण कलश, स्वर्ण माला तथा माला इसके अर्थी पुरुष घटक तोड़ माला करनेमें युगपत् शोक, प्रमोद व माध्यस्थताको प्राप्त होते हैं। सो यह सब सहेतुक है। क्योंकि घट के नाश तथा मालाके उत्पाद व स्वर्णकी स्थिति इन तीनों बातोंका एक ही काल है।
धवला पुस्तक 4/1,5,4/335/9सम्मत्तगहिदपढमसमए णट्ठो मिच्छत्तपज्जाओ। कघमुप्पत्तिविणासाणमेक्को समओ। ण एक्कम्हि समए पिंडागारेण विणट्ठघडाकारेणुप्पण्णमिट्टियदव्वस्सुवलंभा।
= सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समयमें ही मिथ्यात्व पर्याय विनष्ट हो जाती है। प्रश्न-सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्यात्वका नाश इन दोनों विभिन्न कार्योंका एक समय कैसे हो सकता है? उत्तर-नहीं क्योंकि, जैसे एक ही समयमें पिंडरूप आकारसे विनष्ट हुआ घटरूप आकारसे उत्पन्न हुआ मृत्तिका रूप द्रव्य पाया जाता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 102यो हि नाम वस्तुनो जन्मक्षणः स जन्मनैव व्याप्तत्वात् स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न भवति। यश्च स्थितिक्षणः स खलूभयोरंतरालदुर्ललितत्वाज्जंमक्षणो नाशक्षणश्च न भवति। यश्च नाशक्षणः स तूत्पद्यवस्थाय च नश्यतो जन्मक्षणः स्थितिक्षणश्च न भवति। इत्युपपादादीनां वितर्क्यमाणः क्षणभेदोहृदयभूमिमवतरति। अवतरत्येवं यदि द्रव्यमात्मनैवोत्पद्यते आत्मनैवावतिष्ठते आत्मनैव नश्यतीत्यभ्युगम्यते। तत्तु नाभ्युपगमात्। पर्यायणामेवोत्पादादयः कुतः क्षणभेदः।
= प्रश्न-वस्तुका जो जन्मक्षण है वह जन्मसे ही व्याप्त होनेसे स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है; जो स्थितिक्षण है वह दोनों (उत्पादक्षण और नाशक्षण) के अंतरालमें दृढ़तया रहता है इसीलिए (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और जो नाशक्षण है वह वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फिर नाशको प्राप्त होती है, इसलिए, जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है। इस प्रकार तर्कपूर्वक विचार करनेपर उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें अवतरित होता है? उत्तर-यह क्षणभेद हृदयभूमिमें तभी उतर सकता है जब यह माना जाय कि `द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है!' किंतु ऐसा तो माना नहीं गया है। (क्योंकि यह सिद्ध कर दिया गया है कि) पर्यायोंके ही उत्पादादिक है। (तब फिर) वहाँ क्षणभेद कहाँसे हो सकता है।
गोम्मटसार जीवकांड/मं.प्र. 83/205/7परमार्थतः विग्रहगतौ प्रथमसमये उत्तरभवप्रथमपर्यायप्रादुर्भावो जन्म। पूर्वपर्याय विनाशोत्तरपर्यायप्रादुर्भाव योरंगुलिऋजुत्वविनाशवक्रत्वोत्पादवदेककालत्वात्।
= परमार्थसे विग्रहगतिके प्रथम समयमें ही उत्तर भवकी प्रथम पर्यायके प्रादुर्भावरूप जन्म हो जाता है। क्योंकि, जिस प्रकार अंगुलीको टेढ़ी करनेपर उसके सीधेपनका विनाश तथा टेढ़ेपनका उत्पाद एक ही समयमें दिखाई देता है, उसी प्रकार पूर्वपर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका प्रादुर्भाव इन दोनोंका भी एक ही काल है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 233-239एवं च क्षणभेदः स्याद्बीजांकुरपादपत्ववत्त्विति चेत् ।233। तन्न यतः क्षणभेदो न स्यादेकसमयमात्रं तत्। उत्पादादित्रयमपि हेतोः संदृष्टितोऽपि सिद्धत्वात् ।234। अपि चांकुरसृष्टेरिह य एव समयः स बीजनाशस्य। उभयोरप्यात्मत्वात् स एव कालश्च पादपत्वस्य ।239।
