पद्मपुराण - पर्व 16: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर पवनंजय ने अंजना को विवाह कर ऐसा छोड़ा | |||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर पवनंजय ने अंजना को विवाह कर ऐसा छोड़ा कि उससे कभी बात भी नहीं करते थे, बात करना तो दूर रहा आँख उठाकर भी उस ओर नहीं देखते थे। इस तरह वे उसे बहुत दुःख पहुँचा रहे थे। इस घटना से अंजना के मन में कितना दुःख हो रहा था इसका उन्हें बोध नहीं था ।।1।। उसे रात्रि में भी नींद नहीं आती थी, सदा उसके नेत्र खुले रहते थे। उसके स्तन निरंतर अश्रुओं से मलिन हो गये थे ।।2।। पति के समान नाम वाले पवन अर्थात् वायु को भी वह अच्छा समझती थी, सदा उसका अभिनंदन करती थी और पति का नाम सुनने के लिए सदा अपने कान खड़े रखती थी ।।3।। उसने विवाह के समय वेदी पर जो पति का अस्पष्ट रूप देखा था उसी का मन में ध्यान करती रहती थी। वह क्षण-क्षण में निश्चेष्ट हो जाती थी और उसके नेत्र निश्चल रह जाते थे ।।4।। वह हृदय में पति को देखकर बाहर भी उनका दर्शन करना चाहती थी इसलिए नेत्रों को पोंछकर ठीक करती थी पर जब बाह्य में उनका दर्शन नहीं होता था तो पुन: शोक को प्राप्त हो जाती थी ।।5।। उसने एक ही बार तो पति का रूप देखा था इसलिए बड़ी कठिनाई से वह उनका चित्र खींच पाती थी उतने पर भी हाथ बीच-बीच में कांपने लगता था जिससे तूलिका छूटकर नीचे गिर जाती था ।।6।। वह इतनी निर्बल हो चुकी थी कि मुख को एक हाथ से दूसरे हाथ पर बड़ी कठिनाई से ले जा पाती थी। उसके समस्त अंग इतने कृश हो गये थे कि उनसे आभूषण ढीले हो होकर शब्द करते हुए नीचे गिरने लगे थे ।।7।। उसकी लंबी और अतिशय गरम सांस से हाथ तथा कपोल दोनों ही जल गये थे। उसके शरीर पर जो महीन वस्त्र था उसी के भार से वह खेद का अनुभव करने लगी थी ।।8।। वह अपने आपकी अत्यधिक निंदा करती हुई बार-बार माता-पिता का स्मरण करती थी तथा शून्य हृदय को धारण करती हुई क्षण—क्षण में निश्चेष्ट अर्थात् मूर्च्छित हो जाती थी ।।9।। कंठ के वाष्पावरुद्ध होने के कारण दुःख से निकले हुए वचनों से वह सदा अपने भाग्य को उलाहना देती रहती थी। अत्यंत दुःखी जो वह थी ।।10।।
वह चंद्रमा की किरणों से भी अधिक दाह का अनुभव करती थी और महल में भी चलती थी तो बार-बार मूर्च्छित हो जाती थी ।।11।। हे नाथ! तुम्हारे मनोहर अंग मेरे हृदय में विद्यमान हैं फिर वे अत्यधिक संताप क्यों उत्पन्न कर रहे हैं? ।।12।। हे प्रभो! मैंने आपका कोई अपराध नहीं किया है फिर अकारण अत्यधिक क्रोध को क्यों प्राप्त हुए हो? ।।13।। हे नाथ! मैं आपकी भक्त हूँ अतः प्रसन्न होओ और बाह्य में दर्शन देकर मेरा चित्त संतुष्ट करो। लो, मैं आपके लिए यह हाथ जोड़ती हूँ ।।14।। जिस प्रकार सूर्य से रहित आकाश, चंद्रमा से रहित रात्रि और गुणों से रहित विद्या शोभा नहीं देती उसी प्रकार आपके बिना मैं भी शोभा नहीं देती ।।15।। इस प्रकार वह मन में निवास करने वाले पति के लिए उलाहना देती हुई मुक्ताफल के समान स्थूल आँसुओं की बूँदें छोड़ती रहती थी ।।16।। वह अत्यंत कोमल पुष्प शय्या पर भी खेद का अनुभव करती थी और गुरुजनों का आग्रह देख बड़ी कठिनाई से भोजन करती थी ।।17।। वह चक्र पर चढ़े हुए के समान निरंतर घूमती रहती थी और तेल कंघी आदि संस्कार के अभाव में जो अत्यंत रूक्ष हो गये थे ऐसे केशों के समूह को धारण करती थी ।।18।। उसके शरीर में निरंतर संताप विद्यमान रहता था इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो तेज स्वरूप ही है। निरंतर अश्रु निकलते रहने से ऐसी जान पड़ती थी मानो जलरूप ही हो। निरंतर शून्य मस्तक रहने से ऐसी जान पड़ती थी मानो आकाश रूप ही हो और अक्रिय अर्थात् निश्चल होने के कारण ऐसी जान पड़ती थी मानो पृथिवी रूप ही हो ।।19।। उसके हृदय में निरंतर उत्कलिकाएँ अर्थात् उत्कंठाएँ (पक्ष में तरंगें) उठती रहती थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो वायु के द्वारा रची गयी हो और चेतना शक्ति के तिरोभूत होने से ऐसी जान पड़ती थी मानो पृथिवी आदि भूतचतुष्टय रूप ही हो ।।20।।
वह पृथिवी पर समस्त अवयव फैलाये पड़ी रहती थी, बैठने के लिए भी समर्थ नहीं थी। यदि बैठ जाती थी तो उठने के लिए असमर्थ थी और जिस किसी तरह उठती भी तो शरीर संभालने की उसमें क्षमता नहीं रह गयी थी ।।21।। यदि कभी चलती थी तो सखी जनों के कंधों पर हाथ रख कर चलती थी। चलते समय उसके हाथ सखियों के कंधों से बार-बार नीचे गिर जाते थे और मणिमय फर्श पर भी बार-बार उसके पैर लड़खड़ा जाते थे ।।22।। चापलूसी करने वाले पति सदा जिनके साथ रहते थे ऐसी चतुर स्त्रियों को वह बड़ी स्पृहा के साथ देखती थी और उन्हीं की ओर उसके निश्चल नेत्र लगे रहते थे ।।23।। जो पति से तिरस्कार को प्राप्त थी तथा अकारण ही जिसका त्याग किया गया था ऐसी दीनहीन अंजना दिनों को वर्षों के समान बड़ी कठिनाई से बिताती थी ।।24।। उसकी ऐसी अवस्था होने पर उसका समस्त परिवार उसके समान अथवा उससे भी अधिक दुःखी था तथा क्या करना चाहिए इस विषय में निरंतर व्याकुल रहता था ।।