पद्मपुराण - पर्व 14: Difference between revisions
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<p>जो शब्द आदि विषयों में अत्यंत आसक्ति करते हैं ऐसे मायावी जीव तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं ।।34।।<span id="35" /> उस तिर्यंच गति में जीव एक दूसरे को मार डालते हैं। मनुष्य विविध प्रकार के शस्त्रों से उनका घात करते हैं तथा स्वयं भार ढोना एवं दोहा जाना आदि कार्यों से महादुःख पाते हैं ।।35।।<span id="36" /> संसारके संकट में भ्रमण करता हुआ यह जीव स्थल में, जल में, पहाड़ पर, वृक्ष पर और अन्यान्य सघन स्थानों में सोया है ।।36।।<span id="37" /> यह जीव अनादि काल से एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रियों में उत्पन्न होता हुआ जन्म-मरण कर रहा है ।।37।।<span id="38" /> ऐसा तिलमात्र भी स्थान बाकी नहीं है जहाँ संसाररूपी भँवर में पड़े हुए इस जीव ने जन्म और मरण प्राप्त न किया हो ।।38।।<span id="39" /> यदि कोई प्राणी मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही संतोष प्राप्त करते हैं तो वे मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं ।।39।।<span id="40" /> मनुष्य गति में भी मोही जीव परम सुख के कारणभूत कल्याण मार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं ।।40।।<span id="41" /> </p> | <p>जो शब्द आदि विषयों में अत्यंत आसक्ति करते हैं ऐसे मायावी जीव तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं ।।34।।<span id="35" /> उस तिर्यंच गति में जीव एक दूसरे को मार डालते हैं। मनुष्य विविध प्रकार के शस्त्रों से उनका घात करते हैं तथा स्वयं भार ढोना एवं दोहा जाना आदि कार्यों से महादुःख पाते हैं ।।35।।<span id="36" /> संसारके संकट में भ्रमण करता हुआ यह जीव स्थल में, जल में, पहाड़ पर, वृक्ष पर और अन्यान्य सघन स्थानों में सोया है ।।36।।<span id="37" /> यह जीव अनादि काल से एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रियों में उत्पन्न होता हुआ जन्म-मरण कर रहा है ।।37।।<span id="38" /> ऐसा तिलमात्र भी स्थान बाकी नहीं है जहाँ संसाररूपी भँवर में पड़े हुए इस जीव ने जन्म और मरण प्राप्त न किया हो ।।38।।<span id="39" /> यदि कोई प्राणी मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही संतोष प्राप्त करते हैं तो वे मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं ।।39।।<span id="40" /> मनुष्य गति में भी मोही जीव परम सुख के कारणभूत कल्याण मार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं ।।40।।<span id="41" /> </p> | ||
<p>अपने पूर्वोपार्जित कर्मो के अनुसार कोई आर्य होते हैं और कोई म्लेच्छ होते हैं। कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यंत दरिद्र होते हैं ।।41।।<span id="42" /> कर्मों से घिरे कितने ही प्राणी सैकड़ों मनोरथ करते हुए दूसरे के घरों में बड़ी कठिनाई से समय बिताते हैं ।।42।।<span id="43" /> कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होते हैं, कोई रूपवान् होकर भी निर्धन रहते हैं, कोई दीर्घायु होते हैं और कोई अल्पायु होते हैं ।।43।।<span id="44" /> कोई सबको प्रिय तथा यश के धारक होते हैं, कोई अत्यंत अप्रिय होते हैं, कोई आज्ञा देते हैं और कोई उस आज्ञा का पालन करते हैं ।।44।।<span id="45" /> कोई रण में प्रवेश करते हैं, कोई पानी में गोता लगाते हैं, कोई विदेश में जाते हैं और कोई खेती आदि करते हैं ।।45।।<span id="46" /> इस प्रकार मनुष्य गति में भी सुख और दुःख की विचित्रता देखी जाती है। वास्तव में तो सब दुःख ही है सुख तो कल्पना मात्र है ।।46।।<span id="47" /><span id="48" /></p> | <p>अपने पूर्वोपार्जित कर्मो के अनुसार कोई आर्य होते हैं और कोई म्लेच्छ होते हैं। कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यंत दरिद्र होते हैं ।।41।।<span id="42" /> कर्मों से घिरे कितने ही प्राणी सैकड़ों मनोरथ करते हुए दूसरे के घरों में बड़ी कठिनाई से समय बिताते हैं ।।42।।<span id="43" /> कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होते हैं, कोई रूपवान् होकर भी निर्धन रहते हैं, कोई दीर्घायु होते हैं और कोई अल्पायु होते हैं ।।43।।<span id="44" /> कोई सबको प्रिय तथा यश के धारक होते हैं, कोई अत्यंत अप्रिय होते हैं, कोई आज्ञा देते हैं और कोई उस आज्ञा का पालन करते हैं ।।44।।<span id="45" /> कोई रण में प्रवेश करते हैं, कोई पानी में गोता लगाते हैं, कोई विदेश में जाते हैं और कोई खेती आदि करते हैं ।।45।।<span id="46" /> इस प्रकार मनुष्य गति में भी सुख और दुःख की विचित्रता देखी जाती है। वास्तव में तो सब दुःख ही है सुख तो कल्पना मात्र है ।।46।।<span id="47" /><span id="48" /></p> | ||
<p>कोई जीव सरागसंयम तथा | <p>कोई जीव सरागसंयम तथा संयमासंयम के धारक होते हैं, कोई अकाम निर्जरा करते हैं और कोई बाल तप करते हैं ऐसे जीव भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चार भेदों से युक्त देव गति में उत्पन्न होते हैं सो वहाँ भी कितने ही महाऋद्धियों के धारक होते हैं और कितने ही अल्प ऋद्धियों के धारक ।।47-48।।<span id="49" /><span id="50" /> स्थिति, कांति, प्रभाव, बुद्धि, सुख, लेश्या, अभिमान और मान के अनुसार वे पुनः कर्मों का बंध कर चतुर्गंति रूप संसार में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। जिस प्रकार अरघट की घड़ी निरंतर घूमती रहती है इसी प्रकार ये प्राणी भी निरंतर घूमते रहते हैं ।।49-50।।<span id="51" /> यह जीव अशुभ संकल्प से दुःख पाता है, शुभ संकल्प से सुख पाता है और अष्ट कर्मों के क्षय से मोक्ष प्राप्त करता है ।।51।।<span id="52" /> </p> | ||
<p>पात्र की विशेषता से अनेक रूपता को प्राप्त हुए जीव दान के प्रभाव से भोग भूमियों में भोगों को प्राप्त होते हैं ।।52।।<span id="53" /> जो प्राणि हिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और राग-द्वेष से शून्य हैं उन्हें जिनेंद्र भगवान् ने उत्तम पात्र कहा है ।।53।।<span id="54" /> जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध है ऐसा पात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि उससे मिथ्यादृष्टि दाता के शरीर की शुद्धि होती है ।।54।।<span id="55" /> जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है। ‘पातीति पात्रम्’ इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थं है। चूंकि मुनि, सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते हैं अतः पात्र हैं ।।55।।<span id="56" /> जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सहित होता है वह उत्तम कहलाता है ।।56।।<span id="57" /> जो मान, अपमान, सुख-दुःख और तृण-कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साधु पात्र कहलाता है ।।57।।<span id="58" /> जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महा तपश्चरण में लीन हैं और तत्त्वों के ध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे श्रमण अर्थात् मुनि उत्तम पात्र कहलाते हैं ।।58।।<span id="59" /> उन मुनियों के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भावपूर्वक जो भी अन्न, पान, औषधि अथवा उपयोग में आने वाले पीछी, कमंडलु आदि अन्य पदार्थं दिये जाते हैं वे महाफल प्रदान करते हैं ।।59।।<span id="60" /> जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया हुआ बीज अत्यधिक संपदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुआ दान अत्यधिक संपदा प्रदान करता है ।।60।।<span id="61" /> जो राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल ही देता है अतः उसके फल का विचार करना दूर की बात है ।।61।।<span id="62" /> </p> | <p>पात्र की विशेषता से अनेक रूपता को प्राप्त हुए जीव दान के प्रभाव से भोग भूमियों में भोगों को प्राप्त होते हैं ।।52।।<span id="53" /> जो प्राणि हिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और राग-द्वेष से शून्य हैं उन्हें जिनेंद्र भगवान् ने उत्तम पात्र कहा है ।।53।।<span id="54" /> जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध है ऐसा पात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि उससे मिथ्यादृष्टि दाता के शरीर की शुद्धि होती है ।।54।।<span id="55" /> जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है। ‘पातीति पात्रम्’ इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थं है। चूंकि मुनि, सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते हैं अतः पात्र हैं ।।55।।<span id="56" /> जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सहित होता है वह उत्तम कहलाता है ।।56।।<span id="57" /> जो मान, अपमान, सुख-दुःख और तृण-कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साधु पात्र कहलाता है ।।57।।<span id="58" /> जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महा तपश्चरण में लीन हैं और तत्त्वों के ध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे श्रमण अर्थात् मुनि उत्तम पात्र कहलाते हैं ।।58।।<span id="59" /> उन मुनियों के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भावपूर्वक जो भी अन्न, पान, औषधि अथवा उपयोग में आने वाले पीछी, कमंडलु आदि अन्य पदार्थं दिये जाते हैं वे महाफल प्रदान करते हैं ।।59।।<span id="60" /> जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया हुआ बीज अत्यधिक संपदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुआ दान अत्यधिक संपदा प्रदान करता है ।।60।।<span id="61" /> जो राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल ही देता है अतः उसके फल का विचार करना दूर की बात है ।।61।।<span id="62" /> </p> | ||
<p>जिस प्रकार ऊषर जमीन में बीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादर्शन से सहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उससे कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता ।।62।।<span id="63" /> एक कुएँ से निकाले हुए पानी को यदि ईख के पौधे पीते हैं तो वह माधुर्य को प्राप्त होता है और यदि नीम के पौधे पीते हैं तो कड़आ हो जाता है ।।63।।<span id="64" /> अथवा जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने पानी पिया और सांप ने भी। गाय के द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और साँप के द्वारा पिया पानी विष हो जाता है, उसी प्रकार एक ही गृहस्थ से उत्तम पात्र ने दान लिया और नीच पात्र ने भी। जो दान उत्तम पात्र को प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्र को प्राप्त होता है उसका फल नीचा होता है ।।64।।<span id="65" /> कोई-कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त होते हैं ऐसे पात्रों के लिए भाव से जो दान दिया जाता है उसका फल शुभ-अशुभ अर्थात् मिश्रित प्रकार का होता है ।।65।।<span id="66" /> दीन तथा अंधे आदि मनुष्यों के लिए करुणा दान कहा गया है और उससे यद्यपि फल की भी प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता ।।66।।<span id="67" /> सभी वेषधारी प्रयत्न पूर्वक अपने अनुकूल धर्म का उपदेश देते हैं पर उत्तम हृदय के धारक मनुष्यों को विशेषकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ।।67।।<span id="68" /> काम-क्रोधादि से युक्त तथा अपनी समानता रखने वाले गृहस्थों के लिए जो द्रव्य दिया जाता है उसका क्या फल भोगने को मिलता है? सो कहा नहीं जा सकता ।।68।।<span id="69" /></p> | <p>जिस प्रकार ऊषर जमीन में बीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादर्शन से सहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उससे कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता ।।62।।<span id="63" /> एक कुएँ से निकाले हुए पानी को यदि ईख के पौधे पीते हैं तो वह माधुर्य को प्राप्त होता है और यदि नीम के पौधे पीते हैं तो कड़आ हो जाता है ।।63।।<span id="64" /> अथवा जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने पानी पिया और सांप ने भी। गाय के द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और साँप के द्वारा पिया पानी विष हो जाता है, उसी प्रकार एक ही गृहस्थ से उत्तम पात्र ने दान लिया और नीच पात्र ने भी। जो दान उत्तम पात्र को प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्र को प्राप्त होता है उसका फल नीचा होता है ।।64।।<span id="65" /> कोई-कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त होते हैं ऐसे पात्रों के लिए भाव से जो दान दिया जाता है उसका फल शुभ-अशुभ अर्थात् मिश्रित प्रकार का होता है ।।65।।<span id="66" /> दीन तथा अंधे आदि मनुष्यों के लिए करुणा दान कहा गया है और उससे यद्यपि फल की भी प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता ।।66।।<span id="67" /> सभी वेषधारी प्रयत्न पूर्वक अपने अनुकूल धर्म का उपदेश देते हैं पर उत्तम हृदय के धारक मनुष्यों को विशेषकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ।।67।।<span id="68" /> काम-क्रोधादि से युक्त तथा अपनी समानता रखने वाले गृहस्थों के लिए जो द्रव्य दिया जाता है उसका क्या फल भोगने को मिलता है? सो कहा नहीं जा सकता ।।68।।<span id="69" /></p> | ||
