लब्धि: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/47/197/8 </span><span class="SanskritText">तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः </span>=<span class="HindiText"> तप विशेष से प्राप्त होने वाली ऋद्धि को लब्धि कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/47/2/151/31 </span>)। </span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/47/197/8 </span><span class="SanskritText">तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः </span>=<span class="HindiText"> तप विशेष से प्राप्त होने वाली ऋद्धि को लब्धि कहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/47/2/151/31 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3,41/86/3 </span><span class="PrakritText">सम्मद्दंसण-णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में जो जीव का समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 8/3,41/86/3 </span><span class="PrakritText">सम्मद्दंसण-णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम। </span>= <span class="HindiText">सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में जो जीव का समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,50/283/1 </span><span class="SanskritText"> विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यंता इष्टवस्तूपलंभा लब्ध्यः।</span> =<span class="HindiText">मुक्ति पर्यंत इष्ट | <span class="GRef"> धवला 13/5,5,50/283/1 </span><span class="SanskritText"> विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यंता इष्टवस्तूपलंभा लब्ध्यः।</span> =<span class="HindiText">मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तु को प्राप्त कराने वाली अणिमा आदि विक्रियाएँ लब्धि कही जाती हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 </span><span class="SanskritText">जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः।</span> = <span class="HindiText">जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धि ...। <br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 </span><span class="SanskritText">जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः।</span> = <span class="HindiText">जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धि ...। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> पंचलब्धि निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> पंचलब्धि निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 </span><span class="SanskritText">लब्धिः कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात् पंचधा।</span> = <span class="HindiText">लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 </span><span class="SanskritText">लब्धिः कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात् पंचधा।</span> = <span class="HindiText">लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यता रूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8, 3/1/204 </span><span class="PrakritGatha">खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य। चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते।1।</span> = <span class="HindiText">क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धि हैं। (<span class="GRef"> लब्धिसार/मूल/3/44 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/651/1100 </span>)।<br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8, 3/1/204 </span><span class="PrakritGatha">खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य। चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते।1।</span> = <span class="HindiText">क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धि हैं। (<span class="GRef"> लब्धिसार/मूल/3/44 </span>), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/651/1100 </span>)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> क्षयोपशमलब्धि का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> क्षयोपशमलब्धि का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,45/87/3 </span>णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खो, तस्स खओवसमसण्णा। तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्पज्जदि त्ति खओवसमिया लद्धी वुच्चदे।<br /> | <span class="GRef"> धवला 7/2,1,45/87/3 </span><span class="PrakritGatha">णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खो, तस्स खओवसमसण्णा। तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्पज्जदि त्ति खओवसमिया लद्धी वुच्चदे।<br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,71/108/7 </span><span class="PrakritText">उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं जेण खओवसमसण्णा अत्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो खओवसमलद्धीसण्णिदो।</span> = | <span class="GRef"> धवला 7/2,1,71/108/7 </span><span class="PrakritText">उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं जेण खओवसमसण्णा अत्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो खओवसमलद्धीसण्णिदो।</span> = | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> प्रायोग्यलब्धि का स्वरूप</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> प्रायोग्यलब्धि का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,3/204/9 </span><span class="PrakritText">सव्वकम्माणमुक्कस्सट्ठिदिमुक्कस्साणुभागं च घादिय अंतोकीडाकोडीट्ठिदिम्हि वेट्ठाणाणुभागे च अवट्ठाणं पाओग्गलद्धी णाम।</span> = <span class="HindiText">सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंतःकोड़ाकोड़ी स्थिति में, और द्विस्थानीय | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,3/204/9 </span><span class="PrakritText">सव्वकम्माणमुक्कस्सट्ठिदिमुक्कस्साणुभागं च घादिय अंतोकीडाकोडीट्ठिदिम्हि वेट्ठाणाणुभागे च अवट्ठाणं पाओग्गलद्धी णाम।</span> = <span class="HindiText">सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंतःकोड़ाकोड़ी स्थिति में, और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। (<span class="GRef"> लब्धिसार/ मूल/7/45</span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/मूल 9-32/47-68 </span> <span class="PrakritGatha"> सम्मत्तहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो ह। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई।9। अंतोकोडाकोडीठिदं असत्थाण सत्थणाणं च। विचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणइ।24। मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थगमणसुभगतियं। णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु।25। ... एकट्ठि पमाणाणमणुक्कस्सपदेसं बंधणं कुणई।26। उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्सवेदगो होदि। विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरस भुत्ती।29। अजहण्णमणुक्कस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु। उदयिल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि।30। अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं। एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं।32। </span>= | <span class="GRef"> लब्धिसार/मूल 9-32/47-68 </span> <span class="PrakritGatha"> सम्मत्तहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो ह। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई।9। अंतोकोडाकोडीठिदं असत्थाण सत्थणाणं च। विचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणइ।24। मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थगमणसुभगतियं। णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु।25। ... एकट्ठि पमाणाणमणुक्कस्सपदेसं बंधणं कुणई।26। उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्सवेदगो होदि। विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरस भुत्ती।29। अजहण्णमणुक्कस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु। उदयिल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि।30। अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं। एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं।32। </span>= | ||
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<li class="HindiText"><strong> अनुभागबंध-</strong> अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतुःस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगणा बढ़ता बाँधता है।24। </li> | <li class="HindiText"><strong> अनुभागबंध-</strong> अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतुःस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगणा बढ़ता बाँधता है।24। </li> | ||
<li class="HindiText"><strong> प्रदेशबंध- </strong>मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी चतुष्क, स्त्यानगृद्धि त्रिक, देवचतुष्क, वज्रऋषभ नाराच, प्रशस्तविहायोगति, सुभगादि तीन, व नीचगोत्र। इन 29 प्रकृतियों का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। महादंडक में कहीं 61 प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है।(25-26)। </li> | <li class="HindiText"><strong> प्रदेशबंध- </strong>मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी चतुष्क, स्त्यानगृद्धि त्रिक, देवचतुष्क, वज्रऋषभ नाराच, प्रशस्तविहायोगति, सुभगादि तीन, व नीचगोत्र। इन 29 प्रकृतियों का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। महादंडक में कहीं 61 प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है।(25-26)। </li> | ||
<li class="HindiText"><strong> उदयउदीरणा -</strong> उदयवान् प्रकृतियों का उदय की अपेक्षा एक स्थिति जो उदय को प्राप्त हुआ एक | <li class="HindiText"><strong> उदयउदीरणा -</strong> उदयवान् प्रकृतियों का उदय की अपेक्षा एक स्थिति जो उदय को प्राप्त हुआ एक निषेक, उस ही का भोक्ता होता है। अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानरूप और प्रशस्त प्रकृतियों के चतुस्थानरूप अनुभाग का भोक्ता होता है।29। उदय प्रकृतियों का अजघन्य या अनुत्कृष्ट प्रदेश को भोगता है। जो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग उदयरूप हों उन्हीं की उदीरणा करने वाला होता है।30। </li> | ||
<li class="HindiText"><strong> सत्त्व-</strong> सत्तारूप प्रकृतियों का स्थिति, अनुभाग, प्रदेश अजघन्य अनुत्कृष्ट है।</li> | <li class="HindiText"><strong> सत्त्व-</strong> सत्तारूप प्रकृतियों का स्थिति, अनुभाग, प्रदेश अजघन्य अनुत्कृष्ट है।</li> | ||
<li class="HindiText"> ऐसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चतुष्क हैं सो बंध, उदय उदीरणा सत्त्व इन सब में कहा। यह क्रम प्रायोग्यलब्धि के अंत पर्यंत जानना।32।<br /> | <li class="HindiText"> ऐसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चतुष्क हैं सो बंध, उदय उदीरणा सत्त्व इन सब में कहा। यह क्रम प्रायोग्यलब्धि के अंत पर्यंत जानना।32।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> सम्यक्त्व की प्राप्ति में पंच लब्धि का स्थान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> सम्यक्त्व की प्राप्ति में पंच लब्धि का स्थान</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">पद्मनन्दी पंचविंशतिका/4/12</span> <span class="SanskritGatha">लब्धिपंचकसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः। भव्यः सम्यग्दृगादीनां यः स मुक्तिपथे स्थितः।12।</span> =<span class="HindiText"> जो भव्य जीव पाँच लब्धि रूप विशेष सामग्री से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय को धारण करने के योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्ग में स्थित हो गया है।12। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/8 </span><span class="SanskritText">पंचलब्ध्यः उपशमसम्यक्त्वे भवंति।</span> =<span class="HindiText"> पाँचों लब्धि उपशम सम्यक्त्व के ग्रहण में होती हैं। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.9 | सम्यग्दर्शन - IV.2.9]])।<br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/8 </span><span class="SanskritText">पंचलब्ध्यः उपशमसम्यक्त्वे भवंति।</span> =<span class="HindiText"> पाँचों लब्धि उपशम सम्यक्त्व के ग्रहण में होती हैं। (और भी देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.9 | सम्यग्दर्शन - IV.2.9]])।<br /> | ||