= प्रश्न-बीज अंकुर और वृक्षपनेकी भाँति सत् की उत्पादादिक तीनों अवस्थाओंमें क्षणभेद होता है ।233।? उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तीनोंमें क्षणभेद नहीं है। परंतु हेतुसे तथा साधक दृष्टांतोंसे भी सिद्ध होनेके कारण ये उत्पादादिक तीनों केवल एक समयवर्ती हैं ।234। वह इस प्रकार कि जिस समय अंकुर की उत्पत्ति होती है, उसी समय बीजका नाश होता है और दोनोंमें वृक्षत्व पाया जानेके कारण वृक्षत्वका भी वही काल है ।239।
7. उत्पादादिकमें समयके भेदाभेद विषयक समन्वय
धवला पुस्तक 12/4,2,13,254/457/6सुहुमसांपराइयचरियसमए वेयणोयस्स उक्कस्साणुभागबंधो जादो। ण च सुहुमसांपराइए मोहणीयभावो णत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तोवरोहादो सुहुमसांपराइयसण्णाणुववत्तीदो वा। तम्हा मोहणीयवेयणाभावविसया णत्थि त्ति ण जुज्जदे। एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा-विणासविसए दोण्णि णया होंति उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि। तत्थ उप्पादाणुच्छेदो णाम दव्वट्ठियो। तेणं संतावत्थाए चेव विणास मच्छदि, असंते बुद्धिविसयं चाइक्कंतभावेण वयणगोयराइक्कंते अभावववहाराणुववत्तीदो। ण च अभावो णाम अत्थि, तप्परिच्छिंदं तपमाणाभावादो, संतविसयाणं पमाणाणमसंते वावारविरोहादो। अविरोहे वा गद्दहसिंगं पि पमाणविसयं होज्ज। ण च एवं, अणुवलंभादो। तम्हा भावो चेव अभावो त्ति सिद्धं। अणुप्पदाणुच्छेदो णाम पज्जवट्ठिओ णयो। तेण असंतावत्थाए अभावववएसमिच्छदि, भावे उवलब्भमाणे अभावत्तविरोहादो। ण च पडसेहविसओ भावो भावत्त मल्लियइ, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो। ण च विणासो णत्थि घडियादीणं सव्वद्धमवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च भावो अभावो होदि, भावाभावाणमण्णोण्णविरुद्धाणमेयत्तविरोहादो। एत्थ जेण दव्वट्ठियणयो उप्पादाणुच्छेदो अवलंविदो तेण मोहणीयभाववेयणा णत्थि त्ति भणिदं। पज्जवट्ठियणये पुण अवलंविज्जमाणे मोहणीयभाववेयणा अणंतगुणहीणा होदूण अत्थि त्ति वत्तव्वं।
= सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अंतिम समयमें वेदनीयका अनुभागबंध उत्कृष्ट हो जाता है। परंतु उस सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानमें मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि भावके बिना द्रव्य कर्मके रहनेका विरोध है अथवा वहाँ भावके माननेपर `सूक्ष्म-सांपरायिक' यह संज्ञा ही नहीं बनती है। इस कारण (तहाँ) मोहनीयकी भावविषयक वेदना नहीं है यह कहना उचित नहीं है? उत्तर-यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं। विनाशके विषयमें दो नय हैं-उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद। उत्पादानुच्छेदका अर्थ द्रव्यार्थिकनय है इसलिए वह सद्भावकी अवस्थामें ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि, असत् और बुद्धिविषयता से अतिक्रांत होनेके कारण वचनके अविषयभूत पदार्थमें अभावका व्यवहार नहीं बन सकता। दूसरी बात यह है कि अभाव नामका कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। कारण कि सत्को विषय करनेवाले प्रमाणोंके असत्में प्रवृत्त होनेका विरोध है। अथवा असत्के विषयमें उनकी प्रवृत्तिका विरोध न माननेपर गधेका सींग भी प्रमाण का विषय होना चाहिए। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। इस प्रकार भावस्वरूप ही अभाव है यह सिद्ध होता है।
