जटायु: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
| | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
― | ―<span class="GRef">( पद्मपुराण/41/ श्लोक नं.)</span> <br> | ||
<p class="HindiText">सीता द्वारा वन में श्री सुगुप्ति मुनिराज के आहारदान के अवसर पर (24) वृक्ष पर बैठे गृद्ध पक्षी को अपने पूर्वभव स्मरण हो आये (33) भक्ति से आकर वह मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा और उनके चरण प्रक्षालन का जल पीने | <p class="HindiText">सीता द्वारा वन में श्री सुगुप्ति मुनिराज के आहारदान के अवसर पर ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#24|24]]) वृक्ष पर बैठे गृद्ध पक्षी को अपने पूर्वभव स्मरण हो आये ([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#33|33]]) भक्ति से आकर वह मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा और उनके चरण प्रक्षालन का जल पीने लगा।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#42|42-43]]) सीता के पूछने पर मुनिराज ने उसके पूर्वभव कहे। और पक्षी को उपदेश दिया।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#146|146]]) तदनंतर मुनिराज के आदेशानुसार राम ने उसका पालन किया।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#150|150]]) मुनिराज के प्रताप से उसका शरीर स्वर्णमय बन गया और उसमें से किरणें निकलने लगीं। इससे उसका नाम जटायु पड़ गया।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_41#164|164]]) फिर रावण द्वारा सीता हरण के अवसर पर सीता की सहायता करते हुए रावण द्वारा शक्ति से मारा गया।([[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_44#85|85-89]]) </p> | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Revision as of 22:20, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
―( पद्मपुराण/41/ श्लोक नं.)
सीता द्वारा वन में श्री सुगुप्ति मुनिराज के आहारदान के अवसर पर (24) वृक्ष पर बैठे गृद्ध पक्षी को अपने पूर्वभव स्मरण हो आये (33) भक्ति से आकर वह मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा और उनके चरण प्रक्षालन का जल पीने लगा।(42-43) सीता के पूछने पर मुनिराज ने उसके पूर्वभव कहे। और पक्षी को उपदेश दिया।(146) तदनंतर मुनिराज के आदेशानुसार राम ने उसका पालन किया।(150) मुनिराज के प्रताप से उसका शरीर स्वर्णमय बन गया और उसमें से किरणें निकलने लगीं। इससे उसका नाम जटायु पड़ गया।(164) फिर रावण द्वारा सीता हरण के अवसर पर सीता की सहायता करते हुए रावण द्वारा शक्ति से मारा गया।(85-89)
पुराणकोष से
एक गृद्ध पक्षी । गुप्ति कौर सुगुप्ति चारण मुनियों को देखकर इसे अपने पूर्वभवों का स्मरण हो आया था । यह सम्यग्दृष्टि और विनीत भावक था । राम और सीता ने इसका पालन किया था । इसे एक देश रत्नत्रय की प्राप्ति हुई थी । मुनि के वचनों के अनुसार इसने अणुव्रत धारण किये थे । इसकी सुशोभित जटाएं देखकर राम ने इसे यह नाम दिया था । यह विनीत भाव से जिनेंद्र की त्रिकाल वंदना करता था । रावण द्वारा सीता-हरण किये जाने पर इसने डटकर विरोध किया था जिसके फलस्वरूप इसे रावण ने ताड़ित कर नीचे गिरा दिया था । मरणोन्मुख देखकर राम ने इसके कान में नमस्कार मंत्र दिया था जिसके प्रभाव से यह मरकर देव हुआ । इसी देव ने लक्ष्मण के मरने पर राम की विह्वल अवस्था में अयोध्या पर आक्रमणकारियों की सेना को माया से भ्रमित कर संकट का निवारण किया था, तथा इसी ने मृतक बैलों के शरीर पर हरन रखकर शिला तल पर बीज बोने और और घानी मे बालू पेलने का उद्यम दिखाकर राम से लक्ष्मण का दाह-संस्कार कराया था । इसके पूर्व यह दंडक देश ने कर्णकुंडल नगर का दंडक नामक राजा था । इसकी प्रिया परिव्राजकों के स्वामी की भक्त थी । राजा ने एक निर्ग्रंथ मुनि के गले में मरा साँप डाला था तथा मुनि को बहुत समय बाद भी उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देखकर इसने उनसे क्षमा-याचना की थी और उनके सब कष्ट दूर कर दिये थे । परिव्राजकों के स्वामी को यह रुचिकर न हुआ अत: उसने कृत्रिम निर्ग्रंथ का रूप धारण कर रानी के साथ संपर्क किया । राजा ने कृत्रिम निर्ग्रंथ मुनि को वास्तविक मुनि जानकर तथा उसकी इस प्रवृत्ति को ज्ञात कर समस्त मुनियों को घानी में पेल डाला था । दैवयोग से बाहर से आ रहे किसी निर्ग्रंथ मुनि को यह सब विदित होने पर उनकी तत्काल उत्पन्न क्रोधाग्नि के द्वारा समस्त दंडक देश भस्म हो गया था । यही दंडक नृप बहुत समय तक ससार भ्रमण करने के पश्चात् गृद्धपक्षी की पर्याय को प्राप्त हुआ था । महापुराण 41. 132-166, 44.85-111, 118.50-123