पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 116 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
देवा चउण्णिकाया मणुया पुण कम्मभोगभूमीया । (116)
तिरिया बहुप्पयारा णेरइया पुढविभेयगदा ॥126॥
अर्थ:
देव चार निकाय-वाले हैं, मनुष्य कर्म-भूमिज और भोग-भूमिज हैं, तिर्यंच अनेक प्रकार के हैं और नारकी पृथ्वी-भेद-गत हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से देव चार निकाय-वाले हैं । भोग-भूमिज और कर्म-भूमिज के भेद से मनुष्य दो प्रकार के हैं। पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय भेद से; शम्बूक, यूका, डाँस आदि विकलेन्द्रिय के भेद से; जलचर, थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पद इत्यादि पंचेन्द्रिय के भेद से तिर्यंच अनेक प्रकार के हैं । रत्न-प्रभा, शर्करा-प्रभा, बालुका-प्रभा, पंक-प्रभा, धूम-प्रभा, तमो-प्रभा, महातमो-प्रभा भूमि के भेद से नारकी सात प्रकार के हैं ।
यहाँ चारों गतियों से विलक्षण स्वात्मोपलब्धि लक्षण-मय जो सिद्ध-गति है, उसकी भावना से रहित जीवों द्वारा अथवा सिद्ध समान निज शुद्धात्मा की भावना से रहित जीवों द्वारा जो उपार्जित चतुर्गति नामकर्म, उसके उदय-वश देवादि गतियों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१२६॥