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<p>लोक में यह कार्य तो बिलकुल ही त्यागने योग्य है कि दिन भर तो भूख से अपनी आत्मा को पीड़ा पहुँचाते हैं और रात्रि को भोजन कर संचित पुण्य को तत्काल नष्ट कर देते हैं ।।267।।<span id="268" /> रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन लोगों ने धर्म मान रखा है, उनके हृदय पाप कर्म से अत्यंत कठोर हैं उनका समझना कठिन है ।।268।।<span id="269" /> सूर्य के अदृश हो जाने पर जो लंपटी- पापी मनुष्य भोजन करता है वह दुर्गति को नहीं समझता ।।269।।<span id="270" /> जिसके नेत्र अंधकार के पटल से आच्छादित हैं और बुद्धि पाप से लिप्त है ऐसे पापी प्राणी रात के समय मक्खी, कीड़े तथा बाल आदि हानिकारक पदार्थ खा जाते हैं ।।270।।<span id="271" /> जो रात्रि में भोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत, भूत आदि नीच प्राणियों के साथ भोजन करता है ।।271।।<span id="272" /> जो रात्रि में भोजन करता है वह कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करता है ।।272।।<span id="273" /> अथवा अधिक कहने से क्या? संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रात में भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है ।।273।।<span id="274" /> सूर्य के अस्त हो जाने पर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानों ने मनुष्यता से बँधे हुए पशु कहा है ।।274।।<span id="275" /> जो जिन शासन से विमुख होकर रात-दिन चाहे जब खाता रहता है वह नियम रहित अव्रती मनुष्य परलोक में सुखी कैसे हो सकता है? ।।275।।<span id="276" /> </p> | <p>लोक में यह कार्य तो बिलकुल ही त्यागने योग्य है कि दिन भर तो भूख से अपनी आत्मा को पीड़ा पहुँचाते हैं और रात्रि को भोजन कर संचित पुण्य को तत्काल नष्ट कर देते हैं ।।267।।<span id="268" /> रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन लोगों ने धर्म मान रखा है, उनके हृदय पाप कर्म से अत्यंत कठोर हैं उनका समझना कठिन है ।।268।।<span id="269" /> सूर्य के अदृश हो जाने पर जो लंपटी- पापी मनुष्य भोजन करता है वह दुर्गति को नहीं समझता ।।269।।<span id="270" /> जिसके नेत्र अंधकार के पटल से आच्छादित हैं और बुद्धि पाप से लिप्त है ऐसे पापी प्राणी रात के समय मक्खी, कीड़े तथा बाल आदि हानिकारक पदार्थ खा जाते हैं ।।270।।<span id="271" /> जो रात्रि में भोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत, भूत आदि नीच प्राणियों के साथ भोजन करता है ।।271।।<span id="272" /> जो रात्रि में भोजन करता है वह कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करता है ।।272।।<span id="273" /> अथवा अधिक कहने से क्या? संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रात में भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है ।।273।।<span id="274" /> सूर्य के अस्त हो जाने पर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानों ने मनुष्यता से बँधे हुए पशु कहा है ।।274।।<span id="275" /> जो जिन शासन से विमुख होकर रात-दिन चाहे जब खाता रहता है वह नियम रहित अव्रती मनुष्य परलोक में सुखी कैसे हो सकता है? ।।275।।<span id="276" /> </p> | ||
<p>जो पापी मनुष्य दया रहित होकर जिनेंद्र देव की निंदा करता है वह अन्य शरीर में जाकर दुर्गंधित मुख वाला होता है अर्थात् पर भव में उसके मुख से दुर्गंध आती है ।।276।।<span id="277" /> जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रि भोजन, चोरी और परस्त्री का सेवन करता है वह अपने दोनों भवों को नष्ट करता है ।।277।।<span id="278" /> जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह पर भव में अल्पायु, निर्धन, रोगी और सुख रहित अर्थात् दुःखी होता है ।।278।।<span id="279" /> रात्रि में भोजन करने से यह जीव दीर्घ काल तक निरंतर जन्म-मरण प्राप्त करता रहता है और गर्भवास में दुःख से पकता रहता है ।।279।।<span id="280" /> रात्रि में भोजन करने वाला मिथ्यादृष्टि पुरुष शूकर, भेड़िया, बिलाव, हंस तथा कौआ आदि योनियों में दीर्घ काल तक उत्पन्न होता रहता है ।।280।।<span id="281" /> जो दुर्बुद्धि रात्रि में भोजन करता है वह हजारों उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक कुयोनियों में दुःख उठाता रहता है ।।281।।<span id="282" /> जो जैन धर्म पाकर उसके नियमों में अटल रहता है वह समस्त पापों को जलाकर उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ।।282।।<span id="283" /> रत्नत्रय के धारक तथा अणुव्रतों का पालन करने में तत्पर भव्य जीव सूर्योदय होने पर ही निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं ।।283।।<span id="284" /> जो दयालु मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते वे पाप हीन मनुष्य स्वर्ग में विमानों के अधिपति होकर उत्कृष्ट भोग प्राप्त करते हैं ।।284।।<span id="285" /> वहाँ से च्युत होकर तथा उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर चक्रवर्ती आदि के विभव से प्राप्त होने वाले सुख का उपभोग करते हैं ।।285।।<span id="286" /> शुभ चेष्टाओं के धारक पुरुष सोधर्मादि स्वर्गों में मन में विचार आते ही उपस्थित होने वाले उत्कृष्ट भोगों तथा अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं ।।286।।<span id="287" /> दिन में भोजन करने से मनुष्य जगत का हित करने वाले महामंत्री, राजा, पीठ मर्द तथा सर्व लोकप्रिय व्यक्ति होते हैं ।।287।।<span id="288" /> धनवान्, गुणवान्, रूपवान्, दीर्घायुष्क, रत्नत्रय से युक्त तथा प्रधान पद पर आसीन व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।288।।<span id="289" /> जिनका तेज युद्ध में असह्य है, जो नगर आदि के अधिपति हैं, विचित्र वाहनों से सहित हैं तथा सामंत गण जिनका सत्कार करते हैं ऐसे पुरुष भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।289।।<span id="290" /> इतना ही नहीं, भवनेंद्र, देवेंद्र, चक्रवर्ती और महालक्षणों से संपन्न व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।290।।<span id="291" /> जो रात्रि भोजन त्याग व्रत में उद्यत रहते हैं वे सूर्य के समान प्रभावान्, चंद्रमा के समान सौम्य और स्थायी भोगों से युक्त होते हैं ।।291।।<span id="292" /> </p> | <p>जो पापी मनुष्य दया रहित होकर जिनेंद्र देव की निंदा करता है वह अन्य शरीर में जाकर दुर्गंधित मुख वाला होता है अर्थात् पर भव में उसके मुख से दुर्गंध आती है ।।276।।<span id="277" /> जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रि भोजन, चोरी और परस्त्री का सेवन करता है वह अपने दोनों भवों को नष्ट करता है ।।277।।<span id="278" /> जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह पर भव में अल्पायु, निर्धन, रोगी और सुख रहित अर्थात् दुःखी होता है ।।278।।<span id="279" /> रात्रि में भोजन करने से यह जीव दीर्घ काल तक निरंतर जन्म-मरण प्राप्त करता रहता है और गर्भवास में दुःख से पकता रहता है ।।279।।<span id="280" /> रात्रि में भोजन करने वाला मिथ्यादृष्टि पुरुष शूकर, भेड़िया, बिलाव, हंस तथा कौआ आदि योनियों में दीर्घ काल तक उत्पन्न होता रहता है ।।280।।<span id="281" /> जो दुर्बुद्धि रात्रि में भोजन करता है वह हजारों उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक कुयोनियों में दुःख उठाता रहता है ।।281।।<span id="282" /> जो जैन धर्म पाकर उसके नियमों में अटल रहता है वह समस्त पापों को जलाकर उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ।।282।।<span id="283" /> रत्नत्रय के धारक तथा अणुव्रतों का पालन करने में तत्पर भव्य जीव सूर्योदय होने पर ही निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं ।।283।।<span id="284" /> जो दयालु मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते वे पाप हीन मनुष्य स्वर्ग में विमानों के अधिपति होकर उत्कृष्ट भोग प्राप्त करते हैं ।।284।।<span id="285" /> वहाँ से च्युत होकर तथा उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर चक्रवर्ती आदि के विभव से प्राप्त होने वाले सुख का उपभोग करते हैं ।।285।।<span id="286" /> शुभ चेष्टाओं के धारक पुरुष सोधर्मादि स्वर्गों में मन में विचार आते ही उपस्थित होने वाले उत्कृष्ट भोगों तथा अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं ।।286।।<span id="287" /> दिन में भोजन करने से मनुष्य जगत का हित करने वाले महामंत्री, राजा, पीठ मर्द तथा सर्व लोकप्रिय व्यक्ति होते हैं ।।287।।<span id="288" /> धनवान्, गुणवान्, रूपवान्, दीर्घायुष्क, रत्नत्रय से युक्त तथा प्रधान पद पर आसीन व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।288।।<span id="289" /> जिनका तेज युद्ध में असह्य है, जो नगर आदि के अधिपति हैं, विचित्र वाहनों से सहित हैं तथा सामंत गण जिनका सत्कार करते हैं ऐसे पुरुष भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।289।।<span id="290" /> इतना ही नहीं, भवनेंद्र, देवेंद्र, चक्रवर्ती और महालक्षणों से संपन्न व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।290।।<span id="291" /> जो रात्रि भोजन त्याग व्रत में उद्यत रहते हैं वे सूर्य के समान प्रभावान्, चंद्रमा के समान सौम्य और स्थायी भोगों से युक्त होते हैं ।।291।।<span id="292" /> </p> | ||
<p>रात्रि में भोजन करने से स्त्रियाँ अनाथ, दुर्भाग्यशाली, मातापिता भाई से रहित तथा शोक और दारिद्र्य से युक्त होती हैं ।।292।।<span id="293" /><span id="294" /><span id="295" /><span id="296" /> जिनकी नाक चपटी है, जिनका देखना ग्लानि उत्पन्न करता है, जिनके नेत्र कीचड़ से युक्त हैं, जो अनेक दुष्ट लक्षणों से सहित हैं। जिनके शरीर से दुर्गंध आती रहती है, जिनके ओठ फटे और मोटे हैं, कान खड़े हैं, शिर के बाल पीले तथा चटके हैं, दाँत तूँबड़ी के बीज के समान हैं और शरीर सफेद है, जो कानी, शिथिल तथा कांतिहीन हैं, रूपरहित हैं, जिनका चर्म कठोर है। जो अनेक रोगों से युक्त तथा मलिन हैं, जिनके वस्त्र फटे हैं, जो गंदा भोजन खाकर जीवित रहती हैं और जिन्हें दूसरे की नौकरी करनी पड़ती है, ऐसी स्त्रियां रात्रि भोजन के ही पाप से होती हैं ।।293-296।।<span id="297" /> रात्रि भोजन में तत्पर रहने वाली स्त्रियाँ बूचे नकटे और धन तथा भाई-बंधुओं से रहित पति को प्राप्त होती हैं ।।297।।<span id="298" /><span id="299" /> जो दुःख के भार से निरंतर आक्रांत रहती हैं, बाल अवस्था में ही विधवा हो जाती हैं, पानी, | <p>रात्रि में भोजन करने से स्त्रियाँ अनाथ, दुर्भाग्यशाली, मातापिता भाई से रहित तथा शोक और दारिद्र्य से युक्त होती हैं ।।292।।<span id="293" /><span id="294" /><span id="295" /><span id="296" /> जिनकी नाक चपटी है, जिनका देखना ग्लानि उत्पन्न करता है, जिनके नेत्र कीचड़ से युक्त हैं, जो अनेक दुष्ट लक्षणों से सहित हैं। जिनके शरीर से दुर्गंध आती रहती है, जिनके ओठ फटे और मोटे हैं, कान खड़े हैं, शिर के बाल पीले तथा चटके हैं, दाँत तूँबड़ी के बीज के समान हैं और शरीर सफेद है, जो कानी, शिथिल तथा कांतिहीन हैं, रूपरहित हैं, जिनका चर्म कठोर है। जो अनेक रोगों से युक्त तथा मलिन हैं, जिनके वस्त्र फटे हैं, जो गंदा भोजन खाकर जीवित रहती हैं और जिन्हें दूसरे की नौकरी करनी पड़ती है, ऐसी स्त्रियां रात्रि भोजन के ही पाप से होती हैं ।।293-296।।<span id="297" /> रात्रि भोजन में तत्पर रहने वाली स्त्रियाँ बूचे नकटे और धन तथा भाई-बंधुओं से रहित पति को प्राप्त होती हैं ।।297।।<span id="298" /><span id="299" /> जो दुःख के भार से निरंतर आक्रांत रहती हैं, बाल अवस्था में ही विधवा हो जाती हैं, पानी, लकड़ी आदि ढो-ढो कर पेट भरती हैं, अपना पेट बड़ी कठिनाई से भर पाती हैं, सब लोग जिनका तिरस्कार करते हैं, जिनका चित्त वचन रूपी बसूला से नष्ट होता रहता है और जिनके शरीर में सैकड़ों घाव लगे रहते हैं, ऐसी स्त्रियाँ रात्रि भोजन के कारण ही होती हैं ।।298-299।।<span id="300" /><span id="301" /> </p> | ||
<p>जो स्त्रियां शांत चित्त, शील सहित मुनिजनों का हित करने वाली और रात्रि भोजन से विरत रहती हैं वे स्वर्ग में यथेच्छ भोग प्राप्त करती हैं। शिर पर हाथ रखकर आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाले परिवार के लोग उन्हें सदा घेरे रहते हैं ।।300-301।।<span id="302" /> स्वर्ग से च्युत होकर वे वैभवशाली उच्च कुल में उत्पन्न होती हैं, शुभ लक्षणों से युक्त तथा समस्त गुणों से सहित होती हैं ।।302।।<span id="303" /> अनेक कलाओं में निपुण रहती हैं, उनके शरीर नेत्र और मन में स्नेह उत्पन्न करने वाले होते हैं, अपने वचनों से मानो वे अमृत छोड़ती हैं, समस्त लोगों को आनंदित करती हैं ।।303।।<span id="304" /> विद्याधरों के अधिपति, नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती भी उनमें उत्कंठित रहते हैं- उन्हें प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं ।।304।।<span id="305" /> जिनके शरीर की कांति बिजली तथा लाल कमल के समान मनोहारी है, जिनके सुंदर कुंडल सदा हिलते रहते हैं तथा राजाओं के साथ जिनके विवाह संबंध होते हैं ऐसी स्त्रियाँ दिन में भोजन करने से ही होती हैं ।।305।।<span id="306" /> जो दयावती स्त्रियाँ रात्रि में भोजन नहीं करती हैं उन्हें सदा भृत्य जनों के द्वारा तैयार किया हुआ मन चाहा भोजन प्राप्त होता है ।।306।।<span id="307" /> दिन में भोजन करने से स्त्रियाँ श्रीकांता, सुप्रभा, सुभद्रा और लक्ष्मी के समान कांति युक्त होती हैं ।।307।।<span id="308" /> इसलिए नर हो चाहे नारी, दोनों को अपना चित्त नियम में स्थिरकर अनेक दुःखों से सहित जो रात्रि भोजन है उसका त्याग करना चाहिए ।।308।।<span id="309" /> </p> | <p>जो स्त्रियां शांत चित्त, शील सहित मुनिजनों का हित करने वाली और रात्रि भोजन से विरत रहती हैं वे स्वर्ग में यथेच्छ भोग प्राप्त करती हैं। शिर पर हाथ रखकर आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाले परिवार के लोग उन्हें सदा घेरे रहते हैं ।।300-301।।<span id="302" /> स्वर्ग से च्युत होकर वे वैभवशाली उच्च कुल में उत्पन्न होती हैं, शुभ लक्षणों से युक्त तथा समस्त गुणों से सहित होती हैं ।।302।।<span id="303" /> अनेक कलाओं में निपुण रहती हैं, उनके शरीर नेत्र और मन में स्नेह उत्पन्न करने वाले होते हैं, अपने वचनों से मानो वे अमृत छोड़ती हैं, समस्त लोगों को आनंदित करती हैं ।।303।।<span id="304" /> विद्याधरों के अधिपति, नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती भी उनमें उत्कंठित रहते हैं- उन्हें प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं ।।304।।<span id="305" /> जिनके शरीर की कांति बिजली तथा लाल कमल के समान मनोहारी है, जिनके सुंदर कुंडल सदा हिलते रहते हैं तथा राजाओं के साथ जिनके विवाह संबंध होते हैं ऐसी स्त्रियाँ दिन में भोजन करने से ही होती हैं ।।305।।