25।। परिवार के लोग सोचा करते थे कि क्या यह सब कारण के बिना ही हुआ है अथवा जंमांतर में संचित कर्म ऐसा फल दे रहा है ।।26।। अथवा वायु कुमार ने जंमांतर में जिस अंतराय कर्म का उपार्जन किया था अब वह फल देने में तत्पर हुआ है ।।27।। जिससे कि वह इस निर्दोष सुंदरी के साथ समस्त इंद्रियों को सुख देने वाले उत्कृष्ट भोग नहीं भोग रहा है ।।28।। सुनो, जिस अंजना ने पहले पिता के घर कभी रंचमात्र भी दुःख नहीं पाया वही अब कर्म के प्रभाव से इस दुःख के भार को प्राप्त हुई है ।।29।। इस विषय में हम भाग्यहीन क्या उपाय करें सो जान नहीं पड़ता। वास्तव में यह कर्मों का विषय हमारे प्रयत्न द्वारा साध्य नहीं है ।।30।। हम लोगों ने जो पुण्य किया है उसी के प्रभाव से यह राजपुत्री अपने पति की प्रेम भाजन हो जाये तो अच्छा हो ।।31।। अथवा हम लोगों के पास अणुमात्र भी तो पुण्य नहीं है क्योंकि हम स्वयं इस बाला के दु:खरूपी महासागर में डूबे हुए हैं ।।32।। वह प्रशंसनीय मुहूर्त कब आवेगा जब इसका पति इसे गोद में बैठाकर इसके साथ हास्य भरी वाणी में वार्तालाप करेगा ।।33।।
इसी बीच में बहुत भारी अहंकार को धारण करने वाले वरुण का रावण के साथ विरोध हो गया ।।34।। सो रावण ने वरुण के पास दूत भेजा। स्वामी के सामर्थ्य से परम तेज को धारण करने वाला दूत वरुण से कहता है कि ।।35।। हे वरुण! विद्याधरों के अधिपति श्रीमान् रावण ने तुम से कहा है कि या तो तुम मेरे लिए प्रणाम करो या युद्ध के लिए तैयार हो जाओ ।।36।। तब स्वभाव से ही स्थिर चित्त के धारक वरुण ने हँसकर कहा कि हे दूत! रावण कौन है? और क्या काम करता है? ।।37।। लोकनिंद्य वीर्य को धारण करनेवाला मैं इंद्र नहीं हूँ, अथवा वैश्रवण नहीं हूँ, अथवा सहस्ररश्मि नहीं हूँ, अथवा राजा मरुत्व या यम नहीं हूँ ।।38।। देवताधिष्ठित रत्नों से इसका गर्व बहुत बढ़ गया है इसलिए वह इन रत्नों के साथ आवे मैं आज उसे बिना नाम का कर दूँ अर्थात् लोक से उसका नाम ही मिटा दूँ ।।39।। निश्चय ही तुम्हारी मृत्यु निकट आ गयी है इसलिए ऐसा स्पष्ट कह रहे हो इतना कहकर दूत चला गया और जाकर उसने रावण से सब समाचार कह सुनाया ।।40।।
तदनंतर समुद्र के समान भारी सेना से युक्त रावण ने तीव्र क्रोध वश जाकर वरुण के नगर को चारों ओर से घेर लिया ।।41।। और सहसा उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं देवोपनीत रत्नों के बिना ही इस चपल को पराजित करूंगा अथवा मृत्यु को प्राप्त कराऊँगा ।।42।। राजीव पौंडरीक आदि वरुण के लड़के बहुत क्षोभ को प्राप्त हुए और शत्रु की सेना आयी सुन तैयार हो-होकर युद्ध के लिए बाहर निकले ।।43।। तदनंतर रावण की सेना के साथ उनका घोर युद्ध हुआ। युद्ध के समय नाना शस्त्रों के समूह परस्पर की टक्कर से टूट-टूटकर नीचे गिर रहे थे ।।44।। हाथी हाथियों से, घोड़े घोड़ों से, रथ रथों से और योद्धा योद्धाओं के साथ भिड़ गये। उस समय योद्धा बहुत अधिक हल्ला कर रहे थे, ओठ डँस रहे थे तथा क्रोध के कारण उनके नेत्र लाल-लाल हो रहे थे ।।45।। तदनंतर जिसने चिरकाल तक युद्ध किया था और शस्त्रसमूह का प्रहार कर स्वयं भी उसकी चोट खायी थी ऐसी वरुण की सेना, रावण की सेना से पराङ्मुख हो गयी ।।46।। तत्पश्चात् जो क्रुद्ध होकर प्रलयकाल की अग्नि के समान भयंकर था और शस्त्ररूपी पंजर के बीच में चल रहा था ऐसा वरुण राक्षसों की सेना की ओर दौड़ा ।।47।। तदनंतर जिसका वेग बड़ी कठिनाई से रोका जाता था ऐसे वरुण को रणांगण में आता देख देदीप्यमान शस्त्रों की धारक सेना ने रावण की रक्षा की ।।48।। तत्पश्चात् वरुण का आश्वासन पाकर उसके पुत्र पुन: तेजी के साथ युद्ध करने लगे और उन्होंने अनेक योद्धारूपी हस्तियों को मार गिराया ।।49।। तदनंतर जिसका चित्त खेद से देदीप्यमान हो रहा था और ललाट भौंहों से कुटिल था ऐसे क्रूर रावण ने जब तक धनुष उठाया तब तक वरुण के सौ पुत्रों ने शीघ्र ही खरदूषण को पकड़ लिया। खरदूषण चिरकाल से युद्ध कर रहा था फिर भी उसका चित्त खेद रहित था ।।50-51।।
तदनंतर रावण ने अत्यंत व्याकुल होकर मन में विचार किया कि इस समय युद्ध की भावना रखना मेरे लिए शोभा नहीं देती ।।52।। यदि परम युद्ध जारी रहता है तो खरदूषण के मरण की आशंका है इसलिए इस समय शांति धारण करना ही उचित है ।।53।। ऐसा निश्चय कर रावण युद्ध के अग्रभाग से दूर हट गया सो ठीक ही है क्योंकि उदार मनुष्यों का चित्त करने योग्य कार्य में रस को नहीं छोड़ता अर्थात् करने न करने योग्य कार्य का विचार अवश्य रखता है ।।54।। तदनंतर मंत्र कार्य में निपुण मंत्रियों के साथ सलाह कर उसने अपने देश में रहनेवाले समस्त सामंतों को सर्व प्रकार की सेना के साथ शीघ्र ही बुलवाया। बुलवाने के लिए उसने लंबा मार्ग तय करने वाले तथा सिर पर लेख बाँधकर रखनेवाले दूत भेजे ।।55-56।। रावण के द्वारा भेजा हुआ एक आदमी प्रह्लाद के पास भी आया सो उसने स्वामी की भक्ति से उसका यथायोग्य सत्कार किया ।।57।। तथा पूछा कि हे भद्र! विद्याधरों के अधिपति रावण की कुशलता तो है? तदनंतर उस आदमी ने कुशलता है इस प्रकार कहकर आदरपूर्वक रावण का पत्र प्रह्लाद के सामने रख दिया ।।