पद्मपुराण - पर्व 12: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर- उसी गंगा तट पर रावण ने एकांत में मंत्रियों के साथ सलाह की कि यह कृतचित्रा कन्या किसके लिए दी जाये? ।।1।।<span id="2" /> इंद्र के साथ संग्राम में जीवित रहने का निश्चय नहीं है इसलिए कन्या का विवाह रूप मंगल कार्य प्रथम ही कर लेना योग्य है ।।2।।<span id="3" /> तब रावण को कन्या के योग्य वर खोजने में चिंतातुर जानकर राजा हरि वाहन ने अपना पुत्र निकट बुलाया ।।3।।<span id="4" /> सुंदर आकार के धारक उस विनयवान् पुत्र को देखकर रावण को | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर- उसी गंगा तट पर रावण ने एकांत में मंत्रियों के साथ सलाह की कि यह कृतचित्रा कन्या किसके लिए दी जाये? ।।1।।<span id="2" /> इंद्र के साथ संग्राम में जीवित रहने का निश्चय नहीं है इसलिए कन्या का विवाह रूप मंगल कार्य प्रथम ही कर लेना योग्य है ।।2।।<span id="3" /> तब रावण को कन्या के योग्य वर खोजने में चिंतातुर जानकर राजा हरि वाहन ने अपना पुत्र निकट बुलाया ।।3।।<span id="4" /> सुंदर आकार के धारक उस विनयवान् पुत्र को देखकर रावण को बड़ा संतोष हुआ और उसने उसके लिए पुत्री देने का विचार किया ।।4।।<span id="5" /><span id="6" /><span id="7" /> जब वह मंत्रियों के साथ योग्य आसन पर बैठ गया तब नीतिशास्त्र का विद्वान् रावण इस प्रकार विचार करने लगा कि यह मथुरा नगरी का राजा हरि वाहन उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है, इसका मन सदा हमारे गुण- कथन करने में आसक्त रहता है और यह इसका तथा इसके बंधुजनों का प्राणभूत मधु नाम का पुत्र है। यह अत्यंत प्रशंसनीय, विनय संपन्न और प्रीति के निर्वाह करने में योग्य है ।।5-7।।<span id="8" /> यह वृत्तांत जानकर ही मानो इसकी चेष्टाएँ सुंदर हो रही हैं। इसके गुणों का समूह अत्यंत प्रसिद्ध है। यह मेरे समीप आया सो बहुत अच्छा हुआ ।।8।।<span id="9" /> तदनंतर राजा मधु का मंत्री बोला कि हे देव! आपके आगे इस पराक्रमी के गुण बड़े दुःख से वर्णन किये जाते हैं अर्थात् उनका वर्णन करना सरल नहीं है ।।9।।<span id="10" /> फिर भी आप कुछ जान सकें इसलिए कुछ तो भी वर्णन करने का प्रयत्न करता हूँ ।।10।।<span id="11" /> सब लोगों के मन को हरण करने वाला यह कुमार वास्तविक मधु शब्द को धारण करता है क्योंकि यह सदा मधु जैसी उत्कृष्ट गंध को धारण करनेवाला है ।।11।।<span id="12" /> इसके गुणों का वर्णन इतने से ही पर्याप्त समझना चाहिए कि असुरेंद्र ने इसके लिए महा गुणशाली शूल रत्न प्रदान किया है ।।12।।<span id="13" /> ऐसा शूल रत्न कि जो कभी व्यर्थ नहीं जाता, अत्यंत देदीप्यमान है और शत्रुसेना की ओर फेंका जाये जो हजारों शत्रुओं को नष्ट कर हाथ में वापस लौट आता है ।।13।।<span id="14" /> अथवा आप कार्य के द्वारा ही शीघ्र इसके गुण जानने लगेंगे। वचनों के द्वारा उनका प्रकट करना हास्य का कारण है ।।14।।<span id="15" /> इसलिए आप इसके साथ पुत्री का संबंध करने का विचार कीजिए। आपका संबंध पाकर यह कृतकृत्य हो जायेगा ।।15।।<span id="16" /> मंत्री के ऐसा कहने पर रावण ने उसे बुद्धिपूर्वक अपना जामाता निश्चित कर लिया और जामाता के यथायोग्य सब कार्य कर दिये ।।16।।<span id="17" /> इच्छा करते ही जिसके समस्त कारण अनायास मिल गये थे ऐसा उन दोनों का विवाह अत्यंत प्रसन्न लोगों से व्याप्त था अर्थात् उनके विवाहोत्सव में प्रीति से भरे अनेक लोग आये थे ।।17।।<span id="18" /> मधु नाम उस राजकुमार का था और वसंतऋतु का भी। इसी प्रकार आमोद का अर्थ सुगंधि है और हर्ष भी। सो जिस प्रकार वसंतऋतु नेत्रों को हरण करने वाली अकथनीय पुष्पसंपदा को पाकर जगत् प्रिय सुगंधि को प्राप्त होती है उसी प्रकार राजकुमार मधु भी नेत्रों को हरण करने वाली कृतचित्रा को पाकर परम हर्ष को प्राप्त हुआ था ।।18।।<span id="19" /></p> | ||
<p>इसी अवसर पर जिसे कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिक ने फिर से नमस्कार कर गौतम स्वामी से पूछा ।।19।।<span id="20" /> कि हे मुनिश्रेष्ठ! असुरेंद्र ने मधु के लिए दुर्लभ शूल रत्न किस कारण दिया था? ।।20।।<span id="21" /> श्रेणिक के ऐसा कहने पर विशाल तेज से युक्त तथा धर्म से स्नेह रखनेवाले गौतम स्वामी शूल रत्न की प्राप्ति का कारण कहने लगे ।।21।।<span id="22" /> उन्होंने कहा कि धातकीखंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र संबंधी शत द्वार नामक नगर में प्रीतिरूपी बंधन से बँधे दो मित्र रहते थे ।।22।।<span id="23" /> उनमें से एक का नाम सुमित्र था और दूसरे का नाम प्रभव। सो ये दोनों एक गुरु की चटशाला में | <p>इसी अवसर पर जिसे कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिक ने फिर से नमस्कार कर गौतम स्वामी से पूछा ।।19।।<span id="20" /> कि हे मुनिश्रेष्ठ! असुरेंद्र ने मधु के लिए दुर्लभ शूल रत्न किस कारण दिया था? ।।20।।<span id="21" /> श्रेणिक के ऐसा कहने पर विशाल तेज से युक्त तथा धर्म से स्नेह रखनेवाले गौतम स्वामी शूल रत्न की प्राप्ति का कारण कहने लगे ।।21।।<span id="22" /> उन्होंने कहा कि धातकीखंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र संबंधी शत द्वार नामक नगर में प्रीतिरूपी बंधन से बँधे दो मित्र रहते थे ।।22।।<span id="23" /> उनमें से एक का नाम सुमित्र था और दूसरे का नाम प्रभव। सो ये दोनों एक गुरु की चटशाला में पढ़कर बडे विद्वान् हुए ।।23।।<span id="24" /> कई एक दिन में पुण्योपार्जित सत्कर्म के प्रभाव से सुमित्र को सर्व सामंतों से सेवित तथा परम अभ्युदय से मुक्त राज्य प्राप्त हुआ ।।24।।<span id="25" /> यद्यपि प्रभव पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था तथापि महा स्नेह के कारण सुमित्र ने उसे भी राजा बना दिया ।।25।।<span id="26" /></p> | ||
<p> अथानंतर एक दिन एक दुष्ट | <p> अथानंतर एक दिन एक दुष्ट घोड़ा राजा सुमित्र को हरकर जंगल में ले गया सो वहाँ अपनी इच्छा से भ्रमण करने वाले द्विरददंष्ट्र नाम म्लेच्छों के राजा ने उसे देखा ।।26।।<span id="27" /> द्विरददंष्ट्र उसे अपनी पल्ली (भीलों की बस्ती) में ले गया और एक पक्की शर्त कर उसने अपनी पुत्री राजा सुमित्र को विवाह दी ।।27।।<span id="28" /> जो साक्षात् वन लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी वनमाला नामा कन्या को पाकर राजा सुमित्र वहाँ एक माह तक रहा ।।28।।<span id="29" /> तदनंतर द्विरददंष्ट्र की आज्ञा लेकर वह अपनी कांता के साथ शत द्वार नगर की ओर वापस आ रहा था। भीलों की सेना उसके साथ थी ।।29।।<span id="30" /> इधर प्रभव अपने मित्र की खोज के लिए निकला था सो उसने कामदेव की पताका के समान सुशोभित कांता से सहित मित्र को देखा ।।30।।<span id="31" /> पापकर्म के उदय से जिसके समस्त करने और न करने योग्य कार्यों का विचार नष्ट हो गया था ऐसे प्रभव ने मित्र की स्त्री में अपना मन किया ।।31।।<span id="32" /> सब ओर से काम के तीक्ष्ण बाणों से ताड़ित होने के कारण उसका मन अत्यंत व्याकुल हो रहा था इसलिए वह कहीं भी सुख नहीं पा रहा था ।।32।।<span id="33" /> बुद्धि को नष्ट करनेवाला काम हजारों बीमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है क्योंकि उससे मनुष्यों का शरीर तो नष्ट होता नहीं है पर वे दुःख पाते रहते हैं ।।33।।<span id="34" /> जिस प्रकार सूर्य समस्त ज्योतिषियों में प्रधान है उसी प्रकार काम समस्त रोगों में प्रधान है ।।34।।<span id="35" /> बेचैन क्यों हो रहे हो? इस तरह जब मित्र ने बेचैनी का कारण पूछा तब उसने सुंदरी को देखना ही अपनी बेचैनी का कारण कहा ।।35।।<span id="36" /><span id="37" /> मित्र वत्सल सुमित्र ने जब सुना कि मेरे प्राण तुल्य मित्र को जो दुःख हो रहा है उसमें मेरी स्त्री ही निमित्त है तब उस बुद्धिमान ने उसे प्रभव के घर भेज दिया और आप झरोखे में छिपकर देखने लगा कि देखें यह वनमाला इसका क्या करती है ।।36-37।।<span id="38" /> साथ ही वह यह भी सोचता जाता था कि यदि यह वनमाला इसके अनुकूल नहीं हुई तो मैं निश्चित ही इसका निग्रह करूँगा अर्थात् इसे दंड दूँगा ।।38।।<span id="39" /> और यदि अनुकूल होकर इसका मनोरथ पूर्ण करेगी तो हजार ग्राम देकर इस सुंदरी की पूजा करूँगा ।।39।।<span id="40" /> तदनंतर जब रात्रि का प्रारंभ हो गया और आकाश में ताराओं के समूह छिटक गये तब वनमाला बड़ी उत्कंठा के साथ प्रभव के समीप पहुँची ।।40।।<span id="41" /> वनमाला को उसने सुंदर आसन पर बैठाया और स्वयं निर्दोष भाव से उसके सामने बैठ गया। तदनंतर उसने बड़े आदर के साथ उससे पूछा कि हे भद्रे! तू कौन है? ।।41।।<span id="42" /> वनमाला ने विवाह तक का सब समाचार कह सुनाया। उसे सुनकर प्रभव प्रभाहीन हो गया और परम निर्वेद को प्राप्त हुआ ।।42।।<span id="43" /> वह विचार करने लगा कि हायहाय बड़े कष्ट की बात है कि मैंने मित्र की स्त्री से कुछ तो भी करने की इच्छा की। मुझ अविवेकी के लिए धिक्कार है ।।43।।<span id="44" /> आत्मघात के सिवाय अन्य तरह मैं इस पाप से मुक्त नहीं हो सकता अथवा मुझे अब इस कलंकी जीवन से प्रयोजन ही क्या है? ।।44।।<span id="45" /> ऐसा विचारकर उसने अपना मस्तक काटने के लिए म्यान से तलवार खींची। उसकी वह तलवार अपनी सघन कांति से दिशाओं के अंतराल को व्याप्त कर रही थी ।।45।।<span id="46" /> वह इस तलवार को कंठ के पास ले ही गया था कि सुमित्र ने सहसा लपककर उसे रोक दिया ।।46।।<span id="47" /> सुमित्र ने शीघ्रता से मित्र का आलिंगन कर कहा कि तुम तो पंडित हो, आत्मघात से जो दोष होता है उसे क्या नहीं जानते हो? ।।47।।<span id="48" /> जो मनुष्य अपने शरीर का अविधि से घात करते हैं वे चिरकाल तक कच्चे गर्भ में दुख प्राप्त करते हैं अर्थात् गर्भ पूर्ण हुए बिना ही असमय में मर जाते हैं ।।48।।<span id="49" /> ऐसा कहकर उसने मित्र के हाथ से तलवार छीनकर नष्ट कर दी और चिरकाल तक उसे मनोहारी वचनों से समझाया ।।49।।<span id="50" /> आचार्य कहते हैं कि परस्पर के गुणों से संबंध रखने वाली उन दोनों मित्रों की प्रीति इस तरह अंत को प्राप्त होगी इससे जान पड़ता है कि यह संसार असार है ।।50।।<span id="51" /> अपने अपने कर्मो से युक्त जीव सुख-दुःख उत्पन्न करने वाली पृथक्-पृथक् गति को प्राप्त होते हैं इसलिए इस संसार में कौन किसका मित्र है? ।।51।।<span id="52" /> तदनंतर जिसकी आत्मा प्रबुद्ध थी ऐसा राजा सुमित्र मुनि दीक्षा धारण कर अंत में ऐशान स्वर्ग का अधिपति हो गया ।।52।।<span id="53" /><span id="54" /> वहाँ से च्युत होकर जंबूद्वीप की मथुरा नगरी में राजा हरि वाहन की माधवी रानी से मधु नाम का पुत्र हुआ। यह पुत्र मधु के समान मोह उत्पन्न करनेवाला था और हरिवंश रूपी आकाश में चंद्रमा के समान सुशोभित था ।।53-54।।<span id="55" /> मिथ्यादृष्टि प्रभव मरकर दुर्गति में दुःख भोगता रहा और अंत में विश्वावसु की ज्योतिष्मती स्त्री के शिखी नामा पुत्र हुआ ।।55।।<span id="56" /> सो द्रव्यलिंगी मुनि हो महातप कर निदान के प्रभाव से असुरों का अधिपति चमरेंद्र हुआ ।।56।।<span id="57" /> </p> | ||