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<span class="GRef"> धवला 1/1,1,22/195/8 </span><span class="SanskritText">ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातुर्वचनस्य प्रामाण्याभावात्। </span>= <span class="HindiText">ज्ञान-विज्ञान से रहित होने के कारण जिसने स्वयं प्रमाणता प्राप्त नहीं की ऐसे व्याख्याता के वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,22/195/8 </span><span class="SanskritText">ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातुर्वचनस्य प्रामाण्याभावात्। </span>= <span class="HindiText">ज्ञान-विज्ञान से रहित होने के कारण जिसने स्वयं प्रमाणता प्राप्त नहीं की ऐसे व्याख्याता के वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/2/10/3 </span><span class="SanskritText">न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः। ...। 3। </span>=<span class="HindiText"> धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों के द्वारा नहीं कहा जा सकता है। <br /> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/2/10/3 </span><span class="SanskritText">न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः। ...। 3। </span>=<span class="HindiText"> धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों के द्वारा नहीं कहा जा सकता है। <br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/1/22/4 </span>वक्ता कैसा चाहिए जो जैन श्रद्धान विषै दृढ होय जातैं जो आप अश्रद्धानी होय तौ और कौ श्रद्धानी कैसे करै ?<br /> | <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/1/22/4 </span><br> | ||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ | <span class="HindiText">वक्ता कैसा चाहिए जो जैन श्रद्धान विषै दृढ होय जातैं जो आप अश्रद्धानी होय तौ और कौ श्रद्धानी कैसे करै ?<br /> | ||
<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2/4/19</span><br> | |||
<span class="HindiText"> जाकैं धर्म नाहीं तिसतैं धर्म की प्राप्ति नाहीं ताकूं धर्मनिमित्त काहेकूं वंदिए ...। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> कदाचित् मिथ्यादृष्टि से भी देशना की संभावना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> कदाचित् मिथ्यादृष्टि से भी देशना की संभावना</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> करणलब्धि भव्य को ही होती है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> करणलब्धि भव्य को ही होती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/ | <span class="GRef"> लब्धिसार/मूल/33/69 </span> <span class="PrakritGatha">तत्तो अभव्वलोग्गं परिणामं बोलिऊण। भव्वो हु। करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियट्ठिं।33। </span>= <span class="HindiText">अभव्य के भी योग्य ऐसी चार लब्धियों रूप परिणाम को समाप्त करके जो भव्य है, वह जीव अधःप्रवृत्त, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण को करता है।33।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/9 </span><span class="SanskritText">करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात्।</span> = <span class="HindiText">करण लब्धि तो भव्य ही के होती है। <br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/9 </span><span class="SanskritText">करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात्।</span> = <span class="HindiText">करण लब्धि तो भव्य ही के होती है। <br /> | ||
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<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8, 14/283/5 </span><span class="PrakritText">तत्थ पडिवादट्ठाणं णाम जम्हि ट्ठाणे मिच्छत्तं वाअसंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छदि तं पडिवादट्ठाणं।</span> =<span class="HindiText"> जिस स्थान पर जीव मिथ्यात्व को अथवा असंयम सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8, 14/283/5 </span><span class="PrakritText">तत्थ पडिवादट्ठाणं णाम जम्हि ट्ठाणे मिच्छत्तं वाअसंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छदि तं पडिवादट्ठाणं।</span> =<span class="HindiText"> जिस स्थान पर जीव मिथ्यात्व को अथवा असंयम सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/जीव तत्त्व प्रदीपिका/188/240/12 </span> <span class="SanskritText">प्रतिपातो बहिरंतरंगकारणवशेन संयमात्प्रच्यव:। स च संक्लिष्टस्य तत्कालचरमसमये विशुद्धिहान्या सर्वजघन्यदेशसंयमशक्तिकस्य मनुष्यस्य तदनंतरसमये मिथ्यात्वं प्रतिपतस्यमानस्य भवति। </span>= <span class="HindiText">प्रतिपात नाम संयम से भ्रष्ट होने का है सो संक्लेश परिणाम से संयम से भ्रष्ट होते देशसंयम के अंत समय में प्रतिपातस्थान होता है। <br /> | <span class="GRef"> लब्धिसार/जीव तत्त्व प्रदीपिका/188/240/12 </span> <span class="SanskritText">प्रतिपातो बहिरंतरंगकारणवशेन संयमात्प्रच्यव:। स च संक्लिष्टस्य तत्कालचरमसमये विशुद्धिहान्या सर्वजघन्यदेशसंयमशक्तिकस्य मनुष्यस्य तदनंतरसमये मिथ्यात्वं प्रतिपतस्यमानस्य भवति। </span>= <span class="HindiText">प्रतिपात नाम संयम से भ्रष्ट होने का है सो संक्लेश परिणाम से संयम से भ्रष्ट होते देशसंयम के अंत समय में प्रतिपातस्थान होता है। <br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/186/237/11 </span> | <span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/186/237/11 </span> <br><span class="HindiText"> देशसंयम तै (वा संयम ते) भ्रष्ट हौतैं अंत समय में संभवते जे स्थान ते प्रतिपातगत है। (<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/277 </span>पर विशेषार्थ)।<br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/188/242/8 </span> मिथ्यात्व को समुख मनुष्य वा तिर्यंच के जघन्य और असंयत को संमुख मनुष्य वा तिर्यंच के उत्कृष्ट प्रतिपात स्थान ही है। <br /> | <span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा/188/242/8 </span> <br><span class="HindiText">मिथ्यात्व को समुख मनुष्य वा तिर्यंच के जघन्य और असंयत को संमुख मनुष्य वा तिर्यंच के उत्कृष्ट प्रतिपात स्थान ही है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> अनुभयागत व तद्व्यतिरिक्त संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> अनुभयागत व तद्व्यतिरिक्त संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,4/283/7 </span><span class="PrakritText">सेससव्वाणि चेव चरित्तट्ठाणाणि तव्वदिरित्तट्ठणाणि णाम।