58।। तत्पश्चात् प्रह्लाद ने सहसा स्वयं ही उस पत्र को उठाकर मस्तक से लगाया और फिर प्रकृत अर्थ को कहने वाला वह पत्र पढ़वाया ।।59।। पत्र में लिखा था कि अलंकारपुर नगर के समीप जिसकी सेना ठहरी है, जो कुशलता से युक्त है, सौमाली का पुत्र है तथा राक्षस वश रूपी आकाश का चंद्रमा है ऐसा विद्याधर राजाओं का स्वामी रावण, आदित्य नगर में रहनेवाले न्याय-नीतिज्ञ, देश-काल की विधि के ज्ञाता एवं हमारे साथ प्रेम करने में निपुण भद्र प्रकृति के धारी राजा प्रह्लाद को शरीरादि की कुशल कामना के अनंतर आज्ञा देता है कि हाथ की अंगुलियों के नखों की कांति से जिनके केश पीले हो रहे हैं ऐसे समस्त विद्याधर राजा तो शीघ्र ही आकर मेरे लिए नमस्कार कर चुके हैं पर पाताल नगर में जो दुर्बुद्धि वरुण रहता है वह अपनी शक्ति से संपन्न होने के कारण प्रतिकूलता कर रहा है- विरोध में खड़ा है। वह हृदय में चोट पहुँचाने वाले विद्याधरों के समूह से गिरकर समुद्र के मध्य में सुख से रहता है। इसी विद्वेष के कारण इसके साथ अत्यंत भयंकर युद्ध हुआ था सो इसके सौ पुत्रों ने खरदूषण को किसी तरह पकड़ लिया है ।।60-66।। युद्ध में इसका मरण न हो जाये इस विचार से समय की विधि को जानते हुए मैंने महायुद्ध की भावना छोड़ दी है ।।67।। इसलिए उसका प्रतिकार करने के लिए तुम्हें अवश्य ही यहाँ आना चाहिए क्योंकि आप जैसे पुरुष करने योग्य कार्य में कभी भूल नहीं करते ।।68।। अब मैं तुम्हारे साथ सलाह कर ही आगे का कार्य करूँगा और यह उचित भी है क्योंकि सूर्य भी तो अरुण के साथ मिलकर ही कार्य करता है ।।69।।
अथानंतर प्रह्लाद ने पवनंजय के लिए पत्र का सब सार बतलाकर तथा उत्तम मंत्रियों के साथ सलाह कर शीघ्र ही जाने का विचार किया ।।70।। पिता को गमन में उद्यत देख पवनंजय ने पृथिवी पर घुटने टेककर तथा हाथ जोड़ प्रणाम कर निवेदन किया कि ।।71।। हे नाथ! मेरे रहते हुए आपका जाना उचित नहीं है। पिता पुत्रों का आलिंगन करते हैं सो पुत्रों को उसका फल अवश्य ही चुकाना चाहिए ।।72।। यदि मैं वह फल नहीं चुकाता हूँ तो पुत्र ही नहीं कहला सकता अत: आप जाने की आज्ञा देकर मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ।।73।। इसके उत्तर में पिता ने कहा कि अभी तुम बालक ही हो, युद्ध में जो खेद होता है उसे तुमने कहीं प्राप्त नहीं किया है इसलिए सुख से यहीं बैठो, मैं जाता हूँ ।।74।।
तदनंतर सुमेरु के तट के समान चौड़ा सीना तानकर पवनंजय ने निम्नांकित ओजस्वी वचन कहे ।।75।। उसने कहा कि हे नाथ! मेरी शक्ति का सबसे प्रथम लक्षण यही है कि मेरा जन्म आप से हुआ है। अथवा संसार को भस्म करने के लिए क्या कभी अग्नि के तिलगे की परीक्षा की जाती है? ।।76।। आपकी आज्ञा रूपी शेषाक्षत से जिसका मस्तक पवित्र हो रहा है ऐसा मैं इंद्र को भी पराजित करने में समर्थ हूँ इसमें संशय की बात नहीं है ।।77।। ऐसा कहकर उसने पिता को प्रणाम किया और फिर बड़ी प्रसन्नता से उठकर उसने स्नान-भोजन आदि शारीरिक क्रियाएँ कीं ।।78।।
तदनंतर कुल की वृद्धा स्त्रियों ने बड़े आदर से आशीर्वाद देकर जिसका मंगलाचार किया था, जो उत्कृष्ट कांति को धारण कर रहा था और ‘मंगलाचार में बाधा न आ जाये’ इस भय से जिनके नेत्र आँसुओं से आकुलित थे ऐसे आशीर्वाद देने में तत्पर माता-पिता ने जिसका मस्तक चूमा था ऐसा पवनंजय भावपूर्वक सुदृढ़ नमस्कार कर, समस्त बंधुजनों से पूछकर, गुरुजनों का अभिवादन कर तथा भक्ति से नम्रीभूत समस्त परिजन से वार्तालाप कर मंद-मंद हँसता हुआ घर से निकला ।।79-81।। उसने स्वभाव से ही सर्वप्रथम दाहिना पैर ऊपर उठाया था। बार—बार फड़कती हुई दाहिनी भुजा से उसका हर्ष बढ़ रहा था ।।82।। और जिसके मुख पर पल्लव रखे हुए थे ऐसे पूर्ण कलश पर उसके नेत्र पड़ रहे थे। महल से निकलते ही उसने सहसा अंजना को देखा ।।83।। अंजना द्वार के खंभे से टिककर खड़ी थी, उसके नेत्र आँसुओं से आच्छादित थे, कमर को सहारा देने के लिए वह अपनी भुजा नितंब पर रखती भली थी पर दुर्बलता के कारण वह भुजा नितंब से नीचे हट जाती थी ।।84।। पान की लाली से रहित होने के कारण उसके ओठ अत्यंत धूसर वर्ण थे और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो उसी खंभे में उकेरी हुई एक मैली पुतली ही हो ।।85।। तदनंतर मनुष्य जिस प्रकार बिजली पर पड़ी दृष्टि को सहसा संकुचित कर लेता है-उससे दूर हटा लेता है उसी प्रकार पवनंजय ने अंजना पर पड़ी अपनी दृष्टि को शीघ्र ही संकुचित कर लिया तथा कुपित होकर कहा कि ।।86।। हे दुरवलोकने! तू इस स्थान से शीघ्र ही हट जा। उल्का की तरह तुझे देखने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ ।।87।। अहो, कुलांगना होकर भी तेरी यह परम धृष्टता है जो मेरे न चाहने पर भी सामने खड़ी है। बड़ी निर्लज्ज है ।।88।। पवनंजय के उक्त वचन यद्यपि अत्यंत क्रूर थे तो भी जिस प्रकार चिरकाल का प्यासा मनुष्य प्राप्त हुए जल को बड़े मनोयोग से पीता है उसी प्रकार अंजना स्वामी में भक्ति होने के कारण उसके उन क्रूर वचनों को बड़े मनोयोग से सुनती रही ।।