<p>तदनंतर अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्व भवों का स्मरण कर सुमित्र नामक मित्र के निर्मल गुणों का हृदय में चिंतवन करने लगा ।।57।।<span id="58" /> ज्यों ही उसे सुमित्र राजा के मनोहर चरित्र का स्मरण आया त्योंही वह करोंत के समान उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा ।।58।।<span id="59" /> वह विचार करने लगा कि सुमित्र | <p>तदनंतर अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्व भवों का स्मरण कर सुमित्र नामक मित्र के निर्मल गुणों का हृदय में चिंतवन करने लगा ।।57।।<span id="58" /> ज्यों ही उसे सुमित्र राजा के मनोहर चरित्र का स्मरण आया त्योंही वह करोंत के समान उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा ।।58।।<span id="59" /> वह विचार करने लगा कि सुमित्र बड़ा ही भला और महा गुणवान् था। वह समस्त कार्यों में सहायता करनेवाला मेरा परम मित्र था ।।59।।<span id="60" /> उसने मेरे साथ गुरु के घर विद्या पढ़ी थी। मैं दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था सो उसने मुझे अपने समान धनवान् बना लिया था ।।60।।<span id="61" /> मेरे चित्त में पाप समाया सो द्वेष रहित चित के धारक उस दयालु ने तृष्णा रहित होकर मेरे पास अपनी स्त्री भेजी ।।61।।<span id="62" /> यह मित्र की स्त्री है ऐसा जानकर जब मैं परम उद्वेग को प्राप्त होता हुआ तलवार से अपना शिर काटने के लिए उद्यत हुआ तो उसी ने मेरी रक्षा की थी ।।62।।<span id="63" /> मैंने जिनशासन की श्रद्धा बिना मरकर दुर्गति में ऐसे दुःख भोगे कि जिनका स्मरण करना भी दु:सह है ।।63।।<span id="64" /> मैंने मोक्षमार्ग का अनुवर्तन करने वाले साधुओं के समूह की जो निंदा की थी उसका फल अनेक दु:खदायी योनियों में प्राप्त किया ।।64।।<span id="65" /> और वह सुमित्र निर्मल चारित्र का पालन कर ऐशान स्वर्ग में उत्तम सुख का उपभोग करने वाला इंद्र हुआ तथा अब वहाँ से च्युत होकर मधु हुआ है ।।65।।<span id="66" /> इस प्रकार क्षणभर में उत्पन्न हुए परम प्रेम से जिसका मन आर्द्र हो रहा था ऐसा चमरेंद्र सुमित्र मित्र के उपकारों से आकृष्ट हो अपने भवन से बाहर निकला ।।66।।<span id="67" /> उसने बड़े आदर के साथ मिलकर महारत्नों से मित्र का पूजन किया और उसके लिए सहखांतक नामक शूल रत्न भेंट में दिया ।।67।।<span id="68" /> हरिवाहन का पुत्र मधु चमरेंद्र से शूल रत्न पाकर पृथिवी पर परम प्रीति को प्राप्त हुआ और अस्त्र विद्या का स्वामी कहलाने लगा ।।68।।<span id="69" /> गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो मनुष्य मधु के इस चरित्र को पढ़ता अथवा सुनता है वह विशाल दीप्ति, श्रेष्ठ धन और उत्कृष्ट आयु को प्राप्त होता है ।।69।।<span id="70" /><span id="71" /></p> | ||
<p> अथानंतर अनेक सामंत जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा रावण लोक में शत्रुओं को वशीभूत करने वाला अपना प्रभाव फैलाता और अनेक आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ प्रेम से भरे संसार में अठारह वर्ष तक इस प्रकार भ्रमण करता रहा जिस प्रकार कि इंद्र स्वर्ग में भ्रमण करता है ।।70-71।।<span id="72" /> तदनंतर रावण क्रम-क्रम से समुद्र की निकटवर्तिनी भूमि को | <p> अथानंतर अनेक सामंत जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा रावण लोक में शत्रुओं को वशीभूत करने वाला अपना प्रभाव फैलाता और अनेक आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ प्रेम से भरे संसार में अठारह वर्ष तक इस प्रकार भ्रमण करता रहा जिस प्रकार कि इंद्र स्वर्ग में भ्रमण करता है ।।70-71।।<span id="72" /> तदनंतर रावण क्रम-क्रम से समुद्र की निकटवर्तिनी भूमि को छोड़ता हुआ चिरकाल के बाद जिनमंदिरों से युक्त कैलास पर्वत पर पहुँचा ।।72।।<span id="73" /> वहाँ स्वच्छ जल से भरी समुद्र की पत्नी एवं सुवर्ण कमलों की पराग से व्याप्त गंगा नदी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ।।73।।<span id="74" /> सो उसके समीप ही अपनी विशाल सेना ठहराकर कैलास की कंदराओं में मनोहर क्रीड़ा करने लगा ।।74।।<span id="71" /> पहले विद्याधर और फिर भूमिगोचरी मनुष्यों ने यथाक्रम से गंगा नदी के स्फटिक के समान स्वच्छ सुखकर स्पर्श वाले जल में अपना खेद दूर किया था अर्थात् स्नान कर अपनी थकावट दूर की थी ।।71।।<span id="76" /> पृथ्वी पर लोटने के कारण लगी हुई जिनकी धूलि नमेरुवृक्ष के नये-नये पत्तों से झाड़कर दूर कर दी गयीं थी और पानी पिलाने के बा:द जिन्हें खूब नहलाया गया था ऐसे घोड़े विनय से खड़े थे ।।76।।<span id="77" /> जल के छींटों से गीला शरीर होने के कारण जिन पर बहुत गाढ़ी धूलि जमी हुई थी तथा नदी के द्वारा जिनका बड़ा भारी खेद दूर कर दिया गया था ऐसे हाथियों को महावतों ने चिरकाल तक नहलाया था ।।77।।<span id="78" /> कैलास पर आते ही रावण को बालि का वृत्तांत स्मृत हो उठा इसलिए उसने समस्त चैत्यालयों को बड़ी सावधानी से नमस्कार किया और धर्मानुकूल क्रियाओं का आचरण किया ।।78।।<span id="79" /><span id="80" /><span id="81" /> अथानंतर इंद्र ने दुर्लंघयपुर नामा नगर में नलकूबर को लोकपाल बनाकर स्थापित किया था सो गुप्तचरों से जब उसे यह मालूम हुआ कि सेना रूपी सागर के मध्य वर्तमान रहनेवाला रावण जीतने की इच्छा से निकट ही आ पहुँचा है तब उसने भयभीत चित्त होकर पत्र में सब समाचार लिख एक शीघ्रगामी विद्याधर इंद्र के पास पहुँचाया ।।79-81।।<span id="82" /> सो इंद्र जिस समय जिन प्रतिमाओं की वंदना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर जा रहा था उसी समय पत्रवाहक विद्याधर ने प्रणाम कर नलकूबर का पत्र उसके सामने रख दिया ।।82।।<span id="83" /><span id="84" /> इंद्र ने पत्र बाँचकर तथा समस्त अर्थ हृदय में धारणकर प्रति लेख द्वारा आज्ञा दी कि मैं जब तक पांडुकवन में स्थित जिन प्रतिमाओं की वंदना कर वापस आता हूँ तब तक तुम बड़े यत्न से रहना। तुम अमोघ अस्त्र के धारक हो ।।83-84।।<span id="85" /> ऐसा संदेश देकर जिसका मन वंदना में आसक्त था ऐसा इंद्र गर्व वश शत्रु की सेना को कुछ नहीं गिनता हुआ पांडुकवन चला गया ।।85।।<span id="86" /> इधर समयानुसार कार्य करने में तत्पर रहनेवाले नलकूबर ने समस्त आप्तजनों के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से नगर की रक्षा का उपाय सोचा ।।86।।<span id="87" /> उसने सौ योजन ऊँचा और तिगुनी परिधि से युक्त वज्रशाल नामा कोट, विद्या के प्रभाव से नगर के चारों ओर खड़ा कर दिया ।।87।।<span id="88" /> यह नगर शत्रु के अधीन है ऐसा जानकर रावण ने दंड वसूल करने के लिए प्रहस्त नामा सेनापति भेजा ।।88।।<span id="89" /> सो उसने लौटकर रावण से कहा कि हे देव! शत्रु का नगर बहुत ऊँचे प्राकार से घिरा हुआ है इसलिए वह नहीं लिया जा सकता है ।।89।।<span id="90" /> देखो वह भयंकर प्राकार यहाँ से ही समस्त दिशाओं में दिखाई दे रहा है। वह बड़ी ऊँची शिखरों और गंभीर बिलों से युक्त है तथा जिसका मुख दाढ़ों से भयंकर है ऐसे अजगर के समान जान पड़ता है ।।90।।<span id="91" /> उड़ते हुए तिलगों से जिनकी ओर देखना भी कठिन है ऐसी ज्वालाओं के समूह से वह प्राकार भरा हुआ है तथा बाँसों के जलते हुए किसी सघन बड़े वन के समान दिखाई देता है ।।91।।<span id="92" /> इस प्रकार में भयंकर दांढों को धारण करने वाले बेतालों के समान ऐसे ऐसे विशाल यंत्र लगे हुए हैं जो एक योजन के भीतर रहनेवाले बहुत से मनुष्यों को एक साथ पकड़ लेते हैं ।।92।।<span id="93" /> प्राणियों के जो समूह उन यंत्रों के मुख में पहुँच जाते हैं फिर उसके शरीर का समागम दूसरे जन्म में ही होता है ।।93।।<span id="94" /> ऐसा जानकर आप नगर लेने के लिए कोई कुशल उपाय सोचिए। यथार्थ में दीर्घदर्शी मनुष्य के द्वारा ही विजिगीषुपना किया जाता है अर्थात् जो दीर्घदर्शी होता है वही विजिगीषुपना हो सकता है ।।94।।<span id="95" /> इस स्थान से तो शीघ्र ही निकल भागना शोभा देता है क्योंकि यहाँ पर जिसका निरावरण नहीं किया जा सकता ऐसा बहुत भारी संशय विद्यमान है ।।95।।<span id="96" /> तदनंतर कैलास की गुफाओं में बैठे रावण के नीति निपुण मंत्री उपाय का विचार करने लगे ।।96।।<br> | ||
<p> तदनंतर जब सर्व परिजन दूर कर दिये गये और बिलकुल एकांत हो गया तब सब वृत्तांत जानने वाली दूती ने रावण के कान में पहले का सब समाचार कहा ।।119।।<span id="120" /> तदनंतर दूती की बात सुन रावण ने दोनों हाथों से दोनों कान ढक लिये। वह चिर काल तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा ।।120।।<span id="121" /> सदाचार में तत्पर रहनेवाला रावण परस्त्री की वांछा सुन चिंता से क्षण भर में खिन्न चित्त हो गया ।।121।।<span id="122" /> उसने हँसते हुए कहा कि हे भद्रे! पाप का संगम कराने वाली यह ऐसी बात तुम्हारे मन आया ही कैसे? ।।122।।<span id="123" /> तूने यह बात अभिमान | <br> | ||
<p> तदनंतर काम के वशीभूत हो जब उपरंभा रावण के समीप पहुँची तब रावण ने कहा कि हे देवि! मेरी उत्कट इच्छा दुर्गंध्य नगर में ही रमण करने की है ।।134।।<span id="135" /> तुम्हीं कहो इस जंगल में क्या सुख है? और क्या काम वर्धक कारण है? हे देवि! ऐसा करो कि जिससे मैं तुम्हारे साथ नगर में ही रमण करूँ ।।135।।<span id="136" /><span id="137" /> स्त्रियाँ स्वभाव से ही मुग्ध होती हैं इसलिए उपरंभा रावण की कुटिलता को नहीं समझ सकी। निदान, उसने काम से | <span id="97" /> अथानंतर जिसके गुण और आकार रंभा नामक अप्सरा के समान थे ऐसी नलकूबर की उपरंभा नामक प्रसिद्ध स्त्री ने सुना कि रावण समीप ही आकर ठहरा हुआ है ।।97।।<span id="98" /> वह रावण के गुणों से पहले ही अनुरक्त थी इसलिए जिस प्रकार कुमुदों की पंक्ति चंद्रमा के विषय में उत्कंठा को प्राप्त रहती है उसी प्रकार वह भी रावण के विषय में परम उत्कंठा को प्राप्त हुई ।।98।।<span id="99" /> उसने एकांत में विचित्र माला नामक सखी से कहा कि हे सुंदरि! सुन तुझे छोड़कर मेरी प्राण तुल्य दूसरी सखी कौन है? ।।99।।<span id="100" /> जो समान बात कहे वहीं सखी शब्द प्रवृत्त होता है अर्थात् समान बात कहने वाली ही सखी कहलाती है इसलिए हे शोभने! तू मेरी मनसा का भेद करने के योग्य नहीं है ।।100।।<span id="101" /> हे चतुरे! तू अवश्य ही मेरा कार्य सिद्ध करती है इसलिए तुझ से कहती हूँ। यथार्थ में सखियां ही जीवन का बड़ा आलंबन हैं- सब से बड़ा सहारा हैं ।।101।।<br> | ||
<span id="102" /> ऐसा कहने पर विचित्र माला ने कहा कि हे देवि! आप ऐसा क्यों कहती हैं? मैं तो आपकी दासी हूँ, मुझे आप इच्छित कार्य में लगाइए ।।102।।<span id="103" /> मैं अपनी प्रशंसा नहीं करती क्योंकि लोक में उसे निंदनीय बताया है पर इतना अवश्य कहती हूँ कि मैं साक्षात् रूप धारिणी सिद्धि ही हूँ ।।103।।<span id="104" /> जो कुछ तुम्हारे मन में हो उसे निशंक होकर कहो, मेरे रहते आप खेद व्यर्थ ही उठा रही हैं ।।104।।<br> | |||
<span id="105" /> तदनंतर उपरंभा लंबी और धीमी साँस लेकर तथा कमल तुल्य हथेली पर चंद्रमा के समान सुंदर कपोल रखकर कहने लगी ।।105।।<span id="106" /> जो अक्षर उपरंभा के मुख से निकलते थे वे लज्जा के कारण बीच―बीच में रुक जाते थे अत: वह उन्हें बारबार प्रेरित कर रही थी तथा उसका मन धृष्टता के ऊपर बार-बार चढ़ता और बार-बार गिरता था सो उसे वह बड़े कष्ट से धृष्टता के ऊपर स्थित कर रही थी ।।106।।<span id="107" /><span id="108" /> उसने कहा कि हे सखि! बाल्य अवस्था से ही मेरा मन रावण में लगा हुआ है। यद्यपि मैंने उसके समस्त लोक में फैलने वाले मनोहर गुण सुने हैं तो भी मैं उसका समागम प्राप्त नहीं कर सकी। किंतु उसके विपरीत भाग्य की मंदता से मैं नलकूबर के साथ अप्रिय संगम को प्राप्त हुई हूँ सो अप्रीति के कारण निरंतर भारी पश्चात्ताप को धारण करती रहती हूँ ।।107-108।।<span id="109" /> हे रूपिणी! यद्यपि मैं जानती हूँ कि यह कार्य प्रशंसनीय नहीं है तथापि हे सुभाषिते! मैं मरण सहन करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ ।।109।।<span id="110" /> मेरे मन को हरण करनेवाला वह रावण इस समय निकट ही स्थित है इसलिए हे सखि! मुझ पर प्रसन्न हो और इसके साथ किसी तरह मेरा समागम करा ।।110।।<span id="111" /> यह मैं तेरे चरणों में नमस्कार करती हूँ इतना कहकर ज्यों ही वह शिर झुकाने के लिए उद्यत हुई त्यों ही सखी ने बड़ी शीघ्रता उसका शिर पकड़ लिया ।।111।।<span id="112" /> स्वामिनी! मैं आपका मनोरथ शीघ्र ही सिद्ध करती हूँ यह कहकर सब स्थिति को जानने वाली दूती घर से बाहर निकली ।।112।।<span id="113" /> सजल मेघ के समान सूक्ष्म वस्त्र का घूँघट धारण करने वाली दूती आकाश में उड़कर क्षण भर में रावण के डेरे में जा पहुँची ।।113।।<span id="114" /> द्वारपालिनी के द्वारा सूचना देकर वह अंतःपुर में प्रविष्ट हुई। वहाँ प्रणाम कर, रावण के द्वारा दिये आसन पर विनय से बैठी ।।114।।<span id="115" /> तदनंतर कहने लगी कि हे देव! आपके निर्दोष गुणों से जो समस्त संसार व्याप्त हो रहा है वह आपके समान प्रभावक पुरुष के अनुरूप ही है ।।115।।<span id="116" /> चूँकि आपका उदार वैभव पृथिवी पर याचकों को संतुष्ट कर रहा है इस कारण मैं जानती हूँ कि आप सबका हित करने में तत्पर हैं ।।116।।<span id="117" /> मैं खूब समझती हूँ कि इस आकार को धारण करने वाले आप मेरी प्रार्थना को भंग नहीं करेंगे यथार्थ में आप जैसे लोगों की संपदा परोपकार का ही कारण है ।।117।।<span id="118" /> हे विभो! आप क्षण-भर के लिए समस्त परिजन को दूर कर दीजिए और ध्यान देकर मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ।।118।।<span id="119" /></p> | |||