</span> =<span class="HindiText">इन (प्रतिपात व उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानों के) अतिरिक्त सर्व ही चारित्र (के मध्यवर्ती) स्थानों को तद्वय्यतिरिक्त संयमलब्धि स्थान कहते हैं। (<span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा /186 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,4/283/7 </span><span class="PrakritText">सेससव्वाणि चेव चरित्तट्ठाणाणि तव्वदिरित्तट्ठणाणि णाम।</span> =<span class="HindiText">इन (प्रतिपात व उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानों के) अतिरिक्त सर्व ही चारित्र (के मध्यवर्ती) स्थानों को तद्वय्यतिरिक्त संयमलब्धि स्थान कहते हैं। (<span class="GRef"> लब्धिसार/भाषा /186 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/मूल/198,201 </span> <span class="PrakritText">अणुभयंतु। तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा।198। ...उवरिं सामाइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा।201।</span> = <span class="HindiText">(प्रतिपात व प्रतिपद्यमान स्थानों के) बीच में वा ऊपर के गुणस्थानों के संमुख होते अनुभय स्थान होता है। सो देशसंयम की भाँति जानना।198। तिनके ऊपर (संयत के ऊपर) अनुभय स्थान हैं वे सामायिक छेदोपस्थापना संबंधी हैं। तिनिका जघन्य उत्कृष्ट के बीच परिहार-विशुद्धि के स्थान हैं।<br /> | <span class="GRef"> लब्धिसार/मूल/198,201 </span> <span class="PrakritText">अणुभयंतु। तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा।198। ...उवरिं सामाइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा।201।</span> = <span class="HindiText">(प्रतिपात व प्रतिपद्यमान स्थानों के) बीच में वा ऊपर के गुणस्थानों के संमुख होते अनुभय स्थान होता है। सो देशसंयम की भाँति जानना।198। तिनके ऊपर (संयत के ऊपर) अनुभय स्थान हैं वे सामायिक छेदोपस्थापना संबंधी हैं। तिनिका जघन्य उत्कृष्ट के बीच परिहार-विशुद्धि के स्थान हैं।<br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/जीवतत्त्व प्रदीपिका/188/241/14</span> | <span class="GRef"> लब्धिसार/जीवतत्त्व प्रदीपिका/188/241/14 का भावार्थ</span><br><span class="HindiText">- मिथ्यादृष्टि से देशसंयत होने के दूसरे समयमें मनुष्य व तिर्यंच के जघन्य अनुभय स्थान है। और असंयत से देशसंयत होने पर एकांतवृद्धि स्थान के अंत समय में तिर्यंच के उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है। तथा असंयत से देशसंयत होने पर एकांतवृद्धि स्थान के अंत समय में सकल संयम को संमुख मनुष्य के उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है। <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/277/ </span> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/277/ विशेषार्थ </span><br><span class="HindiText">- इन दोनों (प्रतिपाद व उत्पाद या प्रतिपद्यमान) स्थानों को छोड़कर मध्यवर्ती समय में संभव समस्त स्थानों को अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong> एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/273/18/ </span> | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,14/273/18/ विशेषार्थ</span><br>-<span class="HindiText"> संयतासंयत होने के प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है, उसे एकांतानुवृद्धि कहते हैं। (अन्यत्र भी यथायोग्य जानना)।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान का स्वामित्व</strong> </span><br /> |
Revision as of 15:03, 13 April 2023
सिद्धांतकोष से
ज्ञान आदि शक्ति विशेष को लब्धि कहते हैं। सम्यक्त्व प्राप्ति में पाँच लब्धियों का होना आवश्यक बताया गया है, जिनमें करण लब्धि उपयोगात्मक होने के कारण प्रधान है। इनके अतिरिक्त जीव में संयम या संयमासंयम आदि को धारण करने की योग्यताएँ भी उस-उस नाम की लब्धि कही जाती है।
- लब्धि सामान्य निर्देश
- लब्धि सामान्य का लक्षण
- ज्ञान व सम्यक्त्व की अपेक्षा लब्धि के लक्षण - देखें उपलब्धि - 3।
- लब्धि रूप मति श्रुतज्ञान-देखें वह वह नाम ।
- लब्धि व उपयोग में संबंध- देखें उपयोग - 2.2।
- क्षायिक व क्षयोपशम की दानादि लब्धियाँ।
- क्षायिक दानादि लब्धियाँ तथा तत्संबंधी शंकाएँ - देखें वह वह नाम ।
- नव केवललब्धि का नाम निर्देश।
- लब्धि सामान्य का लक्षण
- उपशम सम्यक्त्व संबंधी पंच लब्धि निर्देश
- काल (प्रायोग्य) लब्धि में करण के बिना शेष चार लब्धियों का अंतर्भाव - देखें नियति - 2।
- देशना लब्धि निर्देश
- देशना का संस्कार अन्य भवों में भी साथ जाता है - देखें संस्कार - 1.2।
- करण लब्धि निर्देश
- पाँचों में करण लब्धि की प्रधानता। -देखें लब्धि - 2.6।
- संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान
- संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान का लक्षण।
- संयम व संयमासंयम लब्धि स्थानों के भेद।
- प्रतिपद्यमान व उत्पाद संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान के लक्षण।
- प्रतिपातगत संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान का लक्षण।
- अनुभयगत व तद्व्यतिरिक्त संयम व संयमासयम लब्धि स्थानों का लक्षण।
- एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धि स्थानों का लक्षण।
- जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान का स्वामित्व।
- भेदातीत लब्धि स्थानों का स्वामित्व।
- लब्धि सामान्य निर्देश
- लब्धि सामान्य का लक्षण
- क्षयोपशम शक्ति के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/18/176/3 लंभनं लब्धिः। का पुनरसौ। ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः। यत्संनिधानादात्मा द्रव्येंद्रियनिर्वृत्तिं प्रतिव्याप्रियते। = लब्धि शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ - लंभनं लब्धिः - प्राप्त होना। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। जिसके संसर्ग से आत्मा द्रव्येंद्रिय की रचना करने के लिए उद्यत होता है। ( राजवार्तिक/2/18/1-2/30/20 )।
धवला 1/1,1,33/236/5 इंद्रियनिर्वृत्ति हेतुः क्षयोपशमविशेषे लब्धिः। यत्संनिधानादात्मा द्रव्येंद्रियनिर्वृत्ति प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते। = इंद्रिय की निर्वृत्ति का कारणभूत जो क्षयोपशम विशेष है, उसे लब्धि कहते हैं। अर्थात् जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येंद्रिय की रचना में व्यापार करता है, ऐसे ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/165/391/4 मतिज्ञानावरणक्षयोपशमोत्था विशुद्धिर्जीवस्यार्थग्रहणशक्तिलक्षणलब्धिः। = जीव के जो मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई विशुद्धि और उससे उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की जो शक्ति उसको लब्धि कहते हैं।
