कालानुयोग 04: Difference between revisions
From जैनकोष
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<td width="66" valign="top"><p>अंतर्मु.</p></td> | <td width="66" valign="top"><p>अंतर्मु.</p></td> | ||
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<td width="96" valign="top"><p>साधिक 132 | <td width="96" valign="top"><p>साधिक 132 सागर</p></td> | ||
<td width="390" valign="top"><p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 2/2,22/118व 123/100 व 108) </span> मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त पल्य/असं समय पश्चात् पुन: उपशम सम्यक्त्वी हुआ। 28 की सत्ता बनायी पश्चात् मिथ्यात्व में जा वेदक सम्यक्त्व धारा। 66 सागर रहा। फिर मिथ्यात्व में पल्य/असं.रहकर पुन: उपशम पूर्वक वेदक में 66 सागर रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और पल्य/असं. काल में उद्वेलना द्वारा 26 प्रकृति स्थान को प्राप्त।</p></td> | <td width="390" valign="top"><p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 2/2,22/118व 123/100 व 108) </span> मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त पल्य/असं समय पश्चात् पुन: उपशम सम्यक्त्वी हुआ। 28 की सत्ता बनायी पश्चात् मिथ्यात्व में जा वेदक सम्यक्त्व धारा। 66 सागर रहा। फिर मिथ्यात्व में पल्य/असं.रहकर पुन: उपशम पूर्वक वेदक में 66 सागर रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और पल्य/असं. काल में उद्वेलना द्वारा 26 प्रकृति स्थान को प्राप्त।</p></td> | ||
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<td width="150" valign="top"><p>अवस्थित विभक्ति स्थान </p></td> | <td width="150" valign="top"><p>अवस्थित विभक्ति स्थान </p></td> | ||
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उपशम सम्यक्त्व सम्मुख जो जीव अंतरकरण करने के अनंतर मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के द्विचरम समय में सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके 27 प्रकृति स्थान को प्राप्त होकर 1 समय तक अल्पतर विभक्ति स्थानवाला होता है। अनंतर मिथ्यादृष्टि के अंतिम समय में 27 प्रकृति स्थान के साथ 1 समय तक रहकर मिथ्यात्व के उपांत्य समय से तीसरे समय में | उपशम सम्यक्त्व सम्मुख जो जीव अंतरकरण करने के अनंतर मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के द्विचरम समय में सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके 27 प्रकृति स्थान को प्राप्त होकर 1 समय तक अल्पतर विभक्ति स्थानवाला होता है। अनंतर मिथ्यादृष्टि के अंतिम समय में 27 प्रकृति स्थान के साथ 1 समय तक रहकर मिथ्यात्व के उपांत्य समय से तीसरे समय में सम्यक्त्व को प्राप्तकर 28 प्रकृति स्थान वाला हो जाता है। उसके अल्पतर और भुजागर के मध्य में अवस्थित विभक्ति स्थान का जघन्य काल 1 समय देखा जाता है। </p></td> | ||
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<td width="252" valign="top"><p> | <td width="252" valign="top"><p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 2/2/22/121/104)</span> उद्वेलना के काल में एक समय शेष रहने पर अविवक्षित से विवक्षित मार्गणा में प्रवेश करके उद्वेलना करे </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p>पल्य/असं.</p></td> | <td width="96" valign="top"><p>पल्य/असं.</p></td> | ||
<td width="390" valign="top"><p> | <td width="390" valign="top"><p><span class="GRef"> (कषायपाहुड़ 2/2,22/123/205) </span> क्योंकि यहाँ उपशम प्राप्ति की योग्यता नहीं है इसलिए इस काल में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्य.प्राप्त करके पुन: इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता बना ले तो क्रम न टूटने से इस काल में वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट 132 सागर काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है </p></td> | ||
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Revision as of 23:13, 5 July 2023
4. सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा
प्रमाण 1. ( कषायपाहुड़/2,22/2/289-294/253-256 ); 2. ( कषायपाहुड़/2,22/2/123/205 )
विशेषों के प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं।
नं |
विषय |
प्रमाण नं. |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
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काल |
विशेष |
काल |
विशेष |
|||
1 |
26 प्रकृति स्थान |
1 |
1 समय |
|
अर्ध पु.परि. |
|
2 |
27 प्रकृति स्थान |
1 |
अंतर्मु. |
|
पल्य/असं. |
|
3 |
28 प्रकृति स्थान |
1 |
अंतर्मु. |
|
साधिक 132 सागर |
(कषायपाहुड़ 2/2,22/118व 123/100 व 108) मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त पल्य/असं समय पश्चात् पुन: उपशम सम्यक्त्वी हुआ। 28 की सत्ता बनायी पश्चात् मिथ्यात्व में जा वेदक सम्यक्त्व धारा। 66 सागर रहा। फिर मिथ्यात्व में पल्य/असं.रहकर पुन: उपशम पूर्वक वेदक में 66 सागर रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और पल्य/असं. काल में उद्वेलना द्वारा 26 प्रकृति स्थान को प्राप्त। |
4 |
अवस्थित विभक्ति स्थान |
1 |
1 समय |
( कषायपाहुड़ 2/2,22/427/390 ) |
|
|
|
एकेंद्रियों में सम्यक्प्रकृति 28 प्रकृति स्थान |
2 |
1 समय |
(कषायपाहुड़ 2/2/22/121/104) उद्वेलना के काल में एक समय शेष रहने पर अविवक्षित से विवक्षित मार्गणा में प्रवेश करके उद्वेलना करे |
पल्य/असं. |
(कषायपाहुड़ 2/2,22/123/205) क्योंकि यहाँ उपशम प्राप्ति की योग्यता नहीं है इसलिए इस काल में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्य.प्राप्त करके पुन: इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता बना ले तो क्रम न टूटने से इस काल में वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट 132 सागर काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है |
|
सम्यग्मिथ्यात्व (27 प्रकृति स्थान) |
2 |
1 समय |
|
पल्य/असं. |
|
2 |
अन्य कर्मों का उदय काल |
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1 |
शोक ( धवला 14/57/8 ) |
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छ: मास |
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