<p> तदनंतर जब सर्व परिजन दूर कर दिये गये और बिलकुल एकांत हो गया तब सब वृत्तांत जानने वाली दूती ने रावण के कान में पहले का सब समाचार कहा ।।119।।<span id="120" /> तदनंतर दूती की बात सुन रावण ने दोनों हाथों से दोनों कान ढक लिये। वह चिर काल तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा ।।120।।<span id="121" /> सदाचार में तत्पर रहनेवाला रावण परस्त्री की वांछा सुन चिंता से क्षण भर में खिन्न चित्त हो गया ।।121।।<span id="122" /> उसने हँसते हुए कहा कि हे भद्रे! पाप का संगम कराने वाली यह ऐसी बात तुम्हारे मन आया ही कैसे? ।।122।।<span id="123" /> तूने यह बात अभिमान छोड़कर कही है। ऐसी याचना के पूर्ण करने में मैं अत्यंत दरिद्र हूँ, क्या करूँ? ।।123।।<span id="124" /> '''चाहे विधवा हो, चाहे पति से सहित हो, चाहे कुलवती हो और चाहे रूप से युक्त वेश्या हो परस्त्री मात्र का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिए ।।124।।<span id="125" /> यह कार्य इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह विरुद्ध है तथा जो मनुष्य दोनों लोकों से भ्रष्ट हो गया वह मनुष्य ही क्या,''' सो तू ही कह ।।125।।<span id="130" /><span id="126" /> हे भद्रे! दूसरे मनुष्य के मुख की लार से पूर्ण तथा अन्य मनुष्य के अंग से मर्दित जूठा भोजन खाने की कौन मनुष्य इच्छा करता है? ।।126।।<span id="127" /> तदनंतर रावण ने यह बात प्रीतिपूर्वक विभीषण से भी एकांत में कही सो नीति को जानने वाले एवं निरंतर मंत्रिगणों में प्रमुखता धारण करने वाले विभीषण ने इस प्रकार उत्तर दिया ।।127।।<span id="128" /> कि हे देव! चूँकि यह कार्य ही ऐसा है अत: सदा नीति के जानने वाले राजा को कभी झूठ भी बोलना पड़ता है ।।128।।<span id="125" /> संभव है स्वीकार कर लेने से संतोष को प्राप्त हुई उपरंभा उत्कट विश्वास करती हुई, किसी तरह नगर लेने का कोई उपाय बता दे ।।125।।<span id="130" /><span id="126" /> तदनंतर विभीषण के कहने से कपट का अनुसरण करने वाले रावण ने दूती से कहा कि हे भद्रे! तूने जो कहा है वह ठीक है ।।130।।<span id="131" /> चूँकि उस बेचारी के प्राण मुझमें अटक रहे हैं और वह अत्यंत दुःख से युक्त है अत: मेरे द्वारा रक्षा करने के योग्य है। यथार्थ में उदार मनुष्य दयालु होते हैं ।।131।।<span id="132" /> इसलिए जब तक प्राण उसे नहीं छोड़ देते हैं तब तक जाकर उसे ले आ। प्राणियों की रक्षा करने में धर्म है यह बात पृथिवी पर खूब सुनी जाती है ।।132।।<span id="133" /> इतना कहकर रावण के द्वारा विदा की हुई दूती क्षणभर में जाकर उपरंभा को ले आयी। आने पर रावण ने उसका बहुत आदर किया ।।133।।<span id="134" /></p> | |||
<p> तदनंतर काम के वशीभूत हो जब उपरंभा रावण के समीप पहुँची तब रावण ने कहा कि हे देवि! मेरी उत्कट इच्छा दुर्गंध्य नगर में ही रमण करने की है ।।134।।<span id="135" /> तुम्हीं कहो इस जंगल में क्या सुख है? और क्या काम वर्धक कारण है? हे देवि! ऐसा करो कि जिससे मैं तुम्हारे साथ नगर में ही रमण करूँ ।।135।।<span id="136" /><span id="137" /> स्त्रियाँ स्वभाव से ही मुग्ध होती हैं इसलिए उपरंभा रावण की कुटिलता को नहीं समझ सकी। निदान, उसने काम से पीड़ित हो उसे नगर में आने के लिए आशालिका नाम की वह विद्या, जो कि प्राकार बनकर खड़ी हुई थी तथा व्यंतर देव जिनकी रक्षा किया करते थे ऐसे नाना शस्त्र बड़े आदर के साथ दे दिये ।।136-137।।<span id="138" /> विद्या मिलते ही वह मायामय प्राकार दूर हो गया और उसके अभाव में वह नगर केवल स्वाभाविक प्राकार से ही आवृत रह गया ।।138।।<span id="139" /> रावण बड़ी भारी सेना लेकर नगर के निकट पहुँचा सो उसका कलकल सुनकर नलकूबर क्षोभ को प्राप्त हुआ ।।139।।<span id="140" /><span id="141" /> तदनंतर उस मायामय प्राकार को न देखकर लोकपाल नलकूबर बड़ा दुःखी हुआ। यद्यपि उसने समझ लिया था कि अब तो हमारा नगर रावण ने ले ही लिया तो भी उसने उद्यम नहीं छोड़ा। वह पुरुषार्थ को धारण करता हुआ बड़े श्रम से युद्ध करने के लिए बाहर निकला। अत्यंत पराक्रमी सब सामंत उसके साथ थे ।।140-141।।<span id="142" /><span id="143" /> तदनंतर जो शस्त्रों से व्याप्त था, जिसमें सूर्य की किरणें नहीं दिख रही थीं और भयंकर कठोर शब्द हो रहा था ऐसे महायुद्ध के होने पर विभीषण ने वेग से उछलकर पैर के आघात से रथ का धुरा तोड़ दिया और नलकूबर को जीवित पकड़ लिया ।।142-143।।<span id="144" /> रावण ने राजा सहस्ररश्मि के साथ जो काम किया था वही काम क्रोध से भरे विभीषण ने नलकूबर के साथ किया ।।144।।<span id="145" /> उसी समय रावण ने देव और असुरों को भय उत्पन्न करने में समर्थ इंद्र संबंधी सुदर्शन नाम का चक्ररत्न प्राप्त किया ।।145।।<span id="146" /></p> | |||
<p> तदनंतर रावण ने एकांत में उपरंभा से कहा कि हे प्रवरागने! विद्या देने से तुम मेरी गुरु हो।।146।।<span id="147" /> पति के जीवित रहते तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है और नीति मार्ग का उपदेश देने वाले मुझे तो बिलकुल ही योग्य नहीं है ।।147।।<span id="148" /> तत्पश्चात् शस्त्रों से विदारित कवच के भीतर जिसका अक्षत शरीर दिख रहा था ऐसे नलकूबर को वह समझाकर स्त्री के पास ले गया ।।148।।<span id="149" /> और कहा कि इस भर्ता के साथ मनचाहे भोग भोगो। काम सेवन के विषय में मेरे और इसके साथ उपभोग में विशेषता ही क्या है ?।।149।।<span id="150" /> इस कार्य के करने से मेरी कीर्ति मलिन हो जायेगी और मैंने यह कार्य किया है इसलिए दूसरे लोग भी यह कार्य करने लग जावेंगे ।।150।।<span id="151" /> तुम राजा आकाश ध्वज और मृदुकांता की पुत्री हो, निर्मल कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है अत: शील की रक्षा करना ही योग्य है ।।151।।<span id="152" /> रावण के ऐसा कहने पर वह अत्यधिक लज्जित हुई और प्रतिबोध को प्राप्त हो अपने पति में ही संतुष्ट हो गयी ।।152।।<span id="153" /> इधर नलकूबर को अपनी स्त्री के व्यभिचार का पता नहीं चला इसलिए रावण से सम्मान प्राप्त कर वह पूर्ववत् उसके साथ रमण करने लगा ।।153।।<span id="154" /></p> | <p> तदनंतर रावण ने एकांत में उपरंभा से कहा कि हे प्रवरागने! विद्या देने से तुम मेरी गुरु हो।।146।।<span id="147" /> पति के जीवित रहते तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है और नीति मार्ग का उपदेश देने वाले मुझे तो बिलकुल ही योग्य नहीं है ।।147।।<span id="148" /> तत्पश्चात् शस्त्रों से विदारित कवच के भीतर जिसका अक्षत शरीर दिख रहा था ऐसे नलकूबर को वह समझाकर स्त्री के पास ले गया ।।148।।<span id="149" /> और कहा कि इस भर्ता के साथ मनचाहे भोग भोगो। काम सेवन के विषय में मेरे और इसके साथ उपभोग में विशेषता ही क्या है ?।।149।।<span id="150" /> इस कार्य के करने से मेरी कीर्ति मलिन हो जायेगी और मैंने यह कार्य किया है इसलिए दूसरे लोग भी यह कार्य करने लग जावेंगे ।।150।।<span id="151" /> तुम राजा आकाश ध्वज और मृदुकांता की पुत्री हो, निर्मल कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है अत: शील की रक्षा करना ही योग्य है ।।151।।<span id="152" /> रावण के ऐसा कहने पर वह अत्यधिक लज्जित हुई और प्रतिबोध को प्राप्त हो अपने पति में ही संतुष्ट हो गयी ।।152।।<span id="153" /> इधर नलकूबर को अपनी स्त्री के व्यभिचार का पता नहीं चला इसलिए रावण से सम्मान प्राप्त कर वह पूर्ववत् उसके साथ रमण करने लगा ।।153।।<span id="154" /></p> | ||
<p>तदनंतर रावण युद्ध में शत्रु के संहार से परम यश को | |||
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Revision as of 17:51, 24 January 2024
अथानंतर- उसी गंगा तट पर रावण ने एकांत में मंत्रियों के साथ सलाह की कि यह कृतचित्रा कन्या किसके लिए दी जाये? ।।1।। इंद्र के साथ संग्राम में जीवित रहने का निश्चय नहीं है इसलिए कन्या का विवाह रूप मंगल कार्य प्रथम ही कर लेना योग्य है ।।2।। तब रावण को कन्या के योग्य वर खोजने में चिंतातुर जानकर राजा हरि वाहन ने अपना पुत्र निकट बुलाया ।।3।। सुंदर आकार के धारक उस विनयवान् पुत्र को देखकर रावण को बड़ा संतोष हुआ और उसने उसके लिए पुत्री देने का विचार किया ।।4।। जब वह मंत्रियों के साथ योग्य आसन पर बैठ गया तब नीतिशास्त्र का विद्वान् रावण इस प्रकार विचार करने लगा कि यह मथुरा नगरी का राजा हरि वाहन उच्चकुल में उत्पन्न हुआ है, इसका मन सदा हमारे गुण- कथन करने में आसक्त रहता है और यह इसका तथा इसके बंधुजनों का प्राणभूत मधु नाम का पुत्र है। यह अत्यंत प्रशंसनीय, विनय संपन्न और प्रीति के निर्वाह करने में योग्य है ।।5-7।। यह वृत्तांत जानकर ही मानो इसकी चेष्टाएँ सुंदर हो रही हैं। इसके गुणों का समूह अत्यंत प्रसिद्ध है। यह मेरे समीप आया सो बहुत अच्छा हुआ ।।8।। तदनंतर राजा मधु का मंत्री बोला कि हे देव! आपके आगे इस पराक्रमी के गुण बड़े दुःख से वर्णन किये जाते हैं अर्थात् उनका वर्णन करना सरल नहीं है ।।9।। फिर भी आप कुछ जान सकें इसलिए कुछ तो भी वर्णन करने का प्रयत्न करता हूँ ।।10।। सब लोगों के मन को हरण करने वाला यह कुमार वास्तविक मधु शब्द को धारण करता है क्योंकि यह सदा मधु जैसी उत्कृष्ट गंध को धारण करनेवाला है ।।11।। इसके गुणों का वर्णन इतने से ही पर्याप्त समझना चाहिए कि असुरेंद्र ने इसके लिए महा गुणशाली शूल रत्न प्रदान किया है ।।12।। ऐसा शूल रत्न कि जो कभी व्यर्थ नहीं जाता, अत्यंत देदीप्यमान है और शत्रुसेना की ओर फेंका जाये जो हजारों शत्रुओं को नष्ट कर हाथ में वापस लौट आता है ।।13।। अथवा आप कार्य के द्वारा ही शीघ्र इसके गुण जानने लगेंगे। वचनों के द्वारा उनका प्रकट करना हास्य का कारण है ।।14।। इसलिए आप इसके साथ पुत्री का संबंध करने का विचार कीजिए। आपका संबंध पाकर यह कृतकृत्य हो जायेगा ।।15।। मंत्री के ऐसा कहने पर रावण ने उसे बुद्धिपूर्वक अपना जामाता निश्चित कर लिया और जामाता के यथायोग्य सब कार्य कर दिये ।।16।। इच्छा करते ही जिसके समस्त कारण अनायास मिल गये थे ऐसा उन दोनों का विवाह अत्यंत प्रसन्न लोगों से व्याप्त था अर्थात् उनके विवाहोत्सव में प्रीति से भरे अनेक लोग आये थे ।।17।। मधु नाम उस राजकुमार का था और वसंतऋतु का भी। इसी प्रकार आमोद का अर्थ सुगंधि है और हर्ष भी। सो जिस प्रकार वसंतऋतु नेत्रों को हरण करने वाली अकथनीय पुष्पसंपदा को पाकर जगत् प्रिय सुगंधि को प्राप्त होती है उसी प्रकार राजकुमार मधु भी नेत्रों को हरण करने वाली कृतचित्रा को पाकर परम हर्ष को प्राप्त हुआ था ।।18।।