अनुत्पादानुच्छेदका अर्थ पर्यायार्थिकनय है। इसी कारण वह असत् अवस्थामें अभाव संज्ञाको स्वीकार करता है, क्योंकि, इस नयकी दृष्टिमें भावकी उपलब्धि होनेपर अभाव रूपताका विरोध है। और प्रतिषेधका विषयभूत, भाव भावरूपताको प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रतिषेध निष्फल होनेका प्रसंग आता है। विनाश नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, घटिका आदिकोंका सर्वकाल अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि भाव ही अभाव है (भावको छोड़कर तुच्छाभाव नहीं है) तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, भाव और अभाव ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव उनके एक होनेका विरोध है। यहाँ चूंकि द्रव्यार्थिक नयस्वरूप उत्पादानुच्छेदका अवलंबन किया गया है, अतएव `मोहनीय कर्मकी भाव वेदना यहाँ नहीं है' ऐसा कहा गया है। परंतु यदि पर्यायार्थिकनयका अवलंबन किया जाय तो मोहनीयकी भाववेदना अनंतगुणी हीन होकर यहाँ विद्यमान है ऐसा कहना चाहिए।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 94/80/11
द्रव्यार्थिकनयापेक्षया स्वस्वगुणस्थानचरमसमये बंधव्युच्छित्तिः बंधविनाशः। पर्यायार्थिकनयेन तु अनंतरसमये बंधनाशः।
द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे स्व स्व गुणस्थानके चरमसमयमें बंधव्युच्छित्ति या बंधविनाश होता है। और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे उस उस गुणस्थानके अनंतर समय में बंधविनाश होता है।
3. द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं
1. संपूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्यांश नहीं
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 211-215ननु भवतु वस्तु नित्यं गुणाश्च नित्या भवंतु वार्धिरिव। भावाः कल्लोलादिवदुत्पन्नध्वंसिनो भवंत्विति चेत् ।211। तन्न यतो दृष्टांतः प्रकृतार्थस्यैव बाधको भवति। अपि तदनुक्तस्यास्य प्रकृतविपक्षस्य साधकत्वाच्च ।212। अर्थांतरं हि न सतः परिणामेभ्यो गुणस्य कस्यापि। एकत्वाज्जलधेरिव कलितस्य तरंगमालाभ्यः ।213। किंतु य एव समुद्रस्तरंगमाला भवंति ता एव। यस्मात्स्वयं स जलधिस्तरंगरूपेण परिणमति ।214। तस्मात् स्वयमुत्पादः सदिति ध्रौव्यं व्योऽपि सदिति। न सतोऽतिरिक्त एव हि व्युत्पादो वा व्ययोऽपित्वा ध्रौव्यम् ।215।
= प्रश्न-समुद्रकी तरह वस्तुको तो नित्य माना जावे और गुण भी नित्य माने जावे, तथा पर्यायें कल्लोल आदिकी तरह उत्पन्न व नाश होनेवाली मानी जावें। यदि ऐसा कहो तो? ।211। उत्तर-ठीक नहीं है, क्योंकि समुद्र और लहरोंका दृष्टांत शंकाकारके प्रकृत अर्थका ही बाधक है, तथा शंकाकारके द्वारा नहीं कहे गये प्रकृत अर्थके विपक्षभूत इस वक्ष्यमाण कथंचित् नित्यानित्यात्मक अभेद अर्थका साधक है ।212। सो कैसे-तरंगमालाओंसे व्याप्त समुद्रकी तरह निश्चयसे किसी भी गुणके परिणामोंसे अर्थात् पर्यायोंसे सत्की अभिन्नता होनेसे उस सत्का अपने परिणामोंसे कुछ भी भेद नहीं है ।213। किंतु जो हो समुद्र है वे ही तरंगमालाएँ हैं क्योंकि वह समुद्र स्वयं तरंगरूपसे परिणमन करता है ।214। इसलिये `सत्' यह स्वयं उत्पाद है स्वयं ध्रौव्य है और स्वयं ही व्यय भी है। क्योंकि सत्से भिन्न कोई उत्पाद अथवा व्यय अथवा ध्रौव्य कुछ नहीं है ।215।
(विशेष देखें उत्पाद - 2.5)
राजवार्तिक अध्याय 5/226
द्रव्यकी पर्यायके परिवर्तन होनेपर अपरिवर्तिष्णु अंश कोई नहीं रहता। यदि कोई अंश परिवर्तनशील और कोई अंश अपरिवर्तनशील हो तो द्रव्यमें सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्यका दोष आता है।
