पद्मपुराण - पर्व 15: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर उन्हीं मुनिराज के पास हनुमान और विभीषण ने | |||
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<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्म चरित में अंजना सुंदरी के विवाह का कथन करनेवाला पंद्रहवां पर्व समाप्त हुआ ।।15।।</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्म चरित में अंजना सुंदरी के विवाह का कथन करनेवाला पंद्रहवां पर्व समाप्त हुआ ।।15।।<span id="16" /></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर उन्हीं मुनिराज के पास हनुमान और विभीषण ने भी अभिप्राय को सुदृढ़ कर गृहस्थों के व्रत ग्रहण किये ।।1।। गौतम स्वामी कहते हैं कि विद्वान् लोग सुमेरु पर्वत की स्थिरता की उस प्रकार प्रशंसा नहीं करते जिस प्रकार कि परम निश्चलता को प्राप्त हुए हनुमान के शील और सम्यग्दर्शन की करते हैं ।।2।। इस प्रकार जब गौतम स्वामी ने सौभाग्य आदि के द्वारा हनुमान की अत्यधिक प्रशंसा की तब उत्कट रोमांच को धारण करता हुआ श्रेणिक बोला कि ।।3।। हे गणनाथ! हनुमान कौन? इसकी क्या विशेषता है? कहां किससे इसकी उत्पत्ति हुई है? हे भगवद्! मैं इसका चरित्र यथार्थ जानना चाहता हूँ ।।4।। तदनंतर सत्पुरुष का नाम सुनने से जिन्हें अत्यधिक हर्ष उत्पन्न हो रहा था ऐसे गणधर भगवान् आह्लाद उत्पन्न करने वाली वाणी में कहने लगे ।।5।।
हे राजन्! विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में दश योजन का मार्ग लांघकर आदित्यपुर नामक एक मनोहर नगर है। वहाँ के राजा प्रह्लाद और उनकी रानी का नाम केतु मती था ।।6-7।। इन दोनों के पवनगति नाम का उत्तम पुत्र हुआ। पवन गति के विशाल वक्षःस्थल को लक्ष्मी ने अपना निवास स्थल बनाया था ।।8।। उसे पूर्ण यौवन देख, संतान-विच्छेद का भय रखनेवाले पिता ने उसके विवाह की चिंता की ।।9।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन्! यह कथा तो अब रहने दो। दूसरी कथा हृदय में धारण करो जिससे कि पवन गति के विवाह की चर्चा संभव हो सके ।।10।।
इसी भरत क्षेत्र के अंत में महासागर के निकट आग्नेय दिशा में एक दंती नाम का पर्वत है ।।11।। जो बड़ी-बड़ी गगनचुंबी चमकीले शिखरों से युक्त है, नाना प्रकार के वृक्ष और औषधियों से व्याप्त है तथा जिसके लंबे-चौड़े किनारे उत्तमोत्तम झरनों से युक्त हैं ।।12।। महेंद्र के समान पराक्रम को धारण करने वाला महेंद्र विद्याधर उत्तम नगर बसाकर जब से उस पर्वत पर रहने लगा था तभी से उस पर्वत का महेंद्र गिरि नाम पड़ गया था और उस नगर का महेंद्र नगर नाम प्रसिद्ध हो गया था ।।13-14।। राजा महेंद्र हे हृदयवेगा रानी से अरिंदम आदि सौ गुणवान् पुत्र उत्पन्न हुए ।।15।। उनके अंजना सुंदरी नाम से प्रसिद्ध छोटी बहन उत्पन्न हुई। वह ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन लोक की सुंदर स्त्रियों का रूप इकट्ठा कर उसके समूह से ही उसकी रचना हुई थी ।।16।। उसकी प्रभा नील कमल के समान सुंदर थी, हस्तरूप पल्लव अत्यंत प्रशस्त थे, चरण कमल के भीतरी भाग के समान थे, स्तन हाथी के गंडस्थल के तुल्य थे ।।17।। उसकी कमर पतली थी, नितंब स्थूल थे, जंघाएँ उत्तम घुटनों से युक्त थीं, उसके शरीर में अनेक शुभ लक्षण थे, उसकी दोनों भुजलताएं प्रफुल्ल मालती की माला के समान कोमल थीं ।।18।। कानों तक लंबे एवं कांति रूपी मूठ से युक्त उसके दोनों नेत्र ऐसे जान पड़ते थे मानो कामदेव के सुदूरगामी बाण ही हों ।।19।। वह गंधर्व आदि कलाओं को जानने वाली थी इसलिए साक्षात् सरस्वती के समान जान पड़ती थी और रूप से लक्ष्मी के तुल्य लगती थी ।।20।। इस प्रकार अनेक गुणों से सहित वह कन्या किसी समय गोलाकार भ्रमण करती हुई गेंद खेल रही थी कि पिता की उस पर दृष्टि पड़ी। पिता ने देखा कि कन्या का शरीर नव-यौवन से सुशोभित हो रहा है। उसे देख जिस प्रकार उत्तम गुणों में चित्त लगाने वाले राजा अकंपन को अपनी पुत्री सुलोचना के योग्य वर ढूँढने की चिंता हुई थी और उससे वह अत्यंत दुःखी हुआ था। उसी प्रकार राजा महेंद्र को भी पुत्री के योग्य वर ढूँढने की चिंता हुई। सो ठीक ही है क्योंकि स्वाभिमानी मनुष्यों को कन्या का दुःख अत्यंत व्याकुलता उत्पन्न करनेवाला होता है ।।21-23।। कन्या के पिता को सदा यह चिंता लगी रहती है कि कन्या उत्तम पति को प्राप्त होगी या नहीं, यह उसे चिरकाल तक रमण करा सकेगी या नहीं और निर्दोष रह सकेगी या नहीं। यथार्थ में पुत्री मनुष्य के लिए बड़ी चिंता है ।।24।।