इसी अवसर पर जिसे कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिक ने फिर से नमस्कार कर गौतम स्वामी से पूछा ।।19।। कि हे मुनिश्रेष्ठ! असुरेंद्र ने मधु के लिए दुर्लभ शूल रत्न किस कारण दिया था? ।।20।। श्रेणिक के ऐसा कहने पर विशाल तेज से युक्त तथा धर्म से स्नेह रखनेवाले गौतम स्वामी शूल रत्न की प्राप्ति का कारण कहने लगे ।।21।। उन्होंने कहा कि धातकीखंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र संबंधी शत द्वार नामक नगर में प्रीतिरूपी बंधन से बँधे दो मित्र रहते थे ।।22।। उनमें से एक का नाम सुमित्र था और दूसरे का नाम प्रभव। सो ये दोनों एक गुरु की चटशाला में पढ़कर बडे विद्वान् हुए ।।23।। कई एक दिन में पुण्योपार्जित सत्कर्म के प्रभाव से सुमित्र को सर्व सामंतों से सेवित तथा परम अभ्युदय से मुक्त राज्य प्राप्त हुआ ।।24।। यद्यपि प्रभव पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था तथापि महा स्नेह के कारण सुमित्र ने उसे भी राजा बना दिया ।।25।।
अथानंतर एक दिन एक दुष्ट घोड़ा राजा सुमित्र को हरकर जंगल में ले गया सो वहाँ अपनी इच्छा से भ्रमण करने वाले द्विरददंष्ट्र नाम म्लेच्छों के राजा ने उसे देखा ।।26।। द्विरददंष्ट्र उसे अपनी पल्ली (भीलों की बस्ती) में ले गया और एक पक्की शर्त कर उसने अपनी पुत्री राजा सुमित्र को विवाह दी ।।27।। जो साक्षात् वन लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी वनमाला नामा कन्या को पाकर राजा सुमित्र वहाँ एक माह तक रहा ।।28।। तदनंतर द्विरददंष्ट्र की आज्ञा लेकर वह अपनी कांता के साथ शत द्वार नगर की ओर वापस आ रहा था। भीलों की सेना उसके साथ थी ।।29।। इधर प्रभव अपने मित्र की खोज के लिए निकला था सो उसने कामदेव की पताका के समान सुशोभित कांता से सहित मित्र को देखा ।।30।। पापकर्म के उदय से जिसके समस्त करने और न करने योग्य कार्यों का विचार नष्ट हो गया था ऐसे प्रभव ने मित्र की स्त्री में अपना मन किया ।।31।। सब ओर से काम के तीक्ष्ण बाणों से ताड़ित होने के कारण उसका मन अत्यंत व्याकुल हो रहा था इसलिए वह कहीं भी सुख नहीं पा रहा था ।।32।। बुद्धि को नष्ट करनेवाला काम हजारों बीमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है क्योंकि उससे मनुष्यों का शरीर तो नष्ट होता नहीं है पर वे दुःख पाते रहते हैं ।।33।। जिस प्रकार सूर्य समस्त ज्योतिषियों में प्रधान है उसी प्रकार काम समस्त रोगों में प्रधान है ।।34।। बेचैन क्यों हो रहे हो? इस तरह जब मित्र ने बेचैनी का कारण पूछा तब उसने सुंदरी को देखना ही अपनी बेचैनी का कारण कहा ।।35।। मित्र वत्सल सुमित्र ने जब सुना कि मेरे प्राण तुल्य मित्र को जो दुःख हो रहा है उसमें मेरी स्त्री ही निमित्त है तब उस बुद्धिमान ने उसे प्रभव के घर भेज दिया और आप झरोखे में छिपकर देखने लगा कि देखें यह वनमाला इसका क्या करती है ।।36-37।। साथ ही वह यह भी सोचता जाता था कि यदि यह वनमाला इसके अनुकूल नहीं हुई तो मैं निश्चित ही इसका निग्रह करूँगा अर्थात् इसे दंड दूँगा ।।38।। और यदि अनुकूल होकर इसका मनोरथ पूर्ण करेगी तो हजार ग्राम देकर इस सुंदरी की पूजा करूँगा ।।39।। तदनंतर जब रात्रि का प्रारंभ हो गया और आकाश में ताराओं के समूह छिटक गये तब वनमाला बड़ी उत्कंठा के साथ प्रभव के समीप पहुँची ।।40।। वनमाला को उसने सुंदर आसन पर बैठाया और स्वयं निर्दोष भाव से उसके सामने बैठ गया। तदनंतर उसने बड़े आदर के साथ उससे पूछा कि हे भद्रे! तू कौन है? ।।41।। वनमाला ने विवाह तक का सब समाचार कह सुनाया। उसे सुनकर प्रभव प्रभाहीन हो गया और परम निर्वेद को प्राप्त हुआ ।।42।। वह विचार करने लगा कि हायहाय बड़े कष्ट की बात है कि मैंने मित्र की स्त्री से कुछ तो भी करने की इच्छा की। मुझ अविवेकी के लिए धिक्कार है ।।43।। आत्मघात के सिवाय अन्य तरह मैं इस पाप से मुक्त नहीं हो सकता अथवा मुझे अब इस कलंकी जीवन से प्रयोजन ही क्या है? ।।44।। ऐसा विचारकर उसने अपना मस्तक काटने के लिए म्यान से तलवार खींची। उसकी वह तलवार अपनी सघन कांति से दिशाओं के अंतराल को व्याप्त कर रही थी ।।45।। वह इस तलवार को कंठ के पास ले ही गया था कि सुमित्र ने सहसा लपककर उसे रोक दिया ।।46।। सुमित्र ने शीघ्रता से मित्र का आलिंगन कर कहा कि तुम तो पंडित हो, आत्मघात से जो दोष होता है उसे क्या नहीं जानते हो? ।।47।। जो मनुष्य अपने शरीर का अविधि से घात करते हैं वे चिरकाल तक कच्चे गर्भ में दुख प्राप्त करते हैं अर्थात् गर्भ पूर्ण हुए बिना ही असमय में मर जाते हैं ।।48।। ऐसा कहकर उसने मित्र के हाथ से तलवार छीनकर नष्ट कर दी और चिरकाल तक उसे मनोहारी वचनों से समझाया ।।49।। आचार्य कहते हैं कि परस्पर के गुणों से संबंध रखने वाली उन दोनों मित्रों की प्रीति इस तरह अंत को प्राप्त होगी इससे जान पड़ता है कि यह संसार असार है ।।50।। अपने अपने कर्मो से युक्त जीव सुख-दुःख उत्पन्न करने वाली पृथक्-पृथक् गति को प्राप्त होते हैं इसलिए इस संसार में कौन किसका मित्र है? ।।51।। तदनंतर जिसकी आत्मा प्रबुद्ध थी ऐसा राजा सुमित्र मुनि दीक्षा धारण कर अंत में ऐशान स्वर्ग का अधिपति हो गया ।।52।। वहाँ से च्युत होकर जंबूद्वीप की मथुरा नगरी में राजा हरि वाहन की माधवी रानी से मधु नाम का पुत्र हुआ। यह पुत्र मधु के समान मोह उत्पन्न करनेवाला था और हरिवंश रूपी आकाश में चंद्रमा के समान सुशोभित था ।।53-54।। मिथ्यादृष्टि प्रभव मरकर दुर्गति में दुःख भोगता रहा और अंत में विश्वावसु की ज्योतिष्मती स्त्री के शिखी नामा पुत्र हुआ ।।55।। सो द्रव्यलिंगी मुनि हो महातप कर निदान के प्रभाव से असुरों का अधिपति चमरेंद्र हुआ ।।56।।
तदनंतर अवधिज्ञान के द्वारा अपने पूर्व भवों का स्मरण कर सुमित्र नामक मित्र के निर्मल गुणों का हृदय में चिंतवन करने लगा ।।57।। ज्यों ही उसे सुमित्र राजा के मनोहर चरित्र का स्मरण आया त्योंही वह करोंत के समान उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा ।।58।। वह विचार करने लगा कि सुमित्र बड़ा ही भला और महा गुणवान् था। वह समस्त कार्यों में सहायता करनेवाला मेरा परम मित्र था ।।59।। उसने मेरे साथ गुरु के घर विद्या पढ़ी थी। मैं दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था सो उसने मुझे अपने समान धनवान् बना लिया था ।।60।। मेरे चित्त में पाप समाया सो द्वेष रहित चित के धारक उस दयालु ने तृष्णा रहित होकर मेरे पास अपनी स्त्री भेजी ।।61।। यह मित्र की स्त्री है ऐसा जानकर जब मैं परम उद्वेग को प्राप्त होता हुआ तलवार से अपना शिर काटने के लिए उद्यत हुआ तो उसी ने मेरी रक्षा की थी ।।62।। मैंने जिनशासन की श्रद्धा बिना मरकर दुर्गति में ऐसे दुःख भोगे कि जिनका स्मरण करना भी दु:सह है ।।63।। मैंने मोक्षमार्ग का अनुवर्तन करने वाले साधुओं के समूह की जो निंदा की थी उसका फल अनेक दु:खदायी योनियों में प्राप्त किया ।।64।। और वह सुमित्र निर्मल चारित्र का पालन कर ऐशान स्वर्ग में उत्तम सुख का उपभोग करने वाला इंद्र हुआ तथा अब वहाँ से च्युत होकर मधु हुआ है ।।65।। इस प्रकार क्षणभर में उत्पन्न हुए परम प्रेम से जिसका मन आर्द्र हो रहा था ऐसा चमरेंद्र सुमित्र मित्र के उपकारों से आकृष्ट हो अपने भवन से बाहर निकला ।।66।। उसने बड़े आदर के साथ मिलकर महारत्नों से मित्र का पूजन किया और उसके लिए सहखांतक नामक शूल रत्न भेंट में दिया ।।67।। हरिवाहन का पुत्र मधु चमरेंद्र से शूल रत्न पाकर पृथिवी पर परम प्रीति को प्राप्त हुआ और अस्त्र विद्या का स्वामी कहलाने लगा ।।68।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो मनुष्य मधु के इस चरित्र को पढ़ता अथवा सुनता है वह विशाल दीप्ति, श्रेष्ठ धन और उत्कृष्ट आयु को प्राप्त होता है ।।69।।
अथानंतर अनेक सामंत जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा रावण लोक में शत्रुओं को वशीभूत करने वाला अपना प्रभाव फैलाता और अनेक आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ प्रेम से भरे संसार में अठारह वर्ष तक इस प्रकार भ्रमण करता रहा जिस प्रकार कि इंद्र स्वर्ग में भ्रमण करता है ।।70-71।। तदनंतर रावण क्रम-क्रम से समुद्र की निकटवर्तिनी भूमि को छोड़ता हुआ चिरकाल के बाद जिनमंदिरों से युक्त कैलास पर्वत पर पहुँचा ।।72।। वहाँ स्वच्छ जल से भरी समुद्र की पत्नी एवं सुवर्ण कमलों की पराग से व्याप्त गंगा नदी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ।।73।। सो उसके समीप ही अपनी विशाल सेना ठहराकर कैलास की कंदराओं में मनोहर क्रीड़ा करने लगा ।।74।। पहले विद्याधर और फिर भूमिगोचरी मनुष्यों ने यथाक्रम से गंगा नदी के स्फटिक के समान स्वच्छ सुखकर स्पर्श वाले जल में अपना खेद दूर किया था अर्थात् स्नान कर अपनी थकावट दूर की थी ।।71।। पृथ्वी पर लोटने के कारण लगी हुई जिनकी धूलि नमेरुवृक्ष के नये-नये पत्तों से झाड़कर दूर कर दी गयीं थी और पानी पिलाने के बा:द जिन्हें खूब नहलाया गया था ऐसे घोड़े विनय से खड़े थे ।।76।। जल के छींटों से गीला शरीर होने के कारण जिन पर बहुत गाढ़ी धूलि जमी हुई थी तथा नदी के द्वारा जिनका बड़ा भारी खेद दूर कर दिया गया था ऐसे हाथियों को महावतों ने चिरकाल तक नहलाया था ।।77।। कैलास पर आते ही रावण को बालि का वृत्तांत स्मृत हो उठा इसलिए उसने समस्त चैत्यालयों को बड़ी सावधानी से नमस्कार किया और धर्मानुकूल क्रियाओं का आचरण किया ।।78।। अथानंतर इंद्र ने दुर्लंघयपुर नामा नगर में नलकूबर को लोकपाल बनाकर स्थापित किया था सो गुप्तचरों से जब उसे यह मालूम हुआ कि सेना रूपी सागर के मध्य वर्तमान रहनेवाला रावण जीतने की इच्छा से निकट ही आ पहुँचा है तब उसने भयभीत चित्त होकर पत्र में सब समाचार लिख एक शीघ्रगामी विद्याधर इंद्र के पास पहुँचाया ।।79-81।। सो इंद्र जिस समय जिन प्रतिमाओं की वंदना करने के लिए सुमेरु पर्वत पर जा रहा था उसी समय पत्रवाहक विद्याधर ने प्रणाम कर नलकूबर का पत्र उसके सामने रख दिया ।।82।। इंद्र ने पत्र बाँचकर तथा समस्त अर्थ हृदय में धारणकर प्रति लेख द्वारा आज्ञा दी कि मैं जब तक पांडुकवन में स्थित जिन प्रतिमाओं की वंदना कर वापस आता हूँ तब तक तुम बड़े यत्न से रहना। तुम अमोघ अस्त्र के धारक हो ।।83-84।। ऐसा संदेश देकर जिसका मन वंदना में आसक्त था ऐसा इंद्र गर्व वश शत्रु की सेना को कुछ नहीं गिनता हुआ पांडुकवन चला गया ।।85।। इधर समयानुसार कार्य करने में तत्पर रहनेवाले नलकूबर ने समस्त आप्तजनों के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से नगर की रक्षा का उपाय सोचा ।।86।। उसने सौ योजन ऊँचा और तिगुनी परिधि से युक्त वज्रशाल नामा कोट, विद्या के प्रभाव से नगर के चारों ओर खड़ा कर दिया ।।87।। यह नगर शत्रु के अधीन है ऐसा जानकर रावण ने दंड वसूल करने के लिए प्रहस्त नामा सेनापति भेजा ।।88।। सो उसने लौटकर रावण से कहा कि हे देव! शत्रु का नगर बहुत ऊँचे प्राकार से घिरा हुआ है इसलिए वह नहीं लिया जा सकता है ।।89।। देखो वह भयंकर प्राकार यहाँ से ही समस्त दिशाओं में दिखाई दे रहा है। वह बड़ी ऊँची शिखरों और गंभीर बिलों से युक्त है तथा जिसका मुख दाढ़ों से भयंकर है ऐसे अजगर के समान जान पड़ता है ।।90।। उड़ते हुए तिलगों से जिनकी ओर देखना भी कठिन है ऐसी ज्वालाओं के समूह से वह प्राकार भरा हुआ है तथा बाँसों के जलते हुए किसी सघन बड़े वन के समान दिखाई देता है ।।91।। इस प्रकार में भयंकर दांढों को धारण करने वाले बेतालों के समान ऐसे ऐसे विशाल यंत्र लगे हुए हैं जो एक योजन के भीतर रहनेवाले बहुत से मनुष्यों को एक साथ पकड़ लेते हैं ।।92।। प्राणियों के जो समूह उन यंत्रों के मुख में पहुँच जाते हैं फिर उसके शरीर का समागम दूसरे जन्म में ही होता है ।।93।। ऐसा जानकर आप नगर लेने के लिए कोई कुशल उपाय सोचिए। यथार्थ में दीर्घदर्शी मनुष्य के द्वारा ही विजिगीषुपना किया जाता है अर्थात् जो दीर्घदर्शी होता है वही विजिगीषुपना हो सकता है ।।94।। इस स्थान से तो शीघ्र ही निकल भागना शोभा देता है क्योंकि यहाँ पर जिसका निरावरण नहीं किया जा सकता ऐसा बहुत भारी संशय विद्यमान है ।।95।। तदनंतर कैलास की गुफाओं में बैठे रावण के नीति निपुण मंत्री उपाय का विचार करने लगे ।।96।।