<span id="306" /> जो दयावती स्त्रियाँ रात्रि में भोजन नहीं करती हैं उन्हें सदा भृत्य जनों के द्वारा तैयार किया हुआ मन चाहा भोजन प्राप्त होता है ।।306।।<span id="307" /> दिन में भोजन करने से स्त्रियाँ श्रीकांता, सुप्रभा, सुभद्रा और लक्ष्मी के समान कांति युक्त होती हैं ।।307।।<span id="308" /> इसलिए नर हो चाहे नारी, दोनों को अपना चित्त नियम में स्थिरकर अनेक दुःखों से सहित जो रात्रि भोजन है उसका त्याग करना चाहिए ।।308।।<span id="309" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार थोड़े ही प्रयास से जब सुख मिलता है तो उस प्रयास का निरंतर सेवन करो। ऐसा कौन है जो अपने लिए सुख की इच्छा न करता हो ।।309।।<span id="310" /> 'धर्मं सुखोत्पत्ति का कारण है और अधर्मं दुःखोत्पत्ति का' ऐसा जानकर धर्म की सेवा करनी चाहिए और अधर्म का परित्याग ।।310।।<span id="311" /> यह बात गो पालकों तक में प्रसिद्ध है कि धर्म से सुख होता है और अधर्म से दुःख ।।311।।<span id="312" /> धर्म का माहात्म्य देखो कि जिसके प्रभाव से प्राणी स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ महाभोगों से युक्त तथा मनोहर शरीर के धारक होते हैं ।।312।।<span id="313" /> वे जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए रत्नों के आधार होते हैं और उदासीन होने पर भी सदा सुखी रहते हैं ।।313।।<span id="314" /> ऐसे मनुष्यों के स्वर्ण, वस्त्र तथा धान आदि के भांडारों की रक्षा हाथों में विविध प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले लोग किया करते हैं ।।314।।<span id="315" /><span id="316" /><span id="317" /><span id="318" /> उन्हें अत्यधिक गाय, भैंस आदि पशु, हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते हैं। साथ ही जो मन और इंद्रियों के विषय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, जिनकी चाल हंसी के समान विलास पूर्ण है, जिनका शरीर अत्यधिक सौंदर्य से युक्त है, जिनकी आवाज मीठी है, जिनके स्तन स्थूल हैं, जो अनेक शुभ लक्षणों से युक्त हैं, जो नेत्रों को पराधीन करने के लिए जाल के समान हैं, तथा जिनकी चेष्टाएँ मनोहर हैं ऐसी अनेक तरुण स्त्रियां और नाना अलंकार धारण करने वाली दासियाँ पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं ।।315-318।।<span id="319" /> </p> | <p>इस प्रकार थोड़े ही प्रयास से जब सुख मिलता है तो उस प्रयास का निरंतर सेवन करो। ऐसा कौन है जो अपने लिए सुख की इच्छा न करता हो ।।309।।<span id="310" /> 'धर्मं सुखोत्पत्ति का कारण है और अधर्मं दुःखोत्पत्ति का' ऐसा जानकर धर्म की सेवा करनी चाहिए और अधर्म का परित्याग ।।310।।<span id="311" /> यह बात गो पालकों तक में प्रसिद्ध है कि धर्म से सुख होता है और अधर्म से दुःख ।।311।।<span id="312" /> धर्म का माहात्म्य देखो कि जिसके प्रभाव से प्राणी स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ महाभोगों से युक्त तथा मनोहर शरीर के धारक होते हैं ।।312।।<span id="313" /> वे जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए रत्नों के आधार होते हैं और उदासीन होने पर भी सदा सुखी रहते हैं ।।313।।<span id="314" /> ऐसे मनुष्यों के स्वर्ण, वस्त्र तथा धान आदि के भांडारों की रक्षा हाथों में विविध प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले लोग किया करते हैं ।।314।।<span id="315" /><span id="316" /><span id="317" /><span id="318" /> उन्हें अत्यधिक गाय, भैंस आदि पशु, हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते हैं। साथ ही जो मन और इंद्रियों के विषय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, जिनकी चाल हंसी के समान विलास पूर्ण है, जिनका शरीर अत्यधिक सौंदर्य से युक्त है, जिनकी आवाज मीठी है, जिनके स्तन स्थूल हैं, जो अनेक शुभ लक्षणों से युक्त हैं, जो नेत्रों को पराधीन करने के लिए जाल के समान हैं, तथा जिनकी चेष्टाएँ मनोहर हैं ऐसी अनेक तरुण स्त्रियां और नाना अलंकार धारण करने वाली दासियाँ पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं ।।315-318।।<span id="319" /> </p> | ||
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<p>शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले जो मनुष्य ध्यान की भावना से प्रेरित हो मुनि के समीप जाकर एकभक्त करते हैं अर्थात् एक बार भोजन करने का नियम लेते हैं और एक भक्त से ही समय पूरा कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे रत्नों की कांति से जगमगाते हुए विमान में उत्पन्न होते हैं ।।334-335।।<span id="336" /> शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वे देव, निरंतर प्रकाशित रहने वाले उन विमानों में अप्सरओं के बीच बैठकर चिरकाल तक क्रीडा करते हैं ।।336।।<span id="337" /> जो उत्तम हार धारण किये हुए हैं, जिनकी कलाइयों में उत्तम कड़े सुशोभित हैं, जो कमर में कटिसूत्र और शिर पर मुकुट धारण करते हैं, जिनके ऊपर छत्र फिरता है और पार्श्व में चमर ढोले जाते हैं ऐसे देव, एक भक्त व्रत के प्रभाव से होते हैं ।।337।।<span id="338" /><span id="339" /> </p> | <p>शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले जो मनुष्य ध्यान की भावना से प्रेरित हो मुनि के समीप जाकर एकभक्त करते हैं अर्थात् एक बार भोजन करने का नियम लेते हैं और एक भक्त से ही समय पूरा कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे रत्नों की कांति से जगमगाते हुए विमान में उत्पन्न होते हैं ।।334-335।।<span id="336" /> शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वे देव, निरंतर प्रकाशित रहने वाले उन विमानों में अप्सरओं के बीच बैठकर चिरकाल तक क्रीडा करते हैं ।।336।।<span id="337" /> जो उत्तम हार धारण किये हुए हैं, जिनकी कलाइयों में उत्तम कड़े सुशोभित हैं, जो कमर में कटिसूत्र और शिर पर मुकुट धारण करते हैं, जिनके ऊपर छत्र फिरता है और पार्श्व में चमर ढोले जाते हैं ऐसे देव, एक भक्त व्रत के प्रभाव से होते हैं ।।337।।<span id="338" /><span id="339" /> </p> | ||
<p>जो महाव्रत धारण करने की भावना रखते हुए वर्तमान में अणुव्रत धारण करते हैं तथा शरीर को अनित्य समझकर जिनके हृदय अत्यंत शांत हो चुके हैं ऐसे जो मनुष्य हृदय पूर्वक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं वे स्वर्ग की दीर्घायु का बंध करते हैं ।।338-339।।<span id="340" /> उनमें से कोई तो सौधर्मादि स्वर्गों में जन्म लेते हैं, कोई अहमिंद्र पद प्राप्त करते हैं और कोई विशुद्धता के कारण मोक्ष जाते हैं ।।340।।<span id="341" /><span id="342" /> जो निरंतर विनय से युक्त रहते हैं, गुण और शीलव्रत से सहित होते हैं तथा जिनका चित्त सदा तप में लगा रहता है ऐसे मनुष्य निःसंदेह स्वर्ग जाते हैं वहाँ इच्छानुसार भोग भोगकर मनुष्य होते हैं, बड़े भारी राज्य का उपभोग करते हैं और जैन मत को प्राप्त होते हैं ।।341-342।।<span id="343" /> जैन मत को पाकर क्रम-क्रम से मुनियों का चरित्र धारण करते हैं और उसके प्रभाव से सर्व कर्म रहित सिद्धों का निकेतन प्राप्त कर लेते हैं ।।343।।<span id="344" /> </p> | <p>जो महाव्रत धारण करने की भावना रखते हुए वर्तमान में अणुव्रत धारण करते हैं तथा शरीर को अनित्य समझकर जिनके हृदय अत्यंत शांत हो चुके हैं ऐसे जो मनुष्य हृदय पूर्वक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं वे स्वर्ग की दीर्घायु का बंध करते हैं ।।338-339।।<span id="340" /> उनमें से कोई तो सौधर्मादि स्वर्गों में जन्म लेते हैं, कोई अहमिंद्र पद प्राप्त करते हैं और कोई विशुद्धता के कारण मोक्ष जाते हैं ।।340।।<span id="341" /><span id="342" /> जो निरंतर विनय से युक्त रहते हैं, गुण और शीलव्रत से सहित होते हैं तथा जिनका चित्त सदा तप में लगा रहता है ऐसे मनुष्य निःसंदेह स्वर्ग जाते हैं वहाँ इच्छानुसार भोग भोगकर मनुष्य होते हैं, बड़े भारी राज्य का उपभोग करते हैं और जैन मत को प्राप्त होते हैं ।।341-342।।<span id="343" /> जैन मत को पाकर क्रम-क्रम से मुनियों का चरित्र धारण करते हैं और उसके प्रभाव से सर्व कर्म रहित सिद्धों का निकेतन प्राप्त कर लेते हैं ।।343।।<span id="344" /> </p> | ||
<p>जो प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीनों कालों में मन, वचन, काय से स्तुति कर जिन देव को नमस्कार करता है अर्थात् त्रिकाल वंदना का नियम लेता है वह सुमेरु पर्वत के समान मिथ्या मत रूपी वायु से सदा अक्षोभ्य रहता है ।।344।।<span id="345" /> जो गुणरूपी अलंकारों से सुशोभित है तथा जिसका शरीर शीलव्रत रूपी चंदन से सुगंधित है ऐसा वह पुरुष स्वर्ग में समस्त इंद्रियों को हरने वाले भोग भोगता है ।।345।।<span id="346" /> तदनंतर मनुष्य और देव इन दो शुभ गतियों में कुछ आवागमन कर सर्व कर्म रहित हो परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ।।346।।<span id="347" /> चूंकि पंचेंद्रियों के विषय सब जीवों के द्वारा चिरकाल से अभ्यस्त हैं इसलिए इनसे मोहित हुए प्राणी विरति (त्याग— | <p>जो प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीनों कालों में मन, वचन, काय से स्तुति कर जिन देव को नमस्कार करता है अर्थात् त्रिकाल वंदना का नियम लेता है वह सुमेरु पर्वत के समान मिथ्या मत रूपी वायु से सदा अक्षोभ्य रहता है ।।344।।<span id="345" /> जो गुणरूपी अलंकारों से सुशोभित है तथा जिसका शरीर शीलव्रत रूपी चंदन से सुगंधित है ऐसा वह पुरुष स्वर्ग में समस्त इंद्रियों को हरने वाले भोग भोगता है ।।345।।<span id="346" /> तदनंतर मनुष्य और देव इन दो शुभ गतियों में कुछ आवागमन कर सर्व कर्म रहित हो परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ।।346।।<span id="347" /> चूंकि पंचेंद्रियों के विषय सब जीवों के द्वारा चिरकाल से अभ्यस्त हैं इसलिए इनसे मोहित हुए प्राणी विरति (त्याग— आखड़ी) करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते हैं ।।347।।<span id="348" /> यहाँ बड़ा आश्चर्य तो यही है कि फिर भी उत्तम पुरुष उन विषयों को विष मिश्रित अन्न के समान देखकर मोक्ष प्राप्ति के साधक कार्य का सेवन करते हैं ।।348।।<span id="349" /> संसार में भ्रमण करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव को यदि एक ही विरति (आखड़ी) प्राप्त हो जाती है तो वह मोक्ष का बीज हो जाती है ।।349।।<span id="350" /> जिन प्राणियों के एक भी नियम नहीं है वे पशु हैं अथवा रस्सी से रहित (पक्ष में व्रत शील आदि गुणों से रहित) फूटे घड़े के समान हैं ।।350।।<span id="351" /> गुण और व्रत से समृद्ध तथा नियमों का पालन करनेवाला प्राणी यदि वह संसार से पार होने की इच्छा रखता है तो उसे प्रमाद रहित होना चाहिए ।।351।।<span id="352" /> जो बुद्धि के दरिद्र मनुष्य दुष्कर्म- खोटे कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जंमांध मनुष्यों के समान चिरकाल तक संसाररूपी अटवी में भटकते रहते हैं ।।352।।<span id="353" /></p> | ||
<p>तदनंतर वहाँ जो भी तिर्यंच, मनुष्य और देव विद्यमान थे वे उन अनंतबल केवली रूपी चंद्रमा के वचन रूपी किरणों के समागम से परम हर्ष को प्राप्त हुए ।।353।।<span id="354" /> उनमें से कोई तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए, कोई अणुव्रती हुए और कोई बलशाली महाव्रतों के धारक हुए ।।354।।<span id="355" /> अथानंतर धर्म रथ नामक मुनि ने रावण से कहा कि हे भव्य! अपनी शक्ति के अनुसार कोई नियम ले ।।355।।<span id="356" /> ये मुनिराज धर्मरूपी रत्नों के द्वीप हैं सो इनसे अधिक नहीं तो कम से कम एक ही नियम रूपी रत्न ग्रहण कर ।।356।।<span id="357" /> इस प्रकार चिंता के वशीभूत होकर क्यों बैठा है? निश्चय से त्याग महापुरुषों की बुद्धि के खेद का कारण नहीं है अर्थात् त्याग से महापुरुषों को खिन्नता नहीं होती प्रत्युत प्रसन्नता होती है ।।357।।<span id="358" /> जिस प्रकार रत्नद्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का चित्त ‘यह लूँ या यह लूँ’ इस तरह चंचल होकर उमडता उसी प्रकार इस चारित्र रूपी द्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का भी चित्त ‘यह नियम लूँ या यह नियम लूं’ इस तरह परम आकुलता को प्राप्त हो घूमता रहता है ।।358।।<span id="359" /></p> | <p>तदनंतर वहाँ जो भी तिर्यंच, मनुष्य और देव विद्यमान थे वे उन अनंतबल केवली रूपी चंद्रमा के वचन रूपी किरणों के समागम से परम हर्ष को प्राप्त हुए ।।353।।<span id="354" /> उनमें से कोई तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए, कोई अणुव्रती हुए और कोई बलशाली महाव्रतों के धारक हुए ।।354।।<span id="355" /> अथानंतर धर्म रथ नामक मुनि ने रावण से कहा कि हे भव्य! अपनी शक्ति के अनुसार कोई नियम ले ।।355।।<span id="356" /> ये मुनिराज धर्मरूपी रत्नों के द्वीप हैं सो इनसे अधिक नहीं तो कम से कम एक ही नियम रूपी रत्न ग्रहण कर ।।356।।<span id="357" /> इस प्रकार चिंता के वशीभूत होकर क्यों बैठा है? निश्चय से त्याग महापुरुषों की बुद्धि के खेद का कारण नहीं है अर्थात् त्याग से महापुरुषों को खिन्नता नहीं होती प्रत्युत प्रसन्नता होती है ।।357।।<span id="358" /> जिस प्रकार रत्नद्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का चित्त ‘यह लूँ या यह लूँ’ इस तरह चंचल होकर उमडता उसी प्रकार इस चारित्र रूपी द्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का भी चित्त ‘यह नियम लूँ या यह नियम लूं’ इस तरह परम आकुलता को प्राप्त हो घूमता रहता है ।।358।।<span id="359" /></p> | ||