- गुणप्राप्ति के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/47/197/8 तपोविशेषादृद्धिप्राप्तिर्लब्धिः = तप विशेष से प्राप्त होने वाली ऋद्धि को लब्धि कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/47/2/151/31 )।
धवला 8/3,41/86/3 सम्मद्दंसण-णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम। = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में जो जीव का समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं।
धवला 13/5,5,50/283/1 विकरणा अणिमादयो मुक्तिपर्यंता इष्टवस्तूपलंभा लब्ध्यः। =मुक्ति पर्यंत इष्ट वस्तु को प्राप्त कराने वाली अणिमा आदि विक्रियाएँ लब्धि कही जाती हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः। = जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धि ...।
- आगम के अर्थ में
धवला 13/5,5-50/283/2 लब्धीनां परंपरा यस्मादागमात् प्राप्यते यस्मिन् तत्प्राप्त्युपायो निरूप्यते वा स परंपरालब्धिरागमः। = लब्धियों की परंपरा जिस आगम से प्राप्त होती है या जिसमें उनकी प्राप्ति का उपाय कहा जाता है वह परंपरा लब्धि अर्थात् आगम है।
- क्षयोपशम शक्ति के अर्थ में
- क्षायिक व क्षयोपशम की दानादि लब्धियाँ
तत्त्वार्थसूत्र/2/5 लब्ध्यः ... पंच (क्षायोपशमिक्य: दानलब्धिर्लाभलब्धिर्भोगलब्धिरुपभोगलब्धिर्वीर्यलब्धिश्चेति। राजवार्तिक )। = पाँच लब्धि होती हैं - (दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, और वीर्यलब्धि। ये पाँच लब्धियाँ दानांतराय आदि के क्षयोपशम से होती हैं। ( राजवार्तिक/2/5/8/107/28 )।
धवला 5/1,7,1/191/3 लद्धी पंच वियप्पा दाण-लाह-भोगुपभोग-वीरियमिदि। = (क्षायिक) लब्धि पाँच प्रकार की है - क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य।
लब्धिसार/मूल/166/218 सत्तण्हं पयडीणं खयाद अवरं द खइयलद्धी दु। उक्कस्सखइयलद्धीघाइचउक्कखएण हवे।166। = सात प्रकृतियों के क्षय से असंयत सम्यग्दृष्टि के क्षायिक सम्यक्त्व रूप जघन्य क्षायिक लब्धि होती है। और घातिया कर्म के क्षय से परमात्मा के केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि होती है।166। (क्षयोपशम लब्धि का लक्षण - देखें लब्धि - 2.2।
- नव केवललब्धि का नाम निर्देश
धवला 1/1,1,1/गाथा 58/64 दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते। णव केवल-लद्धीओ दंसण-णाणं चरित्ते य।58। = दान, लाभ, भोग, परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये नव केवललब्धियाँ समझना चाहिए।58। ( वसुनंदी श्रावकाचार /527 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/131-135 );( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/63/164/6 )।
- लब्धि सामान्य का लक्षण
- उपशम सम्यक्त्व संबंधी पंचलब्धि निर्देश
- पंचलब्धि निर्देश
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/156 लब्धिः कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात् पंचधा। = लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यता रूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है।
धवला 6/1,9-8, 3/1/204 खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य। चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते।1। = क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धि हैं। ( लब्धिसार/मूल/3/44 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/651/1100 )।
- क्षयोपशमलब्धि का लक्षण
धवला 7/2,1,45/87/3 णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खो, तस्स खओवसमसण्णा। तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्पज्जदि त्ति खओवसमिया लद्धी वुच्चदे।
धवला 7/2,1,71/108/7 उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं जेण खओवसमसण्णा अत्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो खओवसमलद्धीसण्णिदो। =- ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है। उस क्षय का उपशम एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञान के एकदेशीय क्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है। ऐसा क्षयोपशम होने पर जो ज्ञान या अज्ञान उत्पन्न होता है उसी को क्षायोपशमिक लब्धि कहते हैं।
- उदय में आये हुए तथा अत्यंत अल्प देशघातित्व के रूप से उपशांत हुए सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों का चूँकि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसलिए उस क्षयोपशम से उत्पन्न जीव परिणाम को क्षयोपशमलब्धि कहते हैं।
धवला 6/1,9-8,3/204/3 पुव्वसंचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंतगुणहीणाणि होदूणुदीरिज्जंति तदा खओवसमलद्धी होदी। = पूर्वसंचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनंतगुण हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है। ( लब्धिसार/मूल/4/43 )
- विशुद्धिलब्धि का लक्षण
धवला 6/1,9-8,3/204/5 पडिसमयमणंतगुणहीणकमेण उदीरिद्ध-अणु-भागफद्दयजणिदजीवपरिणामो सादादिसुहकम्मबंधणिमित्तो असादादि असुहकम्मबंधविरुद्धो विसोही णाम। तिस्से उवलंभो विसोहि लद्धी णाम। = प्रतिसमय अनंतगुणितहीन क्रम से उदीरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ, साता आदि शुभ कर्मों के बंध का निमित्त भूत और असाता आदि अशुभ कर्मों के बंध का विरोधी जो जीव परिणाम है, उसे विशुद्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धिलब्धि है। ( लब्धिसार/ मूल/5/44)।
- प्रायोग्यलब्धि का स्वरूप
धवला 6/1,9-8,3/204/9 सव्वकम्माणमुक्कस्सट्ठिदिमुक्कस्साणुभागं च घादिय अंतोकीडाकोडीट्ठिदिम्हि वेट्ठाणाणुभागे च अवट्ठाणं पाओग्गलद्धी णाम। = सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंतःकोड़ाकोड़ी स्थिति में, और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। ( लब्धिसार/ मूल/7/45)।
