छेद: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | स.सि./7/25/366/3 <span class="SanskritText">कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेद:।</span> =<span class="HindiText">कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है। (रा.वा./7/25/3/553/20) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> धर्मसम्बन्धी छेद का लक्षण</strong></span><br> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> संयम | स्या.म./32/342/21 पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पञ्चवस्तुक चतुर्थद्वारका श्लो.नं.–<span class="PrakritGatha">‘‘बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।’’</span> =<span class="HindiText">जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो उसे छेद कहते हैं।</span> भ.आ./वि./6/32/21 <span class="SanskritText">असंयमजुगुप्सार्थमेव।</span> <span class="HindiText">असंयम के प्रति जुगुप्सा ही छेद है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> संयम सम्बन्धी छेद के भेद व लक्षण</strong></span><br> प्र.सा./त.प्र./211-212 <span class="SanskritText">द्विविध: किल संयमस्य छेद: बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च। तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग: उपयोगाधिकृत: पुनरन्तरङ्ग:।</span><br> प्र.सा./त.प्र./217 <span class="SanskritText">अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेद: परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्ग:। </span>=<span class="HindiText">संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी बहिरंग है और उपयोग सम्बन्धी अन्तरंग।211-212। अशुद्धोपयोग अन्तरंगछेद हैं; परप्राणों का व्यपरोप बहिरंगच्छेद है।</span></li> | |||
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<p id="1">(1) अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार― कान आदि अवयवों का छेदना । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58. 164 </span></p> | |||
<p id="2">(2) प्रायश्चित का एक भेद― दिन, मास आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना । इसका मुनियों की वरीयता पर प्रभाव पड़ता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64.36 </span></p> | |||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- Section. (ज.प./प्र.106)
- छेद सामान्य का लक्षण
स.सि./7/25/366/3 कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेद:। =कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है। (रा.वा./7/25/3/553/20) - धर्मसम्बन्धी छेद का लक्षण
स्या.म./32/342/21 पर उद्धृत हरिभद्रसूरिकृत पञ्चवस्तुक चतुर्थद्वारका श्लो.नं.–‘‘बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति।’’ =जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो, और जिससे निर्मलता की वृद्धि हो उसे छेद कहते हैं। भ.आ./वि./6/32/21 असंयमजुगुप्सार्थमेव। असंयम के प्रति जुगुप्सा ही छेद है। - संयम सम्बन्धी छेद के भेद व लक्षण
प्र.सा./त.प्र./211-212 द्विविध: किल संयमस्य छेद: बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च। तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग: उपयोगाधिकृत: पुनरन्तरङ्ग:।
प्र.सा./त.प्र./217 अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेद: परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्ग:। =संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग। उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी बहिरंग है और उपयोग सम्बन्धी अन्तरंग।211-212। अशुद्धोपयोग अन्तरंगछेद हैं; परप्राणों का व्यपरोप बहिरंगच्छेद है।
पुराणकोष से
(1) अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार― कान आदि अवयवों का छेदना । हरिवंशपुराण 58. 164
(2) प्रायश्चित का एक भेद― दिन, मास आदि से मुनि की दीक्षा कम कर देना । इसका मुनियों की वरीयता पर प्रभाव पड़ता है । हरिवंशपुराण 64.36