<p>अथानंतर जिसका चित्त सदा भोगों में अनुरक्त रहता था और इसी कारण जो व्याकुलता को प्राप्त हो रहा था ऐसे रावण के मन में यह भारी चिंता उत्पन्न हुई कि ।।359।।<span id="360" /> मेरा भोजन तो स्वभाव से ही शुद्ध है, सुगंधित है, स्वादिष्ट है, गरिष्ठ है और मांसादि के संसर्ग से रहित है ।।360।।<span id="361" /> हिंसा त्याग आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं उनमें से मैं एक भी व्रत धारण करने में समर्थ नहीं हूँ फिर अन्य व्रतों की चर्चा ही क्या है? ।।361।।<span id="362" /> मेरा मन मदोन्मत्त हाथी के समान सर्व वस्तुओं में | <p>अथानंतर जिसका चित्त सदा भोगों में अनुरक्त रहता था और इसी कारण जो व्याकुलता को प्राप्त हो रहा था ऐसे रावण के मन में यह भारी चिंता उत्पन्न हुई कि ।।359।।<span id="360" /> मेरा भोजन तो स्वभाव से ही शुद्ध है, सुगंधित है, स्वादिष्ट है, गरिष्ठ है और मांसादि के संसर्ग से रहित है ।।360।।<span id="361" /> हिंसा त्याग आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं उनमें से मैं एक भी व्रत धारण करने में समर्थ नहीं हूँ फिर अन्य व्रतों की चर्चा ही क्या है? ।।361।।<span id="362" /> मेरा मन मदोन्मत्त हाथी के समान सर्व वस्तुओं में दौड़ता रहता है सो उसे मैं हाथ के समान अपनी भावना से रोकने में समर्थ नहीं हूँ ।।362।।<span id="363" /> जो निर्ग्रंथ व्रत धारण करना चाहते है वह मानो अग्नि की शिखा को पीना चाहता है, वायु को वस्त्र में बांधना चाहता है और सुमेरु को उठाना चाहता है ।।363।।<span id="364" /> बड़ा आश्चर्य है कि मैं शूर वीर होकर भी जिस तप एवं व्रत को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ उसी तप एवं व्रत को अन्य पुरुष धारण कर लेते हैं। यथार्थ में वे ही पुरुषोत्तम हैं ।।364।।<span id="365" /> रावण सोचता है कि क्या मैं एक यह नियम ले लूं कि पर स्त्री कितनी ही सुंदर क्यों न हो यदि वह मुझे नहीं चाहेगी तो मैं उसे बलपूर्वक नहीं छेडूँगा ।।365।।<span id="366" /> अथवा मुझ क्षुद्र व्यक्ति में इतनी शक्ति कहां से आई? मैं अपने ही चित्त का निश्चय वहन करने में समर्थ नहीं हूँ ।।366।।<span id="367" /> अथवा तीनों लोकों में ऐसी उत्तम स्त्री नहीं है जो मुझे देखकर काम से पीड़ित होती हुई विकलता को प्राप्त न हो जाय? ।।367।।<span id="368" /><span id="369" /> अथवा जो मनुष्य मान और संस्कार के पात्र स्वरूप मन को धारण करता है उसे अन्य मनुष्य के संसर्ग से दूषित स्त्री के उस शरीर में धैर्य संतोष हो ही कैसे सकता है कि जो अन्य पुरुष के दांतों द्वारा किये हुए घाव से युक्त ओठ को धारण करता है, स्वभाव से ही दुर्गंधित है और मल की राशि स्वरूप है ।।368-369।।<span id="370" /> ऐसा विचारकर रावण ने पहले तो अनंतबल केवली को भाव पूर्वक नमस्कार किया। फिर देवों और असुरों के समक्ष स्पष्ट रूप से यह कहा कि ।।370।।<span id="371" /> हे भगवत्! जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा मैंने यह दृढ़ नियम लिया है ।।371।।<span id="372" /><span id="373" /><span id="374" /> जो समस्त बातों को सुन रहा था तथा जिसका मन सुमेरु के समान स्थिर था ऐसे भानुकर्ण (कुंभकर्ण) ने भी अरहंत सिद्ध साधु और जिन धर्म इन चार की शरण में जाकर यह नियम लिया कि मैं प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर तथा स्तुति कर अभिषेक पूर्वक जिनेंद्र देव को पूजा करूंगा। साथ ही जब तक मैं निर्ग्रंथ साधुओं की पूजा नहीं कर लूँगा तब तक आज से लेकर आहार नहीं करूँगा। भानुकर्ण ने यह प्रतिज्ञा बड़े हर्ष से की ।।372-374।।<span id="375" /> इसके सिवाय उसने पृथिवी पर घुटने टेक मुनिराज को आदरपूर्वक नमस्कार कर और भी बड़े नियम लिये ।।375।।<span id="376" /> तदनंतर हर्ष से जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे भक्त और असुर मुनिराज नमस्कार कर अपने-अपने स्थानों पर चले गये ।।376।।<span id="377" /> विशाल पराक्रम का धारी रावण भी आकाश में उड़कर इंद्र की लीला धारण करता हुआ लंका की ओर चला ।।377।।<span id="378" /> उत्तमोत्तम स्त्रियों के समूह ने प्रणाम पूर्वक जिसकी पूजा की थी ऐसे रावण ने वस्त्रादि से सुसज्जित अपनी नगरी में प्रवेश किया ।।378।।<span id="379" /> जिस प्रकार अनावृत देव मेरुपर्वत की गंभीर गुहा में रहता है उसी प्रकार भी समस्त वैभव से युक्त अपने निवासगृह में प्रवेश कर रहने लगा ।।379।।<span id="380" /></p> | ||
<p>गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब भव्य जीवों के कर्म उपशम भाव प्राप्त होते हैं तब वे सतगुरु के मुख से कल्याणकारी उत्तम उपदेश प्राप्त करते हैं ।।380।।<span id="381" /> ऐसा जानकर हे प्रबुद्ध एवं उद्यमशील हृदय के धारक भव्य जनो! तुम लोग बार-बार जिनधर्म के सुनने में तत्पर होओ क्योंकि जो उत्तम विनयपूर्वक धर्म श्रवण करते हैं उन्हें सूर्य के समान विपुल ज्ञान होता है ।।381।।<span id="14" /> </p> | <p>गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब भव्य जीवों के कर्म उपशम भाव प्राप्त होते हैं तब वे सतगुरु के मुख से कल्याणकारी उत्तम उपदेश प्राप्त करते हैं ।।380।।<span id="381" /> ऐसा जानकर हे प्रबुद्ध एवं उद्यमशील हृदय के धारक भव्य जनो! तुम लोग बार-बार जिनधर्म के सुनने में तत्पर होओ क्योंकि जो उत्तम विनयपूर्वक धर्म श्रवण करते हैं उन्हें सूर्य के समान विपुल ज्ञान होता है ।।381।।<span id="14" /> </p> | ||
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Latest revision as of 23:32, 25 October 2023
अथानंतर जो इंद्र के समान शोभा का धारक था, जिसका मन भोगों में मूढ़ रहता था, जिसे इच्छानुसार कार्यों की प्राप्ति होती थी तथा जिसकी क्रियाएँ शत्रुओं को प्राप्त होना कठिन था ऐसा रावण एक समय मेरुपर्वत पर गया था। वहाँ जिनेंद्र देव की वंदना कर वह अपनी इच्छानुसार वापस आ रहा था ।।1-2।। मार्ग में वह भरतादि क्षेत्रों का विभाग करने वाले एवं अनेक प्रकार के वृक्षों से सुशोभित हिमवत् आदि पर्वतों को तथा स्फटिक से भी अधिक निर्मल एवं अत्यंत सुंदर नदियों को देखता हुआ चला आ रहा था ।।3।। सूर्यबिंब के आकार विमान को अलंकृत कर रहा था, उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त था तथा लंका की प्राप्ति में अत्यंत उत्सुक था ।।4।। अचानक ही उसने जोरदार कोमल शब्द सुना जिसे सुनकर वह अत्यंत क्षुभित हो गया। उसने शीघ्र ही मारीचसे पूछा भी ।।5।। अरे मारीच! मारीच!! यह महाशब्द कहाँ से आ रहा है? और दिशाएँ सुवर्णके समान लाल-पीली क्यों हो रही हैं ।।6।। तब मारीच ने कहा कि हे देव! किसी महामुनि के महा कल्याणक में सम्मिलित होनेके लिए यह देवों का आगमन हो रहा है ।।7।। संतोष से भरे एवं नाना प्रकार से गमन करने वाले देवों का यह संसार व्यापी प्रशस्त शब्द सुनाई दे रहा है ।।8।। ये दिशाएँ उन्हीं के मुकुट आदि की किरणों से व्याप्त होकर कुसुंभ रंग को देदीप्यमान कांति को धारण कर रही हैं ।।9।। इस सुवर्णगिरि पर अनंतबल नामक मुनिराज रहते थे, जान पड़ता है उन्हें ही आज केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ।।10।।
तदनंतर मारीच के वचन सुनकर सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त रावण परम हर्ष को प्राप्त हुआ ।।11।। महाकांति को धारण करने वाला रावण उन महामुनि की वंदना करने के लिए दूरवर्ती आकाश प्रदेश से इस प्रकार नीचे उतरा मानो दूसरा इंद्र ही उतर रहा हो ।।12।। तत्पश्चात् इंद्र आदि देवों ने हाथ जोड़कर मुनिराज को नमस्कार किया। स्तुति की और फिर सब यथास्थान बैठ गये ।।13।। विद्याधरों से युक्त रावण भी बड़ी भक्ति से नमस्कार एवं स्तुति कर योग्य भूमि में बैठ गया ।।14।। तदनंतर विनीत शिष्य के समान रावण ने मुनिराज से इस प्रकार पूछा कि हे भगवन्! समस्त प्राणी धर्म-अधर्म का फल और मोक्ष का कारण जानना चाहते हैं सो आप यह सब कहने के योग्य हैं। रावणके इस प्रश्न की चारों प्रकार के देवों, मनुष्यों और त्रियंचों ने भारी प्रशंसा की ।।15-16।। तदनंतर मुनिराज निम्न प्रकार वचन कहने लगे। उनके ये वचन निपुणता से युक्त थे, शुद्ध थे, महा अर्थ से भरे थे, परिमित अक्षरों से सहित थे, अखंडनीय थे और सर्वहित कारी तथा प्रिय थे ।।17।।
उन्होंने कहा कि अनादिकाल से बँधे हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से जिसकी आत्मीय शक्ति छिप गयी है ऐसा यह प्राणी निरंतर भ्रमण कर रहा है ।।18।। अनेक लक्ष योनियों में नाना इंद्रियों से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख का सदा अनुभव करता रहता ।।19।। कर्मों का जब जैसा तीव्र, मंद या मध्यम उदय आता है वैसा रागी, द्वेषी अथवा मोही होता हुआ कुम्हार के चक्र के समान चतुर्गति में घूमता रहता ।।20।। यह जीव अत्यंत दुर्लभ मनुष्य पर्याय को भी प्राप्त कर लेता है फिर भी ज्ञानावरण कर्म के कारण आत्महित को नहीं समझ पाता है ।।21।। रसना और स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत हुए प्राणी अत्यंत निंदित कार्य करके पाप के भार से इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे अनेक साधनों से उत्पन्न महादुःख देने वाले नरकों में उस प्रकार जा पड़ते हैं जिस प्रकार कि पानी में पत्थर पड़ जाते हैं- डूब जाते ।।22-23।। जिनके मन की सभी निंदा करते हैं ऐसे कितने ही मनुष्य धनादि से प्रेरित होकर माता, पिता, भाई, पुत्री, पत्नी, मित्रजन, गर्भस्थ बालक, वृद्ध, तरुण एवं स्त्रियों को मार डालते हैं तथा कितने ही महादुष्ट मनुष्य मनुष्यों, पक्षियों और हरिणों की हत्या करते हैं ।।24-25।। चित्त धर्म से च्युत है ऐसे कितने ही दुर्बुद्धि मनुष्य स्थलचारी एवं जलचारी जीवों को मारकर भयंकर वेदना वाले नरक में पड़ते हैं ।।26।। मधुमक्खियों का घात करने वाले तथा वन में आग लगाने वाले दुष्ट चांडाल निरंतर हिंसा में तत्पर रहने वाले पापी कहार और नीच शिकारी, झूठ वचन बोलने में आसक्त एवं पराया धन हरण करने में उद्यत प्राणी शरण रहित हो भयंकर नरक में पड़ते हैं ।।27-28।। जो मनुष्य जिस-जिस प्रकार से मांस भक्षण करते हैं नरक में दूसरे प्राणी उसी उसी प्रकार से उनका भक्षण करते हैं ।।29।। जो मनुष्य बहुत भारी परिग्रह से सहित हैं, बहुत बड़े आरंभ करते हैं और तीव्र संकल्प-विकल्प करते हैं वे चिरकाल तक नरक में वास करते हैं ।।30।। जो साधुओं से द्वेष रखते हैं, पापी हैं, मिथ्यादर्शन से सहित हैं एवं रौद्र ध्यान से जिनका मरण होता है वे निश्चय ही नरक में जाते हैं ।।31।। ऐसे जीव नरकों में कुल्हाड़ियों, तलवारों, चक्रों, करोंतों तथा अन्य अनेक प्रकार के शस्त्रों से चीरे जाते हैं। तीक्ष्ण चोचों वाले पक्षी उन्हें चूँथते हैं ।।32।। सिंह, व्याघ्र, कुत्ते, सर्प, अष्टापद, बिच्छू, भेड़िया तथा विक्रिया से बने हुए विविध प्रकार के प्राणी उन्हें बहुत भारी दुःख पहुँचाते हैं ।।33।।
जो शब्द आदि विषयों में अत्यंत आसक्ति करते हैं ऐसे मायावी जीव तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं ।।34।। उस तिर्यंच गति में जीव एक दूसरे को मार डालते हैं। मनुष्य विविध प्रकार के शस्त्रों से उनका घात करते हैं तथा स्वयं भार ढोना एवं दोहा जाना आदि कार्यों से महादुःख पाते हैं ।।35।। संसारके संकट में भ्रमण करता हुआ यह जीव स्थल में, जल में, पहाड़ पर, वृक्ष पर और अन्यान्य सघन स्थानों में सोया है ।।36।। यह जीव अनादि काल से एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रियों में उत्पन्न होता हुआ जन्म-मरण कर रहा है ।।37।। ऐसा तिलमात्र भी स्थान बाकी नहीं है जहाँ संसाररूपी भँवर में पड़े हुए इस जीव ने जन्म और मरण प्राप्त न किया हो ।।38।। यदि कोई प्राणी मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही संतोष प्राप्त करते हैं तो वे मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं ।।39।। मनुष्य गति में भी मोही जीव परम सुख के कारणभूत कल्याण मार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं ।।40।।
अपने पूर्वोपार्जित कर्मो के अनुसार कोई आर्य होते हैं और कोई म्लेच्छ होते हैं। कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यंत दरिद्र होते हैं ।।41।। कर्मों से घिरे कितने ही प्राणी सैकड़ों मनोरथ करते हुए दूसरे के घरों में बड़ी कठिनाई से समय बिताते हैं ।।42।। कोई धनाढ्य होकर भी कुरूप होते हैं, कोई रूपवान् होकर भी निर्धन रहते हैं, कोई दीर्घायु होते हैं और कोई अल्पायु होते हैं ।।43।। कोई सबको प्रिय तथा यश के धारक होते हैं, कोई अत्यंत अप्रिय होते हैं, कोई आज्ञा देते हैं और कोई उस आज्ञा का पालन करते हैं ।।44।। कोई रण में प्रवेश करते हैं, कोई पानी में गोता लगाते हैं, कोई विदेश में जाते हैं और कोई खेती आदि करते हैं ।।45।। इस प्रकार मनुष्य गति में भी सुख और दुःख की विचित्रता देखी जाती है। वास्तव में तो सब दुःख ही है सुख तो कल्पना मात्र है ।।46।।
कोई जीव सरागसंयम तथा संयमासंयम के धारक होते हैं, कोई अकाम निर्जरा करते हैं और कोई बाल तप करते हैं ऐसे जीव भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक इन चार भेदों से युक्त देव गति में उत्पन्न होते हैं सो वहाँ भी कितने ही महाऋद्धियों के धारक होते हैं और कितने ही अल्प ऋद्धियों के धारक ।।47-48।। स्थिति, कांति, प्रभाव, बुद्धि, सुख, लेश्या, अभिमान और मान के अनुसार वे पुनः कर्मों का बंध कर चतुर्गंति रूप संसार में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। जिस प्रकार अरघट की घड़ी निरंतर घूमती रहती है इसी प्रकार ये प्राणी भी निरंतर घूमते रहते हैं ।।49-50।। यह जीव अशुभ संकल्प से दुःख पाता है, शुभ संकल्प से सुख पाता है और अष्ट कर्मों के क्षय से मोक्ष प्राप्त करता है ।।51।।
पात्र की विशेषता से अनेक रूपता को प्राप्त हुए जीव दान के प्रभाव से भोग भूमियों में भोगों को प्राप्त होते हैं ।।52।। जो प्राणि हिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और राग-द्वेष से शून्य हैं उन्हें जिनेंद्र भगवान् ने उत्तम पात्र कहा है ।।53।। जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध है ऐसा पात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि उससे मिथ्यादृष्टि दाता के शरीर की शुद्धि होती है ।।54।। जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है। ‘पातीति पात्रम्’ इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थं है। चूंकि मुनि, सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते हैं अतः पात्र हैं ।।55।। जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे सहित होता है वह उत्तम कहलाता है ।।56।। जो मान, अपमान, सुख-दुःख और तृण-कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साधु पात्र कहलाता है ।।57।। जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महा तपश्चरण में लीन हैं और तत्त्वों के ध्यानमें सदा तत्पर रहते हैं ऐसे श्रमण अर्थात् मुनि उत्तम पात्र कहलाते हैं ।।58।। उन मुनियों के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार भावपूर्वक जो भी अन्न, पान, औषधि अथवा उपयोग में आने वाले पीछी, कमंडलु आदि अन्य पदार्थं दिये जाते हैं वे महाफल प्रदान करते हैं ।।59।। जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया हुआ बीज अत्यधिक संपदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुआ दान अत्यधिक संपदा प्रदान करता है ।।60।। जो राग-द्वेष आदि दोषों से युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल ही देता है अतः उसके फल का विचार करना दूर की बात है ।।61।।