लब्धिसार/मूल 9-32/47-68 सम्मत्तहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो ह। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई।9। अंतोकोडाकोडीठिदं असत्थाण सत्थणाणं च। विचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणइ।24। मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थगमणसुभगतियं। णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु।25। ... एकट्ठि पमाणाणमणुक्कस्सपदेसं बंधणं कुणई।26। उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्सवेदगो होदि। विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरस भुत्ती।29। अजहण्णमणुक्कस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु। उदयिल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि।30। अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं। एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं।32। =- स्थितिबंध- प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख जीव विशुद्धता की वृद्धि करता हुआ प्रायोग्य लब्धि का प्रथम से लगाकर पूर्व स्थिति बंध के संख्यातवें भागमात्र अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मों का स्थितिबंध करता है।9।
- अनुभागबंध- अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतुःस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनंतगणा बढ़ता बाँधता है।24।
- प्रदेशबंध- मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी चतुष्क, स्त्यानगृद्धि त्रिक, देवचतुष्क, वज्रऋषभ नाराच, प्रशस्तविहायोगति, सुभगादि तीन, व नीचगोत्र। इन 29 प्रकृतियों का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। महादंडक में कहीं 61 प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है।(25-26)।
- उदयउदीरणा - उदयवान् प्रकृतियों का उदय की अपेक्षा एक स्थिति जो उदय को प्राप्त हुआ एक निषेक, उस ही का भोक्ता होता है। अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानरूप और प्रशस्त प्रकृतियों के चतुस्थानरूप अनुभाग का भोक्ता होता है।29। उदय प्रकृतियों का अजघन्य या अनुत्कृष्ट प्रदेश को भोगता है। जो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग उदयरूप हों उन्हीं की उदीरणा करने वाला होता है।30।
- सत्त्व- सत्तारूप प्रकृतियों का स्थिति, अनुभाग, प्रदेश अजघन्य अनुत्कृष्ट है।
- ऐसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चतुष्क हैं सो बंध, उदय उदीरणा सत्त्व इन सब में कहा। यह क्रम प्रायोग्यलब्धि के अंत पर्यंत जानना।32।
- सम्यक्त्व की प्राप्ति में पंच लब्धि का स्थान
पद्मनन्दी पंचविंशतिका/4/12 लब्धिपंचकसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः। भव्यः सम्यग्दृगादीनां यः स मुक्तिपथे स्थितः।12। = जो भव्य जीव पाँच लब्धि रूप विशेष सामग्री से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय को धारण करने के योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्ग में स्थित हो गया है।12।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/8 पंचलब्ध्यः उपशमसम्यक्त्वे भवंति। = पाँचों लब्धि उपशम सम्यक्त्व के ग्रहण में होती हैं। (और भी देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.9)।
- पाँचों में कारणलब्धि की प्रधानता
धवला 6/1,9-8,3/गाथा 1/205 चत्तारि वि (तद्धि) सामण्णं करणं पुण होइ सम्मत्ते।1। =इन (पाँचों) में से ही पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य-अभव्य दोनों के होती है। किंतु करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है। ( धवला 6/1,9-8,3/205/3 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/651/1100 ); ( लब्धिसार/मूल/3/42 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/36/156/3 )।
- पंचलब्धि निर्देश
- देशनालब्धि निर्देश
- देशनालब्धि का लक्षण
धवला 6/1,9-8/204/7 छद्दव्व-णवपदत्थोवदेसो देसणा णाम। तीए देसणाए परिणदआइरियादीणमुवलंभो, देसिदत्थस्स गहण-धारणविचारणसत्तीए समागमो अ देसणलद्धी णाम। = छह द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं। ( लब्धिसार/मूल /6/44 )।
- सम्यग्दृष्टि के उपदेश से ही देशना संभव है
नियमसार/53 सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।53। = सम्यक्त्व का निमित्त जिनसूत्र है; जिनसूत्र को जानने वाले पुरुषों को अंतरंग हेतु कहे हैं , क्योंकि उनको दर्शनमोह के क्षयादिक हैं।53। (विशेष देखें इसकी टीका )।
इष्टोपदेश/मूल/23 अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञासिमाश्रयः। ...23। = अज्ञानी की उपासना से अज्ञान की और ज्ञानी की उपासना से ज्ञान की प्राप्ति होती है।23।
देखें आगम - 5.5 (दोष रहित व सत्य स्वभाव वाले पुरुष के द्वारा व्याख्यात होने से आगम प्रमाण है।)
धवला 1/1,1,22/196/2 व्याख्यातारमंतरेण स्वार्थाप्रतिपादकस्य (वेदस्य) तस्यव्याख्यात्रधीनवाच्यवाचकभावः। ... प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम्। = व्याख्याता के बिना वेद स्वयं अपने विषय का प्रतिपादक नहीं है, इसलिए उसका वाच्य-वाचक भाव व्याख्याता के आधीन है। ... जिसने संपूर्ण वस्तु-विषयक ज्ञान को जान लिया है वही आगम का व्याख्याता हो सकता है।
सत्तास्वरूप/3/15 राग, धर्म, सच्ची प्रवृत्ति, सम्यग्ज्ञान व वीतराग दशा रूप निरोगता, उसका आदि से अंत तक सच्चा स्वरूप स्वाश्रितपने उस (सम्यग्दृष्टि) को ही भासे है और वह ही अन्य को दर्शाने वाला है।
- मिथ्यादृष्टि के उपदेश से देशना संभव नहीं
प्रवचनसार/256 छदमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमच्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि।256। = जो जीव छद्मस्थ विहित वस्तुओं में (अज्ञानी के द्वारा कथित देव, गुरुधर्मादि में) व्रत-नियम अध्ययन-ध्यान-दान में रत होता है वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, किंतु सातात्मक भाव को प्राप्त होता है।
धवला 1/1,1,22/195/8 ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातुर्वचनस्य प्रामाण्याभावात्। = ज्ञान-विज्ञान से रहित होने के कारण जिसने स्वयं प्रमाणता प्राप्त नहीं की ऐसे व्याख्याता के वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते।
ज्ञानार्णव/2/10/3 न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः। ...। 3। = धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों के द्वारा नहीं कहा जा सकता है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/1/22/4
वक्ता कैसा चाहिए जो जैन श्रद्धान विषै दृढ होय जातैं जो आप अश्रद्धानी होय तौ और कौ श्रद्धानी कैसे करै ?
दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2/4/19
जाकैं धर्म नाहीं तिसतैं धर्म की प्राप्ति नाहीं ताकूं धर्मनिमित्त काहेकूं वंदिए ...।
- कदाचित् मिथ्यादृष्टि से भी देशना की संभावना
लाटी संहिता/5/19 न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः। यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विंदंति केचन।19। = मिथ्यादृष्टि के जो ग्यारह अंग का ज्ञान होता है वह केवल पाठमात्र है, उसके अर्थों का ज्ञान उसको नहीं होता, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि मुनियों के उपदेश से अन्य कितने ही भव्य जीवों को सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है।19।