89।। उसने स्वामी के चरणों में नेत्र गड़ाकर तथा हाथ जोड़कर कहा। कहते समय वह यद्यपि प्रयत्नपूर्वक वचनों का उच्चारण करती थी तो भी बार-बार चूक जाती थी, चुप रह जाती थी, अथवा कुछ का कुछ कह जाती थी ।।90।। उसने कहा कि हे नाथ! इस महल में रहते हुए भी मैं आपके द्वारा त्यक्त हूँ फिर भी मैं आपके समीप ही रह रही हूँ इतने मात्र से ही संतोष धारणकर अब तक बड़े कष्ट से जीवित रही हूँ ।।91।। पर हे स्वामिन्! अब जब कि आप दूर जा रहे हैं निरंतर दुःखी रहने वाली मैं आपके सद्वचनरूपी अमृत के स्वाद के बिना किस प्रकार जीवित रहूँगी? ।।92।। हे प्रभो! परदेश जाते समय आपने स्नेह से आर्द्र चित्त होकर सेवक जनों से भी संभाषण किया है फिर मेरा चित्त तो एक आप में ही लग रहा है और आपके ही वियोग से निरंतर दुःखी रहती हूँ फिर स्वयं न सही दूसरे के मुख से भी आपने मुझ से संभाषण क्यों नहीं किया? ।।93-94।। हे नाथ! आपने मेरा त्याग किया है इसलिए इस समस्त संसार में दूसरा कोई भी मेरा शरण नहीं है अथवा मरण ही शरण है ।।95।।
तदनंतर पवनंजय ने मुख सिकोड़कर कहा कि मरो। उनके इतना कहते ही वह खेद—खिन्न हो मूर्छित होकर पृथिवी पर गिर पड़ी ।।96।। इधर उत्तम ऋद्धि को धारण करता हुआ निर्दय पवनंजय उत्तम हाथी पर सवार हो सामंतों के साथ आगे बढ़ गया ।।97।। प्रथम दिन वह मानसरोवर को प्राप्त हुआ सो यद्यपि उसके वाहन थके नहीं थे तो भी उसने मानसरोवर के तट पर सेना ठहरा दी ।।98।। आकाश से उतरते हुए पवनंजय की नाना प्रकार के वाहन और शस्त्रों से सुशोभित सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो देवों का समूह ही नीचे उतर रहा हो ।।99।। प्रसन्नता से भरे विद्याधरों ने अपने तथा वाहनों के स्नान-भोजनादि समस्त कार्य यथायोग्य रीति से किये ।।100।।
अथानंतर विद्या के बल से शीघ्र ही एक ऐसा मनोहर महल बनाया गया कि जिसमें अनेक खंड थे तथा जिसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई अनुरूप थी, उस महल के ऊपर के खंड पर मित्र के साथ स्वच्छंद वार्तालाप करता हुआ पवनंजय उत्कृष्ट आसन पर विराजमान था। युद्ध की वार्ता से उसका हर्ष बढ़ रहा था ।।101-102।।
पवनंजय झरोखों के मार्ग से किनारे के वृक्षों को तथा मंद-मंद वायु से हिलते हुए मानसरोवर को देख रहा था ।।103।। भयंकर कछुए, मीन, नक्र, गर्व को धारण करने वाले मगर तथा अन्य अनेक जल-जंतु उस सरोवर में लहरें उत्पन्न कर रहे थे ।।104।। घुले हुए स्फटिक के समान स्वच्छ तथा कमलों और नील कमलों से सुशोभित उस सरोवर का जल हंस, कारंडव, क्रौंच और सारस पक्षियों से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।105।। इन सब पक्षियों के गंभीर कोलाहल से वह सरोवर मन और कर्ण दोनों को चुरा रहा था। तथा उसके मध्य में भ्रमरियों को उत्कृष्ट झंकार सुनाई देता था ।।106।।
उसी सरोवर के किनारे पवनंजय ने एक चकवी देखी। वह चकवी अकेली होने से अत्यंत व्याकुल थी, वियोगरूपी अग्नि से संतप्त थी, नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रही थी, अस्ताचल के निकटवर्ती सूर्यबिंब पर उसके नेत्र पड़ रहे थे, वह बार-बार कमलिनी के पत्तों के विवरों में नेत्र डालती थी, वेग से पंखों को फड़फड़ाती थी, बार-बार ऊपर उड़कर तथा नीचे उतरकर खेदखिन्न हो रही थी, मृणाल के टुकड़ों से स्वादिष्ट जल की ओर देखकर दुःखी हो रही थी, पानी के भीतर अपना प्रतिबिंब देखकर पति की आशंका से उसे बुलाती थी और अंत में उसके न आने से अत्यधिक शोक करती थी, नाना स्थानों से जो प्रतिध्वनि आती थी उसे सुनकर कहीं पति तो नहीं बोल रहा है इस आशा से वह चक्रारूढ़ की तरह गोल चक्कर लगाती थी, उसके नेत्र सुंदर थे, वह किनारे के वृक्ष पर चढ़कर सब दिशाओं में नेत्र डालती थी और वहाँ जब पति को नहीं देखती थी तब बड़े वेग से पुनः नीचे आ जाती थी तथा पंखों की फड़फड़ाहट से कमलों की पराग को दूर तक उड़ा रही थी। पवनंजय दया के वशीभूत हो उसकी ओर दृष्टि लगाकर देर तक देखता रहा ।।107-113।। चकवी को जो अत्यधिक दुःख प्राप्त हो रहा था उसी का वह इस प्रकार चिंतवन करने लगा। वह विचारने लगा कि पति से वियुक्त हुई यह चकवी शोक रूपी अग्नि से जल रही है ।।114।। यह वही चंद्रमा और चंदन के समान शीतल, मनोहर सरोवर है पर पति का वियोग पाकर इसे दावानल के समान हो रहा है ।।115।। पति से रहित स्त्रियों के लिए पल्लव भी तलवार का काम करता है, चंद्रमा की किरण भी वज्र बन जाती है और स्वर्ग भी नरक जैसा हो जाता है ।।116।।