जिस प्रकार ऊषर जमीन में बीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादर्शन से सहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उससे कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता ।।62।। एक कुएँ से निकाले हुए पानी को यदि ईख के पौधे पीते हैं तो वह माधुर्य को प्राप्त होता है और यदि नीम के पौधे पीते हैं तो कड़आ हो जाता है ।।63।। अथवा जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने पानी पिया और सांप ने भी। गाय के द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और साँप के द्वारा पिया पानी विष हो जाता है, उसी प्रकार एक ही गृहस्थ से उत्तम पात्र ने दान लिया और नीच पात्र ने भी। जो दान उत्तम पात्र को प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्र को प्राप्त होता है उसका फल नीचा होता है ।।64।। कोई-कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त होते हैं ऐसे पात्रों के लिए भाव से जो दान दिया जाता है उसका फल शुभ-अशुभ अर्थात् मिश्रित प्रकार का होता है ।।65।। दीन तथा अंधे आदि मनुष्यों के लिए करुणा दान कहा गया है और उससे यद्यपि फल की भी प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता ।।66।। सभी वेषधारी प्रयत्न पूर्वक अपने अनुकूल धर्म का उपदेश देते हैं पर उत्तम हृदय के धारक मनुष्यों को विशेषकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ।।67।। काम-क्रोधादि से युक्त तथा अपनी समानता रखने वाले गृहस्थों के लिए जो द्रव्य दिया जाता है उसका क्या फल भोगने को मिलता है? सो कहा नहीं जा सकता ।।68।।
अहो! यह कितना प्रबल मोह है कि मिथ्यामतों से उगाये गये लोग सभी अवस्थाओं वाले लोगों को अपना धन दे देते हैं ।।69।। उन दुष्टजनों को धिक्कार है जिन्होंने कि इस भोले प्राणी को ठग रखा है तथा लोभ दिखा कर मिथ्या शास्त्रों की चर्चा से उसके मन को विचलित कर दिया है ।।70।। मीठा तथा बलकारी होने से पापी मनुष्यों ने मांस को भक्ष्य बताया है और अपना कपट बताने के लिए जिनका मांस खाना चाहिए उनकी संख्या भी निर्धारित की है ।।71।। सो ऐसे दुष्ट लोभी जीव दूसरों को मांस खिला कर तथा स्वयं खाकर दाताओं के साथ-साथ भयंकर वेदना से युक्त नरक में जाते हैं ।।72।। लोभ के वशीभूत, दुष्ट अभिप्राय से युक्त तथा झूठ-मूठ ही अपने-आपको ऋषि मानने वाले कितने ही लोगों ने हाथी, घोड़ा, गाय आदि जीवों का दान भी बतलाया है पर तत्त्व के जानकार मनुष्यों ने उसकी अत्यंत निंदा की है ।।73।। उसका कारण भी यह है कि जीवदान में जो जीव दिया जाता है उसे बोझा ढोना पड़ता है, नुकीली अरी आदि से उसके शरीर को आँका जाता है तथा लाठी आदि से उसे पीटा जाता है इन कारणों से उसे महादुःख होता है और उसके निमित्त से बहुत से अन्य जीवों को भी बहुत दुःख उठाना पड़ता है ।।74।।
इसी प्रकार भूमिदान भी निंदनीय है क्योंकि उससे भूमि में रहने वाले जीवों को पीड़ा होती है और प्राणि पीड़ा के निमित्त जुटाकर पुण्य की इच्छा करना मानो पत्थर से पानी निकालना है ।।75।। इसलिए समस्त प्राणियों को सदा अभय दान देना चाहिए। साथ ही ज्ञान, प्रासुक औषधि, अन्न और वस्त्रादि भी देना चाहिए ।।76।। जो दान निंदित बताया है वह भी पात्र के भेद से प्रशंसनीय हो जाता है। जिस प्रकार कि शुक्ति (सीप) के द्वारा पिया हुआ पानी निश्चय से मोती हो जाता है ।।77।। पशु तथा भूमि का दान यद्यपि निंदित दान है फिर भी यदि वह जिन प्रतिमा आदि को उद्देश्य कर दिया जाता है तो वह दीर्घ काल तक स्थिर रहने वाले उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है ।।78।। भीतर का संकल्प ही पुण्य-पाप का कारण है उसके बिना बाह्य में दान देना पर्वत के शिखर पर वर्षा करने के समान है ।।79।। इसलिए वीतराग सर्वज्ञ जिनेंद्र देव का ध्यान कर जो दान दिया जाता है उसका फल कहने के लिए कौन समर्थ है? ।।80।।
जिनेंद्र के सिवाय जो अन्य देव हैं वे द्वेषी, रागी तथा मोही हैं क्योंकि वे शस्त्र लिये रहते हैं इससे द्वेषी सिद्ध होते हैं और स्त्री साथ में रखते हैं तथा आभूषण धारण करते हैं इससे रागी सिद्ध होते हैं। राग-द्वेष के द्वारा उनके मोह का भी अनुमान हो जाता है क्योंकि मोह राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार राग-द्वेष और मोह ये तीन दोष उनमें सिद्ध हो गये बाकी अन्य दोष इन्हीं के रूपांतर हैं ।।81-82।। लोक में जो कुछ मनुष्य देव के रूप में प्रसिद्ध हैं वे साधारण जन के समान ही भोजन के पात्र हैं अर्थात् भोजन करते हैं, कषाय से युक्त हैं और अवसर पर आंशिक कामादि का सेवन करते हैं सो ऐसे देव दान के पात्र कैसे हो सकते हैं? वे कितनी ही बातों में जबकि अपने भक्त जनों से गये गुजरे अथवा उनके समान ही हैं तब उन्हें उत्तम फल कैसे दे सकते हैं? ।।।83-84। यद्यपि वर्तमान में उनके शुभ कर्मों का उदय देखा जाता है तो भी उनसे अन्य दुःखी मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? ।।85।। ऐसे कुदेवों से मोक्ष की इच्छा करना बालू की मुट्ठी पेर कर तेल प्राप्त करने की इच्छा के समान है अथवा अग्नि की सेवा से प्यास नष्ट करने की इच्छा के तुल्य है ।।86।। यदि एक लँगड़ा मनुष्य दूसरे लँगड़े मनुष्य को देशांतर में ले जा सकता हो तो इन देवों से दूसरे दुःखी जीवों को भी फल की प्राप्ति हो सकती है ।।87।। जब इन देवों की यह बात है तब पाप कार्य करने वाले उनके भक्तों की बात तो दूर ही रही। उनमें सत्पात्रता किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकती ।।88।। लोभ से प्रेरित हुए पापी जन यज्ञ में प्रवृत्त होते हैं और लोग ऐसा करने वालों को दक्षिणा आदि के रूप में धन देते हैं सो यह निर्दोष कैसे हो सकता है? ।।89।। इसलिए जिनेंद्र देव को उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है वही सर्व दोष रहित है और वही महाफल प्रदान करता है ।।90।। धर्मं तो व्यापार के समान है, जिस प्रकार व्यापार में सदा हीनाधिकता का विचार किया जाता है उसी प्रकार धर्म में भी सदा हीनाधिकता का विचार रखना चाहिए अर्थात् हानि-लाभ पर दृष्टि रखना चाहिए। जिस धर्म में पुण्य की अधिकता हो और पाप की न्यूनता हो गृहस्थ उसे स्वीकृत कर सकता है क्योंकि अधिक वस्तुके द्वारा हीन वस्तुका पराभव हो जाता है ।।91।। जिस प्रकार विष का एक कण तालाब में पहुँचकर पूरे तालाब को दूषित नहीं कर सकता उसी प्रकार जिनधर्मानुकूल आचरण करने वाले पुरुष से जो थोड़ी हिंसा होती है वह उसे दूषित नहीं कर सकती। उसकी बह अल्प हिंसा व्यर्थ रहती हैं ।।92।। इसलिए भक्ति में तत्पर रहनेवाले कुशल मनुष्यों को जिन मंदिर आदि बनवाना चाहिए और माला, धूप, दीप आदि सबकी व्यवस्था करनी चाहिए ।।93।। जिनेंद्र भगवान को उद्देश्य कर जो दान दिया जाता है उसके फलस्वरूप जीव स्वर्ग तथा मनुष्य लोक संबंधी उत्तमोत्तम भोग प्राप्त करते हैं ।।94।।
सन्मार्ग में प्रयाण करने वाले मुनि आदि के लिए जो यथायोग्य दान दिया जाता है वह उत्कृष्ट भोग प्रदान करता है। इस प्रकार यही दान गुणों का पात्र है ।।95।। इसलिए सामर्थ्य के अनुसार भक्ति पूर्वक सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिए जो दान देता है उसी का दान एक दान है बाकी तो चोरों को धन लुटाना है ।।96।। केवलज्ञान ज्ञान के साम्राज्य पद पर स्थित है। ध्यान के प्रभाव से जब केवलज्ञान की प्राप्ति हो चुकती है तभी यह जीव निर्वाण को प्राप्त होता है ।।97।। जिनके समस्त कर्म नष्ट हो चुकते हैं, जो सर्वे प्रकार की बाधाओं से परे हो जाते हैं, जो अनंत सुख से संपन्न रहते हैं, अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन जिनकी आत्मा में प्रकाशमान रहते हैं जिनके तीनों प्रकार के शरीर नष्ट हो जाते हैं, निश्चय से जो अपने स्वभाव में ही स्थित रहते हैं और व्यवहार से लोक के शिखर पर विराजमान हैं, जो पुनरागमन से रहित हैं और जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता, वे सिद्ध भगवान् हैं ।।98-99।। लोभ रूपी पवन से बढ़े दुःख रूपी अग्नि के बीच में पड़े पापी जीव पुण्य रूपी जल के बिना निरंतर क्लेश भोगते रहते हैं ।।100।। पाप रूपी अंधकार के बीच में रहनेवाले तथा मिथ्यादर्शन के वशीभूत कितने ही जीव धर्मरूपी सूर्य की किरणों से प्रबोध को प्राप्त होते हैं ।।101।। जो अशुभभाव रूपी लोहे के मजबूत पिंजरे के मध्य में रह रहे हैं तथा आशा रूपी पाश के अधीन हैं ऐसे जीव धर्मरूपी बंधुके द्वारा ही मुक्त किये जाते हैं- बंधन से छुड़ाये जाते हैं ।।102।। जो लोकबिंदुसार नामक पूर्व का एक देश है ऐसे व्याकरण से सिद्ध हैं कि जो धारण करे सो धर्म है 'धरतीति धर्म:' इस प्रकार उसका निरुक्त्यर्थं है ।।103।। और यह ठीक भी है क्योंकि अच्छी तरह से आचरण किया हुआ धर्मं दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण कर लेता है- बचा लेता है इसलिए वह धर्मं कहलाता है ।।104।। लभ धातु का अर्थ ‘प्राप्ति’ है और प्राप्ति संपर्क को कहते हैं, अतः धर्म की प्राप्ति को धर्म लाभ कहते हैं ।।105।।
अब हम जिन- भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म का संक्षेप से निरूपण करते हैं। साथ ही उसके कुछ भेदों और उनके फलों का भी निर्देश करेंगे सो तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।।106।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होना सो व्रत कहलाता है। ऐसा व्रत अवश्य ही धारण करना चाहिए ।।107।। ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग ये पाँच समितियां हैं। साधु को इनका प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए ।।108।। वचन, मन और काय की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो जाना अथवा उसमें कोमलता आ जाना गुप्ति है। इसका आचरण बड़े आदर से करना चाहिए ।।109।। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय महाशत्रु हैं, इन्हीं के द्वारा जीव संसार में परिभ्रमण करता है ।।110।। आगम के अनुसार कार्य करने वाले मनुष्य को क्षमा से क्रोध का, मृदुता से मान का, सरलता से माया का और संतोष से लोभ का निग्रह करना चाहिए ।।111।। अभी ऊपर जिन व्रत समिति आदि का वर्णन किया है वह सब धर्म कहलाता है। इसके सिवाय त्याग भी विशेष धर्म कहा गया है ।।112।। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इंद्रियाँ प्रसिद्ध हैं। इनका जीतना धर्म कहलाता है ।।113।। उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्यतप हैं। बाह्यतप अंतरंग तप की रक्षा के लिए वृति अर्थात् बाड़ी के समान हैं ।।114-115।। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यंतर तप हैं। यह समस्त तप धर्म कहलाता है ।।116-117।। भव्य जीव इस धर्म के द्वारा कर्मों का वियोजन अर्थात् विनाश तथा अनंत व्यवसायों को परिवर्तित करने वाले अनेक आश्चर्यजनक कार्य करते हैं ।।118।। यह जीव धर्म के प्रभाव से ऐसा विक्रियात्मक शरीर प्राप्त करता है कि जिसके द्वारा समस्त मनुष्य और देवों को बाधा देने तथा लोकाकाश को व्याप्त करने में समर्थ होता है ।।119।।
धर्म के प्रभाव से यह जीव इतना महाबलवान् हो जाता है कि तीनों लोकों को एक ग्रास बना सकता है। अणिमा, महिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य तथा अनेक दुर्लभ योग भी यह धर्म के प्रभाव से प्राप्त करता है ।।120।। यह जीव धर्म के प्रभाव से सूर्य के संताप को और चंद्रमा की शीतलता को नष्ट कर सकता है तथा वृष्टि के द्वारा समस्त संसार को क्षण भर में भर सकता है ।।121।। यह धर्म के प्रभाव से आशीविष साँप के समान दृष्टि मात्र से लोक को भस्म कर सकता है, मेरु पर्वत को उठा सकता है और समुद्र को बिखेर सकता है ।।122।। धर्म के ही प्रभाव से ज्योतिश्चक्र को उठा सकता है, इंद्र, रुद्र आदि देवों को भयभीत कर सकता है, रत्न और सुवर्ण की वर्षा कर सकता है तथा पर्वतों के समूह की सृष्टि कर सकता है ।।123।। धर्म के ही प्रभाव से अत्यंत भयंकर बीमारियों की शांति अपने पैर की धूलि से कर सकता है तथा मनुष्यों को अन्य अनेक आश्चर्यकारक वैभव की प्राप्ति करा सकता है ।।124।। जीव धर्म के प्रभाव से और भी कितने ही कठिन कार्य कर सकता है। यथार्थ में धर्म के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है ।।125।।
जो जीव धर्म पूर्वक मरण करते हैं वे ज्योतिश्चक्र को उल्लंघन कर गुणों के निवासभूत सौधर्मादि स्वर्गो में उत्पन्न होते हैं ।।126।। धर्म का उपार्जन कर कितने ही सामानिक देव होते हैं, कितने ही इंद्र होते हैं और कितने ही अहमिंद्र बनते हैं ।।127।। धर्म के प्रभाव से जीव उन महलों में उत्पन्न होते हैं जो कि स्वर्ण, स्फटिक और वैडूर्य मणिमय खंभों के समूह से निर्मित होते हैं। जिनकी स्वर्णादि निर्मित दीवालें सदा देदीप्यमान रहती हैं, जो अत्यंत ऊँचे और अनेक भूमियों (खंडों) से युक्त होते हैं ।।128।। जिनके फर्श पद्मराग, दधिराग तथा मधुराग आदि विचित्र-विचित्र मणियों से बने होते हैं, जिनमें मोतियों की मालाएँ लटकती रहती हैं, जो झरोखोंसे सुशोभित होते हैं ।।129।। जिनके किनारों पर हरिण, चमरी गाय, सिंह, हाथी तथा अन्यान्य जीवों के सुंदर-सुंदर चित्र चित्रित रहते हैं ऐसी वेदिकाओं से जो अलंकृत होते हैं ।।130।। जो चंद्रशाला आदि से सहित होते हैं, ध्वजाओं और मालाओं से अलंकृत रहते हैं तथा जिनकी कक्षाओं में मनोहारी शय्याएँ और आसन बिछे रहते हैं ।।131।। धर्मं धारण करनेवाले लोग ऐसे विमान आदि स्थानों में उत्पन्न होते हैं जो वादित्र आदि संगीत के साधनों से युक्त रहते हैं, इच्छानुसार जिनमें गमन होता है, जो उत्तम परिकर से सहित होते हैं, कमल आदि प्रसाधन सामग्रीसे युक्त रहते हैं और अपनी प्रभा से सूर्य की दीप्ति और चंद्रमा को कांति को तिरस्कृत करते रहते हैं ।।132-133।। धर्म के प्रभाव से प्राणियों को देव भवनों में ऐसा वैक्रियिक शरीर प्राप्त होता है जो कि सुखमय निद्रा के दूर होने पर जागृत हुए के समान जान पड़ता है, जिसकी इंद्रियाँ अत्यंत निर्मल होती हैं। जो तत्काल उदित सूर्य के समान देदीप्यमान होता है, जो कांति से चंद्रमा की तुलना प्राप्त करता है, रज, पसीना तथा बीमारी से रहित होता है, अत्यंत सुगंधित, निर्मल और कोमल होता है, उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त, नयनाभिराम और उपपाद जन्म से उत्पन्न होता है। इसके सिवाय अपनी कांति के समूह से दिगंतराल को आच्छादित करने वाले आभूषण भी प्राप्त होते हैं ।।134-136।।