अथानंतर राजा महेंद्र ज्ञान रूपी अलंकार से अलंकृत समस्त मित्रजनों को बुलाकर वर का निश्चय करने के लिए एकांत घर में गये ।।25।। वहाँ उन्होंने मंत्रियों से कहा कि अहो मंत्रिजनो! आप लोग सब कुछ जानते हैं तथा विद्वान् हैं अत: मेरी कन्या के योग्य उत्तम वर बतलाइए ।।26।। तब एक मंत्री ने कहा कि यह कन्या भरत क्षेत्र के स्वामी राक्षसों के अधिपति रावण के लिए दी जानी चाहिए ऐसा मेरा निश्चित मत है ।।27।। समस्त विद्याधरों के स्वामी रावण जैसे स्वजन को पाकर आपका प्रभाव समुद्रांत पृथिवी में फैल जायेगा ।।28।। अथवा हे राजन्! रावण के पुत्र इंद्रजित् और मेघनाद तरुण हैं सो इन्हें यह कन्या दीजिए क्योंकि उन्हें देने पर भी रावण स्वजन होगा ।।25।। अथवा यह बात भी आपको इष्ट नहीं है तो फिर कन्या को स्वयं पति चुनने के लिए छोड़ दीजिए अर्थात् इसका स्वयंवर कीजिए। ऐसा करने से आपका कोई वैरी नहीं बन सकेगा ।।30।। इतना कहकर जब अमर सागर मंत्री चुप हो गया तब सुमति नाम का दूसरा विद्वान् मंत्री स्पष्ट वचन बोला ।।31।। उसने कहा कि रावण के अनेक पत्नियां हैं, साथ ही वह महा अहंकारी है इसलिए इसे पाकर भी उसकी हम लोगों में प्रीति उत्पन्न नहीं होगी ।।32।। यद्यपि इस परम प्रतापी भोगी रावण का आकार सोलह वर्ष के पुरुष के समान है तो भी उसकी आयु अधिक तो है ही ।।33।। अत: इसके लिए कन्या देना मैं उचित नहीं समझता। दूसरा पक्ष इंद्रजित् और मेघनाद का रखा सो यदि मेघनाद के लिए कन्या दी जाती है तो इंद्रजित् कुपित होता है और इंद्रजित् के लिए देते हैं जो मेघनाद कुपित होता है इसलिए ये दोनों वर भी ठीक नहीं हैं ।।34।। पहले राजा श्रीषेण के पुत्रों में एक गणिका के निमित्त पिता को दुःखी करने वाला बड़ा युद्ध हुआ था यह सुनने में आता है सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री का निमित्त पाकर क्या नहीं होता है? ।।35।।
तदनंतर जिसका हृदय सदभिप्राय से युक्त था ऐसा ताराधरायण नाम का मंत्री, पूर्व मंत्री के वचनों की अनुमोदना कर इस प्रकार के वचन बोला ।।36।। उसने कहा कि विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक कनक पुर नाम का नगर है। वहाँ राजा हिरण्याभ रहते हैं उनकी रानी का नाम सुमना है ।।37।। उन दोनों के विद्युत्प्रभ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ है जो बहुत भारी यश, कांति और अवस्था से अत्यंत सुंदर है ।।38।। वह समस्त विद्याओं और कलाओं का पारगामी है, लोगों के नेत्रों का मानो महोत्सव ही है, गुणों से अनुपम है और अपनी चेष्टाओं से उसने समस्त लोक को अनुरंजित कर रखा है ।।39।। समस्त देव-विद्याधर एक होकर भी उसे प्रयत्नपूर्वक नहीं जीत सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मानो वह तीनों लोकों की शक्ति इकट्ठी कर ही बनाया गया है ।।40।। यदि आपकी सम्मति हो तो यह कन्या उसे दी जावे जिससे योग्य दंपतियों का चिरकाल के लिए संयोग उत्पन्न हो सके ।।41।।
तदनंतर संदेह पराग नाम का मंत्री सिर हिलाकर तथा चिरकाल तक नेत्र बंद कर निम्नांकित वचन बोला ।।42।। उसने कहा कि यह निकट भव्य है तथा निरंतर ऐसा विचार करता रहता है कि मेरे पूर्वज कहाँ गये? सो इससे जान पड़ता है कि यह संसार का स्वभाव जानकर परम वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा ।।43।। जिसकी आत्मा विषयों में अनासक्त रहती है ऐसा यह कुमार अठारह वर्ष की अवस्था में भोगरूपी महा आलान का भंग कर गृहस्थ अवस्था छोड़ देगा ।।44।। वह महामना बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का त्याग कर तथा केवलज्ञान उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होगा ।।45।। सो जिस प्रकार जगत् को प्रकाशित करने वाले चंद्रमा से रहित होने पर रात्रि शोभा हीन हो जाती है उसी प्रकार इससे वियुक्त होने पर यह बाला शोभा हीन हो जावेगी ।।46।। इसलिए मेरी बात सुनो, इंद्र के नगर के समान सुंदर तथा रत्नों से सूर्य के समान देदीप्यमान एक आदित्यपुर नाम का नगर है। इसमें प्रह्लाद नाम का राजा रहता है जो भोगों से युक्त है तथा विद्याधरों के बीच चंद्रमा के समान जान पड़ता है। प्रह्लाद की रानी केतु मती है जो कि सौंदर्य के कारण कामदेव की पताका के समान सुशोभित है ।।47-48।। उन दोनों के एक पवनंजय नाम का पुत्र है जो अत्यंत पराक्रमी, रूपवान्, गुणों का सागर तथा नय रूपी आभूषणों से विभूषित है ।।49।। उसका अतिशय ऊँचा शरीर अनेक शुभ लक्षणों से व्याप्त है, वह कलाओं का घर, शूरवीर तथा खोटी चेष्टाओं से दूर रहनेवाला है ।।50।। वह सब लोगों के चित्त में बसा हुआ है तथा सौ वर्ष में भी उसके समस्त गुणों का समूह कहा नहीं जा सकता है ।।51।। अथवा वचनों के द्वारा जो किसी का ज्ञान कराया जाता है वह अस्पष्ट ही रहता है इसलिए कांति को धारण करने वाले इस युवा को स्वयं जाकर ही देख लीजिए ।।52।। तदनंतर कर्ण मार्ग को प्राप्त हुए पवनंजय के उत्कृष्ट गुणों से सब लोग परम हर्ष को प्राप्त हो आंतरिक प्रसन्नता प्रकट करने लगे ।।53।। तथा कन्या भी उस वार्ता को सुनकर हर्ष से इस तरह खिल उठी जिस तरह कि चंद्रमा की किरणों को देखने मात्र से कुमुदिनी खिल उठती है ।।54।।