अथानंतर जिसके गुण और आकार रंभा नामक अप्सरा के समान थे ऐसी नलकूबर की उपरंभा नामक प्रसिद्ध स्त्री ने सुना कि रावण समीप ही आकर ठहरा हुआ है ।।97।। वह रावण के गुणों से पहले ही अनुरक्त थी इसलिए जिस प्रकार कुमुदों की पंक्ति चंद्रमा के विषय में उत्कंठा को प्राप्त रहती है उसी प्रकार वह भी रावण के विषय में परम उत्कंठा को प्राप्त हुई ।।98।। उसने एकांत में विचित्र माला नामक सखी से कहा कि हे सुंदरि! सुन तुझे छोड़कर मेरी प्राण तुल्य दूसरी सखी कौन है? ।।99।। जो समान बात कहे वहीं सखी शब्द प्रवृत्त होता है अर्थात् समान बात कहने वाली ही सखी कहलाती है इसलिए हे शोभने! तू मेरी मनसा का भेद करने के योग्य नहीं है ।।100।। हे चतुरे! तू अवश्य ही मेरा कार्य सिद्ध करती है इसलिए तुझ से कहती हूँ। यथार्थ में सखियां ही जीवन का बड़ा आलंबन हैं- सब से बड़ा सहारा हैं ।।101।।
ऐसा कहने पर विचित्र माला ने कहा कि हे देवि! आप ऐसा क्यों कहती हैं? मैं तो आपकी दासी हूँ, मुझे आप इच्छित कार्य में लगाइए ।।102।। मैं अपनी प्रशंसा नहीं करती क्योंकि लोक में उसे निंदनीय बताया है पर इतना अवश्य कहती हूँ कि मैं साक्षात् रूप धारिणी सिद्धि ही हूँ ।।103।। जो कुछ तुम्हारे मन में हो उसे निशंक होकर कहो, मेरे रहते आप खेद व्यर्थ ही उठा रही हैं ।।104।।
तदनंतर उपरंभा लंबी और धीमी साँस लेकर तथा कमल तुल्य हथेली पर चंद्रमा के समान सुंदर कपोल रखकर कहने लगी ।।105।। जो अक्षर उपरंभा के मुख से निकलते थे वे लज्जा के कारण बीच―बीच में रुक जाते थे अत: वह उन्हें बारबार प्रेरित कर रही थी तथा उसका मन धृष्टता के ऊपर बार-बार चढ़ता और बार-बार गिरता था सो उसे वह बड़े कष्ट से धृष्टता के ऊपर स्थित कर रही थी ।।106।। उसने कहा कि हे सखि! बाल्य अवस्था से ही मेरा मन रावण में लगा हुआ है। यद्यपि मैंने उसके समस्त लोक में फैलने वाले मनोहर गुण सुने हैं तो भी मैं उसका समागम प्राप्त नहीं कर सकी। किंतु उसके विपरीत भाग्य की मंदता से मैं नलकूबर के साथ अप्रिय संगम को प्राप्त हुई हूँ सो अप्रीति के कारण निरंतर भारी पश्चात्ताप को धारण करती रहती हूँ ।।107-108।। हे रूपिणी! यद्यपि मैं जानती हूँ कि यह कार्य प्रशंसनीय नहीं है तथापि हे सुभाषिते! मैं मरण सहन करने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ ।।109।। मेरे मन को हरण करनेवाला वह रावण इस समय निकट ही स्थित है इसलिए हे सखि! मुझ पर प्रसन्न हो और इसके साथ किसी तरह मेरा समागम करा ।।110।। यह मैं तेरे चरणों में नमस्कार करती हूँ इतना कहकर ज्यों ही वह शिर झुकाने के लिए उद्यत हुई त्यों ही सखी ने बड़ी शीघ्रता उसका शिर पकड़ लिया ।।111।। स्वामिनी! मैं आपका मनोरथ शीघ्र ही सिद्ध करती हूँ यह कहकर सब स्थिति को जानने वाली दूती घर से बाहर निकली ।।112।। सजल मेघ के समान सूक्ष्म वस्त्र का घूँघट धारण करने वाली दूती आकाश में उड़कर क्षण भर में रावण के डेरे में जा पहुँची ।।113।। द्वारपालिनी के द्वारा सूचना देकर वह अंतःपुर में प्रविष्ट हुई। वहाँ प्रणाम कर, रावण के द्वारा दिये आसन पर विनय से बैठी ।।114।। तदनंतर कहने लगी कि हे देव! आपके निर्दोष गुणों से जो समस्त संसार व्याप्त हो रहा है वह आपके समान प्रभावक पुरुष के अनुरूप ही है ।।115।। चूँकि आपका उदार वैभव पृथिवी पर याचकों को संतुष्ट कर रहा है इस कारण मैं जानती हूँ कि आप सबका हित करने में तत्पर हैं ।।116।। मैं खूब समझती हूँ कि इस आकार को धारण करने वाले आप मेरी प्रार्थना को भंग नहीं करेंगे यथार्थ में आप जैसे लोगों की संपदा परोपकार का ही कारण है ।।117।। हे विभो! आप क्षण-भर के लिए समस्त परिजन को दूर कर दीजिए और ध्यान देकर मुझ पर प्रसन्नता कीजिए ।।118।।
तदनंतर जब सर्व परिजन दूर कर दिये गये और बिलकुल एकांत हो गया तब सब वृत्तांत जानने वाली दूती ने रावण के कान में पहले का सब समाचार कहा ।।119।। तदनंतर दूती की बात सुन रावण ने दोनों हाथों से दोनों कान ढक लिये। वह चिर काल तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा ।।120।। सदाचार में तत्पर रहनेवाला रावण परस्त्री की वांछा सुन चिंता से क्षण भर में खिन्न चित्त हो गया ।।121।। उसने हँसते हुए कहा कि हे भद्रे! पाप का संगम कराने वाली यह ऐसी बात तुम्हारे मन आया ही कैसे? ।।122।। तूने यह बात अभिमान छोड़कर कही है। ऐसी याचना के पूर्ण करने में मैं अत्यंत दरिद्र हूँ, क्या करूँ? ।।123।। चाहे विधवा हो, चाहे पति से सहित हो, चाहे कुलवती हो और चाहे रूप से युक्त वेश्या हो परस्त्री मात्र का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिए ।।124।। यह कार्य इस लोक तथा परलोक दोनों ही जगह विरुद्ध है तथा जो मनुष्य दोनों लोकों से भ्रष्ट हो गया वह मनुष्य ही क्या, सो तू ही कह ।।125।। हे भद्रे! दूसरे मनुष्य के मुख की लार से पूर्ण तथा अन्य मनुष्य के अंग से मर्दित जूठा भोजन खाने की कौन मनुष्य इच्छा करता है? ।।126।। तदनंतर रावण ने यह बात प्रीतिपूर्वक विभीषण से भी एकांत में कही सो नीति को जानने वाले एवं निरंतर मंत्रिगणों में प्रमुखता धारण करने वाले विभीषण ने इस प्रकार उत्तर दिया ।।127।। कि हे देव! चूँकि यह कार्य ही ऐसा है अत: सदा नीति के जानने वाले राजा को कभी झूठ भी बोलना पड़ता है ।।128।। संभव है स्वीकार कर लेने से संतोष को प्राप्त हुई उपरंभा उत्कट विश्वास करती हुई, किसी तरह नगर लेने का कोई उपाय बता दे ।।125।। तदनंतर विभीषण के कहने से कपट का अनुसरण करने वाले रावण ने दूती से कहा कि हे भद्रे! तूने जो कहा है वह ठीक है ।।130।। चूँकि उस बेचारी के प्राण मुझमें अटक रहे हैं और वह अत्यंत दुःख से युक्त है अत: मेरे द्वारा रक्षा करने के योग्य है। यथार्थ में उदार मनुष्य दयालु होते हैं ।।131।। इसलिए जब तक प्राण उसे नहीं छोड़ देते हैं तब तक जाकर उसे ले आ। प्राणियों की रक्षा करने में धर्म है यह बात पृथिवी पर खूब सुनी जाती है ।।132।। इतना कहकर रावण के द्वारा विदा की हुई दूती क्षणभर में जाकर उपरंभा को ले आयी। आने पर रावण ने उसका बहुत आदर किया ।।133।।
तदनंतर काम के वशीभूत हो जब उपरंभा रावण के समीप पहुँची तब रावण ने कहा कि हे देवि! मेरी उत्कट इच्छा दुर्गंध्य नगर में ही रमण करने की है ।।134।। तुम्हीं कहो इस जंगल में क्या सुख है? और क्या काम वर्धक कारण है? हे देवि! ऐसा करो कि जिससे मैं तुम्हारे साथ नगर में ही रमण करूँ ।।135।। स्त्रियाँ स्वभाव से ही मुग्ध होती हैं इसलिए उपरंभा रावण की कुटिलता को नहीं समझ सकी। निदान, उसने काम से पीड़ित हो उसे नगर में आने के लिए आशालिका नाम की वह विद्या, जो कि प्राकार बनकर खड़ी हुई थी तथा व्यंतर देव जिनकी रक्षा किया करते थे ऐसे नाना शस्त्र बड़े आदर के साथ दे दिये ।।136-137।। विद्या मिलते ही वह मायामय प्राकार दूर हो गया और उसके अभाव में वह नगर केवल स्वाभाविक प्राकार से ही आवृत रह गया ।।138।। रावण बड़ी भारी सेना लेकर नगर के निकट पहुँचा सो उसका कलकल सुनकर नलकूबर क्षोभ को प्राप्त हुआ ।।139।। तदनंतर उस मायामय प्राकार को न देखकर लोकपाल नलकूबर बड़ा दुःखी हुआ। यद्यपि उसने समझ लिया था कि अब तो हमारा नगर रावण ने ले ही लिया तो भी उसने उद्यम नहीं छोड़ा। वह पुरुषार्थ को धारण करता हुआ बड़े श्रम से युद्ध करने के लिए बाहर निकला। अत्यंत पराक्रमी सब सामंत उसके साथ थे ।।140-141।। तदनंतर जो शस्त्रों से व्याप्त था, जिसमें सूर्य की किरणें नहीं दिख रही थीं और भयंकर कठोर शब्द हो रहा था ऐसे महायुद्ध के होने पर विभीषण ने वेग से उछलकर पैर के आघात से रथ का धुरा तोड़ दिया और नलकूबर को जीवित पकड़ लिया ।।142-143।। रावण ने राजा सहस्ररश्मि के साथ जो काम किया था वही काम क्रोध से भरे विभीषण ने नलकूबर के साथ किया ।।144।। उसी समय रावण ने देव और असुरों को भय उत्पन्न करने में समर्थ इंद्र संबंधी सुदर्शन नाम का चक्ररत्न प्राप्त किया ।।145।।
तदनंतर रावण ने एकांत में उपरंभा से कहा कि हे प्रवरागने! विद्या देने से तुम मेरी गुरु हो।।146।। पति के जीवित रहते तुम्हें ऐसा करना योग्य नहीं है और नीति मार्ग का उपदेश देने वाले मुझे तो बिलकुल ही योग्य नहीं है ।।147।। तत्पश्चात् शस्त्रों से विदारित कवच के भीतर जिसका अक्षत शरीर दिख रहा था ऐसे नलकूबर को वह समझाकर स्त्री के पास ले गया ।।148।। और कहा कि इस भर्ता के साथ मनचाहे भोग भोगो। काम सेवन के विषय में मेरे और इसके साथ उपभोग में विशेषता ही क्या है ?।।149।। इस कार्य के करने से मेरी कीर्ति मलिन हो जायेगी और मैंने यह कार्य किया है इसलिए दूसरे लोग भी यह कार्य करने लग जावेंगे ।।150।। तुम राजा आकाश ध्वज और मृदुकांता की पुत्री हो, निर्मल कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है अत: शील की रक्षा करना ही योग्य है ।।151।। रावण के ऐसा कहने पर वह अत्यधिक लज्जित हुई और प्रतिबोध को प्राप्त हो अपने पति में ही संतुष्ट हो गयी ।।152।। इधर नलकूबर को अपनी स्त्री के व्यभिचार का पता नहीं चला इसलिए रावण से सम्मान प्राप्त कर वह पूर्ववत् उसके साथ रमण करने लगा ।।153।।
तदनंतर रावण युद्ध में शत्रु के संहार से परम यश को प्राप्त करता हुआ बढ़ती हुई लक्ष्मी के साथ विजयार्ध गिरि की भूमि में पहुँचा ।।154।। अथानंतर इंद्र ने रावण को निकट आया सुन सभामंडप में स्थित समस्त देवों से कहा ।।155।। कि हे वस्वश्वि आदि देव जनो! युद्ध की तैयारी करो, आप लोग निश्चिंत क्यों बैठे हो? यह राक्षसों का स्वामी रावण यहाँ आ पहुँचा है ।।156।। इतना कहकर इंद्र पिता से सलाह करने के लिए उसके स्थान पर गया और नमस्कार कर विनय पूर्वक पृथिवी पर बैठ गया ।।157।। उसने कहा कि इस अवसर पर मुझे क्या करना चाहिए। जिसे मैंने अनेक बार पराजित किया पुन: स्थापित किया ऐसा यह शत्रु अब प्रबल होकर यहाँ आया है ।।158।। हे तात! मैंने आत्म कार्य के विरुद्ध यह बड़ी अनीति की है कि जब यह शत्रु छोटा था तभी इसे नष्ट नहीं कर दिया ।।159।। उठते हुए कंटक का मुख एक साधारण व्यक्ति भी तोड़ सकता है पर जब वही कंटक परिपक्व हो जाता है तब बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है।।160।। जब रोग उत्पन्न होता है तब उसका सुख से विनाश किया जाता है पर जब वह रोग जड़ बाँधकर व्याप्त हो जाता है तब मरने के बाद ही उसका प्रतिकार हो सकता है ।।161।। मैंने अनेक बार उसको नष्ट करने का उद्योग किया पर आपके द्वारा रोक दिया गया। आपने व्यर्थ ही मुझे क्षमा धारण करायी ।।162।। हे तात! नीति मार्ग का अनुसरण कर ही मैं यह कह रहा हूँ। बड़ों से पूछकर कार्य करना यह कुल की मर्यादा है और इसलिए ही मैंने आप से पूछा है। मैं उसे मारने में असमर्थ नहीं हूँ ।।163।।
अहंकार और क्रोध से मिश्रित पुत्र के वचन सुनकर सहस्रार ने कहा कि हे पुत्र! इस तरह उतावला मत हो ।।164।। पहले उत्तम मंत्रियों के साथ सलाह कर क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निष्फल हो जाता है ।।165।। केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं है क्योंकि निरंतर कार्य करने वाले पुरुषार्थी किसान के वर्षा के बिना क्या सिद्ध हो सकता है? अर्थात् कुछ नहीं।।166।। एक ही समान पुरुषार्थ करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो जाते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पाते ।।167।। ऐसी स्थिति आने पर भी तुम रावण के साथ संधि कर लो क्योंकि संधि के होने पर तुम समस्त संसार को निष्कंटक बना सकते हो ।।168।। साथ ही तू रूपवती नाम की अपनी सुंदरी पुत्री रावण के लिए दे दे। ऐसा करने में कुछ भी दोष नहीं है। बल्कि ऐसा करने से तेरी यही दशा बनी रहेगी ।।169।।