धर्म के प्रभाव से स्वर्ग में ऐसी अप्सराएँ प्राप्त होती हैं जिनके कि चरणों का स्पर्शन कमल दल के समान कोमल होता है, जिनके नख अत्यंत कांतिमां होते हैं, जिनके लाल-लाल वस्त्रों के अंचल नूपुरों में उलझते रहते हैं ।।137।। जिनकी जंघाएँ केले के स्तंभ के समान स्निग्ध स्पर्श से युक्त होती हैं, जिनके घुटने मांसपेशियों में अंतर्निहित रहते हैं, जिनके स्थूल नितंब मेखलाओं से सुशोभित होते हैं, जिनकी चाल हाथी की चाल के समान मस्ती से भरी रहती है ।।138।। जो सूक्ष्म त्रिवलि से युक्त मध्यभाग से सुशोभित होती हैं, जिनके स्तनों के मंडल नवीन उदित चंद्रमा के समान होते हैं ।।139।। जिनकी रत्नावली की कांति से सदा चाँदनी छिटकती रहती है, जो मालती के समान कोमल और पतली भुजा रूपी लताओं को धारण करती हैं ।।140।। जिनके हाथ महामूल्य मणियों की खनकती हुई चूड़ियों से सदा युक्त रहते हैं, अशोक पल्लव के समान कोमलता धारण करने वाली जिनकी अंगुलियों से मानो कांति चूती रहती है ।।141।। जिनके कंठ शंख के समान होते हैं, जिनके ओठ दाँतों की कांति से आच्छादित रहते हैं, जिनके कपोल रूपी निर्मल दर्पणों का समस्त भाग लावण्य से संलिप्त रहता है ।।142।। जिनके नयनांत की सघन कांति सदा कर्णाभरण की शोभा बढ़ाया करती है, मोतियों से व्याप्त पद्मराग मणि जिनकी मांग को अलंकृत करते रहते हैं ।।143।। जिनके केशों के समूह भ्रमर के समान काले, सूक्ष्म और अत्यंत कोमल हैं, जिनके शरीर का स्पर्श मृणाल के समान कोमल है, जिनकी आवाज अत्यंत मधुर है ।।144।। जो सब प्रकार का उपचार जानती हैं, जिनकी समस्त क्रियाएँ अत्यंत मनोहर हैं, जिनके श्वासोच्छ्वास की सुगंधि नंदनवन की सुगंधिके समान है ।।145।।
जो अभिप्राय के समझने में कुशल, पंचेंद्रियों को सुख पहुँचाने वाली और इच्छानुसार रूप को धारण करने वाली हैं ।।146।। देव लोग, उन अप्सराओं के साथ जहाँ संकल्प मात्र से ही समस्त उपकरण उपस्थित हो जाते हैं ऐसा विषयजन्य विशाल सुख भोगते हैं ।।147।। अथवा मनुष्य लोक में जो सुख प्राप्त होता है जिनेंद्र देव ने उस सबको धर्म का फल कहा है ।।148।। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक में उपभोक्ताओं को जो भी सुख नाम का पदार्थ प्राप्त होता है वह सब धर्म से ही उत्पन्न होता है ।।149।। दान देनेवाले, उपभोग करने वाले एवं मर्यादा स्थापित करने वाले मनुष्य की जो हजारों मनुष्यों के झुंड रक्षा करते हैं वह सब धर्म से उत्पन्न हुआ फल समझना चाहिए ।।150।। मनोहर आभूषण धारण करने वाले हजारों देवों पर इंद्र जो शासन करता है वह धर्म से उत्पन्न हुआ फल है ।।151।। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से युक्त जो पुरुष मोह रूपी शत्रु को नष्ट कर मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं वह शुद्ध धर्मका फल है ।।152।। मनुष्य जन्म के बिना अन्यत्र वह धर्म प्राप्त नहीं हो सकता इसलिए मनुष्य भव की प्राप्ति सब भवों में श्रेष्ठ है ।।153।। जिस प्रकार मनुष्यों में राजा, मृगों में सिंह और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवों में मनुष्य भव श्रेष्ठ है ।।154।। तीनों लोकों में श्रेष्ठ एवं समस्त इंद्रियों को सुख देने वाला धर्म मनुष्य शरीर में ही किया जाता है इसलिए मनुष्य देह ही सर्वश्रेष्ठ है ।।155।। जिस प्रकार तृणों में धान, वृक्षों में चंदन और पत्थरों में रत्न श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब भवों में मनुष्य भव श्रेष्ठ है ।।156।। हजारों उत्सर्पिणियों में भ्रमण करने के बाद यह जीव किसी तरह मनुष्य जन्म प्राप्त करता है और नहीं भी प्राप्त करता है ।।157।। क्लेशों से छुटकारा देने वाले उस मनुष्य जन्म को पाकर जो मनुष्य धर्म नहीं करता है वह पुनः दुर्गंतियों को प्राप्त होता है ।।158।। जिस प्रकार समुद्र के पानी में गिरा महामूल्य रत्न दुर्लभ हो जाता है उसी प्रकार नष्ट हुए मनुष्य जन्म का पुनः पाना भी दुर्लभ है ।।159।। इसी मनुष्य पर्यायमें यथायोग्य धर्मं कर प्राणी स्वर्गादिक में समस्त फल प्राप्त करते हैं ।।160।।
सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे हुए इस उपदेशको सुनकर भानुकर्ण बहुत ही हर्षित हुआ। उसके नेत्र कमल के समान विकसित हो गये। उसने भक्तिपूर्वक प्रणाम कर तथा हाथ जोड़कर पूछा कि ।।161।। हे भगवान्! अभी जो उपदेश प्राप्त हुआ है उससे मुझे तृप्ति नहीं हुई है अतः भेद-प्रभेद के द्वारा धर्म का निरूपण कीजिए ।।162।। तब अनंतबल केवली कहने लगे कि अच्छा धर्म का विशेष वर्णन सुनो जिसके प्रभाव से भव्य प्राणी संसार से मुक्त हो जाते हैं ।।163।। महाव्रत और अणुव्रत भेद से धर्म दो प्रकार का कहा गया है। उनमें से पहला अर्थात् महाव्रत गृहत्यागी मुनियों के होता है और दूसरा अर्थात् अणुव्रत संसारवर्ती गृहस्थों के होता है ।।164।। अब मैं समस्त परिग्रहों से रहित महान् आत्मा के धारी मुनियों का वह चरित्र कहता हूँ जो कि पापों को नष्ट करने में समर्थ है ।।165।। समस्त पदार्थों को जानने वाले मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थं में ऐसे कितने ही महापुरुष हैं जो जन्म-मरण संबंधी महाभय से युक्त हैं ।।166।। ये मनुष्य पर्याय को एरंड वृक्ष के समान निःसार जानकर परिग्रह से रहित हो मुनिपद को प्राप्त हुए हैं ।।167।। वे साधु सदा पंच महाव्रतों में लीन रहते हैं और शरीरत्याग पर्यंत तत्त्वज्ञान के प्राप्त करने में तत्पर होते हैं ।।168।। शुद्ध हृदय को धारण करने वाले ये धैर्यशाली मुनि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में सदा लीन रहते हैं ।।169।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और आगमानुमोदित बह्मचर्य उन्हीं के होता है जिनके कि परिग्रह का आलंबन नहीं होता ।।170।। जो बुद्धिमान् जन अपने शरीर में भी राग नहीं करते हैं और सूर्यास्त हो जाने पर यत्नपूर्वक विश्राम करते हैं उनके परिग्रह क्या हो सकता है? अर्थात् कुछ नहीं ।।171।। मुनि पाप उपार्जन करनेवाले बालाग्रमात्र परिग्रह से रहित होते हैं तथा अत्यंत धीर-वीर और सिंह के समान पराक्रमी होते हैं ।।172।। ये वायु के समान सब प्रकार के प्रतिबंध से रहित होते हैं। पक्षियों के तो परिग्रह हो सकता है पर मुनियों के रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता ।।173।। ये आकाश के समान मल के संसर्ग से रहित होते हैं, इनकी चेष्टाएँ अत्यंत प्रशंसनीय होती हैं, ये चंद्रमा के समान सौम्य और दिवाकर के समान देदीप्यमान होते हैं ।।174।। ये समुद्रके समान गंभीर, सुमेरुके समान धीर-वीर और भयभीत कछुए के समान समस्त इंद्रियों के समूह को अत्यंत गुप्त रखने वाले होते हैं ।।175।। ये क्षमा धर्म के कारण क्षमा अर्थात् पृथ्वी के तुल्य हैं, कषायों के उद्रेक से रहित हैं और चौरासी लाख गुणों से सहित हैं ।।176।। जिनेंद्र प्रतिपादित शील के अठारह लाख भेदों से सहित हैं, तपरूपी विभूति से अत्यंत संपन्न हैं तथा मुक्ति की इच्छा करने में सदा तत्पर रहते हैं ।।177।। ये मुनि जिनेंद्र निरूपित पदार्थों में लीन रहते हैं, अन्य धर्मो के भी अच्छे जानकार होते हैं, श्रुतरूपी सागर के पारगामी और यम के धारी होते हैं ।।178।। ये मुनि अनेक नियमों के करने वाले, उद्दंडता से रहित, नाना ऋद्धियों से संपन्न और महामंगलमय शरीर के धारक होते हैं ।।179।। इस तरह जो पूर्वोक्त गुणों को धारण करने वाले हैं, समस्त जगत के आभरण हैं और जिनके कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे मुनि उत्तम देव पद को प्राप्त होते हैं ।।180।। तदनंतर दो-तीन भवों में ध्यानाग्नि के द्वारा समस्त कलुषता को जलाकर निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेते हैं ।।181।।
अब स्नेह रूपी पिंजड़े में रुके हुए गृहस्थाश्रम वासी लोगों का बारह प्रकार का धर्मं कहता हूँ सो सुनो ।।182।। गृहस्थों को पांच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत, तीन गुणव्रत और यथाशक्ति हजारों नियम धारण करने पड़ते हैं ।।183।। स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल परद्रव्यग्रहण, परस्त्री समागम और अनंत तृष्णा से विरत होना ये गृहस्थों के पाँच अणुव्रत कहलाते हैं। इन व्रतों की रक्षा के लिए जिनेंद्र देव ने निम्नांकित भावना का निरूपण किया है ।।184-185।। जिस प्रकार मुझे अपना शरीर इष्ट है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना-अपना शरीर इष्ट होता है ऐसा जानकर गृहस्थ को सब प्राणियों पर दया करनी चाहिए ।।186।। जिनेंद्र देव ने दया को हो धर्म की परम सीमा बतलाया है। यथार्थ में जिनके चित्त दया रहित हैं उनके थोड़ा भी धर्म नहीं होता है ।।187।। जो वचन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में निमित्त है वह असत्य ही कहा गया है, क्योंकि सत्य इससे विपरीत होता है ।।188।। की गयी चोरी इस जन्म में वध, बंधन आदि कराती है और मरने के बाद कुयोनियों में नाना प्रकार के दुःख देती है ।।189।। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह चोरी का सर्व प्रकार से त्याग करे। जो कार्य दोनों लोकों में विरोध का कारण है वह किया ही कैसे जा सकता है? ।।190।। परस्त्री का सर्पिणी के समान दूर से ही त्याग करना चाहिए क्योंकि वह पापिनी लोभ के वशीभूत हो पुरुष का नाश कर देती है ।।191।। जिस प्रकार अपनी स्त्री को कोई दूसरा मनुष्य छेड़ता है और उससे अपने आपको दुःख होता है उसी प्रकार सभी की यह व्यवस्था जाननी चाहिए ।।192।। परस्त्री सेवन करने वाले मनुष्य को इसी जन्म में बहुत भारी तिरस्कार प्राप्त होता है और मरने पर त्रियंच तथा नरक गति के अत्यंत दुःसह दुःख प्राप्त करने ही पड़ते हैं ।।193।। अपनी इच्छा का सदा परिमाण करना चाहिए क्योंकि इच्छा पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो वह महादुःख देती है। इस विषय में भद्र और कांचन का उदाहरण प्रसिद्ध है ।।194।। वेर आदि को बेचने वाला एक भद्र नामक पुरुष था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि मैं एक दीनार का ही परिग्रह रखूँगा। एक बार उसे मार्ग में पड़ा हुआ बटुआ मिला। उस बटुए में यद्यपि बहुत दीनारें रखी थीं पर भद्र ने अपनी प्रतिज्ञा का ध्यान कर कुतूहल वश उनमें से एक दीनार निकाल ली। शेष बटुआ वहीं छोड़ दिया। वह बटुआ कांचन नामक दूसरे पुरुष ने देखा तो उसने सब का सब उठा लिया। दीनारों का स्वामी राजा था। जब उसने जांच-पड़ताल को तो कांचन को मृत्यु की सजा दी गयी और भद्र ने जो एक दीनार ली थी वह स्वयं ही जाकर राजा को वापस कर दी जिससे राजा ने उसका सम्मान किया ।।195-197।।
अनर्थ दंडों का त्याग करना, दिशाओं और विदिशाओं में आवागमन की सीमा निर्धारित करना और भोगोपभोग का परिमाण करना ये तीन गुणव्रत हैं ।।198।। प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना, प्रोषधोपवास धारण करना, अतिथि संविभाग और आयु का क्षय उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत हैं ।।199।। जिसने अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत नहीं किया है, जो परिग्रह से रहित है और सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होकर घर आता है ऐसा मुनि अतिथि कहलाता है ।।200।। ऐसे अतिथि के लिए अपने वैभव के अनुसार आदर पूर्वक लोभ रहित हो भिक्षा तथा उपकरण आदि देना चाहिए यही अतिथि संविभाग है ।।201।। इनके सिवाय गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रि भोजन और वेश्या समागम से जो विरक्त होता है उसे नियम कहा है ।।202।। इस गृहस्थ धर्म का पालन कर जो समाधि पूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देव पर्याय को प्राप्त होता है और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्यत्व प्राप्त करता है ।।203।। ऐसा जीव अधिक से अधिक आठ भवों में रत्नत्रय का पालन कर अंत में निर्ग्रंथ हो सिद्ध पद को प्राप्त होता है ।।204।। जो दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर यथोक्त आचरण करने में असमर्थ है, केवल जिनेंद्र देव के द्वारा कथित आचरण की श्रद्धा करता है वह भी निकट काल में मोक्ष प्राप्त करता है ।।205।। जिसका लाभ सब लाभों में श्रेष्ठ है ऐसे केवल सम्यग्दर्शन के द्वारा भी मनुष्य दुर्गति के भय से छूट जाता है ।।206।। जो स्वभाव से ही जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार करता है वह पुण्य का आधार होता है तथा पाप के अंश मात्र का भी उससे संबंध नहीं होता ।।207।। नमस्कार तो दूर रहा जो जिनेंद्र देव का भाव पूर्वक स्मरण भी करता है उसके करोड़ों भवों के द्वारा संचित पाप कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।208।। जो मनुष्य तीन लोक में श्रेष्ठ रत्न स्वरूप जिनेंद्र देव को हृदय में धारण करता है उसके सब ग्रह स्वप्न और शकुन की सूचना देनेवाले पक्षी सदा शुभ ही रहते हैं ।।209।। जो मनुष्य 'अर्हते नमः' अर्हंत के लिए नमस्कार हो, इस वचन का भाव पूर्वक उच्चारण करता है उसके समस्त कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है ।।210।। जिनेंद्र चंद्र की कथा रूपी किरणों के समागम से भव्य जीव का निर्मल हृदय रूपी कुमुद शीघ्र ही प्रफुल्ल अवस्था को प्राप्त होता है ।।211।। जो मनुष्य अर्हंत, सिद्ध और मुनियों के लिए नमस्कार करता है वह जिन शासन के भक्त जनों से स्नेह रखने वाला अतीत संसार है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करनेवाला है ऐसा जानना चाहिए ।।212।। जो पुरुष जिनेंद्र देव की प्रतिमा बनवाता है, जिनेंद्र देव का आकार लिखवाता है, जिनेंद्र देव की पूजा करता है अथवा जिनेंद्र देव की स्तुति करता है उसके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता ।।213।।