2. द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है उस समय वैसा ही होता है
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 8-9परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्मत्तं। तम्हा धम्म परिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ।8। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ।9।
= द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमन करता है उस समय तन्मय है, ऐसा कहा है। इसलिए धर्मपरिणत आत्माको धर्म समझना चाहिए ।8। जीव परिणामस्वभावी होनेसे जब शुभ या अशुभभावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है तब शुद्ध होता है ।9।
3. उत्पाद व्यय द्रव्यांशमें नहीं पर्यायाँशमें होते हैं
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 11उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो। विगमुप्पादधुवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।
= द्रव्यका उत्पाद या विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसीकी पर्यायें विनाश उत्पाद व ध्रुवता करती हैं ।11।
(प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 201)।
पंचाध्यायी /मूल 179इदं भवति पूर्वपूर्वभावविनाशेन नश्यतोंऽशस्य। यदि वा तदुत्तरोत्तरभावोत्पादेन जायमानस्य ।179।
= वह परिणमन पूर्वपूर्व भावके विनाश रूपसे नष्ट होनेवाले अंशका और केवल उत्तर-उत्तर भावके उत्पादरूप उत्पन्न होनेवाले अंशका है, परंतु द्रव्यका नहीं है।
4. उत्पादव्ययको द्रव्यका अंश कहनेका कारण
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 201उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया। दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ।101।
= उत्पाद, स्थिति और भंग पर्यायोंमें होता है, पर्याय नियमसे द्रव्यमें होती हैं, इसलिए साराका सारा एक द्रव्य ही है।
(विशेष देखें उत्पाद - 2.5)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 200उत्पादस्थितिभंगाः पर्यायाणां भवंति किल न सतः। ते पर्यायाः द्रव्यं तस्माद्द्रव्यं हि तत्त्रितयम् ।200।
= निश्चयसे उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य ये तीनों पर्यायोंके होते हैं सत्के नहीं, और क्योंकि वे पर्यायें ही द्रव्य हैं, इसलिए द्रव्य ही उत्पादादि तीनोंवाला कहा जाता है।
5. पर्याय भी कथंचित् ध्रुव है
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1-6/13/351/27
एकक्षणस्थायित्वस्याभिधानात्।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1-7/24/580/22कवलं यथार्जुसूत्रात्क्षणस्थितिरेव भावः स्वहेतोरुत्पन्नस्तथा द्रव्यार्थिकनयात्कालांतरस्थितिरेवेति प्रतिचक्ष्महे सर्वथाप्यबाधितप्रत्ययात्तत्सिद्धिरिति स्थितिरधिगम्या।
= एक क्षणमें स्थितिस्वभावसे रहनेका अर्थ अक्षणिकपना कहा गया है, अर्थात् जो एक क्षण भी स्थितिशील है वह ध्रुव है जैसे ऋजुसूत्रनयसे एक क्षण तक ही ठहरनेवाला पदार्थ अपने कारणोंसे उत्पन्न हुआ है, तिस प्रकार द्रव्यार्थिकनयसे जाना गया अधिक काल ठहरनेवाला पदार्थ भी अपने कारणोंसे उत्पन्न हुआ है, यह हम व्यक्त रूपसे कहते हैं। सभी प्रकारों करके बाधारहित प्रमाणोंसे उस कालांतरस्थायी ध्रुव पर्यायको सिद्धि हो जाती है।