अथानंतर इसी बीच में वसंत ऋतु आयी और स्त्रियों के मुख कमल की सुंदरता के अपहरण में उद्यत शीतकाल समाप्त हुआ ।।55।। कमलिनी प्रफुल्लित हुई और नये कमलों के समूह चिरकाल से उत्कंठित भ्रमर-समूह के साथ समागम करने लगे अर्थात् उन पर भ्रमरों के समूह गूंजने लगे ।।56।। वृक्षों के पत्र, पुष्प, अंकुर आदि घनी मात्रा में उत्पन्न हुए जो ऐसे जान पडते थे मानो वसंत लक्ष्मी के आलिंगन से उनमें रोमांच ही उत्पन्न हुए हों ।।57।। जिन पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ऐसे आम के मौरों के समूह कामदेव के बाणों के पटल के समान लोगों का मन बेधने लगे ।।58।। मानवती स्त्रियों के मान को भंग करने वाला कोकिलाओ का मधुर शब्द लोगों को व्याकुलता उत्पन्न करने लगा। वह कोकिलाओ का शब्द ऐसा जान पड़ता था मानो उसके बहाने वसंत ऋतु ही वार्तालाप कर रही हो ।।59।। स्त्रियों के जो ओठ पति के दाँतों से डसे जाने के कारण पहले वेदना से युक्त रहते थे अब चिरकाल बाद उनमें विशदता उत्पन्न हुई ।।60।। जगत् के जीवों में परस्पर बहुत भारी स्नेह प्रकट होने लगा। उनका यह स्नेह उपकार परक चेष्टाओं से स्पष्ट ही प्रकट हो रहा था ।।61।। चारों ओर भ्रमण करता हुआ भ्रमर अपने पंखों की वायु से थकी हुई भ्रमरी को श्रमरहित करने लगा ।।62।। उस समय हरिण दूर्वा के प्रवाल उखाड़ उखाड़कर हरिणी के लिए दे रहा था और उससे हरिणी को ऐसा प्रेम उत्पन्न हो रहा था मानो अमृत ही उसे मिल रहा हो ।।63।। हाथी हथिनी के लिए खुजला रहा था। इस कार्य में उसके मुख का पल्लव छूटकर नीचे गिर गया था और हथिनी के नेत्र सुख के भार से निमीलित हो गये थे ।।64।। जो गुच्छे रूपी स्तनों से झुक रही थीं, जिनके पल्लवरूपी हाथ हिल रहे थे और ऊपर बैठे हुए भ्रमर ही जिनके नेत्र थे ऐसी लता रूपी स्त्रियां वृक्ष रूपी पुरुषों का आलिंगन कर रही थीं ।।65।।
दक्षिण दिशा के मुख से प्रकट हुआ मलय समीर बहने लगा और सूर्य उत्तरायण हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो इस मलय समीर से प्रेरित होकर ही सूर्य उत्तरायण हो गया था ।।66।। वायु से हिलते हुए मौल श्री के फूलों का समूह नीचे गिर रहा था जिसे पथिक लोग ऐसा समझ रहे थे मानो वसंतरूपी सिंह की जटाओं का समूह ही हो ।।67।। विरहिणी स्त्रियों को भय उत्पन्न करने वाली अंकोल वृक्ष के पुष्पों की केशर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो वसंतरूपी सिंह की दंष्ट्रा अर्थात् जबड़े ही हों अथवा मानरूपी हाथी का अंकुश ही हो ।।68।। जिस पर भ्रमर गूँज रहे थे ऐसा कुमुदों का सघन जाल ऐसा जान पड़ता था मानो वियोगिनी स्त्रियों के मन को खींचने के लिए वसंत ने जाल ही छोड़ रखा था ।।69।। जिसके नये-नये पत्ते हिल रहे थे ऐसा बोंडियों से सुशोभित अशोक का वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अधिकता के कारण स्त्रियों के द्वारा उगला हुआ राग का समूह ही हो ।।70।। वन श्रेणियों में पलाश के सघन वृक्ष ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो विरहिणी स्त्रियों के मन में ठहरने से बाकी बचे हुए दु:खरूप अग्नि के समूह ही हों ।।71।। समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला फूलों का पराग सब ओर फैल रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वसंत सुगंधित चूर्ण के द्वारा महोत्सव ही मना रहा था ।।72।। जब प्रेम रूपी बंधन से बंधे स्त्री-पुरुष पल भर के लिए भी एक दूसरे का अदर्शन नहीं सहन कर पाते थे तब अन्य देश में गमन किस प्रकार सहन करते? ।।73।।
फाल्गुन मास के अंतिम आठ दिन में अष्टाह्निक महोत्सव आया सो जिनभक्ति से प्रेरित तथा महाहर्ष से भरे देव नंदीश्वर द्वीप को जाने लगे ।।74।। उसी समय पूजा के उपकरणों से व्यग्र हाथों वाले सेवकों से सहित विद्याधर राजा कैलास पर्वत पर गये ।।75।। वह पर्वत भगवान् ऋषभदेव के मोक्ष जाने से अत्यंत पूजनीय था इसलिए भक्ति से भरा राजा महेंद्र भी बंधुवर्ग के साथ वहाँ गया था ।।76।। श्रीमान् वह राजा महेंद्र वहाँ पर जिन भगवान की भाव पूर्वक अर्चना, स्तुति एवं नमस्कार करके स्वर्णमय शिलातल पर सुखपूर्वक बैठ गया ।।77।। उसी समय राजा प्रह्लाद भी जिनेंद्र देव की वंदना करने के लिए कैलास पर्वत पर गया था सो पूजा के अनंतर भ्रमण करता हुआ राजा महेंद्र को दिखाई दिया ।।78।। तदनंतर जिसके नेत्र विकसित हो रहे थे और मन प्रीति से भर रहा था ऐसा प्रह्लाद पुत्र की प्रीति से बड़े आदर के साथ राजा महेंद्र के पास गया ।।79।। सो हर्ष से भरे महेंद्र ने भी सहसा उठकर उसकी अगवानी की और आनंद के कारण आलिंगन करते हुए प्रह्लाद का आलिंगन किया ।।80।। तदनंतर दोनों ही राजा निश्चित होकर मनोहर शिलातल पर बैठे और परस्पर शरीरादि की कुशलता पूछने लगे ।।81।।