पवित्र बुद्धि के धारक पिता ने इस प्रकार इंद्र को समझाया अवश्य परंतु क्रोध के समूह के कारण उसके नेत्र क्षण भर में लाल-लाल हो गये ।।170।। क्रोधाग्नि के संताप से जिसके शरीर में पसीने की परंपरा उत्पन्न हो गयी थी ऐसा देदीप्यमान इंद्र अपनी वाणी से मानो आकाश को फोड़ता हुआ बोला कि हे तात! जो वध करने योग्य है उसी के लिए कन्या दी जावे यह कहाँ तक उचित है? अथवा वृद्ध पुरुषों की बुद्धि क्षीण हो ही जाती है ।।171-172।। हे तात! कहो तो सही मैं किस वस्तु में उससे हीन हूँ? जिससे आपने यह अत्यंत दीन वचन कहे हैं ।।173।। जो मस्तक पर सूर्य की किरणों का स्पर्श होने पर भी अत्यंत खेदखिन्न हो जाता है वह उदार मानव मिलने पर अन्य पुरुष के लिए प्रणाम किस प्रकार करेगा? ।।174।। मैं पुरुषार्थ की अपेक्षा रावण से हर एक बात में अधिक हूँ फिर आपकी बुद्धि में यह बात कैसे बैठ गयी कि भाग्य उसके अनुकूल है? ।।175।। यदि आपका यह ख्याल है कि इसने अनेक शत्रुओं को जीता है तो अनेक हरिणों को मारने वाले सिंह को क्या एक भील नहीं मार देता? ।।176।। शस्त्रों के प्रहार से जहाँ ज्वालाओं के समूह उत्पन्न हो रहे हैं ऐसे युद्ध में प्राणत्याग करना भी अच्छा है पर शत्रु के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं है ।।177।। वह इंद्र रावण राक्षस के सामने नम्र हो गया इस तरह लोक में जो मेरी हँसी होगी उस ओर भी आपने दृष्टि क्यों नहीं दी? ।।178।। वह विद्याधर है और मैं भी विद्याधर हूँ इस प्रकार विद्याधर पना की समानता संधि का कारण नहीं हो सकती। जिस प्रकार सिंह और शृगाल में वनचारित्व की समानता होने पर भी एकता नहीं होती है उसी प्रकार विद्याधर पना की समानता होने पर भी हम दोनों में एकता नहीं हो सकती ।।179।। इस प्रकार प्रातःकाल के समय इंद्र पिता के समक्ष कह रहा था कि उसी समय समस्त संसार को व्याप्त करनेवाला शत्रुसेना का जोरदार शब्द उसके कानों में प्रविष्ट हुआ ।।180।।
तदनंतर पिता की बात अनसुनी कर वह आयुधशाला में गया और वहाँ युद्ध की तैयारी का संकेत करने के लिए उसने जोर से तुरही बजवायी ।।181।। हाथी शीघ्र लाओ, घोड़ा पर शीघ्र ही पलान बाँधो, तलवार यहाँ देओ, अच्छा-सा कवच लाओ, दौड़कर धनुष लाओ, सिर की रक्षा करनेवाला टोप इधर बढ़ाओ, हाथ पर बांधने की पट्टी शीघ्र देओ, छुरी भी जल्दी देओ, अरे चेट, घोड़े जोत और रथ को तैयार करो इत्यादि शब्द करते हुए देवनामधारी विद्याधर इधर-उधर चलने लगे ।।182-184।। अथानंतर- जब वीर सैनिक क्षुभित हो रहे थे, बाजे बज रहे थे, शंख जोरदार शब्द कर रहे थे, हाथी बार-बार चिंघाड़ रहे थे, बेंत के छूते ही घोड़े दीर्घ हुंकार छोड़ रहे थे, रथों के समूह चल रहे थे और प्रत्यंचाओं के समूह जोरदार गुंजन कर रहे थे, तब योद्धाओं के अट्टहास और चारणों के जयजयकार से समस्त संसार ऐसा हो गया था मानो शब्द से निर्मित हो ।।185-187।। तलवारों, तोमरों, पाशों, ध्वजाओं, छत्रों और धनुषों से समस्त दिशाएँ आच्छादित हो गयीं और सूर्य का प्रभाव जाता रहा ।।188।। शीघ्रता के प्रेमी देव तैयार हो हो कर बाहर निकल पड़े और हाथियों के घंटाओं के शब्द सुन सुनकर गोपुर के समीप धक्कम धक्का करने लगे ।।189।। रथ को उधर खड़ा करो, इधर यह मदोन्मत्त हाथी आ रहा है। अरे महावत! हाथी को यहाँ से शीघ्र ही हटा। अरे सवार! यहीं क्यों रुक गया? शीघ्र ही घोड़ा आगे ले जा। अरी मुग्धे! मुझे छोड़ तू लौट जा, व्यर्थ ही मुझे व्याकुल मत कर इत्यादि वार्तालाप करते हुए शीघ्रता से भरे देव, अपने अपने मकानों से बाहर निकल पड़े। उस समय वे अहंकार के कारण शुभ गर्जना कर रहे थे ।।190-192।। कभी धीमी और कभी जोर से बजायी हुई तुरही से जिसका उत्साह बढ़ रहा था ऐसी सेना जब शत्रु के सम्मुख जाकर यथास्थान खड़ी हो गयी तब आकाश को आच्छादित करने वाले शस्त्र समूह को छोड़ते हुए देवों ने राक्षसों की सेना का मुख भंग कर दिया अर्थात् उसके अग्र भाग पर जोरदार प्रहार किया ।।193-194।। सेना के अग्रभाग का विनाश देख प्रबल पराक्रम के धारक राक्षस कुपित हो अपनी सेना के आगे आ डटे ।।195।। वज्रवेग, प्रहस्त, हस्त, मारीच, उद्धव, वज्रमुख, शुक, घोर, सारण, गगनोज्ज्वल, महाजठर, संध्याभ्र और क्रूर आदि राक्षस आ आकर सेना के सामने खड़े हो गये। ये सभी राक्षस कवच आदि से युक्त थे, उत्तमोत्तम सवारियों पर आरूढ़ थे और अच्छे अच्छे शस्त्रों से युक्त थे ।।196-197।। तदनंतर इन उद्यमी राक्षसों ने देवों की सेना को क्षणमात्र में मारकर भयभीत कर दिया। उसके छोड़े हुए अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं के हाथ लगे ।।198।। तब अपनी सेना के अग्रभाग को नष्ट होता देख बड़े बड़े देव युद्ध करने के लिए उठे। उस समय उन सबके शरीर अत्यंत तीव्र क्रोध से भर रहे थे ।।199।। मेघमाली, तडित्पिंग, ज्वलिताक्ष, अरिसंज्वर और अग्निरथ आदि देव सामने आये ।।200।। जो शस्त्रों के समूह की वर्षा कर रहे थे और उत्पन्न हुए तीव्र क्रोध से अतिशय देदीप्यमान थे ऐसे देवों ने उठकर राक्षसों को रोका ।।201।। तदनंतर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद राक्षस भंग को प्राप्त हुए। एक एक राक्षस को बहुत से देवों ने घेर लिया ।।202।। वेगशाली भँवरों में पड़े हुए के समान राक्षस इधर उधर घूम रहे थे तथा उनके ढीले हाथों से शस्त्र छूट छूटकर नीचे गिर रहे थे ।।203।। कितने ही राक्षस युद्ध से पराङ्मुख हो गये पर जो अभिमानी राक्षस थे वे सामने आकर प्राण तो छोड़ रहे थे पर उन्होंने शस्त्र नहीं छोड़े ।।204।। तदनंतर देवों की विकट मार से राक्षसों की सेना को नष्ट होता देख वानरवंशी राजा महेंद्र का महाबलवान् पुत्र, जो कि अत्यंत चतुर था और प्रसन्न कीर्ति इस सार्थक नाम को धारण करता था, युद्ध के अग्रभाग में स्थित शत्रुओं की सेना को भयभीत करता हुआ सामने आया ।।205-206।। अपनी सेना की रक्षा करते हुए उसने निरंतर निकलने वाले बाणों से शत्रु को सेना को पराङ्मुख कर दिया ।।207।। विजयार्ध पर्वत पर रहनेवाले देवों की जो सेना नाना प्रकार के शस्त्रों से देदीप्यमान थी वह प्रथम तो प्रसन्न कीर्ति से अत्यधिक महान् उत्साह को प्राप्त हुई ।।208।। पर उसके बाद ही जब उसने उसकी ध्वजा और छत्र में वानर का चिह्न देखा तो उसका मन टूक-टूक हो गया ।।209।। तदनंतर जिस प्रकार काम के बाणों से कुगुरु का हृदय खंडित हो जाता है उसी प्रकार जिनसे अग्नि की देदीप्यमान शिखा निकल रही थी ऐसे प्रसन्न कीर्ति के बाणों से देवों की सेना खंडित हो गयी ।।210।। तदनंतर देवों की और दूसरी सेना सामने आयी। वह सेना कनक, तलवार, गदा, शक्ति, धनुष और मुद्गर आदि अस्त्र शस्त्रों से युक्त थी ।।211।। तत्पश्चात् माल्यवान् का पुत्र श्रीमाली जो अत्यंत वीर और निशंक हृदय वाला था देवों की सेना के आगे खड़ा हो गया ।।212।। जिसकी सूर्य के समान कांति थी तथा जो निरंतर बाणों का समूह छोड़ रहा था ऐसे श्रीमाली ने देवों को क्षणमात्र में कहां भेज दिया इसका पता नहीं चला ।।213।। तदनंतर जो शत्रुपक्ष की ओर से सामने खड़ा था, जिसका वेग अनिवार्य था, जो शत्रुओं की सेना को इस तरह क्षोभ युक्त कर रहा था जिस प्रकार कि महाग्राह किसी समुद्र को क्षोभ युक्त करता है, जो अपना मदोन्मत्त हाथी शत्रुओं की सेना पर हूल रहा था और जो तलवार हाथ में लिये उद्दंड योद्धाओं के बीच में घूम रहा था ऐसे श्रीमाली को देखकर देव लोग अपनी सेना की रक्षा करने के लिए उठे। उस समय उन सबके शरीर बहुत भारी क्रोध से व्याप्त थे तथा उनके हाथों में अनेक शस्त्र चमक रहे थे ।।214―216।। शिखी, केशरी, दंड, उग्र, कनक, प्रवर आदि इंद्र के योद्धाओं ने आकाश को दूर तक ऐसा आच्छादित कर लिया जैसा कि वर्षाऋतु के मेघ आच्छादित कर लेते हैं ।।217।। इनके सिवाय मृगचिह्न आदि इंद्र के भानेज भी जो कि रण से समुत्पन्न तेज के द्वारा अत्यधिक देदीप्यमान और महाबलवान् थे, आकाश को दूर-दूर तक आच्छादित कर रहे थे ।।218।। तदनंतर श्रीमाली ने अपने अर्द्धचंद्राकार बाणों से काटे हुए उनके सिरों से पृथिवी को इस प्रकार ढक दिया मानो शेवाल सहित कमलों से ही ढक दिया हो ।।219।।
अथानंतर इंद्र ने विचार किया कि जिसने इन श्रेष्ठ देवों के साथ-साथ इन नरश्रेष्ठ राजकुमारों का क्षय कर दिया है तथा अपने विशाल तेज से जिसकी ओर आँख उठाना भी कठिन है ऐसे इस राक्षस के आगे युद्ध में देवों के बीच ऐसा कौन है जो सामने खड़ा होने की भी इच्छा कर सके? इसलिए जब तक यह दूसरे देवों को नहीं मारता है उसके पहले ही मैं स्वयं इसके युद्ध की श्रद्धा का नाश कर देता हूँ ।।220-222।। ऐसा विचारकर देवों का स्वामी इंद्र भय से काँपती हुई सेना को सांतवना देकर ज्योंही युद्ध के लिए उठा त्योंही उसका महाबलवान जयंत नाम का पुत्र चरणों में गिरकर तथा पृथिवी पर घुटने टेककर कहने लगा कि हे देवेंद्र! यदि मेरे रहते हुए आप युद्ध करते हैं तो आप से जो मेरा जन्म हुआ है वह निरर्थक है ।।223-225।। जब मैं बाल्य अवस्था में आपकी गोद में क्रीड़ा करता था और आप पुत्र के स्नेह से बारबार मेरी ओर देखते थे आज मैं उस स्नेह का बदला चुकाना चाहता हूँ, उस ऋण से मुक्त होना चाहता हूँ ।।226।। इसलिए हे तात! आप निराकुल होकर घर पर रहिए। मैं क्षण भर में समस्त शत्रुओं का नाश कर डालता हूँ ।।227।। हे तात! जो वस्तु थोड़े ही प्रयत्न से नख के द्वारा छेदी जा सकती है वहाँ परशु का चलाना व्यर्थ ही है ।।228।। इस प्रकार पिता को मनाकर जयंत युद्ध के लिए उद्यत हुआ। उस समय वह क्रोधावेश से ऐसा जान पड़ता था मानो शरीर के द्वारा आकाश को ही ग्रस रहा हो ।।229।। पवन के समान वेगशाली एवं देदीप्यमान शस्त्रों को धारण करने वाली सेना जिसकी रक्षा कर रही थी ऐसा जयंत बिना किसी खेद के सहज ही श्रीमाली के सम्मुख आया ।।230।। श्रीमाली चिर काल बाद रण के योग्य शत्रु को आया देख बहुत संतुष्ट हुआ और सेना के बीच गमन करता हुआ उसकी ओर दौड़ा ।।231।। तदनंतर जिनके धनुर्मंडल निरंतर खिंचते हुए दिखाई देते थे ऐसे क्रोध से भरे दोनों कुमारों ने एक दूसरे पर बाणों की वर्षा छोड़ी ।।232।। जिनका चित्त आश्चर्य से भर रहा था और जो अपनी अपनी रेखाओं पर खड़ी थीं ऐसी दोनों ओर की सेनाएं निश्चल होकर उन दोनों कुमारों का युद्ध देख रही थी ।।233।। तदनंतर अपनी सेना को हर्षित करते हुए श्रीमाली ने कनक नामक हथियार से जयंत का रथ तोड़कर रथरहित कर दिया ।।234।। जयंत मूर्च्छा से नीचे गिर पड़ा सो उसे गिरा देख उसकी सेना का मन भी गिर गया और मूर्च्छा दूर होने पर जब वह उठा तो सेना का मन भी उठ गया ।।235।। तदनंतर जयंत ने भिंडिभाल नामक शस्त्र चलाकर श्रीमाली को रथरहित कर दिया और अत्यंत बढ़े हुए क्रोध से ऐसा प्रहार किया कि वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा ।।236।। तब शत्रुसेना में बड़ा भारी हर्षनाद हुआ और इधर राक्षसों की सेना में रुदन शब्द सुनाई पड़ने लगा ।।237।। जब मूर्च्छा दूर हुई तब श्रीमाली अत्यंत कुपित हो शस्त्र समूह की वर्षा करता हुआ जयंत के सम्मुख गया। उस समय वह अत्यंत भयंकर दिखाई देता था ।।238।। शस्त्र समूह को छोड़ते हुए दोनों कुमार ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो जिनकी चमकीली सटाओं का समूह उड़ रहा था ऐसे सिंह के दो बालक ही हों ।।239।। तदनंतर इंद्र के पुत्र जयंत ने माल्यवान के पुत्र श्रीमाली के वक्षःस्थल पर गदा का ऐसा प्रहार किया कि वह पृथिवी पर गिर पड़ा ।।240।। मुख से खून को छोड़ता पृथिवी पर पड़ा श्रीमाली ऐसा जान पड़ता था मानो अस्त होता हुआ सूर्य ही हो ।।241।। श्रीमाली को मारने के बाद जयंत ने रथ पर सवार हो हर्ष से शंख फूँका जिससे राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे ।।242।।
