हरिवंश पुराण - सर्ग 11: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर समवसरण से आकर भरत ने पुत्र<strong>-</strong>जन्म का उत्सव किया<strong>, </strong>चक्ररत्न की पूजा की और उसके बाद छह खंडों को जीतने की इच्छा से प्रस्थान किया ॥1॥ उस समय चतुरंग सेना उसके साथ थी<strong>, </strong>वे राजाओं के समूह से युक्त थे और नाना दिशाओं से आये हुए अपारजन समूह के आगे<strong>-</strong>आगे चलने वाले चक्ररत्न से सहित थे ॥2॥ वे गंगानदी के किनारे<strong>-</strong>किनारे चलकर गंगासागर पर पहुंचे । वहाँ गंगा द्वार पर उन्होंने मन<strong>, </strong>वचन<strong>, </strong>काय की क्रिया को प्रशस्त कर तीन दिन का उपवास किया ॥3॥ जिसमें दो घोड़े जुते हुए थे ऐसे वेगशाली रथ पर सवार होकर उन्होंने द्वार खोला और समुद्र में घुटने पर्यंत प्रवेश किया । उस समय लंबी भुजाओं के धारक भरत अपने हाथ में वज्रकांड नामक धनुष लिये हुए थे<strong>, </strong>तथा वैशाख आसन से खड़े थे । वे दृष्टि के स्थिर करने<strong>, </strong>कड़ी मुट्ठी बांधने और डोरी पर बाण स्थापित करने में अत्यंत निपुण थे । उसी समय उन्होंने अपने नाम से चिह्नित अमोघ नाम का शीघ्रगामी बाण छोड़ा ॥4<strong>-</strong> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर समवसरण से आकर भरत ने पुत्र<strong>-</strong>जन्म का उत्सव किया<strong>, </strong>चक्ररत्न की पूजा की और उसके बाद छह खंडों को जीतने की इच्छा से प्रस्थान किया ॥1॥<span id="2" /> उस समय चतुरंग सेना उसके साथ थी<strong>, </strong>वे राजाओं के समूह से युक्त थे और नाना दिशाओं से आये हुए अपारजन समूह के आगे<strong>-</strong>आगे चलने वाले चक्ररत्न से सहित थे ॥2॥<span id="3" /> वे गंगानदी के किनारे<strong>-</strong>किनारे चलकर गंगासागर पर पहुंचे । वहाँ गंगा द्वार पर उन्होंने मन<strong>, </strong>वचन<strong>, </strong>काय की क्रिया को प्रशस्त कर तीन दिन का उपवास किया ॥3॥<span id="7" /> जिसमें दो घोड़े जुते हुए थे ऐसे वेगशाली रथ पर सवार होकर उन्होंने द्वार खोला और समुद्र में घुटने पर्यंत प्रवेश किया । उस समय लंबी भुजाओं के धारक भरत अपने हाथ में वज्रकांड नामक धनुष लिये हुए थे<strong>, </strong>तथा वैशाख आसन से खड़े थे । वे दृष्टि के स्थिर करने<strong>, </strong>कड़ी मुट्ठी बांधने और डोरी पर बाण स्थापित करने में अत्यंत निपुण थे । उसी समय उन्होंने अपने नाम से चिह्नित अमोघ नाम का शीघ्रगामी बाण छोड़ा ॥4<strong>-</strong>6॥ वज्र के समान चमकता हुआ बाण शीघ्र ही बारह योजन जाकर मागधदेव के भवन में गिरा और उसने भवन में प्रवेश करते ही समस्त आकाश को शब्दायमान कर दिया ॥7॥<span id="15" /> बाण के गिरते ही मागधदेव का भवन और हृदय दोनों ही एक साथ हिल उठे । वह बहुत ही क्षोभ को प्राप्त हुआ । परंतु जब उसने चक्रवर्ती के नाम से चिह्नित बाण को देखा और चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका है यह जाना तब वह अपने पुण्य को अल्प जान अपनी निंदा करने लगा । तदनंतर जिसका मान खंडित हो गया था ऐसा मागधदेव हाथों में रत्न लेकर भरत के पास आया ॥8<strong>-</strong>9॥ आकर उस बुद्धिमान् देव ने पृथिवी का सारभूत हार<strong>, </strong>मुकुट<strong>, </strong>रत्न निर्मित दो कुंडल<strong>, </strong>अच्छे<strong>-</strong>अच्छे रत्न<strong>, </strong>वस्त्र तथा तीर्थोदक की भेंट दी और कहा कि हे स्वामिन् ! बताइए मैं क्या करूँ ? मुझे आज्ञा दीजिए । तदनंतर भरत से विदा हो वह अपने स्थान पर गया और भरत भी वहाँ से चलकर दक्षिण दिशा में रहने वाले महाबलवान् भूत और व्यंतर देवों के समूह को वश करते हुए समुद्र के वैजयंत द्वार पर जा पहुंचे ॥10<strong>-</strong>12॥</p> | ||
<p> वहां पर उन्होंने मागधदेव के समान उस प्रदेश के स्वामी वरतनुदेव को बुलाया और वरतनुदेव ने आकर चूड़ामणि<strong>, </strong>सुंदर कंठहार<strong>, </strong>कवच<strong>, </strong>वीरों के बाजूबंद<strong>, </strong>कड़े और करधनी भेंट कर भरत को प्रणाम किया । तदनंतर सेवक वृत्ति को स्वीकार करने वाले वरतनुभरत से विदा ले अपने स्थान पर चला गया ॥13<strong>-</strong>14॥ वहाँ से चलकर भरत पश्चिम दिशा के समस्त राजाओं को वश करते हुए वेदिका के किनारे<strong>-</strong>किनारे चलकर सिंधुनदी के मनोहर द्वार पर पहुँचे ॥15॥ वहाँ इंद्र के समान पराक्रम को धारण करने वाले चक्रवर्ती भरत ने गंगाद्वार के समान वहाँ के अधिपति प्रभासदेव को नम्रीभूत कर अपने वश किया ॥16 | <p> वहां पर उन्होंने मागधदेव के समान उस प्रदेश के स्वामी वरतनुदेव को बुलाया और वरतनुदेव ने आकर चूड़ामणि<strong>, </strong>सुंदर कंठहार<strong>, </strong>कवच<strong>, </strong>वीरों के बाजूबंद<strong>, </strong>कड़े और करधनी भेंट कर भरत को प्रणाम किया । तदनंतर सेवक वृत्ति को स्वीकार करने वाले वरतनुभरत से विदा ले अपने स्थान पर चला गया ॥13<strong>-</strong>14॥ वहाँ से चलकर भरत पश्चिम दिशा के समस्त राजाओं को वश करते हुए वेदिका के किनारे<strong>-</strong>किनारे चलकर सिंधुनदी के मनोहर द्वार पर पहुँचे ॥15॥<span id="16" /> वहाँ इंद्र के समान पराक्रम को धारण करने वाले चक्रवर्ती भरत ने गंगाद्वार के समान वहाँ के अधिपति प्रभासदेव को नम्रीभूत कर अपने वश किया ॥16 ॥<span id="17" /> तथा उससे संतानक वृक्षों के पुष्पों की उत्तम माला<strong>, </strong>मोतियों की जाली<strong>, </strong>मुकुट और रत्नों से चित्र<strong>-</strong>विचित्र कटिसूत्र प्राप्त किया ॥17॥<span id="18" /></p> | ||