यह मनुष्य चाहे राजा हो चाहे साधारण कुटुंबी, धनाढ्य हो चाहे दरिद्र, जो भी धर्म से युक्त होता है वह समस्त संसार में पूज्य होता है ।।214।। जो महाविनय से संपन्न तथा कार्यं और अकार्य के विचार में निपुण हैं वे धर्म के समागम से गृहस्थों में प्रधान होते हैं ।।215।। जो मनुष्य मधु, मांस और मदिरा आदि का उपयोग नहीं करते हैं वे गृहस्थों के आभूषण पद पद पर स्थित हैं अर्थात् गृहस्थों के आभूषण हैं ।।216।। जो शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से रहित हैं, जिनकी आत्मा अन्य दृष्टियों की प्रशंसा से दूर है और जो अन्य शासन संबंधी स्तवन से वर्जित हैं वे गृहस्थों में प्रधान पद को प्राप्त हैं ।।217-218।। जो उत्तम वस्त्र का धारक है, जिसके शरीर से सुगंधि निकल रही है, जिसका दर्शन सबको प्रिय लगता है, नगर की स्त्रियों जिसकी प्रशंसा कर रही हैं, जो पृथिवी को देखता हुआ चलता है, जिसने सब विकार छोड़ दिये हैं, जो उत्तम भावना से युक्त है और अच्छे कार्यों के करने में तत्पर है ऐसा होता हुआ जो जिनेंद्र देव को वंदना के लिए जाता है उसे अनंत पुण्य प्राप्त होता है ।।219-220।। जो परद्रव्य को तृण के समान, पर पुरुष को अपने समान और परस्त्री को माता के समान देखते हैं वे धन्य हैं ।।221।।
'मैं दीक्षा लेकर पृथिवी पर कब विहार करूँगा? और कब कर्मों को नष्ट कर सिद्धालय में पहुँचूँगा' जो निर्मल चित्त का धारी मनुष्य प्रतिदिन ऐसा विचार करता है कर्म भयभीत होकर हो मानो उसकी संगति नहीं करते ।।222-223।। कोई-कोई गृहस्थ प्राणी, सात-आठ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और उत्तम हृदय को धारण करने वाले कितने ही मनुष्य तीक्ष्ण तप कर दो-तीन भव में ही मुक्त हो जाते हैं ।।224।। मध्यम भव्य प्राणी शीघ्र ही महान् आनंद अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं पर जो असमर्थ हैं किंतु मार्ग को जानते हैं वे कुछ विश्राम करने के बाद महा आनंद प्राप्त कर पाते हैं ।।225।। जो मनुष्य मार्ग को न जानकर दिन में सौ-सौ योजन तक गमन करता है वह भटकता ही रहता है तथा चिरकाल तक भी इष्ट स्थान को नहीं प्राप्त कर सकता है ।।226।। जिनका श्रद्धान मिथ्या है ऐसे लोग उग्र तपश्चरण करते हुए भी जन्म-मरण से रहित पद नहीं प्राप्त कर पाते हैं ।।227।। जो मोक्षमार्ग अर्थात् रत्नत्रय से भ्रष्ट हैं वे मोहरूपी अंधकार से आच्छादित तथा कषाय रूपी सर्पों से व्याप्त संसार रूपी अटवी में भटकते रहते हैं ।।228।। जिसके न शील है, न सम्यक्त्व और न उत्तम त्याग ही है उसका संसार-सागर से संतरण किस प्रकार हो सकता है? ।।229।। विंध्याचल के जिस प्रवाह में पहाड़ के समान ऊँचे-ऊँचे हाथी बह जाते हैं उसमें बेचारे खरगोश तो निःसंदेह ही बह जाते हैं ।।230।। जहाँ कुतीर्थ का उपदेश देने वाले कुगुरु भी जन्म-जरा-मृत्यु रूपी आवर्तों से युक्त संसार रूपी प्रवाह में चक्कर काटते हैं, वहाँ उनके भक्तों की कथा ही क्या है? ।।231।। जिस प्रकार पानी में पड़ी शिला को शिला ही तारने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार परिग्रही साधु शरणा गत परिग्रही भक्तों को तारने में समर्थ नहीं हैं ।।232।।
जो तप के द्वारा पापों को जलाकर हलके हो गये हैं ऐसे तत्त्वज्ञ मनुष्य ही अपने उपदेश से दूसरों को तारने में समर्थ होते हैं ।।233।। जो यह मनुष्य क्षेत्र है सो भयंकर संसार सागर में मानो उत्तम रत्नद्वीप है। इसकी प्राप्ति बड़े दुःख से होती है ।।234।। इस रत्नद्वीप में आकर बुद्धिमान् मनुष्य को अवश्य ही नियम रूपी रत्न ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान शरीर छोड़कर पर्यायांतर में अवश्य ही जाना होगा ।।235।। इस संसारमें जो विषयों के लिए धर्मरूपी रत्नों का चूर्ण करता है वह वैसा ही है जैसा कि कोई सूत प्राप्त करने के लिए मणियों का चूर्ण करता है ।।236।। शरीरादि अनित्य है, कोई किसी का शरण नहीं है, शरीर अशुचि है, शरीर रूपी पिजड़े से आत्मा पृथक् है, यह अकेला ही सुख-दुःख भोगता है, संसार के स्वरूप का चिंतवन करना, लोक की विचित्रता का विचार करना, आस्रव के दुर्गुणों का ध्यान करना, संवर की महिमा का चिंतवन करना, पूर्वबद्ध कर्मो की निर्जरा का उपाय सोचना, बोधि अर्थात् रत्नत्रय की दुर्लभता का विचार करना और धर्म का माहात्म्य सोचना- जिनेंद्र भगवान् ने ये बारह भावनाएँ कही हैं सो इन्हें सदा हृदय में धारण करना चाहिए ।।237-239।। जो अपनी शक्ति के अनुसार जैसे धर्म का सेवन करता है वह देवादि गतियों में उसका वैसा ही फल भोगता है ।।240।।
इस प्रकार उपदेश देते हुए अनंतबल केवली से भानुकर्ण ने पूछा कि हे नाथ! मैं अब नियम तथा उसके भेदों को जानना चाहता हूँ ।।241।। इसके उत्तर में भगवान् ने कहा कि हे भानुकर्ण! ध्यान देकर अवधारण करो। नियम और तप ये दो पदार्थ पृथक-पृथक नहीं हैं ।।242।। जो मनुष्य नियम से युक्त है वह शक्ति के अनुसार तपस्वी कहलाता है इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को सब प्रकार से नियम अथवा तप में प्रवृत्त रहना चाहिए ।।243।। बुद्धिमान् मनुष्यों को थोड़ा-थोड़ा भी पुण्य का संचय करना चाहिए क्योंकि एक-एक बूँद के पड़ने से समुद्र तक बहने वाली बड़ी-बड़ी नदियाँ बन जाती हैं ।।244।। जो दिन में एक मुहूर्त के लिए भी भोजन का त्याग करता है उसे एक महीने में उपवास के समान फल प्राप्त होता है ।।245।। संकल्प मात्र से प्राप्त होने वाले उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करते हुए इस जीव को कम से कम दस हजार वर्ष तो लगते ही हैं ।।246।। और जो जैन धर्म की श्रद्धा करता हुआ पूर्व प्रतिपादित व्रतादि धारण करता है उस महात्मा का स्वर्ग में कम से कम एक पल्य प्रमाण काल बीतता है ।।247।। वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्य गति में उस प्रकार उत्तम भोग प्राप्त करता है जिस प्रकार तापस वंश में उत्पन्न हुई उपवना ने प्राप्त किये थे ।।248।।
एक उपवना नाम की दुःखिनी कन्या थी जो भाई बंधुओं से रहित थी और बेर आदि खाकर अपनी जीविका करती थी। एक बार उसने मुहूर्त-भर के लिए आहार का त्याग किया। उस व्रत के प्रभाव से राजा ने उसका बड़ा आदर किया तथा व्रत के अनंतर उसे उत्कृष्ट धनसंपदा से युक्त किया। इस घटना से उसका मन धर्म में अत्यंत उत्साहित हो गया ।।249-250।। जो मनुष्य निरंतर जिनेंद्र भगवान् के वचनोंका पालन करता है वह परलोक में निर्बाध सुख का उपभोग करता है ।।251।। जो प्रतिदिन दो मुहूर्त के लिए आहार का त्याग करता है उसे महीने में दो उपवास का फल प्राप्त होता है ।।252।। इस प्रकार जो एक-एक मुहूर्त बढ़ाता हुआ तीस मुहूर्त तक के लिए आहार का त्याग करता है उसे तीन-चार आदि उपवासों का फल प्राप्त होता ।।253।। तेला आदि उपवासों में भी इसी तरह मुहूर्त की योजना कर लेनी चाहिए। जो अधिक काल के लिए त्याग होता है उसका कारण के अनुसार अधिक फल कहना चाहिए ।।254।। प्राणी स्वर्ग में इस नियम का फल प्राप्त कर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ अद्भुत चेष्टाओं के धारक होते हैं ।।255।। स्वर्ग में फल भोगने से जो पुण्य शेष बचता है उसके फलस्वरूप वे कुलवती स्त्रियों के पति होते हैं। जिनका कि शरीर लावण्य रूपी पंक से लिप्त रहता है तथा जो मन को हरण करने वाले हाव-भाव विभ्रम किया करती हैं ।।256।। नियम वाली स्त्रियाँ भी स्वर्ग से चय कर मनुष्य भव में आती हैं और महापुरुषों के द्वारा सेवनीय होती हुई लक्ष्मी की समानता प्राप्त करती हैं ।।257।। जो सूर्यास्त होने पर अन्न का त्याग करता है उस सम्यग्दृष्टि को भी विशेष अभ्युदय की प्राप्ति होती है ।।258।। यह जीव इस धर्म के कारण रत्नों से जगमगाते विमानों में अप्सराओं के मध्य में बैठकर अनेक पल्योपम काल व्यतीत करता है ।।259।।
इसलिए दुर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर धर्म में तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को महाप्रभु श्रीजिनेंद्र देव की उपासना करनी चाहिए ।।260।। जिनके आसनस्थ होने पर देव, तिर्यंच और मनुष्यों से सेवित एक योजन की पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती है ।।261।। जिनके आठ प्रातिहार्य और चौंतीस महा अतिशय प्रकट होते हैं तथा जिनका रूप हजार सूर्यो के समान देदीप्यमान एवं नेत्रों को सुख देनेवाला होता है ।।262।। ऐसे महाप्रभु जिनेंद्र भगवान को जो बुद्धिमान् भव्य प्रणाम करता है वह थोड़े ही समय में संसार सागर से पार हो जाता है ।।263।। जीवों को शांति प्राप्त करने के लिए यह उपाय छोड़कर और दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिए यत्नपूर्वक इसकी सेवा करनी चाहिए ।।264।। इनके सिवाय कुतीर्थियों से सेवित गोदंडक के समान जो अन्य हजारों मार्ग हैं उनमें प्रमादी जीव मोहित हो रहे हैं- यथार्थ मार्ग भूल रहे हैं ।।265।। उन मार्गाभासों में समीचीन दया तो नाम मात्र को नहीं है क्योंकि मधु-मांसादि का सेवन खुलेआम होता है पर जिनेंद्र देव की प्ररूपणा में दोष की कणिका भी दृष्टिगत नहीं होती ।।266।।
लोक में यह कार्य तो बिलकुल ही त्यागने योग्य है कि दिन भर तो भूख से अपनी आत्मा को पीड़ा पहुँचाते हैं और रात्रि को भोजन कर संचित पुण्य को तत्काल नष्ट कर देते हैं ।।267।। रात्रि में भोजन करना अधर्म है फिर भी इसे जिन लोगों ने धर्म मान रखा है, उनके हृदय पाप कर्म से अत्यंत कठोर हैं उनका समझना कठिन है ।।268।। सूर्य के अदृश हो जाने पर जो लंपटी- पापी मनुष्य भोजन करता है वह दुर्गति को नहीं समझता ।।269।। जिसके नेत्र अंधकार के पटल से आच्छादित हैं और बुद्धि पाप से लिप्त है ऐसे पापी प्राणी रात के समय मक्खी, कीड़े तथा बाल आदि हानिकारक पदार्थ खा जाते हैं ।।270।। जो रात्रि में भोजन करता है वह डाकिनी, प्रेत, भूत आदि नीच प्राणियों के साथ भोजन करता है ।।271।। जो रात्रि में भोजन करता है वह कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करता है ।।272।। अथवा अधिक कहने से क्या? संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रात में भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है ।।273।। सूर्य के अस्त हो जाने पर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानों ने मनुष्यता से बँधे हुए पशु कहा है ।।274।। जो जिन शासन से विमुख होकर रात-दिन चाहे जब खाता रहता है वह नियम रहित अव्रती मनुष्य परलोक में सुखी कैसे हो सकता है? ।।275।।
जो पापी मनुष्य दया रहित होकर जिनेंद्र देव की निंदा करता है वह अन्य शरीर में जाकर दुर्गंधित मुख वाला होता है अर्थात् पर भव में उसके मुख से दुर्गंध आती है ।।276।। जो मनुष्य मांस, मद्य, रात्रि भोजन, चोरी और परस्त्री का सेवन करता है वह अपने दोनों भवों को नष्ट करता है ।।277।। जो मनुष्य रात्रि में भोजन करता है वह पर भव में अल्पायु, निर्धन, रोगी और सुख रहित अर्थात् दुःखी होता है ।।278।। रात्रि में भोजन करने से यह जीव दीर्घ काल तक निरंतर जन्म-मरण प्राप्त करता रहता है और गर्भवास में दुःख से पकता रहता है ।।279।। रात्रि में भोजन करने वाला मिथ्यादृष्टि पुरुष शूकर, भेड़िया, बिलाव, हंस तथा कौआ आदि योनियों में दीर्घ काल तक उत्पन्न होता रहता है ।।280।। जो दुर्बुद्धि रात्रि में भोजन करता है वह हजारों उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल तक कुयोनियों में दुःख उठाता रहता है ।।281।। जो जैन धर्म पाकर उसके नियमों में अटल रहता है वह समस्त पापों को जलाकर उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ।।282।। रत्नत्रय के धारक तथा अणुव्रतों का पालन करने में तत्पर भव्य जीव सूर्योदय होने पर ही निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं ।।283।। जो दयालु मनुष्य रात्रि में भोजन नहीं करते वे पाप हीन मनुष्य स्वर्ग में विमानों के अधिपति होकर उत्कृष्ट भोग प्राप्त करते हैं ।।284।। वहाँ से च्युत होकर तथा उत्तम मनुष्य पर्याय पाकर चक्रवर्ती आदि के विभव से प्राप्त होने वाले सुख का उपभोग करते हैं ।।285।। शुभ चेष्टाओं के धारक पुरुष सोधर्मादि स्वर्गों में मन में विचार आते ही उपस्थित होने वाले उत्कृष्ट भोगों तथा अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं ।।286।। दिन में भोजन करने से मनुष्य जगत का हित करने वाले महामंत्री, राजा, पीठ मर्द तथा सर्व लोकप्रिय व्यक्ति होते हैं ।।287।। धनवान्, गुणवान्, रूपवान्, दीर्घायुष्क, रत्नत्रय से युक्त तथा प्रधान पद पर आसीन व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।288।। जिनका तेज युद्ध में असह्य है, जो नगर आदि के अधिपति हैं, विचित्र वाहनों से सहित हैं तथा सामंत गण जिनका सत्कार करते हैं ऐसे पुरुष भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।289।। इतना ही नहीं, भवनेंद्र, देवेंद्र, चक्रवर्ती और महालक्षणों से संपन्न व्यक्ति भी दिन में भोजन करने से ही होते हैं ।।290।। जो रात्रि भोजन त्याग व्रत में उद्यत रहते हैं वे सूर्य के समान प्रभावान्, चंद्रमा के समान सौम्य और स्थायी भोगों से युक्त होते हैं ।।291।।
रात्रि में भोजन करने से स्त्रियाँ अनाथ, दुर्भाग्यशाली, मातापिता भाई से रहित तथा शोक और दारिद्र्य से युक्त होती हैं ।।292।। जिनकी नाक चपटी है, जिनका देखना ग्लानि उत्पन्न करता है, जिनके नेत्र कीचड़ से युक्त हैं, जो अनेक दुष्ट लक्षणों से सहित हैं। जिनके शरीर से दुर्गंध आती रहती है, जिनके ओठ फटे और मोटे हैं, कान खड़े हैं, शिर के बाल पीले तथा चटके हैं, दाँत तूँबड़ी के बीज के समान हैं और शरीर सफेद है, जो कानी, शिथिल तथा कांतिहीन हैं, रूपरहित हैं, जिनका चर्म कठोर है। जो अनेक रोगों से युक्त तथा मलिन हैं, जिनके वस्त्र फटे हैं, जो गंदा भोजन खाकर जीवित रहती हैं और जिन्हें दूसरे की नौकरी करनी पड़ती है, ऐसी स्त्रियां रात्रि भोजन के ही पाप से होती हैं ।।293-296।। रात्रि भोजन में तत्पर रहने वाली स्त्रियाँ बूचे नकटे और धन तथा भाई-बंधुओं से रहित पति को प्राप्त होती हैं ।।297।। जो दुःख के भार से निरंतर आक्रांत रहती हैं, बाल अवस्था में ही विधवा हो जाती हैं, पानी, लकड़ी आदि ढो-ढो कर पेट भरती हैं, अपना पेट बड़ी कठिनाई से भर पाती हैं, सब लोग जिनका तिरस्कार करते हैं, जिनका चित्त वचन रूपी बसूला से नष्ट होता रहता है और जिनके शरीर में सैकड़ों घाव लगे रहते हैं, ऐसी स्त्रियाँ रात्रि भोजन के कारण ही होती हैं ।।298-299।।