धवला पुस्तक 4/1,5,4/336/12मिच्छत्तं णाम पज्जाओ। सो च उप्पादविणासलक्खणो, ट्ठिदीए अभावादो। अह जइ तस्स ट्ठिदी वि इच्छिज्जदि, तो मिच्छत्तस्स दव्वत्तं पसज्जदे; `...ण एस दोसो, जमक्कमेण तिलक्खणं तं दव्वं; जं पुण कमेण उप्पादट्ठिदिभंगिलं सो पज्जाओ त्ति जिणोवदेसादो।
= प्रश्न-मिथ्यात्व नाम पर्यायका है, वह पर्याय उत्पाद और व्यय लक्षणवाली है, क्योंकि, उसमें स्थितिका अभाव है, और यदि उसके स्थिति भी मानते हैं तो मिथ्यात्वके द्रव्यपना प्राप्त होता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जो अक्रमसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंवाला होता है वह द्रव्य होता है और जो क्रमसे उत्पाद स्थिति और व्यय वाला होता है वह पर्याय है, इस प्रकारसे जिनेंद्रका उपदेश है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 18अखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पाद; केनचिद्विनाशः केनचिद्ध्रौव्यमित्यवबोद्धव्यम्।
= सर्व द्रव्योंका किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्य होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 203ध्रौव्यं ततः कथंचित् पर्यायार्थाच्च केवलं न सतः। उत्पादव्ययवदिदं तच्चैकांशं न सर्व देशं स्यात् ।203।
= पर्यायार्थिक नयसे ध्रौव्य भी कथंचित् सत्का होता है, केवल सत्का नहीं। इसलिए उत्पाद व्यय की भाँति वह ध्रौव्य भी सत् का अंश (पर्याय) है परंतु सर्व देश नहीं।
6. द्रव्य गुण पर्याय तीनों सत् हैं
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 107सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो। जा खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो।
= सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् पर्याय इस प्रकार सत्ता गुणका विस्तार है।
7. पर्याय सर्वथा सत् नहीं है
धवला पुस्तक 15/1/17असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।1। (सांख्य कारिका. 9)-इति के वि भणंति। एवं पि ण जुज्जदे। कुदो। एयंतेण संते कत्तार वावारस्स विहलत्तप्पसंगादो, उवायाणंग्गहणाणुववत्तीदो, सव्वहा संतस्य संभविरोहादो, सव्वहा संते कज्जकारणाभावाणुववत्तीदो। किंच-विप्पडिसेहादो ण संतस्स उप्पत्ती। जदि अत्थि, कधं तस्सुप्पत्ती। अह उप्पज्जई, कधं तस्स अत्थित्तमिदि।
= प्रश्न-चूँकि असत् कार्य किया नहीं जा सकता है, उपादानोंके साथ कार्यका संबंध रहता है, किसी एक कारणसे भी कार्योंकी उत्पत्ति संभव नहीं है, समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा कार्य कारण-स्वरूपही है-उससे भिन्न संभव नहीं है, अतएव इन हेतुओंके द्वारा कारण व्यापारसे पूर्व भी कार्य सत् ही है, यह सिद्ध है ।1। (सांख्य) उत्तर-इस प्रकार किन्हीं कपिल आदिका कहना है जो योग्य नहीं है। कारण कि कार्यको सर्वथा सत् माननेपर कर्ताके व्यापारके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। इसी प्रकार सर्वथा कार्यके सत् होनेपर उपादानका ग्रहण भी नहीं होता। सर्वथा सत् कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है। कार्यके सर्वथा सत् होने पर कार्यकारणभाव ही घटित नहीं होता। इसके अतिरिक्त असंगत होनेसे सत्-कार्यकी उत्पत्ति संभव नहीं है; क्योंकि, यदि `कार्य' कारणव्यापारके पूर्वमें भी विद्यमान है तो फिर उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? और यदि वह कारण व्यापारसे उत्पन्न होता है, तो फिर उसका पूर्वमें विद्यमान रहना कैसे संगत कहा जावेगा?