ऐसा विचार करते हुए उसका मन अपनी प्रिया अंजनासुंदरी पर गया और उसी में प्रेम होने के कारण उसने विवाह के समय सेवित स्थानों को बड़े गौर से देखा ।।117।। वे सब स्थान उसके नेत्रों के सामने आने पर शोक के कारण हो गये और मर्म भेद करने वालों के समान दु:सह हो उठे ।।118।। वह मन ही मन सोचने लगा कि हाय-हाय बड़े कष्ट की बात है। मुझ दुष्ट चित्त के द्वारा छोड़ी हुई वह प्रिया भी इस चकवी के समान दुःख को प्राप्त हो रही होगी ।।119।। यदि उस समय उसकी सखी ने कठोर शब्द कहे थे तो दूसरे के दोष से मैंने उसे क्यों छोड़ दिया? ।।120।। बिना विचारे काम करने वाले मुझ जैसे मूर्खों के लिए धिक्कार है। जो बिना कारण ही लोगों को दुःखी करते हैं ।।121।। निश्चय ही मुझ पापी का चित्त वज्र का बना है इसीलिए तो वह इतने समय तक प्रिया के विरुद्ध रह सका है ।।122।। अब क्या करूं? मैं पिता से पूछकर घर से बाहर निकला हूं इसलिए अब लौटकर वापस कैसे जाऊँ? अहो! मैं बड़े संकट में आ पड़ा हूँ ।।123।। यदि मैं युद्ध के लिए जाता हूँ तो निश्चित है कि वह जीवित नहीं बचेगी और उसके अभाव में मेरा भी अभाव स्वयमेव हो जायेगा। इसलिए इससे बढ़कर और दूसरा कष्ट नहीं है ।।124।। अथवा समस्त संदेह की गांठ को खोलने वाला मेरा परम मित्र विद्यमान है सो यही इस शुभ कार्य का निर्णायक है ।।125।। इसलिए सब प्रकार के व्यवहार में निपुण इस मित्र से पूछता हूँ क्योंकि जो कार्य विचारकर किया जाता है उसी में प्राणी सुख पाते हैं सर्वत्र नहीं ।।126।।
इधर पवनंजय इस प्रकार विचार कर रहा था उधर प्रहसित मित्र ने उसे अन्यमनस्क देखा। तब उसके दुःख से दुःखी होकर उसने स्वयं ही धीरे से पूछा ।।127।। कि हे सखे! तुम तो शत्रु का उच्छेद करने के लिए निकले हो फिर आज इस तरह तुम्हारा मुख खिन्न सा क्यों दिखाई दे रहा है? ।।128।। हे सत्पुरुष! लज्जा छोड़कर शीघ्र ही मेरे लिए इसका कारण बताओ। आपके इस तरह खिन्न रहते हुए मुझे बहुत आकुलता उत्पन्न हो रही है ।।129।। तदनंतर जो धैर्य से भ्रष्ट होकर बहुत दूर जा पड़ा ऐसा पवनंजय मित्र के इस प्रकार कहने पर कठिनाई से निकलती हुई वाणी से कहने लगा कि ।।130।। हे सुंदर! सुनो, तुम्हें छोड़कर और किससे कहूँगा? यथार्थ में मेरे समस्त रहस्यों के तुम्हीं एक पात्र हो ।।131।। हे मित्र! यह बात तुम किसी दूसरे से कहने के योग्य नहीं हो क्योंकि इससे मुझे अधिक लज्जा उत्पन्न होती है ।।132।। इसके उत्तर में प्रहसित ने कहा कि तुम निशंक होकर कहो क्योंकि तुम्हारे द्वारा कहा हुआ पदार्थ मेरे लिए संतप्त लोहे पर पड़े पानी के समान है ।।133।।
तदनंतर पवनंजय ने कहा कि हे मित्र! सुनो, मैंने आज तक कभी अंजना से प्रेम नहीं किया इसलिए मेरा मन दुखी हो रहा है ।।134।। यद्यपि मैं क्रूर हूँ और क्रूरता वश उससे बोलता-चालता नहीं था तो भी मात्र समीप में रहने के कारण उसने निरंतर आँसू डाल-डालकर अपने आपको जीवित रखा है ।।135।। परंतु उस दिन आते समय मैंने उसकी जो चेष्टा देखी थी उससे जानता हूं कि वह वियोगिनी अब जीवित नहीं रहेगी ।।136।। मुझ पाषाण चित्त ने अपराध के बिना ही उसका बाईस वर्ष तक अनादर किया है ।।137।। आते समय मैंने उसका वह मुख देखा था जो कि शोक रूपी तुषार से संर्पक होने के कारण सौंदर्य रूपी संपदा से रहित था ।।138।। उसके जब नीलोत्पल के समान नीले एवं दीर्घ नेत्र स्मृति में आते हैं तो बाण की तरह हृदय बींध जाता है ।।139।। इसलिए हे सज्जन! ऐसा उपाय करो कि जिससे हम दोनों का समागम हो जाये और मरण न हो सके ।।140।।
अथानंतर क्षण-भर के लिए जिसका शरीर तो निश्चल था और मन उपाय की चिंतना मे मानो अत्यंत चंचल झूला पर ही स्थित था ऐसा प्रहसित बोला कि ।।141।। कि तुम गुरुजनों से पूछकर निकले हो और शत्रु को जीतना चाहते हो इसलिए इस समय तुम्हारा लौटना उचित नहीं है ।।142।। इसके सिवाय गुरुजनों के समक्ष तुम कभी अंजना को अपने पास नहीं लाये हो इसलिए इस समय उसका यहाँ लाना भी लज्जा की बात है ।।143।। अत: अच्छा उपाय यही है कि तुम गुप्त रूप से वहीं जाकर उसे अपने दर्शन तथा संभाषणजन्य सुख का पात्र बनाओ ।।144।। तुम्हारा समागम उसके जीवन का आलंबन है सो उसे चिरकाल तक प्राप्त कराकर तथा अपने मन को ठंडा कर शीघ्र ही वहाँ से वापस लौट आना ।।145।। और इस तरह तुम उस ओर से निश्चिंत हो उत्तम उत्साह को धारण करते हुए शत्रु को जीतने के लिए जा सकोगे ।।146।।
तदनंतर बहुत ठीक है ऐसा कहकर शीघ्रता से भरा पवनंजय, मुद्गर नामक सेनापति को सेना की रक्षा में नियुक्त कर माला, अनुलेपन आदि अन्य सुगंधित पदार्थ लेकर और प्रहसित मित्र को आगे कर मेरु वंदना के बहाने आकाश में जा उड़ा ।।147-148।। इतने में ही सूर्य अस्त हो गया सो रात्रि के समय इन दोनों का निश्चिंतता से समागम हो सके इस करुणा से प्रेरित होकर ही मानो अस्त हो गया था ।।149।। तदनंतर संध्या के प्रकाश को नष्ट करने का कारण जो अंधकार उससे युक्त होकर समस्त संसार श्याम वर्ण हो गया और समस्त पदार्थ मात्र स्पर्शन इंद्रिय के द्वारा ही जानने योग्य रह गये ।।150।। अंजनासुंदरी के घर पहुँचकर पवनंजय तो बाह्य बरंडो में रह गया और प्रहसित उसके पास गया ।।151।।