- निश्चय तत्त्वों का मनन करने पर देशनालब्धि संभव है
प्रवचनसार/86 जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं।86। = जिन-शास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के नियम से मोहसमूह क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्र का सम्यक् प्रकार से मन करना चाहिए।86।
भगवती आराधना /विजयोदया/105/250/12 अयमभिप्रायः-। =शब्दात्म श्रुत सुनकर उसके अर्थ को भी समझ लिया परंतु उसके ऊपर यदि श्रद्धा नहीं है तो वह सब सुन और जान लेने पर भी अश्रुतपूर्व ही समझना चाहिए। इस शब्द के अध्ययन से अपूर्व अर्थों का ज्ञान होता है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/6 व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति। = जो जीव केवल व्यवहार नय को ही साध्य जानता है, उस मिथ्यादृष्टि के लिए उपदेश नहीं है।6।
- देशनालब्धि का लक्षण
- करणलब्धि निर्देश
- करणलब्धि व अंतरंग पुरुषार्थ में केवल भाषा भेद है।
द्रव्यसंग्रह टीका/37/156/5 इति गाथाकथितलब्धिपंचकसंज्ञेनाध्यात्मभाषयानिजशुद्धात्माभिमुख-परिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं हुकृत्वाकर्मशत्रुं हुंतीति।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/165/11 आगमभाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशम-क्षयसंज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषण मिथ्यात्वं विलयं गतम्। =- पाँच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज संमुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेषरूप खड्गसे पौरुष करके, कर्मशत्रु को नष्ट करता है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/217/14 )।
- आगम भाषा में दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय के क्षयोपशम से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्धात्मा के संमुख परिणाम तथा काल आदि लब्धि के विशेष से उनका मिथ्यात्व नष्ट हो जायेगा।
- करणलब्धि भव्य को ही होती है
लब्धिसार/मूल/33/69 तत्तो अभव्वलोग्गं परिणामं बोलिऊण। भव्वो हु। करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियट्ठिं।33। = अभव्य के भी योग्य ऐसी चार लब्धियों रूप परिणाम को समाप्त करके जो भव्य है, वह जीव अधःप्रवृत्त, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण को करता है।33।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/9 करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात्। = करण लब्धि तो भव्य ही के होती है।
- करणलब्धि सम्यक्त्वादि का साक्षात् कारण है
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/651/1100/9 करणलब्धिस्तु भव्य एवं स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च। = कारणलब्धि भव्य जीव के ही सम्यक्त्व ग्रहण वा चारित्र ग्रहण के काल में ही होती है। अर्थात् करणलब्धि की प्राप्ति के पीछे सम्यक्त्व चारित्र अवश्य ही है। ( लब्धिसार/जीवतत्त्व प्रदीपिका/3/42/15 )।
- करणलब्धि व अंतरंग पुरुषार्थ में केवल भाषा भेद है।
- संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान
- संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान का लक्षण
राजवार्तिक/9/1/16-17/589-590/31 तत्रानंतानुबंधिकषायाः क्षीणाःस्युरक्षीणा वा, ते च अप्रत्याख्यानावरणकषायाश्च सर्वधातिन एवं, तेषामुदयक्षयात् सदपशमाच्च, प्रत्याख्यानावरणकषायाः सर्वघातिन एव तेषामुदये सति संयमलब्धावसत्याम्, संज्वलनकषायाः नव नोकषायाश्च देशघातिन एव तेषामुदये सति संयमासंयमलब्धिर्भवति।तद्योग्या प्राणींद्रियविषया विरताविरतवृत्त्या परिणतः संयतासंयत इत्याख्यायते।16। अनंतानुबंधिकषायेषु क्षीणेष्वक्षीणेषु वा प्राप्तोदयक्षयेषु अष्टानां च कषायाणां उदयक्षयात् तेषामेव सदपशमात् संज्वलननोकषायाणाम् उदये संयमलब्धिर्भवति। ... =- अनंतानुबंधिकषाय क्षीण हो या अक्षीण हो तथा अप्रत्याख्यान कषाय सर्वघाती है इनका उदयक्षय या सदवस्थारूप उपशम होने पर, तथा सर्वघाती प्रत्याख्यानवरण के उदय से संयमलब्धि का अभाव होने पर एवं देशघाती संज्वलन और नोकषायों के उदय में संयमासंयम लब्धि होती है। इसके होने पर प्राणी और इंद्रियविषयक विरताविरत परिणामवाला संयतासंयत कहलाता है।16।
- क्षीण या अक्षीण अनंतानुबंधि कषायों का उदय क्षय होने पर तथा प्रत्याख्यानवरण कषायों का उदयक्षय या सदवस्था उपशम होने पर और संज्वलन तथा नोकषायों का उदय होने पर संयम लब्धि होती है।
देखें संयत - 1.2,3 (इस संयमलब्धि को प्राप्त संयत कदाचित् प्रमादवश चारित्र से स्खलित होने के कारण प्रमत्त कहलाता है, और प्रमादरहित अविचल संयम वृत्ति होने पर अप्रमत्त कहलाता है।)
- संयम व असंयमासंयम लब्धिस्थानों के भेद
धवला 6/1, 9-8, 14/276 संजमासंजमलद्धीए ट्ठाणाणि ...पडिवादट्ठाण ... पडिवज्जट्ठाण ... अपडिवाद-पडिवज्जमाणट्ठाण।
धवला 6/1,9-8,14/283/4 एत्थ जाणि संजमलद्धिट्ठाणाणि ताणि तिविहाणि होंति। तं जहा-पडिवादट्ठाणाणि उप्पाद्ट्ठाणाणि तव्वदिरित्तट्ठाणाणि त्ति। =- संयमासंयम लब्धिस्थान-प्रतिपातस्थान, ... प्रतिपद्यमान स्थान ... और अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान के भेद से तीन प्रकार हैं। ( लब्धिसार/मूल /186/237 )।
- संयम लब्धिस्थान तीन प्रकार के होते हैं। वे इस प्रकार हैं - प्रतिपातस्थान, उत्पादस्थान और तद्व्यतिरिक्तिस्थान। ( लब्धिसार/मूल /193 )।
लब्धिसार/मूल /168, 184 दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले य ...।168। अवरवरदेशलद्वी। ...।184। = चारित्र लब्धि दो प्रकार है - देश व सकल।168। देशलब्धि जघन्य उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार है।184।
- प्रतिपद्यमान व उपपाद संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान के लक्षण
धवला 6/1,9-8,14/283/6 उप्पादट्ठाणं णाम जम्हिट्ठाणे संजमं पडिवज्जदि तं उप्पादट्ठाणं णाम। = जिस स्थान पर जीव संयम को प्राप्त होता है वह उत्पाद (प्रतिपद्यमान) स्थान है।
लब्धिसार/जीवतत्त्व प्रदीपिका/188/241/7 ।मिथ्यादृष्टिचरमस्य सम्यक्त्वदेशसंयमौयुगपत्प्रतिपद्यमानस्य तत्प्रथमसमये वर्तमानं जघन्यप्रतिपद्यमानस्थानम्। ...प्रागसंयतसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा। पश्चाद्देशसंयमं प्रतिपद्यमानस्य तत्प्रथमसमये संभवदत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानम्। = मिथ्यात्व के चरम समय में देशसंयत के प्रथम समय में प्रतिपद्यमान स्थान होता है। ... असंयत के पश्चात् देशसंयत के प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान है।