<p> तदनंतर भरत<strong>, </strong>चक्ररत्न के पीछे<strong>-</strong>पीछे चलकर विजयार्ध पर्वत की वेदिका के समीप आये । वहाँ उन्होंने उपवास कर पर्वत के अधिष्ठाता (विजयार्धकुमार) देव का स्मरण किया ॥18॥ वह देव अपने अवधिज्ञान से भरत को वहाँ आया जानकर आया । उसने भरत को प्रणाम कर बड़ी ऋद्धियों से उनका अभिषेक किया तथा झारी<strong>, </strong>कलशजल<strong>, </strong>उत्तम सिंहासन<strong>, </strong>छत्र और दो चमर भेंट कर कहा कि मैं आपका हूँ― आपका सेवक हूँ । इस प्रकार निवेदन कर वह चला गया ॥19<strong>-</strong>20॥ राजा भरत वहाँ चक्ररत्न की पूजा कर तमिस्र गुहा के द्वार पर आये । वहीं घबड़ाया हुआ कृतमाल नाम का देव उनके पास आया ॥21॥ और तिलक आदि चौदह दिव्य आभूषण देकर तथा प्रणाम कर मैं आपका हूँ यह कहता हुआ चला गया ॥22॥ राज राजेश्वर भरत की आज्ञा से उनके अयोध्या नामक सेनापति ने सुआ के समान कांति वाले कुमुदामेलक नामक अश्व रत्न पर सवार हो तथा पीछे की ओर अपना मुख कर दंड रत्न से गुहाद्वार के किवाड़ों को ताड़ित किया और ताड़ित कर वह एकदम पीछे भाग गया ॥23<strong>-</strong>24॥ खुला हुआ गुहाद्वार जब छह माह में ऊष्मा रहित हो गया तब चक्रवर्ती ने विजयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो सेना के साथ उसमें प्रवेश किया ॥25॥ गुहा के बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दो नदियां थीं<strong>, </strong>उनके तट पर भरत ने सेनाओं को छोड़ दिया― उन्हें विश्राम कराया ॥26॥ उस गुफा में निरंतर अंधकार रहता था जिसे भरत ने काकणीमणि की किरणों से दूर कर दिया था । भरत की सेना ने वहाँ आलस्य रहित होकर एक दिन<strong>-</strong>रात निवास किया ॥27॥ काम दृष्टि नामक गृह पति रत्न और रत्न भद्रमुख नामक स्थपति रत्न इन दोनों ने उन नदियों पर मजबूत पुल बनाये <strong> </strong> | <p> तदनंतर भरत<strong>, </strong>चक्ररत्न के पीछे<strong>-</strong>पीछे चलकर विजयार्ध पर्वत की वेदिका के समीप आये । वहाँ उन्होंने उपवास कर पर्वत के अधिष्ठाता (विजयार्धकुमार) देव का स्मरण किया ॥18॥<span id="21" /> वह देव अपने अवधिज्ञान से भरत को वहाँ आया जानकर आया । उसने भरत को प्रणाम कर बड़ी ऋद्धियों से उनका अभिषेक किया तथा झारी<strong>, </strong>कलशजल<strong>, </strong>उत्तम सिंहासन<strong>, </strong>छत्र और दो चमर भेंट कर कहा कि मैं आपका हूँ― आपका सेवक हूँ । इस प्रकार निवेदन कर वह चला गया ॥19<strong>-</strong>20॥ राजा भरत वहाँ चक्ररत्न की पूजा कर तमिस्र गुहा के द्वार पर आये । वहीं घबड़ाया हुआ कृतमाल नाम का देव उनके पास आया ॥21॥<span id="22" /> और तिलक आदि चौदह दिव्य आभूषण देकर तथा प्रणाम कर मैं आपका हूँ यह कहता हुआ चला गया ॥22॥<span id="25" /> राज राजेश्वर भरत की आज्ञा से उनके अयोध्या नामक सेनापति ने सुआ के समान कांति वाले कुमुदामेलक नामक अश्व रत्न पर सवार हो तथा पीछे की ओर अपना मुख कर दंड रत्न से गुहाद्वार के किवाड़ों को ताड़ित किया और ताड़ित कर वह एकदम पीछे भाग गया ॥23<strong>-</strong>24॥ खुला हुआ गुहाद्वार जब छह माह में ऊष्मा रहित हो गया तब चक्रवर्ती ने विजयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो सेना के साथ उसमें प्रवेश किया ॥25॥<span id="26" /> गुहा के बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दो नदियां थीं<strong>, </strong>उनके तट पर भरत ने सेनाओं को छोड़ दिया― उन्हें विश्राम कराया ॥26॥<span id="27" /> उस गुफा में निरंतर अंधकार रहता था जिसे भरत ने काकणीमणि की किरणों से दूर कर दिया था । भरत की सेना ने वहाँ आलस्य रहित होकर एक दिन<strong>-</strong>रात निवास किया ॥27॥<span id="28" /> काम दृष्टि नामक गृह पति रत्न और रत्न भद्रमुख नामक स्थपति रत्न इन दोनों ने उन नदियों पर मजबूत पुल बनाये <strong> </strong>॥28॥<span id="29" /> सेना उन पुलों के द्वारा शीघ्र ही नदियों को पार कर आगे बढ़ गयी और पहले की तरह उत्तर द्वार को खोलकर उत्तर भारत में जा पहुँची ॥29॥<span id="30" /></p> | ||