अथानंतर राजा महेंद्र ने कहा कि हे मित्र! मेरा मन तो निरंतर कन्या के अनुरूप संबंध ढूँढने की चिंता से व्याकुल रहता है अत: कुशलता कैसे हो सकती है? ।।82।। मेरी एक कन्या है जो वर प्राप्त करने योग्य अवस्था में है, किसके लिए उसे दूँ इसी चिंता में मन घूमता रहता है ।।83।। रावण बहुपत्नीक है अर्थात् अनेक पत्नियों का स्वामी है और इसके पुत्र इंद्रजित् तथा मेघनाद किसी एक के लिए देने से शेष रोष को प्राप्त होते हैं अत: उन तीनों में मेरी रुचि नहीं है ।।84।। हेमपुर नगर में राजा कनकद्यति के विद्युत्प्रभ नाम का पुत्र है सो वह थोड़े ही दिनों में निर्वाण प्राप्त करेगा ।।85।। यह बात किसी सम्यग्ज्ञानी मुनि ने कही है सो समस्त लोक में प्रसिद्ध है और परंपरा वश मुझे भी विदित हुई है ।।86।। अत: मंत्रिमंडल के साथ बैठकर मैंने निश्चय किया है कि आपके पुत्र पवनंजय को ही कन्या का वर चुनना चाहिए ।।87।। सो हे प्रह्लाद! यहाँ पधारकर तुमने मेरे इस मनोरथ को पूर्ण किया है। मैं तुम्हें देखकर क्षण-भर में ही संतुष्ट हो गया हूँ ।।88।। तदनंतर जिसे अभिलषित वस्तु की प्राप्ति हो रही है ऐसे प्रह्लाद ने बड़ी प्रसन्नता से कहा कि पुत्र के अनुरूप वधू ढूँढने की मुझे भी चिंता है ।।89।। सो हे मित्र! आपके इस वचन से मैं जो शब्दों से न कही जाये ऐसी निश्चिंतता को प्राप्त हुआ हूँ ।।90।।
अथानंतर अंजना और पवनंजय के पिता ने वहीं मानुषोत्तर पर्वत के अत्यंत सुंदर तट पर उनका विवाह-मंगल करने की इच्छा की ।।91।। इसलिए क्षण-भर में ही जिनके डेरे-तंबू तैयार हो गये थे तथा जो हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों के अनुकूल शब्दों से व्याप्त था ऐसी उन दोनों की सेनाएं वहीं ठहर गयीं ।।92।। समस्त ज्योतिषियों की गतिविधि को जानने वाले ज्योतिषियों ने तीन दिन बीतने के बाद विवाह के योग्य दिन बतलाया था ।।93।। पवनंजय ने परिजनों के मुख से सुन रखा था कि अंजनासुंदरी सर्वांगसुंदरी है इसलिए उसे देखने के लिए वह तीन दिन का व्यवधान सहन नहीं कर सका ।।94।। निरंतर समागम की उत्कंठा रखने वाला यह पवनंजय काम के दस वेगों से इस प्रकार पूर्ण हो गया जिस प्रकार कि युद्ध में कोई योद्धा शत्रु के बाणों से पूर्ण हो जाता है- भर जाता है ।।95।। प्रथम वेग में उसे अंजना विषयक चिंता होने लगी अर्थात् मन में अंजना की इच्छा उत्पन्न हुई। दूसरे वेग के समय बाह्य में उसकी आकृति देखने की इच्छा हुई ।।96।। तीसरे वेग में मंद-लंबी और गरम सांसें निकलने लगीं। चौथे वेग में ऐसा ज्वर उत्पन्न हो गया कि जिसमें चंदन अग्नि के समान संतापकारी जान पड़ने लगा ।।97।। पंचम वेग में उसका शरीर फूलों की शय्या पर करवटें बदलने लगा। छठें वेग में अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन को वह विष के समान मानने लगा ।।98।। सातवें वेग में उसी की चर्चा में आसक्त रहकर बिप्रलाप- बकवाद करने लगा। आठवें वेग में उन्मत्तता प्रकट हो गयी जिससे कभी गाने लगता और कभी नाचने लगता था ।।95।। कामरूपी सर्प के द्वारा डसे हुए उस पवनंजय को नौवे वेग में मूर्च्छा आने लगी और दसवें वेग में जिसका स्वयं ही अनुभव होता था ऐसा दुःख का भार प्राप्त होने लगा ।।100।। गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि वह पवनंजय विवेक से युक्त था तो भी उस समय उसका चरित्र स्वच्छंद हो गया था सो ऐसे दुष्ट काम के लिए धिक्कार हो ।।101।।
अथानंतर काम के उपर्युक्त वेगों के कारण पवनंजय का धैर्य छूट गया। उसका मुख निरंतर निकलने वाले श्वासोच्छ्वाओं से चंचल हो गया और वह उसे अपनी हथेलियों से ढँकने लगा ।।102।। वह स्वेद से भरे अपने कपोल मंडल को सदा हथेली पर रखे रहता था जिससे उसमें लालिमा उत्पन्न हो गयी थी। वह शीतलता प्राप्त करने के उद्देश्य से पल्लवों के आसन पर बैठता था तथा उसे गरम—गरम लंबी श्वासों से म्लान करता रहता था ।।103।। बाणों के गहरे प्रहार से असहनीय काम को धारण करने वाला वह पवनंजय बार-बार जमुहाई लेता था, बार-बार सिहर उठता था और बार-बार अंगड़ाई लेता था ।।104।। निरंतर स्त्री का ध्यान रखने से उसकी इंद्रियों का समूह व्यर्थ हो गया था अर्थात् उसकी कोई भी इंद्रिय अपना कार्य नहीं करती थी और अच्छे-से-अच्छे स्थानों में भी उसे धैर्य प्राप्त नहीं होता था, वह सदा अधीर ही बना रहता था ।।105।। उसने शून्य हृदय होकर सब काम छोड़ दिये थे। क्षण भर के लिए वह लज्जा को धारण करता भी था तो पुन: उसे छोड़ देता था ।।106।। जिसके समस्त अंग दुर्बल हो गये थे और सब आभूषण उतारकर अलग कर दिये थे ऐसा पवनंजय निरंतर स्त्री का ही ध्यान करता रहता था। परिवार के लोग बड़ी चिंता से उसकी इस दशा को देखते थे ।।107।।
