पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 159 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
णिच्छयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा । (159)
ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण मुयदि मोक्खमग्गोत्ति ॥169॥
अर्थ:
उन तीन में समाहित होता हुआ जो आत्मा वास्तव में न तो कुछ करता है और न छोडता है, वह मोक्षमार्ग है, ऐसा कहा गया है ।
समय-व्याख्या:
व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमाहित आत्मैव जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेनमोक्षमार्गः । अथ खलु कथञ्चनानाद्यविद्याव्यपगमाद्वयवहारमोक्षमार्गमनुप्रपन्नो धर्मादि-तत्त्वार्थाश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थाज्ञानातपश्चेष्टानां धर्मादितत्त्वार्थश्रद्धानाङ्गपूर्वगतार्थज्ञानतपश्चेष्टानाञ्च त्यागोपादानाय प्रारब्धविविक्तभावव्यापारः, कुतश्चिदुपादेयत्यागे त्याज्योपादाने च पुनः प्रवर्तितप्रतिविधानाभिप्रायो, यस्मिन्यावति काले विशिष्टभावनासौष्ठववशात्सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रैः स्वभावभूतैः सममङ्गाङ्गिभावपरिणत्या तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादान-विकल्पशून्यत्वाद्विश्रान्तभावव्यापारः सुनिष्प्रकम्पः अयमात्मावतिष्ठते, तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते । अतो निश्चय-व्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न इति ॥१५९॥
समय-व्याख्या हिंदी :
व्यवहार मोक्षमार्ग के साध्य-रूप से, निश्चय मोक्षमार्ग का यह कथन है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा समाहित हुआ आत्मा ही जीवस्वभाव में नियत चारित्ररूप होने के कारण निश्चय से मोक्षमार्ग है । अब (विस्तार ऐसा है कि), यह आत्मा वास्तव में कथंचित् (किसी प्रकार से, निज उद्यमसे) अनादि अविद्या के नाश द्वारा व्यवहार-मोक्षमार्ग को प्राप्त होता हुआ, धर्मादि-सम्बन्धी तत्त्वार्थ -अश्रद्धान के, अंग-पूर्वगत पदार्थों सम्बन्धी अज्ञान के और अतप में चेष्टा के त्याग हेतु से तथा धर्मादि सम्बन्धी तत्त्वार्थ-श्रद्धान के, अंग-पूर्वगत पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान के और तप में चेष्टा के ग्रहण हेतु से (तीनों के त्याग हेतु तथा तीनों के ग्रहण हेतु से) १विविक्त भाव-रूप व्यापार करता हुआ, और किसी कारण से ग्राह्य का त्याग हो जाने पर और त्याज्य का ग्रहण हो जाने पर उसके २प्रतिविधान का अभिप्राय करता हुआ, जिस काल और जितने काल तक ३विशिष्ट भावना सौष्ठव के कारण स्वभाव-भूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ ४अंग-अंगीभाव से परिणति द्वारा ५उनसे समाहित होकर, त्याग-ग्रहण के विकल्प से शून्यपने के कारण (भेदात्मक) भावरूप व्यापार विराम प्राप्त होने से (अर्थात् भेदभावरूप / खंडभावरूप व्यापार रुक जाने से) सुनिष्कम्प-रूप से रहता है, उस काल और उतने काल तक यही आत्मा जीव-स्वभाव में नियत चारित्ररूप होने के कारण निश्चय से 'मोक्षमार्ग' कहलाता है । इसलिये, निश्चय-मोक्षमार्ग और ६व्यवहार-मोक्षमार्ग को साध्य साधनपना अत्यन्त घटता है ॥१५९॥
१विविक्त = विवेक से पृथक किए हुए (अर्थात् हेय और उपादेय का विवेक करके व्यवहार से उपादेय रूप जाने हुए ।) जिसने अनादि अज्ञान का नाश करके शुद्धि का अंश प्रगट किया है ऐसे व्यवहार-मोक्षमार्गी (सविकल्प) जीव को नि:शंकता-निःकांक्षा-निर्विचिकित्सादि भावरूप, स्वाध्याय-विनयादि भावरूप और निरतिचार व्रतादि भावरूप व्यापार भूमिकानुसार होते हैं तथा किसी कारण उपादेय भावों का (-व्यवहार से ग्राह्य भावों का) त्याग हो जाने पर और त्याज्य भावों का उपादान अर्थात ग्रहण हो जाने पर उसके प्रतिकाररूप से प्रायश्रित्तादि विधान भी होता है ।
२प्रतिविधान = प्रतिकार करने की विधि; प्रतिकार का उपाय; इलाज ।
३विशिष्ट भावना सौष्ठव = विशेष अच्छी भावना (अर्थात विशिष्टशुद्ध भावना); विशिष्ट प्रकार की उत्तम भावना ।
४आत्मा वह अंगी और स्वभावभूत सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वह अंग ।
५उनसे = स्वभावभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ।
६यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य है कि जीव व्यवहारमोक्षमार्ग को भी अनादि अविद्या का नाश करके ही प्राप्त कर सकता है; अनादि अविद्या के नाश होने से पूर्व तो (अर्थात निश्वयनय के-द्रव्यार्थिकनय के-विषयभूत शुद्धात्मस्वरूप का भान करने से पूर्व तो) व्यवहार मोक्षमार्ग भी नहीं होता । पुनश्च, 'निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग को साध्य-साधनपना अत्यन्त घटित होता है' ऐसा जो कहा गया है वह व्यवहारनय द्वारा किया गया उपचरित निरूपण है । उसमें से ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि छठवें गुणस्थान में वर्तने वाले शुभ विकल्पो को नहीं किन्तु छठवें गुणस्थान मे वर्तने वाले शुद्धि के अंश को और सातवें गुणस्थान योग्य निश्वय मोक्षमार्ग को वास्तव में साधन-साध्यपना है ।' छठवें गुणस्थान में वर्तने वाले शुद्धि का अंश बढ़कर जब और जितने काल तक उग्र शुद्धि के कारण शुभ विकल्पों का अभाव वर्तता है तब और उतने काल तक सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होता है ।