<p>उत्तर भारत के हजारों म्लेच्छ राजा चक्रवर्ती की अपूर्व सेना को देखकर क्षुभित हो गये और शीघ्र ही सामने आकर अनायास युद्ध करने लगे | <p>उत्तर भारत के हजारों म्लेच्छ राजा चक्रवर्ती की अपूर्व सेना को देखकर क्षुभित हो गये और शीघ्र ही सामने आकर अनायास युद्ध करने लगे ॥30॥<span id="32" /> तदनंतर क्रोध से भरें अयोध्या सेनापति ने युद्ध में म्लेच्छ राजाओं के साथ युद्ध करता था उन्हें शीघ्र ही खदेड़ कर अपना अयोध्या नाम सार्थक किया ꠰꠰31॥ सेनापति से भयभीत हुए म्लेच्छ<strong>, </strong>अपने कुलदेवता<strong>, </strong>दर्भ शय्या पर शयन करने वाले एवं भयंकर मेघ मुख नागकुमारों को शरण गये ॥32॥<span id="33" /> जिसमें मेघ मुख देव आकाश को व्याप्त कर युद्ध के लिए आ डटे परंतु जयकुमार ने उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त कर दिया और स्वयं मेघ स्वर यह नाम प्राप्त किया ॥33॥<span id="34" /> कुछ देर बाद मेष मुख देव भयंकर मेघों से आकाश को व्याप्त कर मुट्ठी बराबर मोटी<strong>-</strong>मोटी धाराओं से सेना के मस्तक पर जलवर्षा करने लगे ॥34॥<span id="35" /> तदनंतर जिसमें बिजली के साथ वज्र की भयंकर गर्जना हो रही थी ऐसी जलवृष्टि देखकर चक्रवर्ती ने सेना के नीचे चर्म रत्न और ऊपर छत्र रत्न फैला दिया ॥35॥<span id="36" /> बारह योजन पर्यंत फैली एवं जल के भीतर तैरती हुई वह सेना अंडा के समान जान पड़ती थी । वह सेना सात दिन तक इसी तरह भयभीत रही ॥36॥<span id="37" /> तदनंतर निधियों के स्वामी चक्रवर्ती ने कुपित होकर गणबद्ध देवों को आज्ञा दी और उन्होंने उन मेघमुख देवों को परास्त कर खदेड़ दिया ॥37॥<span id="38" /> तत्पश्चात् जिन्होंने वृष्टि का संकोच कर लिया था ऐसे मेघमुख देवों की प्रेरणा पाकर वे म्लेच्छ राजा उत्तमोत्तम कन्याएँ लेकर चक्रवर्ती की शरण में आयें ॥38॥<span id="39" /> चक्रवर्ती ने उन भयभीत तथा आज्ञा पाने की इच्छा करने वाले म्लेच्छ राजाओं को अभयदान दिया और उसके बाद श्रम से रहित हो सिंधुनदी की वेदिका के किनारे<strong>-</strong>किनारे गमन किया ॥39॥<span id="40" /></p> | ||
<p>बीच में सिंधुकूट पर निवास करने वाली सिंधु देवी ने भरत का अभिषेक कर उन्हें पादपीठ से सुशोभित दो उत्तम आसन भेंट किये ॥40॥ चक्रवर्ती सेना को हिमवान् पर्वत की तराई में ठहराकर तथा स्वयं तीन दिन के उपवास का नियम लेकर दर्भ शय्या पर आरूढ़ हुए ॥41॥ | <p>बीच में सिंधुकूट पर निवास करने वाली सिंधु देवी ने भरत का अभिषेक कर उन्हें पादपीठ से सुशोभित दो उत्तम आसन भेंट किये ॥40॥<span id="41" /> चक्रवर्ती सेना को हिमवान् पर्वत की तराई में ठहराकर तथा स्वयं तीन दिन के उपवास का नियम लेकर दर्भ शय्या पर आरूढ़ हुए ॥41॥<span id="42" /><span id="43" /><span id="44" /> तदनंतर जिन्होंने तीर्थ जल से स्नान किया था<strong>, </strong>उत्तम वेषभूषा धारण की थी<strong>, </strong>जो घोड़ों के रथ पर सवार थे<strong>, </strong>जिनके आगे-आगे चक्ररत्न चल रहा था और जो रण में अत्यंत कुशल थे ऐसे भरत<strong>, </strong>जहाँ हिमवान् पर्वत का हिमवत् नामक छोटा कूट था वहाँ आये और बाण हाथ में ले तथा वैशाख आसन से खड़े होकर बोले कि हे इस देश में रहने वाले नागकुमार<strong>, </strong>सुपर्णकुमार आदि देवो! तुम लोग शीघ्र ही मेरी आज्ञा सुनो । यह कह उन्होंने धनुष खींचकर बाण छोड़ा ॥ 42-44॥<span id="45" /> वज्र के समान शब्द करता हुआ वह बाण बारह योजन दूर जाकर गिरा तथा हिमवत् कूट पर रहने वाला देव उसे देखकर भरत के पास आया ॥45॥<span id="46" /> उसने दिव्य औषधिओं की माला तथा दिव्य हरिचंदन देकर भरत की पूजा की । तदनंतर आज्ञा की इच्छा करता हुआ वह भरत से विदा ले अपने स्थानपर चला गया ॥46 ॥<span id="47" /><span id="48" /></p> | ||
< | <p>चक्रवर्ती वहाँ से चलकर वृषभाचल पर्वतपर आये और वहाँ उन्होंने काकणी रत्न से साफ-साफ अपना यह नाम लिखा कि मैं भगवान् वृषभदेव का पुत्र भरत चक्रवर्ती हूँ । नाम लिखकर तथा बाँचकर वे विजया पर्वत की वेदिका के समीप आये ॥47-48 ॥<span id="49" /> वहाँ जाकर उन्होंने उपवास धारण किया । दोनों श्रेणियों के निवासी नमि और विनमि को जब यह ज्ञात हुआ कि भरत यहाँ विद्यमान हैं तब वे गंधार आदि विद्याधरों के साथ वहाँ आये ॥ 49॥<span id="50" /><span id="51" /> समस्त विद्याधरों ने उन्हें नमस्कार किया और भरत ने नमि<strong>, </strong>विनमि से सुभद्रा नामक स्त्री-रत्न ग्रहण किया । तत्पश्चात् वे गंगा नदी की वेदिका के किनारे-किनारे चलकर गंगा कूट के समीप आये और तीन दिन के उपवास का नियम लेकर वहाँ ठहर गये । वहाँ गंगाकूट पर रहने वाली गंगा देवी ने उनके आने का समाचार जानकर सुवर्णमय एक हजार कलशों से उनका अभिषेक किया ॥50-51 ॥<span id="52" /> अभिषेक के बाद उसने पादपीठ से युक्त दो रत्नों के सिंहासन भेंट किये । यहाँ विजयार्ध पर्वत का स्वामी विजयार्ध कुमारदेव चक्रवर्ती की आज्ञा में खड़ा रहा ॥ 52 ॥<span id="53" /></p> | ||