वह सोचा करता था कि मैं उस कांता को अपनी गोद में बैठी कब दे दूँगा और उसके कमल तुल्य शरीर का स्पर्श करता हुआ उसके साथ कब वार्तालाप करूँगा ।।108।। उसकी चर्चा सुनकर तो हमारी यह अत्यंत दुःख देने वाली अवस्था हो गयी है फिर साक्षात् देखकर तो न जाने क्या होगा? उसे देखकर तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँगा ।।109।। अहो! यह बड़ा आश्चर्य है कि वह मेरी सखी मनोहर होकर भी मेरे लिए दुःख का कारण बन रही है ।।110।। अरी भली आदमिन? तू तो बड़ी पंडिता है फिर जिस हृदय में निवास कर रही है उसे ही दु:खरूपी अग्नि से जलाने के लिए तैयार क्यों बैठी है ।।111।। स्त्रियाँ स्वभाव से ही कोमलचित्त होती हैं पर मेरे लिए दुःख देने के कारण तुम्हारे विषय में यह बात विपरीत मालूम होती है ।।112।। हे अनंग! जब तुम शरीर रहित होकर भी इतनी पीड़ा उत्पन्न कर सकते हो तब फिर यदि शरीर सहित होते तो बड़ा ही कष्ट होता ।।113।। मेरे शरीर में यद्यपि घाव नहीं है तो भी पीड़ा अत्यधिक हो रही है और यद्यपि एक स्थान पर बैठा हूँ तो भी निरंतर कहीं घूमता रहता हूँ ।।114।।
यदि मैं उसे नेत्रों का विषय नहीं बनाता हूँ- उसे देखता नहीं हूँ तो मेरे ये तीन दिन कुशलतापूर्वक नहीं बीत सकेंगे ।।115।। इसलिए उसके दर्शन का उपाय क्या हो सकता है जिसे प्राप्त कर चित्त शांति प्राप्त करेगा ।।116।। अथवा इस संसार में करने योग्य समस्त कार्यों में परममित्र को छोड़कर और दूसरा कारण नहीं दिखाई देता ।।117।। ऐसा विचारकर पवनंजय ने पास ही बैठे हुए प्रहसित नामक मित्र से धीमी एवं गद्गद वाणी में कहा। वह मित्र छाया के समान सदा पवनंजय के साथ रहता था। विक्रिया से उत्पन्न हुए उन्हीं के दूसरे शरीर के समान जान पड़ता था और सर्व विश्वास का पात्र था ।।118-119।। उसने कहा कि मित्र! तुम मेरा अभिप्राय जानते ही हो अत: तुम से क्या कहा जाये? मेरी मुखरता केवल तुम्हें दुखी ही करेगी ।।120।। हे सखे! तीनों लोकों की समस्त चेष्टाओं को जानने वाले एक आपको छोड़कर दूसरा ऐसा कौन उदारचेता है जिसके लिए यह दुःख बताया जाये? ।।121।। जिस प्रकार गृहस्थ राजा के लिए, विद्यार्थी गुरु के लिए, स्त्री पति के लिए, रोगी वैद्य के लिए और बालक माता के लिए प्रकट कर बड़े भारी दुःख से छूट जाता है उसी प्रकार मनुष्य मित्र के लिए प्रकट कर दुःख से छूट जाता है, इसी कारण मैं आप से कुछ कह रहा हूँ ।।122-122।। जब से मैंने अनवद्य सुंदरी राजा महेंद्र की पुत्री की चर्चा सुनी है तभी से मैं काम के बाणों से अत्यधिक विकलता प्राप्त कर रहा हूँ ।।124।।
मन को हरने वाली उस सुंदरी प्रिया को देखे बिना मैं तीन दिन बिताने के लिए समर्थ नहीं हूँ ।।125।। इसलिए ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे मैं उसे देख सकूँ। क्योंकि उसके देखने से मैं स्वस्थ हो सकूँगा और मेरे स्वस्थ रहने से आप भी स्वस्थ रह सकेंगे ।।126।। निश्चय से सब प्राणियों के लिए अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा अपना जीवन ही इष्ट होता है क्योंकि उसके रहते हुए ही अन्य कार्यों का होना संभव है ।।127।।
तदनंतर मित्र के मन को मानो कृतकृत्य करता हुआ प्रहसित हँसकर शीघ्र ही बोला ।।128।। कि हे मित्र! करने योग्य कार्य का उल्लंघन करने वाले बहुत कहने से क्या मतलब है कहो, मैं क्या करूँ? यथार्थ में हम दोनों में पृथक्पना नहीं हैं ।।129।। उत्तम चित्त के धारक उन मित्रों के बीच जब तक यह वार्तालाप चलता है तब तक सूर्य अस्त हो गया सो मानो उनका उपकार करने के लिए ही अस्त हो गया था ।।130।। जो पवनंजय के राग के समान लाल-लाल था, अंधकार के प्रसार को चाहता था और प्रिय करने वाला था ऐसे संध्या के आलोक से प्रेरित होकर ही मानो सूर्य अस्त हुआ था ।।131।।
कांता से रहित पवनंजय का दुःख देखकर ही मानो जिसे करुणा उत्पन्न हो गयी थी ऐसी संध्या अपना पति जो सूर्य सो उसके पीछे चलने लगी थी- उसके अनुकूल हो गयी थी ।।132।। तदनंतर पूर्व दिशा अत्यधिक अंधकार से कृष्णता को प्राप्त हो गयी सो मानो सूर्य रूप पति के वियोग से ही मलिन अवस्था को प्राप्त हुई थी ।।133।। क्षण-भर में लोक ऐसा दिखने लगा मानो नील वस्त्र से ही आच्छादित हो गया हो अथवा नीलांजन की सघन पराग ही सब ओर उड़-उड़कर गिरने लगी हो ।।134।।
तदनंतर जब प्रकृत कार्य के योग्य समय आ गया तब उत्साह से भरे पवनंजय ने मित्र से इस प्रकार कहा ।।135।। हे मित्र! उठो, मार्ग दिखलाओ, हम दोनों वहाँ चलें जहाँ कि वह हृदय को हरने वाली विद्यमान है ।।136।। इतना कहने पर दोनों मित्र वहाँ के लिए चल पड़े। उनके मन उनके जाने के पूर्व ही प्रस्थान कर चुके थे और वे महानील मणि के समान नीले आकाश तल रूपी समुद्र में मछलियों की तरह जा रहे थे ।।137।। दोनों मित्र क्षण-भर में ही अंजनासुंदरी के घर जा पहुँचे। उसका वह घर अंजनासुंदरी के सन्निधान से ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि रत्नों के समूह से सुमेरु पर्वत सुशोभित होता है ।।138।। उस भवन के सातवें खंड में चढ़कर दोनों मित्र मोतियों की जाली से छिपकर झरोखे में बैठ गये और वहीं से अंजनासुंदरी को देखने लगे ।।139।।