तदनंतर श्रीमाली को निष्प्राण और जिसके योद्धा हर्षनाद कर रहे थे ऐसे जयंत को आगामी युद्ध के लिए तत्पर देख रावण का पुत्र इंद्रजित् अपनी भागती हुई सेना को आश्वासन देता हुआ जयंत के सम्मुख आया। उस समय वह क्रोध से बड़ा विकट जान पड़ता था ।।243-244।। तदनंतर इंद्रजित् ने कलिकाल की तरह लोगों के अनादर करने में संलग्न जयंत को अपने बाणों से कवच की तरह जर्जर कर दिया अर्थात् जिस प्रकार बाणों से उसका कवच जर्जर किया था उसी प्रकार उसका शरीर भी जर्जर कर दिया ।।245।। जिसका कवच टूट गया था, जिसका शरीर खून से लाल-लाल हो रहा था और जो गड़े हुए बाणों से सेही की तुलना प्राप्त कर रहा था ऐसे जयंत को देखकर इंद्र स्वयं युद्ध करने के लिए उठा। उस समय इंद्र अपने वाहनों और चमकते हुए तीक्ष्ण शस्त्रों से नीरंध्र आकाश को आच्छादित कर रहा था ।।246-247।। इंद्र को युद्ध के लिए उद्यत देख सन्मति नामक सारथी ने रावण से कहा कि हे देव! यह देवों का अधिपति इंद्र स्वयं ही आया है ।।248।। लोकपालों का समूह चारों ओर से इसकी रक्षा कर रहा है, यह मदोन्मत्त ऐरावत हाथ पर सवार है, मुकुट के रत्नों की प्रभा से आवृत है, ऊपर लगे हुए सफेद छत्र से सूर्य को ढक रहा है तथा क्षोभ को प्राप्त हुए महासागर के समान सेना से घिरा हुआ है ।।249-250।। यह चूँकि महाबलवान् है इसलिए कुमार इंद्रजित् युद्ध करने के लिए इसके योग्य नहीं है अत: आप स्वयं ही उठिए और शत्रु का अहंकार नष्ट कीजिए ।।251।।
तदनंतर बलवान् इंद्र को सामने आता देख रावण वायु के समान वेगशाली रथ से सामने दौड़ा। उस समय रावण माली के मरण का स्मरण कर रहा था और अभी हाल में जो श्रीमाली का वध हुआ था उससे देदीप्यमान हो रहा था। उस समय इन दोनों योद्धाओं का रोमांचकारी भयंकर युद्ध हो रहा था। वह युद्ध शस्त्र समुदाय से उत्पन्न सघन अंधकार से व्याप्त था। रावण ने देखा कि उसका पुत्र इंद्रजित् सब ओर से शत्रुओं द्वारा घेर लिया गया है अत: वह कुपित हो आगे दौड़ा ।।252-254।। तदनंतर जहाँ शस्त्रों के द्वारा अंधकार फैल रहा था और रुधिर का कुहरा छाया हुआ था ऐसे युद्ध में यदि शूरवीर योद्धा पहचाने जाते थे तो केवल अपनी जोरदार आवाज से ही पहचाने जाते थे ।।255।। जिन योद्धाओं ने पहले अपेक्षा भाव से युद्ध करना बंद कर दिया था उन पर भी जब चोटें पड़ने लगीं तब वे स्वामी की भक्ति से प्रेरित हो प्रहार जन्य क्रोध से अत्यधिक युद्ध करने लगे ।।256।। गदा, शक्ति, कुंत, मुसल, कृपाण, बाण, परिघ, कनक, चक्र, छुरी, अंह्निप, शूल, पाश, भुशुंडी, कुठार, मुद्गर, घन, पत्थर, लांगल, दंड, कौण, बांस के बाण तथा एक दूसरे को काटने वाले अन्य अनेक शस्त्रों से उस समय आकाश भयंकर हो गया था और शस्त्रों के पारस्परिक आघात से उसमें अग्नि उत्पन्न हो रही थी ।।257-259।। उस समय कहीं तो ग्रसद्-ग्रसद्, कहीं शूद्-शूद, कहीं रण-रण, कहीं किण-किण, कहीं त्रप-त्रप, कहीं दम-दम, कहीं छम―छम, कहीं पट-पट, कहीं छल-छल, कहीं टद्द-टद्द, कहीं तड़-तड़, कहीं चट-चट और कहीं घग्घ―घग्घ की आवाज आ रही थी। यथार्थ बात यह थी कि शस्त्रों से उत्पन्न स्वरों से उस समय रणांगण शब्दमय हो रहा था ।।26263।। घोड़ा घोड़ा को मार रहा था, हाथी हाथी को मार रहा था, घुड़सवार घुड़सवार को, हाथी का सवार हाथी के सवार को और रथ रथ को नष्ट कर रहा था ।।264।। जो जिसके सामने आया उसी को चीरने में तत्पर रहनेवाला पैदल सिपाहियों का झुंड पैदल सिपाहियों के साथ युद्ध करने के लिए उद्यत था ।।265।। हाथियों की शूत्कार के साथ जो जल के छींटों का समूह निकल रहा था वह शस्त्रपात से उत्पन्न अग्नि को शांत कर रहा था ।।266।। प्रतिमा के समान भारी-भारी जो दाँत हाथियों के मुख से नीचे गिरते थे वे गिरते-गिरते ही अनेक योद्धाओं की पंक्ति का कचूमर निकाल देते थे ।।267।। अरे शूर पुरुष! प्रहार छोड़, कायर क्यों हो रहा है? हे सैनिक शिरोमणे! इस समय जरा मेरी तलवार का भी तो वार सहन कर ।।268।। ले अब तू मरता ही है, मेरे पास आकर अब तो जा ही कहां सकता है? अरे दुशिक्षित! तलवार पकड़ना भी तो तुझे आता नहीं है, युद्ध करने के लिए चला है ।।269।। जा यहाँ से भाग जा और अपने आपकी रक्षा कर। तेरी रण की खाज व्यर्थ है, तूने इतना थोड़ा घाव किया कि उससे मेरी खाज ही नहीं गयी ।।270।। तुझ नपुंसक ने स्वामी का वेतन व्यर्थ ही खाया है, चुप रह, क्यों गरज रहा है? अवसर आने पर शूरवीरता अपने आप प्रकट हो जायेगी ।।271।। काँप क्यों रहा है? जरा स्थिरता को प्राप्त हो, शीघ्र ही बाण हाथ में ले, मुट्ठी को मजबूत रख, देख यह तलवार खिसककर नीचे चली जायेगी ।।272।। उस समय युद्ध में अपने-अपने स्वामियों के आगे परमोत्साह से युक्त योद्धाओं के बार-बार उल्लिखित वार्तालाप हो रहे थे ।।273।। किसी की भुजा आलस्य से भरी थी- उठती ही नहीं थी पर जब शत्रु ने उसमें गदा की चोट जमायी तब वह क्षण-भर में नाच उठा और उसकी भुजा ठीक हो गयी ।।274।। जिससे बड़े वेग से अत्यधिक खून निकल रहा था ऐसा किसी का सिर शत्रु के लिए बार-बार धन्यवाद देता हुआ नीचे गिर पड़ा ।।275।। बाणों से योद्धाओं का वक्षःस्थल तो खंडित हो गया पर मन खंडित नही हुआ। इसी प्रकार योद्धाओं का सिर तो गिर गया पर मान नहीं गिरा। उन्हें मृत्यु प्रिय थी पर जीवन प्रिय नहीं था ।।276।। जो महा तेजस्वी कुशल वीर थे उन्होंने संकट आने पर शस्त्र लिये यश की रक्षा करते-करते अपने प्राण छोड़ दिये थे ।।277।। कोई एक योद्धा मर तो रहा था पर शत्रु को मारने की इच्छा से क्रोध युक्त हो जब गिरने लगा तो शत्रु के शरीर पर आक्रमण कर गिरा ।।278।। शत्रु के शस्त्र की चोट से जब किसी योद्धा का शस्त्र छूटकर नीचे गिर गया तब उसने मुट्ठी रूपी मुद्गर की मार से ही शत्रु को प्राण रहित कर दिया ।।279।। किसी महायोद्धा ने मित्र की तरह भुजाओं से शत्रु का गाढ़ आलिंगन कर उसे निर्जीव कर दिया- आलिंगन करते समय शत्रु के शरीरे: खून को धारा बह निकली थी ।।280।। किसी योद्धा ने योद्धाओं के समूह को मारकर युद्ध में अपना सीधा मार्ग बना लिया था। भय के कारण अन्य पुरुष उसके उस मार्ग में आड़े नहीं आये थे ।।281।। गर्व से जिनका वक्षःस्थल तना हुआ था ऐसे उत्तम योद्धाओं ने गिरते-गिरते भी शत्रु के लिए अपनी पीठ नही दिखलायी थी ।।282।। बड़े वेग से नीचे गिरने वाले घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियों ने हजारों घोड़ों, रथों, योद्धाओं और हाथियों को नीचे गिरा दिया था ।।283।। शस्त्रों के निक्षेप से उठी हुई रुधिराक्त धूलि और हाथियों के मदजल से आकाश ऐसा व्याप्त हो गया था मानो इंद्रधनुषों से ही आच्छादित हो रहा हो ।।284।। कोई एक भयंकर योद्धा अपनी निकलती हुई आँतों को बायें हाथ से पकड़कर तथा दाहिने हाथ से तलवार उठा बड़े वेग से शत्रु के सामने जा रहा था ।।285।। जो ओठ चबा रहा था तथा जिसके नेत्रों की पूर्ण पुतलियां दिख रही थी ऐसा कोई योद्धा अपनी ही आंतों से कमर को मजबूत कसकर शत्रु की ओर जा रहा था ।।286।। जिसके हथियार गिर गये थे ऐसे किसी योद्धा ने क्रोध निमग्न हो अपना खून दोनों हाथों में भरकर शत्रु के सिर पर डाल दिया था ।।287।। जो निकलते हुए खून की धारा से लथपथ नखों से सुशोभित था ऐसा कोई योद्धा शत्रु के द्वारा काटी हुई अपनी हड्डी लेकर शत्रु के सामने जा रहा था ।।288।। जो युद्ध में उत्सुक तथा युद्ध काल में उत्पन्न होनेवाली अनेक चेष्टाओं से युक्त था ऐसे किसी योद्धा ने शत्रु को पाश में बाँधकर दूर ले जाकर छोड़ दिया ।।289।।
जो न्यायपूर्ण युद्ध करने में तत्पर था ऐसे किसी योद्धा ने जब देखा कि हमारे शत्रु के शस्त्र नीचे गिर गये हैं और वह निरस्त्र हो गया है तब वह स्वयं भी अपना शस्त्र छोड़कर अनिच्छा से शत्रु के सामने गया था ।।290।। कोई योद्धा धनुष के अग्रभाग में लगे एवं खून की बड़ी मोटी धाराओं की वर्षा करने वाले शत्रु के द्वारा ही दूसरे शत्रुओं को मार रहा था ।।291।। कोई एक योद्धा सिर कट जाने से यद्यपि कबंध दशा को प्राप्त हुआ था तथापि उसने शत्रु को दिशा में वेग से उछलते हुए सिर के द्वारा ही रुधिर की वर्षा कर शत्रु को मार डाला था ।।292।। जिसका चित्त गर्व से भर रहा था ऐसे किसी योद्धा का सिर यद्यपि कट गया था तो भी वह ओठों को डसता रहा और हुंकार से मुखर होता हुआ चिरकाल बाद नीचे गिरा था ।।293।। जो साँप के समान जान पड़ता था ऐसे किसी योद्धा ने गिरते समय उल्का के समान अत्यंत भयंकर अपनी दृष्टि शत्रु के शरीर पर डाली थी ।।294।। किसी पराक्रमी योद्धा ने शत्रु के द्वारा आधे काटे हुए अपने सिर को बायें हाथ से थाम लिया और दाहिने हाथ से शत्रु का सिर काटकर नीचे गिरा दिया ।।295।। किसी योद्धा का शस्त्र शत्रु तक नहीं पहुँच रहा था इसलिए क्रोध में आकर उसने उसे फेंक दिया और अर्गल के समान लंबी भुजा से ही शत्रु को मारने के लिए उद्यत हो गया ।।296।। किसी एक दयालु योद्धा ने देखा कि हमारा शत्रु सामने मूर्च्छित पड़ा है जब उसे सचेत करने के लिए जल आदि अन्य साधन न मिले तब उसने संभ्रम से युक्त हो वस्त्रों के छोर की वायु से शीतल किये गये अपने ही रुधिर से उसे बार-बार सींचना शुरू कर दिया ।।297।। क्रोध से काँपते हुए शूरवीर मनुष्यों को जब मूर्च्छा आती थी तब वे समझते थे कि विश्राम प्राप्त हुआ है, जब शस्त्रों को चोट लगती थी तब समझते थे कि सुख प्राप्त हुआ और जब मरण प्राप्त होता था तब समझते थे कि कृतकृत्यता प्राप्त हुई है ।।298।। इस प्रकार जब योद्धाओं के बीच महायुद्ध हो रहा था, ऐसा महायुद्ध कि जो भय को भी भय उत्पन्न करनेवाला था तथा उत्तम मनुष्यों को आनंद उत्पन्न करने में तत्पर था ।।299।। जहाँ हाथी अपनी सूँडो में कसकर वीर पुरुषों को अपनी ओर खींचते थे पर वे वीर पुरुष उनकी सूंड़ स्वयं काट डालते थे। जहाँ लोग घोड़ों को काटने के लिए उद्यत होते अवश्य थे पर वे वेगशाली घोड़े अपने खुरों के आघात से उन्हें वहीं गिरा देते थे ।।300।। जहाँ घोड़े सारथियों की प्रेरणा पाकर रथ खींचते थे पर उनसे उनका शरीर घायल हो जाता था। जहाँ मस्तक रहित बड़े-बड़े हाथी पड़े हुए थे और लोग उनपर पैर रखते हुए चलते थे ।।301।। जहाँ पैदल सिपाहियों के शरीर एक दूसरे के वेगपूर्ण आघात से खंडित हो रहे थे। जहाँ उत्तम योद्धा अपने हाथों से घोड़ों की पूँछ पकड़कर इतने जोर से खींचते थे कि वे निश्चल खड़े रह जाते थे ।।302।। जहाँ हाथों की चोट से हाथियों के गंड स्थल फट जाते थे तथा उनसे मोती निकलने लगते थे। जहाँ गिरते हुए हाथियों से रथ टूट जाते थे और उनकी चपेट में आकर अनेक योद्धा घायल होकर नीचे गिर जाते थे ।।303।। जहाँ लोगों की नासिकाओं के समूह पड़ते हुए खून के समूह से आच्छादित हो रहे थे अथवा जहाँ आकाश और दिशाओं के समूह खून के समूह से आच्छादित थे और जहाँ हाथियों के कानों की फटकार से प्रचंड वायु उत्पन्न हो रही थी ।।304।। इस प्रकार योद्धाओं के बीच भयंकर युद्ध हो रहा था पर युद्ध के कुतूहल से भरा वीर रावण उस युद्ध को ऐसा मान रहा था जैसा कि मानो कुछ हो ही न रहा हो। उसने अपने सुमति नामक सारथी से कहा कि उस इंद्र के सामने ही रथ ले जाया जाये क्योंकि जो हमारी समानता नहीं रखते ऐसे उसके अन्य सामंतों के मारने से क्या लाभ है? ।।305-306।। तृण के समान तुच्छ इन सामंतों पर न तो मेरा शस्त्र उठता है और न महाभटरूपी ग्रास के ग्रहण करने में तत्पर मेरा मन ही इनकी ओर प्रवृत्त होता है ।।307।। अपने आपकी विडंबना कराने वाले इस विद्याधर ने क्षुद्र अभिमान के वशीभूत हो अपने आपको जो इंद्र मान रखा है सो इसके उस इंद्रपना को आज मृत्यु के द्वारा दूर करता हूँ ।।308।। यह बड़ा इंद्र बना है, ये लोकपाल इसी ने बनाये हैं। यह अन्य मनुष्यों को देव मानता है और विजयार्ध पर्वत को स्वर्ग समझता है ।।309।। बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस प्रकार कोई दुर्बुद्धि नट उत्तम पुरुष का वेष धर अपने आपको भूला देता है उसी प्रकार यह दुर्बुद्धि क्षुद्र लक्ष्मी से मत्त होकर अपने आप को भुला रहा है तथा लोगों की हँसी का पात्र ही है ।।