तदनंतर दीपक के मंद प्रकाश में उसे सहसा देखकर यह कौन है? कौन है? ऐसा कहती हुई अंजना अत्यधिक भयभीत हुई ।।152।। उसने पास में सोयी वसंतमाला सखी को जगाया सो उस चतुर ने उठकर उसका भय नष्ट किया ।।153।। तत्पश्चात् ‘मैं प्रहसित हूँ’ ऐसा कहकर उसने नमस्कार किया और पवनंजय के आने की सूचना दी ।।154।। तब वह स्वप्न के समान प्राणनाथ के समागम का समाचार सुन गद्गद बाणों में दीनता के साथ प्रहसित से कहने लगी कि ।।155।। हे प्रहसित! मुझ पुण्य हीना तथा पतित्यक्ता की हँसी क्यों करते हो? मैं तो अपने मलिन कर्मों से स्वयं ही हास्य का पात्र हो रही हूँ ।।156।। यह हृदयवल्लभ के द्वारा तिरस्कृत है, पति के द्वारा ठुकरायी गयी है, ऐसा जानकर मुझ अभागिनी एवं दुःखिनी का किसने नहीं तिरस्कार किया है? ।।157।। खासकर दुष्ट चित्त को धारण करने वाले तुम्हीं ने प्राणनाथ को प्रोत्साहित कर मुझे अत्यंत दुःख देने वाली इस अवस्था तक पहुँचाया है ।।158।। अथवा हे भद्र! इसमें तुम्हारा क्या दोष है? क्योंकि कर्म के वशीभूत हुआ समस्त संसार दुःख अथवा सुख प्राप्त कर रहा है ।।151।। इस प्रकार जो अश्रु ढालती हुई कह रही थी तथा अपने आपकी निंदा करने में तत्पर थी ऐसी अंजना सुंदरी को नमस्कार कर प्रहसित बोला। उस समय प्रहसित का मन दुःख से द्रवीभूत हो रहा था ।।160।। उसने कहा कि हे कल्याणि! ऐसा मत कहो, मुझ निर्विचार तथा पापयुक्त चित्त के धारक ने जो अपराध किया है उसे क्षमा करो ।।161।। इस समय तुम्हारे दुष्कर्म निश्चय ही नष्ट हो गये हैं क्योंकि प्रेम रूपी गुण से खिंचा हुआ तुम्हारा हृदयवल्लभ स्वयं आया है ।।162।। अब इसके प्रसन्न रहने पर तुम्हें कौन सी वस्तु सुखदायक नहीं होगी? वास्तव में चंद्रमा के साथ समागम होने पर रात्रि में कौन सी सुंदरता आ जाती? ।।163।।
तदनंतर अंजनासुंदरी क्षण-भर के लिए चुप हो रही। उसके बाद उसने सखी के द्वारा अनूदित वचनों के द्वारा उत्तर दिया। सखी जो वचन कह रही थी वे अंजना की प्रतिध्वनि के समान जान पड़ते थे ।।164।। उसने कहा कि हे भद्र! जिस प्रकार जल से रहित वर्षा का होना असंभव है उसी प्रकार उनका आना भी असंभव है। अथवा इस समय मेरे किसी शुभ कार्य का उदय हुआ हो जिससे तुम्हारा कहना संभव भी हो सकता है ।।165।। अस्तु, यदि प्राणनाथ आये हैं तो मैं उनका स्वागत करती हूँ। मेरा पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म रूपी वृक्ष आज फलीभूत हुआ है ।।166।। इस प्रकार नेत्रों में हर्ष के आंसू भरे हुई अंजनासुंदरी यह कह ही रही थी कि सखी के समान करुणा प्राणनाथ को उसके समीप ले आयी ।।167।। उस समय अंजना शय्या पर बैठी थी। ज्यों ही उसने परम आनंद के देने वाले प्राणनाथ को समीप आते देखा त्यों ही वह उठने का प्रयास करने लगी। उसके नेत्र भयभीत हरिण के समान सुंदर थे, वह खड़ी होने के लिए अपने घुटनों पर बार-बार हस्त कमल रखती थी पर वे दुर्बलता के कारण नीचे खिसक जाते थे। उसकी जाँघें खंभे के समान अकड़ गयी थीं और सारा शरीर कांपने लगा था ।।168-169।। यह देख पवनंजय ने अमृत तुल्य निम्न वचन कहे कि हे देवि! रहने दो, क्लेश उत्पन्न करने वाले इस संभ्रम से क्या प्रयोजन है? ।।170।। इतना कहने पर भी अंजना बड़े कष्ट से खड़ी होकर हाथ जोड़ने का उद्यम करने लगी कि पवनंजय ने उसका हाथ पकड़कर उसे शय्या पर बैठा दिया ।।171।। अंजना का वह हाथ पसीना से युक्त हो गया और रोमांच धारण करने लगा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो पति के स्पर्श रूपी अमृत से सींचा जाकर अंकुर ही धारण कर रहा था ।।172।। वसंतमाला ने पवनंजय को नमस्कार कर आदरपूर्वक उसके साथ वार्तालाप किया। तदनंतर वह प्रहसित के साथ एक दूसरे सुंदर कमरे में सुख से बैठ गयी ।।173।।
अथानंतर चूंकि पवनंजय अपने द्वारा किये हुए अनादर से लज्जित हो रहा था अत: सर्वप्रथम कुशल समाचार पूछने के लिए वह हृदय से प्रवृत्त नहीं हो सका ।।174।। तदनंतर लज्जित होते हुए उसने कहा कि हे प्रिये! मैंने कर्मोदय के प्रभाव से तुम्हारा जो तिरस्कार किया है उसे क्षमा करो। यह कहते समय पवनंजय का मन अत्यंत आकुल हो रहा था ।।175।। अंजना का पति के साथ वार्तालाप करने का प्रथम अवसर था इसलिए वह भी लज्जा के कारण मुख नीचा किये थी। उसका सारा शरीर निश्चल था। इसी दशा में उसने धीरे-धीरे उत्तर दिया ।।176।। कि हे नाथ! चूंकि इस समय आप जिसकी मुझे आशा ही नहीं थी ऐसा दुर्लभ स्नेह कर रहे हैं इसलिए यही समझना चाहिए कि आपने मेरा कुछ भी तिरस्कार नहीं किया है ।।177।। मैंने अब तक जो जीवन धारण किया है वह एक आपकी स्मृति के आश्रय ही धारण किया है। इसलिए आपके द्वारा किया हुआ तिरस्कार भी मेरे लिए महान् आनंदस्वरूप ही रहा है ।।178।।
अथानंतर ऐसा कहती हुई अंजना की चिबुक पर अंगुली रख उसके मुख को कुछ ऊँचा उठाकर उसी की ओर देखते हुए पवनंजय ने कहा कि ।।175।। हे देवि! समस्त अपराध भूल जाओ इसलिए मैं तुम्हारे चरणों में प्रणाम करता हूँ, परम प्रसन्नता को प्राप्त होओ ।।180।। इतना कहकर पवनंजय ने अपना मस्तक अंजना के चरणों में रख दिया और अंजना उसे अपने कर कमलों से शीघ्र ही उठाने का प्रयत्न करने लगी ।।181।। परंतु पवनंजय उसी दशा में पड़े रहे। उन्होंने कहा कि हे प्रिये! जब तुम यह कहोगी कि मैं प्रसन्न हूँ तभी सिर ऊपर उठाऊंगा ।।182।। तदनंतर ‘क्षमा किया’ अंजना के ऐसा कहते ही पवनंजय ने सिर ऊपर उठाकर उसका आलिंगन किया। उस समय उसके दोनों नेत्र सुख से निमीलित हो रहे थे ।।183।। आलिंगित अंजना पति के शरीर में इस प्रकार लीन हो गयी मानो फिर से वियोग न हो जावे इस भय से शरीर के भीतर ही प्रविष्ट होना चाहती थी ।।