वह अंजनासुंदरी अपने मुखरूपी पूर्ण चंद्रमा की किरणों से भवन के भीतर जलने वाले दीपकों को निष्फल कर रही थी तथा उसके सफेद, काले और लाल-लाल नेत्रों की कांति से दिशाएँ रंग-बिरंगी हो रही थीं ।।140।। वह स्थूल, उन्नत एवं सुंदर स्तनों को धारण कर रही थी। उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो पति के स्वागत के लिए शृंगार रस से भरे हुए दो कलश ही धारण कर रही थी ।।141।। नवीन पल्लवों के समान लाल-लाल कांति को धारण करने वाले तथा अनेक शुभ लक्षणों से परिपूर्ण उसके हाथ और पैर ऐसे जान पड़ते थे मानो नखरूपी किरणों से सौंदर्य को ही उगल रहे हों ।।142।। उसकी कमर पतली तो थी ही ऊपर से उस पर स्तनों का भारी बोझ पड़ रहा है इसलिए वह कहीं टूट न जाये इस भय से ही मानो उसे त्रिवलिरूपी रस्सियों से उसने कसकर बाँध रखा था ।।143।। वह अंजना जिन गोल-गोल जाँघों को धारण कर रही थी वे कामदेव के तरकस के समान, अथवा मद और काम के बाँधने के स्तंभ के समान अथवा सौंदर्य रूपी जल को बहाने वाली नदियों के समान जान पड़ती थीं ।।144।। उसकी कांति इंदीवर अर्थात् नील कमलों के समूह के समान थी, वह मुक्ताफल रूपी नक्षत्रों से सहित थी तथा पति रूपी चंद्रमा उसके पास ही विद्यमान था इसलिए वह मूर्तिधारिणी रात्रि के समान जान पड़ती थी ।।145।। इस प्रकार जिसके देखने से तृप्ति ही नहीं होती थी ऐसी अंजना को पवनंजय एकटक नेत्रों से देखता हुआ परम सुख को प्राप्त हुआ ।।146।।
इसी बीच में उसकी वसंततिलका नाम की अत्यंत प्यारी सखी ने अंजनासुंदरी से यह वचन कहे कि हे सुंदरी! राजकुमारी! तुम बड़ी भाग्यशालिनी हो जो पिता ने तुझे महा प्रतापी पवनंजय के लिए समर्पित किया है ।।147-148।। चंद्रमा की किरणों के समान निर्मल एवं अन्य मनुष्यों के गुणों की ख्याति को तिरस्कृत करने वाले उसके गुणों से यह समस्त संसार व्याप्त हो रहा है ।।149।। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुम समुद्र की बेला के समान महारत्नों की कांति के समूह से प्रभावित हो, मनोहर शब्द करती हुई उसकी गोद में बैठोगी ।।150।। तुम्हारा उसके साथ संबंध होनेवाला है सो मानो रत्नाचल के तट पर रत्नों की धारा ही बरसने वाली है। यथार्थ में स्त्रियों के प्रशंसनीय संबंध से उत्पन्न होने वाला संतोष ही सबसे बड़ा संतोष होता है ।।151।। इस प्रकार जब सखी वसंतमाला पवनंजय के गुणों का वर्णन कर रही थी तब अंजना मन ही मन प्रसन्न हो रही थी और लज्जा के कारण मुख नीचा कर अँगुली से पैर का नख कुरेद रही थी ।।152।। और खिले हुए नेत्र कमलों से जिसका मुख व्याप्त था ऐसे पवनंजय को आनंदरूपी जल का प्रवाह बहुत दूर तक बहा ले गया था ।।153।।
अथानंतर मिश्र केशी नामक दूसरी सखी ने निम्नांकित वचन कहे। कहते समय वह अपने लाल-लाल ओठों को भीतर की ओर संकुचित कर रही थी तथा सिर हिलाने के कारण उसकी चोटी में लगा पल्लव नीचे गिर गया था ।।154।। उसने कहा कि चूंकि तू विद्युत्प्रभ को छोड़कर पवनंजय के गुण ग्रहण कर रही है इससे तूने अपना बड़ा अज्ञान प्रकट किया है ।।155।। मैंने राज महलों में विद्युत्प्रभ की चर्चा कई बार सुनी है कि उसके लिए यह कन्या दी जाये अथवा नहीं दी जाये ।।156।। जो समुद्र के जल की बूँदों की संख्या जानता है उसी की बुद्धि उसके निर्मल गुणों का पार पा सकती है ।।157।। वह युवा है, सौम्य है, नम्र है, कांतिमां है, धीर-वीर है, प्रतापी है, विद्याओं का पारगामी है और समस्त संसार उसके दर्शन की इच्छा करता है ।।158।। यदि पुण्ययोग से विद्युत्प्रभ इस कन्या का पति होता तो इसे इस जन्म का फल प्राप्त हो जाता ।।159।। हे वसंतमालिकेँ! पवनंजय और विद्युत्प्रभ के बीच संसार में वही भेद प्रसिद्ध है जो कि गोष्पद और समुद्र के बीच होता है ।।160।। वह थोड़े ही वर्षों में मुनिपद धारण कर लेगा इस कारण इसके पिता ने उसकी उपेक्षा की है पर यह बात मुझे अच्छी नहीं मालूम होती ।।161।। विद्युत्प्रभ के साथ इसका एक क्षण भी बीतता तो वह सुख का कारण होता और अन्य क्षुद्र प्राणी के साथ अनंत भी काल बीतेगा तो भी वह सुख का कारण नहीं होगा ।।162।।
तदनंतर मिश्र केशी के ऐसा कहते ही पवनंजय क्रोधाग्नि से देदीप्यमान हो गया, उसका शरीर कांपने लगा और क्षण-भर में ही उसकी कांति बदल गयी ।।163।। ओठ चाबते हुए उसने म्यान से तलवार बाहर खींच ली और नेत्रों से निकलती हुई लाल-लाल कांति से दिशाओं का अग्र भाग व्याप्त कर दिया ।।164।। उसने मित्र से कहा कि हे प्रहसित! यह बात अवश्य ही इस कन्या के लिए इष्ट होगी तभी तो यह स्त्री इसके समक्ष इस घृणित बात को कहे जा रही है ।।165।। इसलिए देखो, मैं अभी इन दोनों का मस्तक काटता हूँ। हृदय का प्यारा विद्युत्प्रभ इस समय इनकी रक्षा करे ।।166।। तदनंतर मित्र के वचन सुनकर क्रोध से जिसका ललाट तट भौंहों से भयंकर हो रहा था ऐसा प्रहसित बोला कि मित्र! अस्थान में यह प्रयत्न रहने दो। तुम्हारी तलवार का प्रयोजन तो शकुनी का नाश करना है न कि स्त्रीजनों का नाश करना ।।167-168।। अतः देखो, निंदा में तत्पर इस दुष्ट स्त्री को मैं इस डंडे से ही निर्जीव किये देता हूँ ।।169।।