<p> तदनंतर वहाँ से चलकर अठारह हजार म्लेच्छ राजाओं को वश करते और उनसे उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट स्वीकार करते हुए भरत विजयार्ध की दूसरी गुफा खंडकाप्रपात के समीप पहुंचे ॥53॥ वहाँ वे तीन दिन के उपवास का नियम लेकर ठहर गये । यहाँ नाट्यमाल नामक देव ने उन्हें नाना प्रकार के आभूषण और बिजली के समान चमकते हुए दो कुंडल भेंट किये ॥54॥ जिस प्रकार पहले अयोध्या सेनापति ने दंडरत्न के द्वारा सिंधुनदी की गुफा का द्वार खोला था उसी प्रकार यहाँ भी उसने दंडरत्न से गंगानदी को गुफा का द्वार खोला और भरत उस द्वार से प्रवेश कर सेना सहित बाहर निकल आये ॥55॥ इस तरह अतिशय कुशल भरत ने साठ हजार वर्षों में छह खंडों से युक्त समस्त भरतक्षेत्र को जीतकर अयोध्या नगरी की ओर प्रस्थान किया ॥56॥</p> | <p> तदनंतर वहाँ से चलकर अठारह हजार म्लेच्छ राजाओं को वश करते और उनसे उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट स्वीकार करते हुए भरत विजयार्ध की दूसरी गुफा खंडकाप्रपात के समीप पहुंचे ॥53॥<span id="54" /> वहाँ वे तीन दिन के उपवास का नियम लेकर ठहर गये । यहाँ नाट्यमाल नामक देव ने उन्हें नाना प्रकार के आभूषण और बिजली के समान चमकते हुए दो कुंडल भेंट किये ॥54॥<span id="55" /> जिस प्रकार पहले अयोध्या सेनापति ने दंडरत्न के द्वारा सिंधुनदी की गुफा का द्वार खोला था उसी प्रकार यहाँ भी उसने दंडरत्न से गंगानदी को गुफा का द्वार खोला और भरत उस द्वार से प्रवेश कर सेना सहित बाहर निकल आये ॥55॥<span id="56" /> इस तरह अतिशय कुशल भरत ने साठ हजार वर्षों में छह खंडों से युक्त समस्त भरतक्षेत्र को जीतकर अयोध्या नगरी की ओर प्रस्थान किया ॥56॥<span id="59" /></p> | ||
<p> अथानंतर समीप आने पर जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब भरत ने संदेह युक्त हो बुद्धिसागर पुरोहित से पूछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश कर लेने पर भी यह दिव्य चक्र रत्न अयोध्या में प्रवेश क्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है ? | <p> अथानंतर समीप आने पर जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब भरत ने संदेह युक्त हो बुद्धिसागर पुरोहित से पूछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश कर लेने पर भी यह दिव्य चक्र रत्न अयोध्या में प्रवेश क्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है ? ॥57<strong>-</strong>58॥ पुरोहित ने कहा कि आपके जो महाबलवान् भाई हैं वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं ॥59॥<span id="60" /> यह सुनकर भरत ने शीघ्र ही उनके पास साम<strong>, </strong>दाम आदि नीति के साथ दूत भेजे ॥60 ॥<span id="61" /></p> | ||
<p>तदनंतर इस निमित्त से जिन्हें बोधिकी प्राप्ति हुई थी ऐसे भरत के अभिमानी भाइयों ने त्याग को ही महोत्सव मान अपने<strong>-</strong>अपने राज्य छोड़ दिये ॥61॥ जो संसार से भयभीत थे<strong>, </strong>जिनकी मानरूपी शल्य छूट चुकी थी<strong>, </strong>और जो अंतरंग में मोक्ष की इच्छा रखते थे ऐसे भरत के समस्त भाइयों ने भगवान् वृषभदेव के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥62॥ | <p>तदनंतर इस निमित्त से जिन्हें बोधिकी प्राप्ति हुई थी ऐसे भरत के अभिमानी भाइयों ने त्याग को ही महोत्सव मान अपने<strong>-</strong>अपने राज्य छोड़ दिये ॥61॥<span id="62" /> जो संसार से भयभीत थे<strong>, </strong>जिनकी मानरूपी शल्य छूट चुकी थी<strong>, </strong>और जो अंतरंग में मोक्ष की इच्छा रखते थे ऐसे भरत के समस्त भाइयों ने भगवान् वृषभदेव के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥62॥<span id="63" /> उन सुकुमार एवं भव्य<strong>-</strong>शिरोमणि कुमारों ने जो देश छोड़े थे विद्वानों को उनके नाम इस प्रकार जानना चाहिए ॥63॥<span id="68" /><span id="69" /><span id="70" /><span id="71" /><span id="72" /><span id="73" /><span id="74" /> कुरुजांगल<strong>, </strong>पंचाल<strong>, </strong>सूरसेन<strong>, </strong>पटच्चर<strong>, </strong>तुलिंग<strong>, </strong>काशी<strong>, </strong>कौशल्य<strong>, </strong>मद्रकार<strong>, </strong>वृकार्थक<strong>, </strong>सोल्व<strong>, </strong>आवृष्ट<strong>, </strong>त्रिगत<strong>, </strong>कुशाग्र<strong>, </strong>मत्स्य<strong>, </strong>कुणीयान्<strong>, </strong>कोशल और मोक ये मध्य देश थे ॥64<strong>-</strong>65॥ वालीक<strong>, </strong>आत्रेय<strong>, </strong>कांबोज<strong>, </strong>यवन<strong>, </strong>आभीर<strong>, </strong>मद्रक<strong>, </strong>क्वाथतीय<strong>, </strong>शूर<strong>, </strong>वाटवान<strong>, </strong>कैकय<strong>, </strong>गांधार<strong>, </strong>सिंधु<strong>, </strong>सौवीर<strong>, </strong>भारद्वाज<strong>, </strong>दशेरुक<strong>, </strong>प्रास्थाल और तीर्णकर्ण ये देश उत्तर की ओर स्थित थे ॥66<strong>-</strong>67॥ खड्ग<strong>, </strong>अंगारक<strong>, </strong>पौंड्र<strong>, </strong>मल्ल<strong>, </strong>प्रवक<strong>, </strong>मस्तक<strong>, </strong>प्राद्योतिष<strong>, </strong>वंग<strong>, </strong>मगध<strong>, </strong>मानवतिक<strong>,</strong> मलद और भार्गव<strong>, </strong>ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे । बाणमुक्त<strong>, </strong>वैदर्भ<strong>, </strong>माणव<strong>, </strong>सककापिर<strong>, </strong>मूलक<strong>, </strong>अश्मक<strong>, </strong>दांडीक<strong>, </strong>कलिंग<strong>, </strong>आंसिक<strong>, </strong>कुंतल<strong>, </strong>नवराष्ट्र<strong>, </strong>माहिषक<strong>, </strong>पुरुष और भोगवर्धन<strong>, </strong>ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य<strong>, </strong>कल्लीवनोपांत<strong>, </strong>दुर्ग<strong>, </strong>सूर<strong>, </strong>कर्बुक<strong>, </strong>काक्षि<strong>, </strong>नासारिक<strong>, </strong>अगर्त<strong>, </strong>सारस्वत<strong>, </strong>तापस<strong>, </strong>महिम<strong>, </strong>भरुकच्छ<strong>, </strong>सुराष्ट्र और नर्मद<strong>, </strong>ये सब देश पश्चिम दिशा में स्थित थे । दशार्णक<strong>, </strong>किष्किंध<strong>, </strong>त्रिपुर<strong>, </strong>आवर्त<strong>, </strong>नैषध<strong>, </strong>नेपाल<strong>, </strong>उत्तमवर्ण<strong>, </strong>वैदिश<strong>, </strong>अंतप<strong>, </strong>कौशल<strong>, </strong>पतन और विनिहात्र<strong>, </strong>ये देश विंध्याचल के ऊपर स्थित थे ॥68-74॥<span id="75" /> भद्र<strong>, </strong>वत्स<strong>, </strong>विदेह<strong>, </strong>कुश<strong>, </strong>भंग<strong>, </strong>सैतव और वज्र खंडिक<strong>, </strong>ये देश मध्यदेश के आश्रित थे ॥75 ॥<span id="76" /> पिता-भगवान् वृषभदेव के द्वारा दिये हुए इन सब देशों को मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले भरत के छोटे भाइयों ने स्त्रियों के समान छोड़ दिया साथ ही उन्होंने आज्ञाकारी सेवकों का भी परित्याग कर दिया ॥76 ॥<span id="79" /></p> | ||
<p> अथानंतर कुमार बाहुबली ने भरत के प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट की । उन्होंने उनके सुदर्शनचक्र को अलातचक्र के समान तुच्छ समझा और ‘‘मैं आपके आधीन नहीं हूं’’ । यह कहकर दूत भेज दिये तथा वे शीघ्र ही अक्षौहिणी सेना साथ ले युद्ध के लिए पोदनपुर से निकल पड़े ॥77<strong>-</strong> | <p> अथानंतर कुमार बाहुबली ने भरत के प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट की । उन्होंने उनके सुदर्शनचक्र को अलातचक्र के समान तुच्छ समझा और ‘‘मैं आपके आधीन नहीं हूं’’ । यह कहकर दूत भेज दिये तथा वे शीघ्र ही अक्षौहिणी सेना साथ ले युद्ध के लिए पोदनपुर से निकल पड़े ॥77<strong>-</strong>78॥ इधर सेनारूपी सागर से दिशाओं को व्याप्त करते हुए चक्रवर्ती भरत भी आ पहुंचे जिससे विततानदी के पश्चिम दिग्भाग में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई ॥79॥<span id="80" /> तदनंतर दोनों राजाओं के मंत्रियों ने परस्पर सलाह कर कहा कि देशवासियों का क्षय न हो इसलिए दोनों ही राजाओं में धर्म युद्ध हो ॥80॥<span id="83" /></p> | ||
<p> भरत और बाहुबली ने मंत्रियों की यह बात मानकर सर्वप्रथम दृष्टि युद्ध शुरू किया और आकाश में खड़े हुए देव और विद्याधरों ने दोनों को चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से युक्त देखा । अर्थात् दोनों भाई चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से खड़े रहे और कोई किसी से हारा नहीं । परंतु अंत में छोटे भाई ने बड़े भाई को हरा दिया क्योंकि बड़े भाई पाँच सौ धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि ऊपर की ओर थी और छोटे भाई उनसे पचीस धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि नीचे की ओर थी ॥81<strong>-</strong> | <p> भरत और बाहुबली ने मंत्रियों की यह बात मानकर सर्वप्रथम दृष्टि युद्ध शुरू किया और आकाश में खड़े हुए देव और विद्याधरों ने दोनों को चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से युक्त देखा । अर्थात् दोनों भाई चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से खड़े रहे और कोई किसी से हारा नहीं । परंतु अंत में छोटे भाई ने बड़े भाई को हरा दिया क्योंकि बड़े भाई पाँच सौ धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि ऊपर की ओर थी और छोटे भाई उनसे पचीस धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि नीचे की ओर थी ॥81<strong>-</strong>82॥ दृष्टि युद्ध के बाद दोनों भाइयों का तालाब में भयंकर जल युद्ध हुआ । उस समय दोनों ही भाई एक दूसरे पर अपनी भुजाओं से लहरें उछाल<strong>-</strong>उछालकर दुःसह आघात कर रहे थे । परंतु इस युद्ध में भी बड़े भाई भरत हार गये ॥83 ॥<span id="84" /> तदनंतर दोनों का रंगभूमि में चिरकाल तक मल्ल युद्ध हुआ । उनका वह मल्ल युद्ध तालों की फटाटोप से युक्त था तथा नाना प्रकार के पैंतरा बदलने की चतुराई से पूर्ण था ॥ 84॥<span id="85" /> उस समय युद्ध करते हुए दोनों वरों के पदाघात से जिसका हृदय फट गया था ऐसी पृथिवीरूपी स्त्री भय से ही मानो चिल्ला उठी थी ॥85 ॥<span id="86" /> अंत में दयावान् बाहुबली अपने भुज यंत्र से भरत को पकड़कर तथा ऊपर की ओर उठाकर इस प्रकार खड़े हो गये मानो कोई देव रत्नों के पर्वत को उठाकर खड़ा हो ॥86॥<span id="87" /> देखने वाले देवों के समूह<strong>, </strong>विद्याधरों तथा भूमिगोचरी मनुष्यों ने उसी समय जोर से यह शब्द किया कि अहो ? वीर्यम्― आश्चर्यकारी शक्ति है<strong>, </strong>अहो ! धैर्यम्― आश्चर्यकारी धैर्य है<strong>, </strong>साधु<strong>-</strong>साधु ठीक है<strong>, </strong>ठीक है आदि ॥87॥<span id="88" /></p> | ||
