वक्ता: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> धर्मोपदेष्टा की विशेषताएँ</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> धर्मोपदेष्टा की विशेषताएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कुरल काव्य/परिच्छेद संख्या/श्लोक संख्या </span><span class="SanskritText"> भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (72/2)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पांडित्यं सर्वतोमुखम्। (73/8)। </span>= <span class="HindiText"> | <span class="GRef"> कुरल काव्य/परिच्छेद संख्या/श्लोक संख्या </span><span class="SanskritText"> भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (72/2)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पांडित्यं सर्वतोमुखम्। (73/8)। </span>= <span class="HindiText">हे शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषों ! पहले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरंभ करो। (72/2)। जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धांत श्रोताओं के हृदय में नहीं बैठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह निरुपयोगी ही है। (73/8)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> आत्मानुशासन/5-6 </span><span class="SanskritText">प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिंदया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।5। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।6। </span>= <span class="HindiText">जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शांत है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निंदा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।5। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।6। <br /> | <span class="GRef"> आत्मानुशासन/5-6 </span><span class="SanskritText">प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिंदया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।5। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।6। </span>= <span class="HindiText">जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शांत है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निंदा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।5। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।6। <br /> | ||
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Revision as of 10:25, 12 September 2023
सिद्धांतकोष से
- वक्ता
राजवार्तिक/1/20/12/75/18 वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृपर्याया द्वींद्रियादयः। = जिनमें वक्तृत्व पर्यायें प्रगट हो गयी हैं ऐसे द्वींद्रिय से आदि लेकर सभी जीव वक्ता हैं। ( धवला 1/1, 1, 2/117/6 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/365/778/24 )।
- वक्ता के भेद
सर्वार्थसिद्धि/1/20/123/10 त्रयो वक्तारः - सर्वज्ञस्तीर्थंकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति। = वक्ता तीन प्रकार के हैं−सर्वज्ञ तीर्थंकर या सामान्य केवली, श्रुतकेवली और आरातीय।
- जिनागम के वास्तविक उपदेष्टा सर्वज्ञ देव ही हैं
देखें आगम - 5.5 (समस्त वस्तु-विषयक ज्ञान को प्राप्त सर्वज्ञ देव के निरूपित होने से ही आगम की प्रमाणता है।)
देखें दिव्यध्वनि - 2.15 (आगम के अर्थकर्ता तो जिनेंद्र देव हैं और ग्रंथकर्ता गणधर देव हैं।)
दर्शनपाहुड़/ टीका/22/20/8 केवलज्ञानिभिर्जिनैर्भणितं प्रतिपादितम्। केवलज्ञानं विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वंति। अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुवादरूपी ज्ञातव्यः। = केवलज्ञानियों के द्वारा कहा गया है। केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर परमदेव उपदेश नहीं करते। अन्य मुनियों का उपदेश उसका अनुवाद रूप जानना चाहिए।
- धर्मोपदेष्टा की विशेषताएँ
कुरल काव्य/परिच्छेद संख्या/श्लोक संख्या भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (72/2)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पांडित्यं सर्वतोमुखम्। (73/8)। = हे शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषों ! पहले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरंभ करो। (72/2)। जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धांत श्रोताओं के हृदय में नहीं बैठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह निरुपयोगी ही है। (73/8)।
आत्मानुशासन/5-6 प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिंदया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।5। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।6। = जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शांत है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निंदा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।5। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।6।
देखें आगम - 5.9 (वक्ता को आगमार्थ के विषय में अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए)।
देखें अनुभव - 3.1 (आत्म-स्वभाव विषयक उपदेश देने में स्वानुभव का आधार प्रधान है।
देखें आगम - 6.1 (वक्ता ज्ञान व विज्ञान से युक्त होता हुआ ही प्रमाणता को प्राप्त होता है।)
देखें लब्धि - 3 (मोक्षमार्ग का उपदेष्टा वास्तव में सम्यग्दृष्टि होना चाहिए, मिथ्यादृष्टि नहीं है।)
- अन्य संबंधित विषय
- जीव को वक्ता कहने की विवक्षा।−देखें जीव - 1.3।
- वक्ता की प्रामाणिकता से वचन की प्रामाणिकता।−देखें आगम - 5.5, आगम - 5.6 ।
- दिगंबराचार्यों व गृहस्थाचार्यों को उपदेश व आदेश देने का अधिकार है।−देखें आचार्य - 2.2।
- हित-मित व कटु संभाषण संबंधी।−देखें सत्य - 8.2।
- व्यर्थ संभाषण का निषेध।−देखें सत्य - 8.3।
- वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्म-हानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले।−देखें वाद ।
पुराणकोष से
शास्त्रों का व्याख्याता । यह स्थिर बुद्धि, इंद्रियजयी, सुंदर, हितमितभाषी, गंभीर, प्रतिभावान् सहिष्णु, दयालु, प्रेमी, निपुण, धीर-वीर, वस्तु-स्वरूप के कथन में कुशल और भाषाविद् होता है । चारों प्रकार की कथाओं का श्रोताओं की योग्यतानुसार कथन करता है । महापुराण 1.126-127, पांडवपुराण 1.45-51, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.63-71