तदनंतर पवनंजय, प्रहसित के महा क्रोध को देखकर अपना क्रोध भूल गया, उसने तलवार म्यान में वापस डाल ली ।।170।। और उसका समस्त शरीर अपने स्वभाव की प्राप्ति में निपुण हो गया अर्थात् उसका क्रोध शांत हो गया। तदनंतर उसने क्रूर कार्य में दृढ़ मित्र से कहा ।।171।। कि हे मित्र! शांति को प्राप्त होओ। अनेक युद्धों में विजय प्राप्त करने से सुशोभित रहने वाले तुम्हारे क्रोध का भी ये स्त्रियां विषय नहीं हैं ।।172।। अन्य मनुष्य के लिए भी स्त्री जन का घात करना योग्य नहीं है फिर तुम तो मदोन्मत्त हाथियों के गंडस्थल चीरने वाले हो अत: तुम्हें युक्त कैसे हो सकता है? ।।173।। उच्च कुल में उत्पन्न तथा गुणों की ख्याति को प्राप्त पुरुषों के लिए इस प्रकार यश की मलिनता करनेवाला कार्य करना योग्य नहीं है ।।174।। इसलिए उठो उसी मार्ग से पुनः वापस चले। मनुष्य की मनोवृत्ति भिन्न प्रकार की होती है? अतः उस पर क्रोध करना उचित नहीं है ।।175।। निश्चित ही वह विद्युत्प्रभ इस कन्या लिए प्यारा होगा तभी तो पास बैठकर मेरी निंदा करने वाली इस स्त्री से उसने कुछ नहीं कहा ।।176।। तदनंतर जिनके आने का किसी को कुछ भी पता नहीं था ऐसे दोनों मित्र झरोखे से बाहर निकलकर अपने डेरे में चले गये ।।177।।
तदनंतर जिसका हृदय अत्यंत शांत था ऐसा पवनंजय परम वैराग्य को प्राप्त होकर इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।178।। जिसमें संदेह रूपी विषम भँवरे उठ रही हैं और जो दुष्ट भाव रूपी मगरमच्छों से भरी हुई हैं ऐसी पर-पुरुषासक्त स्त्री रूपी नदी का दूर से ही परित्याग करना चाहिए ।।179।। जो खोटे भावों से अत्यंत सघन है तथा जिसमें इंद्रियरूपी दुष्ट जीवों का समूह व्याप्त है ऐसी यह स्त्री एक बड़ी अटवी के समान है, विद्वज्जनों को कभी इसकी सेवा नहीं करनी चाहिए ।।180।। जिसका अपने शत्रु के साथ संपर्क है ऐसे राजा की सेवा करने से क्या लाभ है? इसी प्रकार शिथिल मित्र और परपुरुषासक्त स्त्री को पाकर सुख कहाँ से हो सकता है? ।।181।। जो विज्ञ पुरुष हैं वे अनादृत होने पर इष्ट-मित्रों, बंधुजनों, पुत्रों और स्त्रियों को छोड़ देते हैं पर जो क्षुद्र मनुष्य हैं वे पराभव रूपी जल में डूबकर ही नष्ट हो जाते हैं ।।182।। मदिरापान में राग रखने वाला वैद्य, शिक्षा रहित हाथी, अहेतुक वैरी, हिंसा पूर्ण दुष्ट धर्म, मूर्खों की गोष्ठी, मर्यादाहीन देश, क्रोध तथा बालक राजा और परपुरुषासक्त स्त्री, बुद्धिमान् मनुष्य इन सबको दूर से ही छोड़ देवे ।।183-184।। ऐसा विचार करते हुए पवनंजय की रात्रि कन्या की प्रीति के समान क्षय को प्राप्त हो गयी और जगाने वाले बाजे बज उठे ।।185।।
तदनंतर संध्या की लाली से पूर्व दिशा आच्छादित हो गयी सो ऐसी जान पड़ती थी मानो पवनंजय के द्वारा छोड़े हुए राग से ही निरंतर आच्छादित हो गयी थी ।।186।। और जो स्त्री के क्रोध के कारण ही मानो लाल-लाल दिख रहा था तथा जो जगत् की चेष्टाओं का कारण था ऐसे चंचल बिंब को धारण करता हुआ सूर्य उदित हुआ ।।187।। तदनंतर विराग के कारण अत्यंत अलस शरीर को धारण करता स्त्री विमुख पवनंजय प्रहसित मित्र से बोला कि ।।188।। हे मित्र! उससे संपर्क रखने वाली वायु का स्पर्श न हो जाये इसलिए यहाँ समीप में भी मेरा रहना उचित नहीं है अत: सुनो और उठो, अपने नगर की ओर चलें, यहाँ विलंब करना उचित नहीं है। प्रस्थान काल में बजने वाले शंख से सेना को सावधान कर दो ।।189-190।।
तदनंतर शंखध्वनि होने पर जो क्षुभित सागर के समान जान पड़ती थी तथा जिसने प्रस्थान काल के योग्य सर्व कार्य कर लिये थे ऐसी सेना शीघ्र ही चल पड़ी ।।191।। तत्पश्चात् रथ, घोड़े, हाथी, पैदल सिपाही और भेरी आदि से उत्पन्न हुआ शब्द कन्या के कान में प्रविष्ट हुआ ।।192।। प्रस्थान को सूचित करने वाले उस शब्द से कन्या अत्यंत दुःखी हुई मानो मुद्गर प्रहार संबंधी वेग से प्रवेश करने वाली कील से पीड़ित ही हुई थी ।।193।। वह विचार करने लगी कि हाय-हाय, बड़े खेद की बात है कि विधाता ने मेरे लिए खजाना देकर छीन लिया। मैं क्या करूँ? अब कैसा क्या होगा? ।।194।। इस श्रेष्ठ पुरुष की गोद में क्रीड़ा करूंगी इस प्रकार के जो मनोरथ मैंने किये थे मुझ अभागिनी के वे सब मनोरथ अन्यथा ही परिणत हो गये और रूप ही बदल गये ।।195।। इस बैरी सखी ने जो उनकी निंदा की थी जान पड़ता है कि किसी तरह उन्हें इसका ज्ञान हो गया है इसीलिए वे मुझ पर द्वेष करने लगे हैं ।।196।। विवेकरहित, पापिनी तथा क्रूर वचन बोलने वाली इस सखी को धिक्कार है जिसने कि मेरे प्रियतम को यह अवस्था प्राप्त करा दी ।।