लब्धिसार/भाषा/186/237/13 देशसंयत के प्राप्त हौतैं प्रथम समयविषै संभवते जे स्थान ते प्रतिपद्यमानगत हैं।
धवला 6/1,9-8,14/277/ विशेषार्थ - संयमासंयम को धारण करने के प्रथम समय में होने वाले स्थानों को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं।
- प्रतिपातगत संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान के लक्षण
धवला 6/1,9-8, 14/283/5 तत्थ पडिवादट्ठाणं णाम जम्हि ट्ठाणे मिच्छत्तं वाअसंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छदि तं पडिवादट्ठाणं। = जिस स्थान पर जीव मिथ्यात्व को अथवा असंयम सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान है।
लब्धिसार/जीव तत्त्व प्रदीपिका/188/240/12 प्रतिपातो बहिरंतरंगकारणवशेन संयमात्प्रच्यव:। स च संक्लिष्टस्य तत्कालचरमसमये विशुद्धिहान्या सर्वजघन्यदेशसंयमशक्तिकस्य मनुष्यस्य तदनंतरसमये मिथ्यात्वं प्रतिपतस्यमानस्य भवति। = प्रतिपात नाम संयम से भ्रष्ट होने का है सो संक्लेश परिणाम से संयम से भ्रष्ट होते देशसंयम के अंत समय में प्रतिपातस्थान होता है।
लब्धिसार/भाषा/186/237/11
देशसंयम तै (वा संयम ते) भ्रष्ट हौतैं अंत समय में संभवते जे स्थान ते प्रतिपातगत है। ( धवला 6/1,9-8,14/277 पर विशेषार्थ)।
लब्धिसार/भाषा/188/242/8
मिथ्यात्व को समुख मनुष्य वा तिर्यंच के जघन्य और असंयत को संमुख मनुष्य वा तिर्यंच के उत्कृष्ट प्रतिपात स्थान ही है।
- अनुभयागत व तद्व्यतिरिक्त संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण
धवला 6/1,9-8,4/283/7 सेससव्वाणि चेव चरित्तट्ठाणाणि तव्वदिरित्तट्ठणाणि णाम। =इन (प्रतिपात व उत्पाद या प्रतिपद्यमान स्थानों के) अतिरिक्त सर्व ही चारित्र (के मध्यवर्ती) स्थानों को तद्वय्यतिरिक्त संयमलब्धि स्थान कहते हैं। ( लब्धिसार/भाषा /186 )।
लब्धिसार/मूल/198,201 अणुभयंतु। तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा।198। ...उवरिं सामाइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा।201। = (प्रतिपात व प्रतिपद्यमान स्थानों के) बीच में वा ऊपर के गुणस्थानों के संमुख होते अनुभय स्थान होता है। सो देशसंयम की भाँति जानना।198। तिनके ऊपर (संयत के ऊपर) अनुभय स्थान हैं वे सामायिक छेदोपस्थापना संबंधी हैं। तिनिका जघन्य उत्कृष्ट के बीच परिहार-विशुद्धि के स्थान हैं।
लब्धिसार/जीवतत्त्व प्रदीपिका/188/241/14 का भावार्थ
- मिथ्यादृष्टि से देशसंयत होने के दूसरे समयमें मनुष्य व तिर्यंच के जघन्य अनुभय स्थान है। और असंयत से देशसंयत होने पर एकांतवृद्धि स्थान के अंत समय में तिर्यंच के उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है। तथा असंयत से देशसंयत होने पर एकांतवृद्धि स्थान के अंत समय में सकल संयम को संमुख मनुष्य के उत्कृष्ट अनुभय स्थान होता है।
धवला 6/1,9-8,14/277/ विशेषार्थ
- इन दोनों (प्रतिपाद व उत्पाद या प्रतिपद्यमान) स्थानों को छोड़कर मध्यवर्ती समय में संभव समस्त स्थानों को अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते हैं।
- एकांतानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानों के लक्षण
धवला 6/1,9-8,14/273/18/ विशेषार्थ
- संयतासंयत होने के प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है, उसे एकांतानुवृद्धि कहते हैं। (अन्यत्र भी यथायोग्य जानना)।
- जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम लब्धि स्थान का स्वामित्व
धवला 6/1,9-8,14/276/1 उक्कस्सिया लद्धी कस्स। संजदासंजदस्स सव्वविशुद्धस्स सेकाले संजमगाहयस्स। जहण्णया लद्धी कस्स। तप्पाओग्गसंकिलट्ठिस्स से काले मिच्छत्तं गाहयस्स। = सर्वविशुद्ध और अनंतर समय में संयम को ग्रहण करने वाले संयतासंयत के उत्कृष्ट संयमासंयम लब्धि होती है। जघन्य लब्धि के योग्य संक्लेशको प्राप्त और अनंतर समय में मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले संयतासंयत के जघन्य संयमासंयम लब्धि होती है ( लब्धिसार/मूल/184/235 )।
धवला 6/1,9-8,14/285-286/9 एत्थ जहण्णं तप्पाओग्गसंकिलेसेण सामाइय-च्छेदोवट्ठावणाभिमुहुचरिमसमए होदि। उक्कस्सं सव्वविसुद्धपरिहारसुद्धिसंजदस्स। ... सामाइयच्छेदोवट्ठावणियाणं उक्कस्सयंसंजमट्ठाणं ... सव्वविसुद्धस्स से काले सुहुमसांपराइयसंजमं पडिवज्जमाणस्स। एदेसिं जहण्णं मिच्छत्तं गच्छंतचरिमसमए होदि . ... सुहुमसांपराइयस्स एदाणि संजमट्ठाणाणि। तत्थ जहण्णं अणियट्ठीगुणट्ठाणं से काले पडिवज्जंतस्स सुहुमस्स होदि। उक्कस्सं खीणकसायगुणं पडिवज्जमाणस्स चरिमसमए भवदि। = जघन्य संयमलद्धि स्थान तत्प्रायोग्य संक्लेश से सामायिक छेदोपस्थापना संयमों के अभिमुख होने वाले के अंतिम समय में होता है। और उत्कृष्ट सर्व विशुद्ध परिहार विशुद्ध संयत के होता है। सामायिक-छेदोपस्थापना संयमियों का उत्कृष्ट संयम स्थान अनंतर काल में सर्व विशुद्ध सूक्ष्म-सांपरायिक संयम को ग्रहण करने वाले के होता है। इनका जघन्य मिथ्यात्व को प्राप्त होने वाले के अंतिम समय में होता है। इसी कारण उसे यहाँ नहीं कहा है। सूक्ष्म - सांपरायिक संयमी के ये संयम स्थान हैं उनमें जघन्य संयम स्थान अनंतर काल में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त करने वाले सूक्ष्मसांपरायिक संयमी के होता है, और उत्कृष्ट स्थान क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त होने वाले सूक्ष्मसांपरायिक संयमी के अंतिम समय में होता है। ( लब्धिसार/मूल/202-204)।
देखें लब्धि - 1.2 (सात प्रकृतियों के क्षय से अविरत के जघन्य तथा घाति कर्म के क्षय से परमात्मा के उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि होती है।
- भेदातीत लब्धि स्थानों का स्वामित्व
धवला 6/1,9-8,14/286/6 एदं जहाक्खादसंजमट्ठाणं उवसंतखीणसजोगि-अजोगीणमेक्कं चेव जहण्णुक्कस्सवदिरित्तं होदि, कसायाभावादो। = यह यथाख्यात संयम स्थान उपशांतमोह क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इनके एक ही जघन्य व उत्कृष्ट के भेदों से रहित होता है, क्योंकि इन सबको कषायों का अभाव है।
- संयम व संयमासंयम लब्धिस्थान का लक्षण
पुराणकोष से
(1) भावेंद्रिय के लब्धि और उपयोग इन दो रूपों में प्रथम रूप । हरिवंशपुराण 18.85
(2) सम्यक्त्व प्राप्ति की पूर्व सामग्री । यह पाँच प्रकार की है—क्षयोपशम, विशुद्धि, प्रायोग्य, देशना तथा करण । इनके प्राप्त होने पर जो आत्मविशुद्धि के अनुसार दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय करता है उसे सर्वप्रथम औपशमिक, पश्चात् क्षायोपशमिक और तत्पश्चात् क्षायिक-सम्यक्त्व प्राप्त होता है । हरिवंशपुराण 3. 141-144