310।। शुक्र, शोणित, मांस, हड्डी और मज्जा आदि से भरे हुए माता के उदर में चिरकाल तक निवास कर यह अपने आपको देव मानने लगा है ।।311।। विद्या के बल से कुछ तो भी करता हुआ यह अधीर व्यक्ति अपने आपको देव समझ रहा है जो इसका यह कार्य ऐसा है कि जिस प्रकार कौआ अपने आपको गरुड़ समझने लगता है ।।312।। ऐसा कहते ही सुमति नाम के सारथी ने महाबलवान् सामंतों के द्वारा सुरक्षित रावण के रथ को इंद्र की सेना में प्रविष्ट कर दिया ।।313।। वहाँ जाकर रावण ने इंद्र के उन सामंतों को सरल दृष्टि से देखा कि जो युद्ध में असमर्थ होकर भाग रहे थे तथा कीड़ों के समान जिनकी दयनीय चेष्टाएँ थीं ।।314।। जिस प्रकार किनारे नीर के प्रवाह को नहीं रोक सकते हैं और जिस प्रकार मिथ्यादर्शन के साथ व्रताचरण करने वाले मनुष्य क्रोध सहित मन के वेग को नहीं रोक पाते हैं उसी प्रकार शत्रु भी रावण को आगे बढ़ने से नहीं रोक सके थे ।।315।। जिस प्रकार चंद्रमा का उदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार क्षीर समुद्र की आवर्त के समान धवल रावण का छत्र देखकर देवों की सेना न जाने कहाँ नष्ट हो गयी ।।316।। कैलास पर्वत के समान ऊँचे हाथी पर सवार हुआ इंद्र भी तरकस से बाण निकालता हुआ रावण के सम्मुख आया ।।317।। जिस प्रकार मेघ बड़ी मोटी धाराओं के समूह को किसी पर्वत पर छोड़ता है उसी प्रकार इंद्र भी कान तक खींचे हुए बाण रावण के ऊपर छोड़ने लगा ।।318।। इधर रावण ने भी इंद्र के उन बाणों को बीच में ही अपने बाणों से छेद डाला और अपने बाणों से समस्त आकाश में मंडप सा बना दिया ।।319।। इस प्रकार बाणों के द्वारा बाण छेदे-भेदे जाने लगे और सूर्य की किरणें इस तरह निर्मूल नष्ट हो गयीं मानो भय से कहीं जा छिपी हों ।।320।। इसी समय युद्ध के देखने से जिसे बहुत भारी हर्ष उत्पन्न हो रहा था ऐसा नारद जहाँ बाण नहीं पहुँच पाते थे वहाँ आनंदविभोर हो नृत्य कर रहा था ।।321।।
अथानंतर जब इंद्र ने देखा कि रावण सामान्य शस्त्रों से साध्य नहीं है तब उसने आग्नेय बाण चलाया ।।322।। वह आग्नेय बाण इतना विशाल था कि स्वयं आकाश ही उसका ईधन बन गया, धनुष आदि पौद्गलिक वस्तुओं के विषय में तो कहा ही क्या जा सकता है? ।।323।। जिस प्रकार बाँसों के वन के जलने पर विशाल शब्द होता है उसी प्रकार ज्वालाओं के समूह से भयंकर दिखने वाली आग्नेय बाण की अग्नि से विशाल शब्द हो रहा था।।324।। तदनंतर जब रावण ने अपनी सेना को आग्नेय बाण से आकुल देखा तब उसने शीघ्र ही वरुण शस्त्र चलाया ।।325।। उस बाण के प्रभाव से तत्क्षण ही महा मेघों का समूह उत्पन्न हो गया। वह मेघ समूह पर्वत के समान बड़ी मोटी धाराओं के समूह की वर्षा कर रहा था, गर्जना से सुशोभित था और ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के क्रोध से आकाश ही पिघल गया हो। ऐसे मेघ समूह ने इंद्र के उस अग्नि बाण को उसी क्षण संपूर्ण रूप से बुझा दिया ।।326-327।। तदनंतर इंद्र ने तामस बाण छोड़ा जिससे समस्त दिशाओं और आकाश में अंधकार ही अंधकार छा गया ।।328।। उस बाण ने रावण की सेना को इस प्रकार व्याप्त कर लिया कि वह अपना शरीर भी देखने में असमर्थ हो गयी फिर शत्रु की सेना को देखने की तो बात क्या थी? ।।329।। तब अवसर के योग्य वस्तु की योजना करने में निपुण रावण ने अपनी सेना को मोहग्रस्त देख प्रभास्त्र अर्थात् प्रकाश बाण छोड़ा ।।330।। सो जिस प्रकार जिन-शासन के तत्त्व से मिथ्यादृष्टियों का मत नष्ट हो जाता है उसी प्रकार उस प्रभास्त्र से क्षण-भर में ही वह समस्त अंधकार नष्ट हो गया ।।331।। तदनंतर रावण ने क्रोधवश नागास्त्र छोड़ा जिससे समस्त आकाश रत्नों से देदीप्यमान सर्पों से व्याप्त हो गया ।।332।। इच्छानुसार रूप धारण करने वाले उन बाणों ने जाकर इंद्र के शरीर को निश्चेष्ट कर दिया तथा सब उससे लिपट गये ।।333।। जो महा नीलमणि के समान श्याम थे, वलय का आकार धारण करने वाले थे और चंचल जिह्नाओं से भयंकर दिखते थे ऐसे सर्पों से इंद्र बड़ी आकुलता को प्राप्त हुआ ।।334।। जिस प्रकार कर्मजाल से घिरा प्राणी संसाररूपी सागर में विवश हो जाता है उसी प्रकार व्याल अर्थात् सर्पों से घिरा इंद्र विवशता को प्राप्त हो गया ।।335।। तदनंतर इंद्र ने गरुड़ास्त्र का ध्यान किया जिसके प्रभाव से उसी क्षण आकाश सुवर्णमय पंखों की कांति के समूह से पीला हो गया ।।336।। जिसका वेग अत्यंत तीव्र था ऐसी गरुड़ के पंखों की वायु से रावण की समस्त सेना ऐसी चंचल हो गयी मानो हिंडोला ही झूल रही हो ।।337।। गरुड़ की वायु का स्पर्श होते ही पता नहीं चला कि नाग बाण कहाँ चले गये। वे शरीर में कहां-कहाँ बँधे थे उन स्थानों का पता भी नहीं रहा ।।338।। गरुड का आलिंगन होने से जिसके समस्त बंधन दूर हो गये थे ऐसा इंद्र ग्रीष्मऋतु के सूर्य के समान भयंकर हो गया ।।339।। जब रावण ने देखा कि इंद्र नागपाश से छूट गया है तब वह जिससे मद झर रहा थे ऐसे त्रिलोकमंडन नामक विजयी हाथी पर सवार हुआ ।।340।। उधर से इंद्र भी क्रोधवश अपना ऐरावत हाथी रावण के निकट ले आया। तदनंतर बहुत भारी गर्व को धारण करने वाले दोनों हाथियों में महायुद्ध हुआ ।।341।। जिनसे मद झर रहा था, जो चमकती हुई स्वर्ण की माला रूपी बिजली के सहित थे तथा जो लगातार विशाल गर्जना कर रहे थे ऐसे दोनों हाथी मेघ का आकार धारण कर रहे थे ।।342।। परस्पर के दाँतों के आघात से ऐसा लगता था मानो भयंकर वज्र गिर रहे हों और उनसे शब्दायमान हो समस्त संसार कंपित हो रहा हो ।।343।। जिनका शरीर अत्यंत चंचल था तथा वेग भारी था ऐसे दोनों हाथी अपनी मोटी सूँडो को फैलाते, सिकोड़ते और ताड़ित कर रहे थे ।।344।। साफ-साफ दिखने वाली पुतलियों से जिनके नेत्र अत्यंत क्रूर जान पड़ते थे, जिनके कान खड़े थे और जो महाबल से युक्त थे ऐसे दोनों हाथियों ने बहुत भारी युद्ध किया ।।345।।
तदनंतर शक्तिशाली रावण ने उछलकर अपना पैर इंद्र के हाथी के मस्तक पर रखा और बड़ी शीघ्रता से पैर की ठोकर देकर सारथी को नीचे गिरा दिया। बार-बार आश्वासन देते हुए रावण ने इंद्र को वस्त्र से कसकर बाँध अपने हाथी पर चढा लिया ।।346-347।। उधर इंद्रजित् ने भी जयंत को बाँधकर किंकरों के लिए सौंप दिया। तदनंतर विजय से जिसका उत्साह बढ़ रहा था तथा जो शत्रुओं को संतृप्त कर रहा था ऐसा इंद्रजित् देवों की सेना के सम्मुख दौड़ा। उसे दौड़ता देख शत्रुओं को संताप पहुँचाने वाले रावण ने कहा कि हे वत्स! अब प्रयत्न करना व्यर्थ है, युद्ध के आदर से निवृत्त होओ, विजयार्धवासी लोगों की इस सेना का सिर अपने हाथ लग चुका है ।।348―350।। इसके हाथ लग चुकने पर दूसरा कौन हलचल कर सकता है? ये क्षुद्र सामंत जीवित रहें और अपने इच्छित स्थान पर जावें ।।351।। जब धान के समूह से चावल निकाल लिये जाते हैं तब छिलकों के समूह को अकारण ही छोड़ देते हैं ।।352।। रावण के इस प्रकार कहने पर इंद्रजित् युद्ध के उत्साह से निवृत्त हुआ। उस समय राजाओं का बड़ा भारी समूह इंद्रजित् को घेरे हुए था ।।353।।
तदनंतर जिस प्रकार शरद्ऋतु के बादलों का बड़ा लंबा समूह क्षण-भर में विशीर्ण हो जाता है उसी प्रकार इंद्र की सेना क्षणभर में विशीर्ण हो गयी- इधर-उधर बिखर गयी ।।354।। रावण की सेना में उत्तमोत्तम पटल, शंख, झर्झर बाजे तथा वंदीजनों के समूह के द्वारा बड़ा भारी जयनाद किया गया ।।355।। उस जयनाद से इंद्र को पकड़ा जानकर रावण की सेना निराकुल हो गयी ।।356।। तदनंतर परम विभूति से युक्त रावण, सेना से आकाश को आच्छादित करता हुआ लंका को ओर चला। उस समय वह बड़ा संतुष्ट था ।।357।। जो सूर्य के रथ के समान थे, ध्वजाओं से सुशोभित थे और नाना रत्नों की किरणों से जिन पर इंद्रधनुष उत्पन्न हो रहे थे ऐसे रथ उसके साथ थे ।।358।। जो हिलते हुए सुंदर चमरों के समूह से सुशोभित थे, निश्चिंतता से किये हुए अनेक विलासों से मनोहर थे तथा नृत्य करते हुए से जान पड़ते थे ऐसे घोड़े उसकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।359।। जिनके गले में विशाल शब्द करने वाले घंटा बँधे हुए थे, जिनसे मद के झरने झर रहे थे, जो मधुर गर्जना कर रहे थे तथा भ्रमरों की पंक्ति जिनकी उपासना कर रही थी ऐसे हाथी उसके साथ थे ।।360।। इनके अपनी-अपनी सवारियों पर बैठे हुए बड़ी-बडी सेनाओं के अधिपति विद्याधर उसके साथ चल रहे थे। इन सबके साथ रावण क्षण-भर में ही लंका के समीप जा पहुँचा ।।361।। तब रावण को निकट आया जान नगर की रक्षा करने वाले लोग पुरवासी और भाई―बांधव उत्सुक हो अर्घ ले-लेकर बाहर निकले ।।362।। तदनंतर कितने ही लोगों ने रावण की पूजा की तथा रावण ने भी कितने ही वृद्धजनों की पूजा की। कितने ही लोगों ने रावण को नमस्कार किया और रावण ने भी कितने ही वृद्धजनों को मदरहित हो नमस्कार किया ।।363।। लोगों की विशेषता को जाननेवाला तथा नम्र मनुष्यों से स्नेह रखने वाला रावण कितने ही मनुष्यों को स्नेहपूर्ण दृष्टि से सम्मानित करता था। कितने ही लोगों को मंद मुसकान से और कितने ही लोगों को मनोहर वचनों से समादृत कर रहा था ।।364।। तदनंतर जो स्वभाव से ही सुंदर थी तथा उस सभय विशेषकर सजायी गयी थी, जिसमें रत्न निर्मित बड़े ऊंचे-ऊंचे तोरण खड़े किये गये थे ।।365।। जो मंद-मंद वायु से हिलती हुई रंग―बिरंगी ध्वजाओं से युक्त थी, केशर आदि मनोज्ञ वस्तुओं से मिश्रित जल से जहाँ की समस्त पृथिवी सींची गयी थी ।।366।। जो सब ऋतुओं के फूलों से व्याप्त राजमार्गों से सुशोभित थी, काले, पीले, नीले, लाल, हरे आदि पंचवर्णीय चूर्ण से निर्मित अनेक वेल-बूटों से जो अलंकृत थी ।।367।। जिसके दरवाजों पर पूर्ण कलश रखे गये थे, जो महाकांति से युक्त थी, सरस पल्लवों की जिसमें वंदन―मालाएँ बाँधी गयी थीं, जो उत्तमोत्तम वस्त्रों से विभूषित थी तथा जहाँ बहुत भारी उत्सव हो रहा था ऐसी लंकानगरी में रावण ने प्रवेश किया ।।368।। जिस प्रकार अनेक देवों से इंद्र घिरा होता ह उसी प्रकार रावण भी अनेक विद्याधरों से घिरा था। उस समय वह अपने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से उत्तम सुख को प्राप्त हो रहा था ।।369।। अत्यंत सुंदर तथा इच्छानुकूल गमन करने वाले पुष्पक विमान पर सवार था। उसके मुकुट में बड़े-बडे रत्न देदीप्यमान हो रहे थे तथा उसकी भुजाएँ बाजूबंदों से सुशोभित थीं ।।370।। जिसकी उज्ज्वल प्रभा सब ओर फैल रही थी ऐसे हार को वह वक्षःस्थल पर धारण कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो उत्पन्न हुए फूलों के समूह से सुशोभित वसंत ऋतु ही हो ।।371।। जो अतृप्ति कर हर्ष से पूर्ण थीं तथा धीरे-धीरे चमर ऊपर उठा रही थीं ऐसी स्त्रियां हाव-भावपूर्वक उसे देख रही थीं ।।372।। वह नाना प्रकार के बाजों के शब्द तथा मनोहर जय-जयकार से आनंदित हो रहा था और नृत्य करती हुई उत्तमोत्तम वेश्याओं से सहित था ।।373।। इस प्रकार उसने बडी प्रसन्नता से, अनेक महोत्सवों से भरी लंका में प्रवेश किया और बंधुजन तथा भृत्य समूह से अभिनंदित हो अपने भवन में भी पदार्पण किया ।।374।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि जिसने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से सब प्रकार को तैयारी से युक्त समस्त शत्रुओं को तृण के समान जीतकर उत्तम वैभव प्राप्त किया था ऐसा इंद्र विद्याधर पुण्यकर्म के क्षीण होने पर कांतिहीन तथा विभव से रहित हो गया सो इस अत्यंत चंचल मनुष्य के सुख को धिक्कार है ।।375।। तथा विद्याधर रावण अपने सोपार्जित पुण्य कर्म के प्रभाव से समस्त बलवान् शत्रुओं को निर्मूल नष्ट कर वृद्धि को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार के समस्त कार्य कर्मजनित हैं ऐसा जानकर है भव्यजनों! अन्य पदार्थो में आसक्ति छोड़कर सूर्य के समान कांति को उत्पन्न करने वाले एक पुण्य कर्म का ही संचय करो ।।376।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में इंद्र विद्याधर के पराभव का वर्णन करनेवाला बारहवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।12।।