184।। पवनंजय ने अंजना को आलिंगन से छोड़ा तो निश्चल नेत्रों से युक्त उसके मुख को अपने टिमकार रहित नेत्रों से देखने लगे ।।185।। तदनंतर काम से व्याकुल हो उन्होंने अंजना के पैरों, हाथों, नाभि, स्तन, दाढ़ी, ललाट, कपोलों और नेत्रों का चुंबन किया ।।186।। एक ही बार नहीं, किंतु पसीना से युक्त हाथ से स्पर्श करते हुए उन्होंने पुनः-पुन: उन स्थानों का चुंबन किया जो ठीक ही है क्योंकि मुख का चुंबन करने के लिए वह आप्त सेवा है सो प्रेमी जनों को करना ही पड़ता है ।।187।। तदनंतर खिले हुए कमल के भीतरी दल के समान किसी की कांति थी और मानो जो अमृत ही छोड़ रहा था ऐसे उसके अधरोष्ठ का पान किया ।।188।। नीवि की गांठ खोलने के लिए उतावली करने वाले पवनंजय के हाथ को लज्जा से भरी अंजना रोकना तो चाहती थी पर उसका हाथ इतना अधिक काँप रहा था कि उससे वह रोकने में समर्थ नहीं हो सकी ।।189।।
तदनंतर वस्त्र रहित अंजना का नितंब फलक देखकर पवनंजय का हृदय काम के वेग से चंचल हो गया ।।190।। तत्पश्चात् किसी अद्भुत वेग से जिसकी आत्मा विवश हो रही थी ऐसे पवनंजय ने कमल के समान कोमल अंजना को कसकर पकड़ लिया ।।191।। तदनंतर चतुराई जो बात कहती थी, काम जैसी आज्ञा देता था, और बढ़ा हुआ अनुराग जैसी शिक्षा देता था वैसी ही उन दोनों दंपतियों की रति क्रिया उत्तम वृद्धि को प्राप्त हुई। उस समय उन दोनों के मन का जो भाव था वह शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता ।।192-193।। परम सुंदरी अंजना के स्तन रूपी कलश तथा नितंब स्थल का आस्थान करते हुए पवनंजय कामदेव रूपी मदोन्मत्त हाथी पर आरूढ़ थे ।।194।। ठहरो, छोड़ो, पकड़ो आदि नाना शब्दों से युक्त तथा हाव भाव विभ्रम से भरा उनका रत किसी महायुद्ध के समान जान पड़ता था ।।195।। अधरोष्ठ को ग्रहण करते समय जोर से सी-सी करती हुई अंजना जो हाथ हिलाती थी वह ऐसा जान पड़ता था मानो किसी लता का पल्लव ही हिल रहा हो ।।196।। अंजना के नितंब स्थल पर पवनंजय ने जो नये-नये नख क्षत दिये थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो नीलमणि की भूमि में पद्मरागमणि ही निकल रहे हों ।।197।। अंजना का जघन स्थल देखते-देखते पवनंजय को तृप्ति ही नहीं होती थी। वह अपने टिमकार रहित नेत्र उसी पर गड़ाये बैठे थे ।।198।। मधुर आलाप से सहित उसकी चूड़ियों की मनोहर रुनझुन ऐसी जान पड़ती थी मानो भ्रमरों के समूह ही गुंजार कर रहे हों ।।199।। अंजना के नेत्रों के कटाक्ष और पुतलियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो चंचल भ्रमरों से युक्त नील कमलों की शोभा ही धारण कर रही हो ।।200।।
संभोग के अनंतर अंजना के मुख तथा स्तनों के ऊपर जो पसीनों की बूंदों का समूह प्रकट हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वच्छ मोतियों का समूह ही हो ।।201।। दंताघात के कारण उसका अधरोष्ठ लाल-लाल हो गया था। उसे धारण करती हुई वह ऐसी जान पड़ती थी मानो जिसमें एक फूल आया है ऐसे टेसू के वन की पंक्ति ही हो ।।202।। पति के द्वारा उपभुक्त अंजना का शरीर सुमेरु पर्वत के द्वारा आलिंगित मेघ पंक्ति के समान उत्तम कांति को धारण कर रहा था ।।203।। तदनंतर जिसके समस्त कार्य पूर्ण हो चुके थे ऐसे सुरतोत्सव के समाप्त होने पर खिन्न शरीर से युक्त दोनों दंपती निद्रा सेवन की इच्छा करने लगे ।।204।। परंतु उन दोनों के मन एक दूसरे के गुणों का ध्यान करने में निमग्न थे इसलिए निद्रा ईर्ष्या के कारण ही मानो क्रोधवश कहीं भाग गयी थी ।।205।।
तदनंतर जिसमें पति के कंधे पर वल्लभा का सिर रखा था, जिसमें भुजाओं का परस्पर आलिंगन हो रहा था, जो पारस्परिक प्रेम से मानो कीलित था, महासुगंधित श्वासोच्छ्वास के कारण जिसमें मुख-कमल सुवासित थे, विशाल वक्षस्थल की चपेट से जिसके स्तन मंडल चक्र के आकार चपटे हो रहे थे, जिसमें पुरुष की जाँघों के बीच में स्त्री की एक जाँघ का भार अवस्थित था और इच्छित स्थानों में जहाँ नाना प्रकार के तकिया लगाये गये थे, ऐसी अवस्था में नागकुमार देव देवियों के युगल के समान वह अंजना और पवनंजय का युगल किसी तरह निद्रा को प्राप्त हुआ। उस समय उन दोनों के शरीर स्पर्शजन्य सुखरूपी सागर में निमग्न होने से अत्यंत निश्चल थे ।।206-209।।
अथानंतर जब कुछ प्रभात हुआ तब अंजना शय्या से उठकर तथा बगल में निकट बैठकर पति की सेवा करने लगी ।।210।। अपने शरीर में संभोगजन्य सुगंधि देखकर वह लज्जित हो गयी और साथ ही चूंकि उसके मनोरथ चिरकाल बाद पूर्ण हुए थे इसलिए हर्ष को भी प्राप्त हुई ।।211।। इस प्रकार जो पहले एक दूसरे के दर्शन मात्र से भयभीत रहते थे ऐसे उन दंपतियों की अज्ञात रूप से यथेच्छ उपभोग करते हुए अनेक रात्रियां व्यतीत हो गयीं ।।212।। दोदुंदुक नामक देव की उपमा को धारण करने वाले उन दोनों दंपतियों की इंद्रियाँ उस समय अन्य कार्यों से व्यावृत्त होकर परस्पर एक दूसरे की ओर ही लगी हुई थीं ।।213।।
