उपस्थापना: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> प्रायश्चित्त का एक भेद । इसमें संघ से निष्कासित मुनि को पुन: दीक्षा दी जाती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64.37 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> प्रायश्चित्त का एक भेद । इसमें संघ से निष्कासित मुनि को पुन: दीक्षा दी जाती है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_64#37|हरिवंशपुराण - 64.37]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
1. छेदोपस्थापना चारित्र-
धवला 1/1,1,123/370/1 तस्यैकस्य व्रतस्य छेदेन द्विव्यादिभेदेनोपस्थापनं व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयम:। =उस एक (सामायिक) व्रत का छेद करने को अर्थात् दो तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/147/8 अथ छेदोपस्थापनं कथयति–यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा—पंचप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो विवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखंडे सति निर्विकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरंगव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थानमिति। =अब छेदोपस्थापना का कथन करते हैं–जब एक समय समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में, स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब विकल्प भेद से पाँच व्रतों का छेदन होने से (अर्थात् एक सामायिक व्रत का पाँच व्रतरूप से भेद हो जाने के कारण) रागादि विकल्परूप सावद्यों से अपने आपको छुड़ाकर निज शुद्धात्मा में उपस्थान करना;–अथवा छेद यानी व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित्त के बल से अथवा व्यवहार प्रायश्चित्त से जो निज आत्मा में स्थित होना सो छेदोपस्थापना है।
अधिक जानकारी के लिये देखें छेदोपस्थापना ;
2. उपस्थापना प्रायश्चित्त
तत्त्वार्थसूत्र /9/22 आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारो-पस्थापनाः ।22। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है ।22।
सर्वार्थसिद्धि 9/22/440/10 पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । = पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है ।
अधिक जानकारी के लिये देखें -देखें प्रायश्चित्त ।
पुराणकोष से
प्रायश्चित्त का एक भेद । इसमें संघ से निष्कासित मुनि को पुन: दीक्षा दी जाती है । हरिवंशपुराण - 64.37