<p> तदनंतर अच्छी तरह जीतकर जब बाहुबली ने भरत को छोड़ा तब उन्होंने क्रोध के कारण अपमृत्यु करने वाले सुदर्शनचक्र का स्मरण किया और स्मरण करते ही हजार अरों को धारण करने वाला सुदर्शनचक्र उनके हाथ में आकर खड़ा हो गया | <p> तदनंतर अच्छी तरह जीतकर जब बाहुबली ने भरत को छोड़ा तब उन्होंने क्रोध के कारण अपमृत्यु करने वाले सुदर्शनचक्र का स्मरण किया और स्मरण करते ही हजार अरों को धारण करने वाला सुदर्शनचक्र उनके हाथ में आकर खड़ा हो गया ॥88॥<span id="89" /> एक हजार यक्ष जिसकी रक्षा कर रहे थे तथा जो सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभा का धारक था ऐसे सुदर्शनचक्र को उन्होंने ऊपर की ओर घुमाकर भाई को मारने के लिए छोड़ा ॥89॥<span id="90" /> परंतु वह देवाधिष्ठित चक्र चरमोत्तम शरीर के धारक बाहुबली के मारने में असमर्थ रहा इसलिए उनकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर वापस आ गया ॥90॥<span id="91" /> तदनंतर बाहुबली बड़े भाई को निर्दय देख हाथों से कान ढककर लक्ष्मी की इस प्रकार निंदा करने लगे ॥91॥<span id="92" /> जिस प्रकार कीचड़ स्वच्छ<strong>, </strong>अनुकूल<strong>, </strong>एवं मिले हुए जल को विपरीत मलिन कर देती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ<strong>, </strong>अनुकूल और मिले हुए मनुष्यों के चित्त को विपरीत कर देती है अतः इसे धिक्कार हो ॥92॥<span id="93" /> जिस प्रकार यंत्र-मूर्ति― (कोल्हू) मधुर एवं चिक्कण स्वभाव वाले तिलहनों के दीर्घकालिक स्नेह― तेल को हर लेती है तथा अत्यंत अस्थिर होती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव वाले मनुष्यों के चिर-कालिक स्नेह― प्रिय को नष्ट कर देती है एवं अत्यंत अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥93॥<span id="94" /> जिस प्रकार दृष्टिविष सर्प की दृष्टि नरेंद्र-विष वैद्यों के लिए भी सब ओर से स्वयं अत्यंत दुःख से देखने के योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी नरेंद्र-राजाओं के लिए भी सब ओर से अत्यंत दुःप्रेक्ष्य-दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥94 ॥<span id="95" /></p> | ||
<p> जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल<strong>, </strong>मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको संताप करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी आदि<strong>, </strong>मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है― सब दशाओं में दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान― तेज तर्राटे से युक्त होने पर भी सबको संताप उत्पन्न करने वाली है― आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥95॥ मनुष्यलोक में सुख वही है जो चित्त को संतुष्ट करने वाला हो परंतु बंधुजनों में विरोध होने पर मनुष्यों को न सुख प्राप्त होता है और न धन ही उनके पास स्थिर रहता है | <p> जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल<strong>, </strong>मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको संताप करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी आदि<strong>, </strong>मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है― सब दशाओं में दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान― तेज तर्राटे से युक्त होने पर भी सबको संताप उत्पन्न करने वाली है― आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥95॥<span id="96" /> मनुष्यलोक में सुख वही है जो चित्त को संतुष्ट करने वाला हो परंतु बंधुजनों में विरोध होने पर मनुष्यों को न सुख प्राप्त होता है और न धन ही उनके पास स्थिर रहता है ॥96॥<span id="97" /> जिस प्रकार शीत-ज्वर से आक्रांत मनुष्यों के लिए शीतल स्पर्श दुःख उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार बंधुजनों के विरुद्ध होने पर भोग भी मनुष्यों के लिए दुःख उत्पन्न करते हैं ॥97॥<span id="98" /> इस प्रकार विचार कर तथा राज्य का परित्याग कर बाहुबली तप करने लगे और कैलास पर्वतपर एक वर्ष का प्रतिमा योग लेकर निश्चल खड़े हो गये ॥98॥<span id="99" /> उनके चरण<strong>, </strong>वामी के बिलों से निकले हुए मणि भूषित साँपों से इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पहले मणि भूषित आश्रित राजाओं से सुशोभित होते थे ॥99॥<span id="100" /> जिस प्रकार पहले कोमलांगी वल्लभा उनके समस्त शरीर का आलिंगन करती थी उसी प्रकार कोमलांगी माधवीलता उनके मुनि होने पर भी उन बाहुबली के समस्त शरीर का आलिंगन कर रही थी ॥100 ।<span id="101" /> दो विद्याधर परियाँ उनके शरीर पर लिपटी हुई लता को दूर करती रहती थीं जिससे श्याम मूर्ति के धारक एवं स्थिर खड़े हुए योगिराज बाहुबली मरकत मणि के पर्वत के समान सुशोभित हो रहे थे ॥101॥<span id="102" /> तदनंतर भरत ने आकर जिन्हें नमस्कार किया था ऐसे बाहुबली मुनिराज कषायों का अंत कर तथा केवल ज्ञान उत्पन्न कर भगवान् वृषभदेव के सभासद् हो गये-उनके समवसरण में पहुंच गये ॥ 102 ॥<span id="103" /></p> | ||