अथानंतर सुख के संभार से जिसने स्वामी का आदेश भुला दिया था ऐसे मित्र को प्रमादी जान उसके हित का चिंतन करने में तत्पर रहनेवाला बुद्धिमान् प्रहसित मित्र वसंतमाला के प्रवेश करने पर आवाज देता हुआ महल के भीतर प्रवेश कर धीरे-धीरे बोला ।।214-215।। कि हे सुंदर! उठो, क्यों शयन कर रहे हो? जान पड़ता है कि मानो तुम्हारे मुख की कांति से पराजित होकर ही यह चंद्रमा अत्यंत निष्प्रभता को प्राप्त हुआ है ।। 216।। मित्र के यह वचन सुनते ही पवनंजय जाग उठा। उस समय उसका शरीर शिथिल था, निद्रा के शेष रहने से उसके नेत्र लाल थे तथा जमुहाई आ रही थी ।।217।। उसने नेत्र बंद किये ही वाम हस्त की तर्जनी नामा अंगुली से कान खुजाया तथा दाहिनी भुजा को पहले संकोचकर फिर जोर से फैलाया जिससे चटाक का शब्द हुआ ।।218।। तदनंतर लज्जा से जिसके नेत्र नीचे हो रहे थे ऐसे कांता के मुख पर दृष्टि डालता हुआ पवनंजय ‘आओ मित्र’ ऐसा कहता हुआ शय्या से उठ खड़ा हुआ ।।219।। तदनंतर प्रहसित ने हँसकर पूछा कि रात्रि सुख से व्यतीत हुई? इसके उत्तर में पवनंजय ने भी हँसते हुए प्रहसित से पूछा कि तुम्हारी भी रात्रि कुशलता से बीती? इस प्रकार वार्तालाप के अनंतर समस्त वृत्तांत को जानने वाला एवं नीतिशास्त्र का पंडित प्रहसित अंजना के द्वारा बतलाये हुए निकटवर्ती सुखासन पर बैठकर पवनंजय से इस प्रकार बोला कि हे मित्र! उठो, अब चलें, प्रिया के सम्मान कार्य में लगे हुए आपके बहुत दिन निकल गये ।।220-222।। जब तक हम लोगों का वापस आना कोई जान नहीं पाता है तब तक चला जाना ठीक है अन्यथा लज्जा की बात हो जायेगी ।।223।। तुम्हारा सेनापति रथनूपुर तथा स्वामी के समीप जाने का इच्छुक राजा कैन्नरगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे हैं ।।224।। आदर से भरा रावण निरंतर मंत्रियों से पूछता रहता है कि पवनंजय कहाँ है? ।।225।। मैंने तुम्हारे जाने का यह उपाय रचा था सो इस समय वल्लभा का समागम छोड़ दिया जाये ।।226।। तुम्हें स्वामी रावण और पिता प्रह्लाद की यह आज्ञा माननी चाहिए। तदनंतर कुशलतापूर्वक वापस आकर निरंतर वल्लभा का सम्मान करते रहना ।।227।। इसके उत्तर में पवनंजय ने कहा कि हे मित्र! ऐसा ही करता हूँ। तुमने बहुत ठीक कहा है। ऐसा कहकर उसने मंगलाचार पूर्वक शरीर संबंधी क्रियाएँ कीं ।।228।। एकांत में वल्लभा का आलिंगन किया, उसके फड़कते हुए अधरोष्ठ का चुंबन किया और कहा कि हे देवि! तुम उद्वेग नहीं करना, मैं जाता हूँ और शीघ्र ही स्वामी की आज्ञा का पालन कर वापस आ जाऊंगा। तुम सुख से रहो। पवनंजय ने यह शब्द बड़ी मधुर आवाज से कहे थे ।।229-230।।
तदनंतर जो विरह से भयभीत थी तथा जिसके नेत्र पवनंजय के मुख पर लग रहे थे ऐसी अंजनासुंदरी दोनों हस्त कमल जोड़कर बोली कि हे आर्य पुत्र! ऋतु काल के बाद ही मैंने आपके साथ समागम किया है इसलिए यदि मेरे गर्भ रह गया तो वह आपके विरह काल में निंदा का पात्र होगा ।।231-232।। अत: आप गुरुजनों को गर्भ संभवता की सूचना देकर जाइए। दीर्घदर्शिता मनुष्यों के कल्याण का कारण है ।।233।। अंजना के ऐसा कहने पर पवनंजय ने कहा कि हे देवि! मैं पहले गुरुजनों के समीप तुम्हारे बिना घर से निकला था और ऐसा ही सबको निश्चय है। इसलिए इस समय उनके पास जाने और यह सब समाचार कहने में मुझे लज्जा आती है। इसकी चेष्टाएँ विचित्र हैं ऐसा जानकर लोग मेरी हँसी करेंगे ।।234-235।। अत: जब तक तुम्हारा यह गर्भ प्रकट नहीं हो पाता है तब तक मैं वापस आ जाऊंगा। विषाद मत करो ।।236।। हे भद्रे! प्रमाद दूर करने के लिए मेरे नाम से चिह्नित यह कड़ा ले लो इसमें तुम्हें शांति रहेगी ।।237।। ऐसा कहकर, कड़ा देकर, बार-बार सांतवना देकर और वसंतमाला को ठीक-ठीक सेवा करने का आदेश देकर पवनंजय शय्या से उठा। उस समय उसकी वह शय्या सुरतकालीन सम्मर्दन से टूटे हुए हार के मोतियों से व्याप्त थी, फूलों की सुगंधित पराग संबंधी भारी सुगंधि से भौंरे खिंचकर उस पर इकट्ठे हो रहे थे, उसके ऊपर बिछा हुआ चद्दर लहरा रहा था और वह क्षीर समुद्र के मध्य में स्थित क्षीर द्वीप के समान जान पड़ती थी। पवनंजय उठा तो सही पर उसका मन अपनी प्रिया में ही लग रहा था ।।238—240।। पृथ्वी पर अश्रु गिरने से कहीं मंगलाचार में बाधा न आ जाये इस भय से अंजना ने अपने अश्रु नेत्रों में ही समेटकर रखे थे और इसलिए जाते समय वह पवनंजय को आँख खोलकर नहीं देख सकती थी फिर भी मित्र के साथ वह आकाश की ओर उड़ गया ।।241।।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते है कि इस संसार में प्राणियों को कभी तो अपने उपार्जित पुण्य कर्म के उदय से इष्ट वस्तु का समागम होने से सुख होता है और कभी पाप कर्म के उदय से परम दुःख प्राप्त होता है क्योंकि इस संसार में सदा किसी की स्थिति एक सी नहीं रहती ।।242।। फिर भी धर्म के प्रसाद से कितने ही जीवों को जन्म से लेकर मरण पर्यंत निरंतर सुख प्राप्त होता रहता है और मरने के बाद परलोक में भी उन्हें सुख मिलता रहता है। इसलिए हे भव्य जीवो! निरंतर अत्यधिक सुख देने वाले एवं संसार के दु:खरूपी अंधकार को छेदने वाले जिनेंद्रोक्त धर्मरूपी सूर्य की सेवा करो ।।243।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में पवनंजय और अंजना के संभोग का वर्णन करनेवाला सोलहवां पर्व समाप्त हुआ ।।16।।