पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 142 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं । (142)
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ॥152॥
अर्थ:
संवर और योग से युक्त जो जीव अनेक प्रकार के तपों में प्रवृत्ति करता है, वह नियम से अनेक कर्मों की निर्जरा करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[संवर जोगेहिं जुदो] संवर और योग से युक्त; निर्मल आत्मानुभूति के बल से शुभाशुभ परिणामों का निरोध होना संवर है तथा निर्विकल्प लक्षण ध्यान शब्द का वाच्य शुद्धोपयोग योग है; उन दोनों से युक्त; [तवेहिं जो चेट्ठदे बहुविहेहिं] जो अनेक प्रकार के तपों में चेष्टा करता है, शुद्धात्मानुभूति के सहकारी कारण-भूत अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशैयासन, कायक्लेश के भेद से छह प्रकार के बहिरंग तपों में और उसीप्रकार सहज शुद्ध स्वरूप में प्रतपन लक्षण प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान के भेद से छह अंतरंग तपों में प्रवृत्ति करता है; [कम्माणं निज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं] वह पुरुष निश्चित ही अनेक कर्मों की निर्जरा करता है ।
यहाँ बारह प्रकार के तपों से वृद्धिंगत, वीतराग परमानन्द एक लक्षण-मय, कर्म-निर्मूलन में (कर्म को जड़-मूल से नष्ट करने में) समर्थ शुद्धोपयोग भाव-निर्जरा है तथा उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से नीरसी-भूत (फल देने की क्षमता रहित) पूर्वोपार्जित कर्म-पुद्गलों का संवर पूर्वक भाव द्वारा एकदेश संक्षय होना द्रव्य-निर्जरा है, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१५२॥