8. लोकाकाशमें भी तीनों पाये जाते हैं
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 117परिणाम सहावादो पडिसमयं परिणमंति दव्वाणि। तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणामं ।117।
= परिणमन करना वस्तुका स्वभाव है, अतः द्रव्य प्रति समय परिणमन करते हैं। उनके परिणमनसे लोकका भी परिणमन जानो।
9. धर्मादि द्रव्योंमें परिणमन है पर परिस्पंद नहीं
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/7/273/1अत्र चोद्यते-धर्मादीनि द्रव्याणि यदि निष्क्रियाणि ततस्तेषामुत्पादो न भवेत्। क्रियापूर्वको हि घटादीनामुत्पादो दृष्टः। उत्पादाभावाच्च व्यायाभावइति। अतः सर्वद्रव्याणामुत्पादादित्रितयकल्पनाव्याघात इति। तन्न; किं कारणम्। अन्यथोपपत्तेः। क्रियानिमित्तोत्पादाभावेऽप्येषां धर्मादीनामन्यथोत्पादः कल्प्यते। तद्यथा द्विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च।.....षट्स्थानपतितया वृद्ध्या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेस्तेषामुत्पादो व्ययश्च।
= प्रश्न - यदि धर्मादि द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन-सकता, क्योंकि घटादिकका क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है, और उत्पाद नहीं बननेसे इनका व्यय भी नहीं बनता। अतः `सब द्रव्य उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं', इस कल्पनाका व्याघात हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि इनमें उत्पादादि तीन अन्य प्रकारसे बन जाते हैं। यद्यपि इन धर्मादि द्रव्योंमें क्रिया निमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकारसे उत्पाद माना गया है। यथा-उत्पाद दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और परप्रत्यय उत्पाद। तहाँ इनमें छह स्थानपतित वृद्धि और हानिके द्वारा वर्तन होता रहता है। अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभावसे (स्वनिमित्तक) होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/7/3/446/10)
10. मुक्त आत्माओंमें भी तीनों देखे जा सकते हैं
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 17भंगविहीणो य भवो संभव परिवज्जिदो विणासो हि। विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो ।17।
= उसके (शुद्धात्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और उत्पाद रहित विनाश है। उसके ही फिर ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश का समय विद्यमान है ।17।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 18/12सुवर्णगोरसमृत्तिकापुरुषादिमूर्तपदार्थेषु यथोत्पादादित्रयं लोके प्रसिद्धं तथैवामूर्तेऽपि मुक्तजीवे। यद्यपि.....1. संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशोभवति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति। अथवा 2. ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भंगत्रयेण परिणमंति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्त्यपेक्षया भंगत्रयेण परिणमति। 3. षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यापेक्षया वा भंगत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम्।
= जिस प्रकार स्वर्ण, गोरस, मिट्टी व पुरुषादि मूर्त द्रव्यों में उत्पादादि तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार अमूर्त मुक्त जीव में भी जानना। 1. यद्यपि संसार की जन्ममरण रूप कारण समयसार की पर्याय का विनाश हो जाता है परंतु केवलज्ञानादि की व्यक्ति रूप कार्य समयसार रूप पर्याय का उत्पाद भी हो जाता है, और दोनों पर्यायों से परिणत आत्मद्रव्य रूप से ध्रौव्यत्व भी बना रहता है, क्योंकि, वह एक पदार्थ है। 2. अथवा दूसरी प्रकार से-ज्ञेय पदार्थों में प्रतिक्षण तीनों भंगों द्वारा परिणमन होता रहता है और ज्ञान भी परिच्छित्ति की अपेक्षा तदनुसार ही तीनों भंगों से परिणमन करता रहता है। 3. तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघु गण में होनेवाली वृद्धिहानि की अपेक्षा भी तीनों भंग तहाँ जानने चाहिए। ऐसा सूत्र का तात्पर्य है।
(परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/56); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/46/1)
• उत्पादव्यय सापेक्ष निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय - देखें नय - IV.2।