<p> तदनंतर चौदह महारत्नों और नौ निधियों से युक्त अतिशय बुद्धिमान् चक्रवर्ती भरत<strong>, </strong>पृथिवी का निष्कंटक उपभोग करने लगे ॥103 | <p> तदनंतर चौदह महारत्नों और नौ निधियों से युक्त अतिशय बुद्धिमान् चक्रवर्ती भरत<strong>, </strong>पृथिवी का निष्कंटक उपभोग करने लगे ॥103 ॥<span id="104" /> भरत महाराज दया से युक्त हो बिना किसी परीक्षा के बारह वर्ष तक लोगों के लिए मनचाहा दान देते रहे ॥104॥<span id="105" /><span id="106" /> तदनंतर जिन-शासन संबंधी वात्सल्य और भक्ति के भार से वशीभूत होकर उन्होंने जो तथा धान्य आदि के अंकुरों से श्रावकों की परीक्षा की<strong>, </strong>काकिणी रत्न से निर्मित रत्नत्रयसूत्र― यज्ञोपवीत को उनका चिह्न बनाया और आदर-सत्कार कर कृतयुग में उन्हें भक्तिपूर्वक दान दिया ॥105-106॥<span id="107" /> आगे चलकर भरत के</p> | ||
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<p>द्वारा आदर को प्राप्त हुए वे व्रती ब्राह्मण कहे जाने लगे । इस तरह पहले कहे हुए तीन वर्णों के साथ मिलकर अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हो गये ॥107॥</p> | <p>द्वारा आदर को प्राप्त हुए वे व्रती ब्राह्मण कहे जाने लगे । इस तरह पहले कहे हुए तीन वर्णों के साथ मिलकर अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हो गये ॥107॥<span id="108" /><span id="109" /></p> | ||
<p> 1 चक्र, 2 छत्र, 3 खड्ग, 4 दंड, 5 काकिणी, 6 मणि, 7 चर्म, 8 सेनापति, 9 गृहपति, 10 हस्ती, 11 अश्व, 12 पुरोहित, 13 स्थपति और 14 स्त्री चक्रवर्ती के ये चौदह रत्न थे, इनमें प्रत्येक की एक-एक हजार देव रक्षा करते थे तथा ये अत्यधिक सुशोभित थे ॥108- | <p> 1 चक्र, 2 छत्र, 3 खड्ग, 4 दंड, 5 काकिणी, 6 मणि, 7 चर्म, 8 सेनापति, 9 गृहपति, 10 हस्ती, 11 अश्व, 12 पुरोहित, 13 स्थपति और 14 स्त्री चक्रवर्ती के ये चौदह रत्न थे, इनमें प्रत्येक की एक-एक हजार देव रक्षा करते थे तथा ये अत्यधिक सुशोभित थे ॥108-109॥<span id="110" /><span id="111" /> 1 काल, 2 महाकाल, 3 पांडुक, 4 माणव, 5 नौसर्प, 6 सर्वरत्न, 7 शंख, 8 पद्म और 9 पिंगल ये पुण्यशाली चक्रवर्ती की नौ निधियां थीं । ये सभी निधियां अविनाशी थीं, निधिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं और निरंतर लोगों के उपकार में आती थीं ॥110-111॥<span id="112" /><span id="113" /> ये गाड़ी के आकार की थीं, चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों से सहित थीं । नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लंबी, आठ योजन गहरी और वक्षार गिरि के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं । प्रत्येक की एक-एक हजार यक्ष निरंतर देख-रेख रखते थे ॥112-113॥<span id="114" /></p> | ||
<p> इनमें से पहली कालनिधि में ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, एवं पुराण आदि का सद्भाव था अर्थात् कालनिधि से इन सबकी प्राप्ति होती थी | <p> इनमें से पहली कालनिधि में ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, एवं पुराण आदि का सद्भाव था अर्थात् कालनिधि से इन सबकी प्राप्ति होती थी ॥ 114 ॥<span id="115" /> दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों के द्वारा निर्णय करने योग्य पंचलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था अर्थात् उससे इन सबकी प्राप्ति होती थी ॥115॥<span id="116" /> तीसरी पांडुक निधि में शालि, ब्रीहि, जौ आदि समस्त प्रकार की धान्य तथा कडुए चिरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था ॥116॥<span id="117" /> चौथी माणवक निधि, कवच, ढाल, तलवार, बाण, शक्ति, धनुष तथा चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य शस्त्रों से परिपूर्ण थी ॥117 ॥<span id="118" /> पांचवीं सर्प-निधि, शय्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर में उपयोग आने वाले नाना प्रकार के भाजनों की पात्र थी ॥118 ॥<span id="119" /> छठी सर्वरत्न निधि इंद्रनील मणि, महानील मणि, वज्रमणि आदि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी ॥ 119॥<span id="120" /> सातवीं शंखनिधि, भेरी, शंख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी और मृदंग आदि आघात से तथा फूंककर बजाने योग्य नाना प्रकार के बाजों से पूर्ण थी ॥120॥<span id="121" /> आठवीं पद्मनिधि पाटांबर, चीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कंबल तथा नाना प्रकार के रंग-बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थी ॥121 ॥<span id="122" /> और नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषों के आभूषण और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी ॥122॥<span id="123" /> ये नौ को नौ निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति के अधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं ॥123॥<span id="124" /></p> | ||