197।। पिताजी यदि हृदयवल्लभ को लौटा सकें तो मेरा बड़ा हित करेंगे और क्या इनकी भी लौटने की बुद्धि होगी ।।198।। यदि सचमुच ही हृदयवल्लभ मेरा परित्याग करेंगे तो मैं आहार त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँगी ।।199।। इस प्रकार विचार करती हुई अंजना मूर्छित हो छिन्नमूल लता के समान पृथिवी पर गिर पड़ी ।।200।। तदनंतर ‘यह क्या है’? ऐसा कहकर परम उद्वेग को प्राप्त हुई दोनों सखियों ने शीतलोपचार से उसे मूर्छारहित किया ।।201।। उस समय उसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था और नेत्र निश्चल थे। सखियों ने प्रयत्नपूर्वक उससे मूर्छा का कारण पूछा पर वह लज्जा के कारण कुछ कहन सकी ।।202।।
अथानंतर वायु कुमार (पवनंजय) की सेना के लोग इस अकारण गमन से चकित हो बड़ी आकुलता के साथ मन में विचार करने लगे कि यह कुमार इच्छित कार्य को पूरा किये बिना ही जाने के लिए उद्यत क्यों हो गया है? इसे किसने क्रोध उत्पन्न कर दिया? अथवा किसने इसे विपरीत प्रेरणा दी है? ।।203-204।। इसके कन्या ग्रहण करने की समस्त तैयारी है ही फिर यह किस कारण उदासीन हो गया है? ।।205।। कितने ही लोग हँसकर कहने लगे कि चूँकि इसने वेग से पवन को जीत लिया है इसलिए इसका पवनंजय यह नाम सार्थक है ।।206।। कुछ लोग कहने लगे कि यह अभी तक स्त्री का रस जानता नहीं है इसीलिए तो यह इस कन्या को छोड़कर जाने के लिए उद्यत हुआ है ।।207।। यदि इसे उत्तम रति का ज्ञान होता तो यह जंगली हाथी के समान उसके प्रेमपाश में सदा बंधा रहता ।।208।। इस प्रकार एकांत में वार्तालाप करने वाले सैकड़ों सामंतों के बीच खड़ा हुआ पवनंजय वेगशाली वाहन पर आरूढ़ हो चलने के लिए प्रवृत्त हुआ ।।209।।
तदनंतर जब कन्या के पिता को इसके प्रस्थान का पता चला तब वह हड़बड़ाकर घबराये हुए समस्त बंधुजनों के साथ वहाँ आया ।।210।। उसने प्रह्लाद के साथ मिलकर कुमार से इस प्रकार कहा कि हे भद्र! शोक का कारण जो यह गमन है सो किसलिए किया जा रहा है? आप से किसने क्या कह दिया? हे भद्र पुरुष! आप किसे प्रिय नहीं हैं? हे विद्वन! जो बात आपके लिए नहीं रुचती हो उसका तो यहाँ कोई विचार ही नहीं करता ।।211-212।। दोष रहते हुए भी आपको मेरे तथा पिता के वचन मानना उचित है फिर यह कार्य तो समस्त दोषों से रहित है अत: इसका करना अनुचित कैसे हो सकता है? ।।213।। इसलिए हे विद्वन्! लौटो और हम दोनों का मनोरथ पूर्ण करो। आप जैसे पुरुषों के लिए पिता की आज्ञा तो आनंद का कारण होना चाहिए ।।214।। इतना कहकर श्वसुर तथा पिता ने संतान के राग वश नत मस्तक वीर पवनंजय का बड़े आदर से हाथ पकड़ा ।।215।। तत्पश्चात् श्वसुर और पिता के गौरव का भंग करने के लिए असमर्थ होता हुआ पवनंजय वापिस लौट आया और क्रोध वश कन्या को दुःख पहुँचाने वाले कारण का इस प्रकार विचार करने लगा ।।216।। अब मैं इस कन्या को विवाह कर असमागम से उत्पन्न दुःख के द्वारा सदा दुःखी करूँगा। क्योंकि विवाह के बाद यह अन्य पुरुष से भी सुख प्राप्त नहीं कर सकेगी ।।217।। पवनंजय ने अपना यह विचार मित्र के लिए बतलाया और उसने भी उत्तर दिया कि ठीक है। यही बात मैं कह रहा था जिसे तुमने अपनी बुद्धि से स्वयं समझ लिया ।।218।।
प्रियतम को लौटा सुनकर कन्या को बहुत हर्ष हुआ। उसके समस्त शरीर में रोमांच निकल आये ।।219।। तदनंतर समय पाकर बंधुजनों ने दोनों का विवाह रूप मंगल किया जिससे सबके मनोरथ पूर्ण हुए ।।220।। यद्यपि कन्या का हाथ अशोक पल्लव के समान शीत स्पर्श वाला था पर उस विरक्त चित्त के लिए वह अग्नि की मेखला के समान अत्यंत उष्ण जान पड़ा ।।221।। बिजली की तुलना करने वाले अंजना के शरीर पर किसी तरह इच्छा के बिना ही पवनंजय की दृष्टि गयी तो सही पर वह उस पर क्षण भर के लिए भी नहीं ठहर सकी ।।222।। यह पवनंजय इस कन्या के भाव को नहीं समझ रहा है यह जानकर ही मानो चटकती हुई लाई के बहाने अग्नि शब्द करती हुई हँस रही थी ।।223।। इस तरह विधिपूर्वक दोनों का विवाह कर शब्द करते हुए समस्त बंधुजन परम हर्ष को प्राप्त हुए ।।224।। नाना वृक्ष और लताओं से व्याप्त तथा फल-फूलों से सुशोभित उस वन में सब लोग बड़े वैभव से महोत्सव करते रहे ।।225।। तदनंतर परस्पर वार्तालाप और यथा योग्य सत्कार कर सब लोग यथा स्थान गये। जाते समय सब लोग वियोग के कारण क्षण भर के लिए दुःखी हो उठे थे ।।226।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! तत्व की स्थिति को नहीं समझने वाले प्राणी दूसरे के लिए जो दुःख अथवा सुख पहुँचाते हैं उसमें मूल कारण संताप पहुँचाने वाला कर्म रूपी सूर्य ही है अर्थात् कर्म के अनुकूल या प्रतिकूल रहने पर ही दूसरे लोग किसी को सुख या दुःख पहुँचा सकते हैं ।।227।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्म चरित में अंजना सुंदरी के विवाह का कथन करनेवाला पंद्रहवां पर्व समाप्त हुआ ।।15।।