जो स्त्रियां शांत चित्त, शील सहित मुनिजनों का हित करने वाली और रात्रि भोजन से विरत रहती हैं वे स्वर्ग में यथेच्छ भोग प्राप्त करती हैं। शिर पर हाथ रखकर आज्ञा की प्रतीक्षा करने वाले परिवार के लोग उन्हें सदा घेरे रहते हैं ।।300-301।। स्वर्ग से च्युत होकर वे वैभवशाली उच्च कुल में उत्पन्न होती हैं, शुभ लक्षणों से युक्त तथा समस्त गुणों से सहित होती हैं ।।302।। अनेक कलाओं में निपुण रहती हैं, उनके शरीर नेत्र और मन में स्नेह उत्पन्न करने वाले होते हैं, अपने वचनों से मानो वे अमृत छोड़ती हैं, समस्त लोगों को आनंदित करती हैं ।।303।। विद्याधरों के अधिपति, नारायण, बलदेव और चक्रवर्ती भी उनमें उत्कंठित रहते हैं- उन्हें प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं ।।304।। जिनके शरीर की कांति बिजली तथा लाल कमल के समान मनोहारी है, जिनके सुंदर कुंडल सदा हिलते रहते हैं तथा राजाओं के साथ जिनके विवाह संबंध होते हैं ऐसी स्त्रियाँ दिन में भोजन करने से ही होती हैं ।।305।। जो दयावती स्त्रियाँ रात्रि में भोजन नहीं करती हैं उन्हें सदा भृत्य जनों के द्वारा तैयार किया हुआ मन चाहा भोजन प्राप्त होता है ।।306।। दिन में भोजन करने से स्त्रियाँ श्रीकांता, सुप्रभा, सुभद्रा और लक्ष्मी के समान कांति युक्त होती हैं ।।307।। इसलिए नर हो चाहे नारी, दोनों को अपना चित्त नियम में स्थिरकर अनेक दुःखों से सहित जो रात्रि भोजन है उसका त्याग करना चाहिए ।।308।।
इस प्रकार थोड़े ही प्रयास से जब सुख मिलता है तो उस प्रयास का निरंतर सेवन करो। ऐसा कौन है जो अपने लिए सुख की इच्छा न करता हो ।।309।। 'धर्मं सुखोत्पत्ति का कारण है और अधर्मं दुःखोत्पत्ति का' ऐसा जानकर धर्म की सेवा करनी चाहिए और अधर्म का परित्याग ।।310।। यह बात गो पालकों तक में प्रसिद्ध है कि धर्म से सुख होता है और अधर्म से दुःख ।।311।। धर्म का माहात्म्य देखो कि जिसके प्रभाव से प्राणी स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ महाभोगों से युक्त तथा मनोहर शरीर के धारक होते हैं ।।312।। वे जल तथा स्थल में उत्पन्न हुए रत्नों के आधार होते हैं और उदासीन होने पर भी सदा सुखी रहते हैं ।।313।। ऐसे मनुष्यों के स्वर्ण, वस्त्र तथा धान आदि के भांडारों की रक्षा हाथों में विविध प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले लोग किया करते हैं ।।314।। उन्हें अत्यधिक गाय, भैंस आदि पशु, हाथी, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते हैं। साथ ही जो मन और इंद्रियों के विषय उत्पन्न करने में समर्थ हैं, जिनकी चाल हंसी के समान विलास पूर्ण है, जिनका शरीर अत्यधिक सौंदर्य से युक्त है, जिनकी आवाज मीठी है, जिनके स्तन स्थूल हैं, जो अनेक शुभ लक्षणों से युक्त हैं, जो नेत्रों को पराधीन करने के लिए जाल के समान हैं, तथा जिनकी चेष्टाएँ मनोहर हैं ऐसी अनेक तरुण स्त्रियां और नाना अलंकार धारण करने वाली दासियाँ पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं ।।315-318।।
कितने ही मूर्ख प्राणी ऐसे हैं कि जो सुख समूह की प्राप्ति का कारण धर्म है उसे जानते ही नहीं हैं अतः वे उसके साधन के लिए प्रयत्न ही नहीं करते ।।319।। और जिनकी आत्मा पाप कर्म के वशीभूत है तथा जो पाप कर्मों में निरंतर तत्पर रहते हैं ऐसे भी कितने ही लोग हैं कि जो धर्म को सुख प्राप्ति का साधन सुनकर भी उसका सेवन नहीं करते ।।320।। उत्तम कार्यों के बाधक पाप कर्म के उपशांत हो जाने पर कुछ ही जीव ऐसे होते हैं कि जो उत्सुक चित्त हो गुरु के समीप जाकर धर्म का स्वरूप पूछते हैं ।।321।। तथा पाप कर्म के उपशांत होने से यदि वे जीव उत्तम आचरण करने लगते हैं तो उनमें सद्गुरु के वचन सार्थक हो जाते हैं ।।322।। जो बुद्धिमान् मनुष्य पाप का परित्याग कर इस नियम का पालन करते हैं वे स्वर्ग में महागुणों के धारक होते हुए प्रथम अथवा द्वितीय होते हैं ।।323।।
जो मनुष्य भक्ति-पूर्वक मुनियों के भोजन करने का समय बिता कर बाद में भोजन करते हैं स्वर्ग में देव लोग सदा उन्हें सुखी देखने की इच्छा करते हैं ।।324।। उत्तम तेज को धारण करने वाले वे पुरुष देवों के समूह के इंद्र होते हैं अथवा मनचाहे भोग प्राप्त करने वाले सामानिक पद को प्राप्त करते हैं ।।325।। जिस प्रकार वट वृक्ष का छोटा सा बीज आगे चलकर ऊँचा वृक्ष हो जाता है उसी प्रकार छोटा सा तप भी आगे चलकर महाभोग रूपी फल को धारण करता है ।।326।। जिसकी बुद्धि निरंतर धर्म में आसक्त रहती है ऐसा मनुष्य अपने पूर्वाचरित धर्म के प्रभाव से कुबेरकांत के समान नेत्रों को आकर्षित करने वाले सुंदर शरीर का धारक होता है ।।327।। एक सहस्रभट नाम का पुरुष था। उसने मुनिवेला व्रत धारण किया था अर्थात् मुनियों के भोजन करने का समय बीत जाने के बाद ही वह भोजन करता था। एक बार उसने मुनि के लिए आहार दिया। उसके प्रभाव से उसके घर रत्नवृष्टि हुई और वह मर कर पर भव में कुबेरकांत सेठ हुआ ।।328।। जो कि भूमंडल में प्रसिद्ध, उत्कृष्ट पराक्रमी, महाधन से युक्त और सेवक समूह के मध्य में स्थित रहनेवाला था ।।329।। पूर्णिमा के चंद्रमा के समान उसका शरीर अत्यंत सुंदर था और वह उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ समस्त शास्त्रों का अर्थ जानने में निपुण था ।।330।। पूर्व धर्म के प्रभाव से ही उसने परम वैराग्य को प्राप्त हो जिनेंद्र प्रतिपादित दीक्षा को धारण किया था ।।331।। जो मनुष्य अनगार महर्षियों के काल की प्रतीक्षा करते हैं वे हरिषेण चक्रवर्ती के समान उत्कृष्ट भोगों को प्राप्त होते हैं ।।332।। हरिषेण ने मुनिवेला में मुनि के आगमन की प्रतीक्षा कर बहुत भारी पुण्य का संचय किया था इसलिए वह अत्यंत उन्नत लक्ष्मी को प्राप्त हुआ था ।।333।।
शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले जो मनुष्य ध्यान की भावना से प्रेरित हो मुनि के समीप जाकर एकभक्त करते हैं अर्थात् एक बार भोजन करने का नियम लेते हैं और एक भक्त से ही समय पूरा कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे रत्नों की कांति से जगमगाते हुए विमान में उत्पन्न होते हैं ।।334-335।। शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वे देव, निरंतर प्रकाशित रहने वाले उन विमानों में अप्सरओं के बीच बैठकर चिरकाल तक क्रीडा करते हैं ।।336।। जो उत्तम हार धारण किये हुए हैं, जिनकी कलाइयों में उत्तम कड़े सुशोभित हैं, जो कमर में कटिसूत्र और शिर पर मुकुट धारण करते हैं, जिनके ऊपर छत्र फिरता है और पार्श्व में चमर ढोले जाते हैं ऐसे देव, एक भक्त व्रत के प्रभाव से होते हैं ।।337।।
जो महाव्रत धारण करने की भावना रखते हुए वर्तमान में अणुव्रत धारण करते हैं तथा शरीर को अनित्य समझकर जिनके हृदय अत्यंत शांत हो चुके हैं ऐसे जो मनुष्य हृदय पूर्वक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास करते हैं वे स्वर्ग की दीर्घायु का बंध करते हैं ।।338-339।। उनमें से कोई तो सौधर्मादि स्वर्गों में जन्म लेते हैं, कोई अहमिंद्र पद प्राप्त करते हैं और कोई विशुद्धता के कारण मोक्ष जाते हैं ।।340।। जो निरंतर विनय से युक्त रहते हैं, गुण और शीलव्रत से सहित होते हैं तथा जिनका चित्त सदा तप में लगा रहता है ऐसे मनुष्य निःसंदेह स्वर्ग जाते हैं वहाँ इच्छानुसार भोग भोगकर मनुष्य होते हैं, बड़े भारी राज्य का उपभोग करते हैं और जैन मत को प्राप्त होते हैं ।।341-342।। जैन मत को पाकर क्रम-क्रम से मुनियों का चरित्र धारण करते हैं और उसके प्रभाव से सर्व कर्म रहित सिद्धों का निकेतन प्राप्त कर लेते हैं ।।343।।
जो प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल इन तीनों कालों में मन, वचन, काय से स्तुति कर जिन देव को नमस्कार करता है अर्थात् त्रिकाल वंदना का नियम लेता है वह सुमेरु पर्वत के समान मिथ्या मत रूपी वायु से सदा अक्षोभ्य रहता है ।।344।। जो गुणरूपी अलंकारों से सुशोभित है तथा जिसका शरीर शीलव्रत रूपी चंदन से सुगंधित है ऐसा वह पुरुष स्वर्ग में समस्त इंद्रियों को हरने वाले भोग भोगता है ।।345।। तदनंतर मनुष्य और देव इन दो शुभ गतियों में कुछ आवागमन कर सर्व कर्म रहित हो परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ।।346।। चूंकि पंचेंद्रियों के विषय सब जीवों के द्वारा चिरकाल से अभ्यस्त हैं इसलिए इनसे मोहित हुए प्राणी विरति (त्याग— आखड़ी) करने के लिए समर्थ नहीं हो पाते हैं ।।347।। यहाँ बड़ा आश्चर्य तो यही है कि फिर भी उत्तम पुरुष उन विषयों को विष मिश्रित अन्न के समान देखकर मोक्ष प्राप्ति के साधक कार्य का सेवन करते हैं ।।348।। संसार में भ्रमण करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव को यदि एक ही विरति (आखड़ी) प्राप्त हो जाती है तो वह मोक्ष का बीज हो जाती है ।।349।। जिन प्राणियों के एक भी नियम नहीं है वे पशु हैं अथवा रस्सी से रहित (पक्ष में व्रत शील आदि गुणों से रहित) फूटे घड़े के समान हैं ।।350।। गुण और व्रत से समृद्ध तथा नियमों का पालन करनेवाला प्राणी यदि वह संसार से पार होने की इच्छा रखता है तो उसे प्रमाद रहित होना चाहिए ।।351।। जो बुद्धि के दरिद्र मनुष्य दुष्कर्म- खोटे कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जंमांध मनुष्यों के समान चिरकाल तक संसाररूपी अटवी में भटकते रहते हैं ।।352।।
तदनंतर वहाँ जो भी तिर्यंच, मनुष्य और देव विद्यमान थे वे उन अनंतबल केवली रूपी चंद्रमा के वचन रूपी किरणों के समागम से परम हर्ष को प्राप्त हुए ।।353।। उनमें से कोई तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए, कोई अणुव्रती हुए और कोई बलशाली महाव्रतों के धारक हुए ।।354।। अथानंतर धर्म रथ नामक मुनि ने रावण से कहा कि हे भव्य! अपनी शक्ति के अनुसार कोई नियम ले ।।355।। ये मुनिराज धर्मरूपी रत्नों के द्वीप हैं सो इनसे अधिक नहीं तो कम से कम एक ही नियम रूपी रत्न ग्रहण कर ।।356।। इस प्रकार चिंता के वशीभूत होकर क्यों बैठा है? निश्चय से त्याग महापुरुषों की बुद्धि के खेद का कारण नहीं है अर्थात् त्याग से महापुरुषों को खिन्नता नहीं होती प्रत्युत प्रसन्नता होती है ।।357।। जिस प्रकार रत्नद्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का चित्त ‘यह लूँ या यह लूँ’ इस तरह चंचल होकर उमडता उसी प्रकार इस चारित्र रूपी द्वीप में प्रविष्ट हुए पुरुष का भी चित्त ‘यह नियम लूँ या यह नियम लूं’ इस तरह परम आकुलता को प्राप्त हो घूमता रहता है ।।358।।
अथानंतर जिसका चित्त सदा भोगों में अनुरक्त रहता था और इसी कारण जो व्याकुलता को प्राप्त हो रहा था ऐसे रावण के मन में यह भारी चिंता उत्पन्न हुई कि ।।359।। मेरा भोजन तो स्वभाव से ही शुद्ध है, सुगंधित है, स्वादिष्ट है, गरिष्ठ है और मांसादि के संसर्ग से रहित है ।।360।। हिंसा त्याग आदि जो गृहस्थों के व्रत हैं उनमें से मैं एक भी व्रत धारण करने में समर्थ नहीं हूँ फिर अन्य व्रतों की चर्चा ही क्या है? ।।361।। मेरा मन मदोन्मत्त हाथी के समान सर्व वस्तुओं में दौड़ता रहता है सो उसे मैं हाथ के समान अपनी भावना से रोकने में समर्थ नहीं हूँ ।।362।। जो निर्ग्रंथ व्रत धारण करना चाहते है वह मानो अग्नि की शिखा को पीना चाहता है, वायु को वस्त्र में बांधना चाहता है और सुमेरु को उठाना चाहता है ।।363।। बड़ा आश्चर्य है कि मैं शूर वीर होकर भी जिस तप एवं व्रत को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ उसी तप एवं व्रत को अन्य पुरुष धारण कर लेते हैं। यथार्थ में वे ही पुरुषोत्तम हैं ।।364।। रावण सोचता है कि क्या मैं एक यह नियम ले लूं कि पर स्त्री कितनी ही सुंदर क्यों न हो यदि वह मुझे नहीं चाहेगी तो मैं उसे बलपूर्वक नहीं छेडूँगा ।।365।। अथवा मुझ क्षुद्र व्यक्ति में इतनी शक्ति कहां से आई? मैं अपने ही चित्त का निश्चय वहन करने में समर्थ नहीं हूँ ।।366।। अथवा तीनों लोकों में ऐसी उत्तम स्त्री नहीं है जो मुझे देखकर काम से पीड़ित होती हुई विकलता को प्राप्त न हो जाय? ।।367।। अथवा जो मनुष्य मान और संस्कार के पात्र स्वरूप मन को धारण करता है उसे अन्य मनुष्य के संसर्ग से दूषित स्त्री के उस शरीर में धैर्य संतोष हो ही कैसे सकता है कि जो अन्य पुरुष के दांतों द्वारा किये हुए घाव से युक्त ओठ को धारण करता है, स्वभाव से ही दुर्गंधित है और मल की राशि स्वरूप है ।।368-369।। ऐसा विचारकर रावण ने पहले तो अनंतबल केवली को भाव पूर्वक नमस्कार किया। फिर देवों और असुरों के समक्ष स्पष्ट रूप से यह कहा कि ।।370।। हे भगवत्! जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा मैंने यह दृढ़ नियम लिया है ।।371।। जो समस्त बातों को सुन रहा था तथा जिसका मन सुमेरु के समान स्थिर था ऐसे भानुकर्ण (कुंभकर्ण) ने भी अरहंत सिद्ध साधु और जिन धर्म इन चार की शरण में जाकर यह नियम लिया कि मैं प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर तथा स्तुति कर अभिषेक पूर्वक जिनेंद्र देव को पूजा करूंगा। साथ ही जब तक मैं निर्ग्रंथ साधुओं की पूजा नहीं कर लूँगा तब तक आज से लेकर आहार नहीं करूँगा। भानुकर्ण ने यह प्रतिज्ञा बड़े हर्ष से की ।।372-374।। इसके सिवाय उसने पृथिवी पर घुटने टेक मुनिराज को आदरपूर्वक नमस्कार कर और भी बड़े नियम लिये ।।375।। तदनंतर हर्ष से जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे भक्त और असुर मुनिराज नमस्कार कर अपने-अपने स्थानों पर चले गये ।।376।। विशाल पराक्रम का धारी रावण भी आकाश में उड़कर इंद्र की लीला धारण करता हुआ लंका की ओर चला ।।377।। उत्तमोत्तम स्त्रियों के समूह ने प्रणाम पूर्वक जिसकी पूजा की थी ऐसे रावण ने वस्त्रादि से सुसज्जित अपनी नगरी में प्रवेश किया ।।378।। जिस प्रकार अनावृत देव मेरुपर्वत की गंभीर गुहा में रहता है उसी प्रकार भी समस्त वैभव से युक्त अपने निवासगृह में प्रवेश कर रहने लगा ।।379।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब भव्य जीवों के कर्म उपशम भाव प्राप्त होते हैं तब वे सतगुरु के मुख से कल्याणकारी उत्तम उपदेश प्राप्त करते हैं ।।380।। ऐसा जानकर हे प्रबुद्ध एवं उद्यमशील हृदय के धारक भव्य जनो! तुम लोग बार-बार जिनधर्म के सुनने में तत्पर होओ क्योंकि जो उत्तम विनयपूर्वक धर्म श्रवण करते हैं उन्हें सूर्य के समान विपुल ज्ञान होता है ।।381।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित पद्मचरित में अनंतबल केवली के द्वारा धर्मोपदेश का निरूपण करने वाला चौदहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।14।।