<p> चक्रवर्ती के एक-से-एक बढ़कर तीन सौ साठ रसोइया थे जो प्रतिदिन कल्याण कारी सीथों से युक्त आहार बनाते थे ॥124 | <p> चक्रवर्ती के एक-से-एक बढ़कर तीन सौ साठ रसोइया थे जो प्रतिदिन कल्याण कारी सीथों से युक्त आहार बनाते थे ॥124 ॥<span id="125" /> एक हजार चावलों का एक कबल होता है ऐसे बत्तीस कबल प्रमाण चक्रवर्ती का आहार था, सुभद्रा का आहार एक कबल था और एक कबल अन्य समस्त लोगों को तृप्ति के लिए पर्याप्त था और एक कबल अन्य समस्त लोगों की तृप्ति के लिए पर्याप्त था ॥125 ॥<span id="126" /><span id="127" /> चक्रवर्ती के निन्यानवे हजार चित्रकार थे, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उतने ही देश थे और देवांगनाओं को भी जीतने वाली छियानवे हजार स्त्रियाँ श्रीं ॥126-127॥<span id="128" /><span id="129" /> एक करोड़ हल थे, तीन करोड़ कामधेनु गायें थीं, वायु के समान वेगशाली अठारह करोड़ घोड़े थे, मत्त एवं धीरे-धोरे गमन करने वाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे ॥128-129 ॥<span id="130" /> अर्ककीर्ति और विवर्धन को आदि लेकर पाँच सो चरम शरीरी तथा आज्ञाकारी पुत्र थे ॥130॥<span id="131" /> 1 भाजन, 2 भोजन, 3 शय्या, 4 सेना, 5 वाहन, 6 आसन, 7 निधि, 8 रत्न, 9 नगर और 10 नाट्य ये दस प्रकार के भोग थे ॥131 ॥<span id="132" /> सेवा में निपुण, प्रमादरहित एवं परमहितकारी सोलह हजार गणबद्ध देव सदा उनकी सेवा करते थे ॥132॥<span id="133" /> </p> | ||
<p> यद्यपि राजाधिराज चक्रवर्ती इस प्रकार के विभव से सहित थे तथापि उनकी बुद्धि शास्त्रों का अर्थ विचारने में निरत रहती थी और वे दुर्गतिरूपी ग्रह का सदा निग्रह करते रहते थे ॥133 | <p> यद्यपि राजाधिराज चक्रवर्ती इस प्रकार के विभव से सहित थे तथापि उनकी बुद्धि शास्त्रों का अर्थ विचारने में निरत रहती थी और वे दुर्गतिरूपी ग्रह का सदा निग्रह करते रहते थे ॥133 ॥<span id="134" /> भुजाओं से शत्रुओं का मथन करने वाले चक्रवर्ती ने यद्यपि बत्तीस हजार राजाओं को बिखेरकर उनका अभिमान नष्ट कर दिया था तथापि स्वयं अभिमान से रहित थे ॥134॥<span id="138" /> जिनका वक्षःस्थल श्रीवृक्ष के चिह्न से सहित था, जो चौंसठ लक्षणों से युक्त थे, जो इंद्र की लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाले थे और जो नित्य एवं अखंडित पौरुष को धारण करने वाले थे ऐसे स्वयंभू पुत्र सोलहवें कुलकर भरत महाराज जब भरतक्षेत्र संबंधी छह खंडों की भूमि का नीति पूर्वक शासन करते थे तब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यथेष्ट अनुराग रखने वाले लोग निर्विघ्नरूप से निरंतर आनंद का उपभोग करते थे ॥135-137꠰꠰ जो अपनी लक्ष्मी के द्वारा बिना वचन बोले ही अन्य मनुष्यों के लिए पूर्व जन्म में किये हुए धर्मफल दिखला रहे थे ऐसे भरत महाराज किनके लिए धर्म के उपदेशक नहीं थे । भावार्थ― उनकी अनुपम विभूति को देखकर लोग अपने आप समझ जाते थे कि यह इनके पूर्वकृत धर्म का फल है इसलिए सबको धर्म करना चाहिए ॥ 138 ॥<span id="139" /> इस प्रकार पूर्व जन्म में आचरण किये हुए धर्म के माहात्म्य से जो स्वयं अतिशय महान् थे, पौरुष से युक्त थे, सुख के भंडार थे, लोगों के लिए कल्पवृक्ष स्वरूप थे, सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रंजित मनोवृत्ति से युक्त थे, और लक्ष्मी से इंद्र के समान थे ऐसे चक्रवर्ती भरत, सिंह को चेष्टा के समान सुदृढ़ मन को जिनमार्ग में लीन रखने लगे ॥139 ॥<span id="11" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भरत की दिग्विजय का वर्णन करने वाला ग्यारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥11॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भरत की दिग्विजय का वर्णन करने वाला ग्यारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥11॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर समवसरण से आकर भरत ने पुत्र-जन्म का उत्सव किया, चक्ररत्न की पूजा की और उसके बाद छह खंडों को जीतने की इच्छा से प्रस्थान किया ॥1॥ उस समय चतुरंग सेना उसके साथ थी, वे राजाओं के समूह से युक्त थे और नाना दिशाओं से आये हुए अपारजन समूह के आगे-आगे चलने वाले चक्ररत्न से सहित थे ॥2॥ वे गंगानदी के किनारे-किनारे चलकर गंगासागर पर पहुंचे । वहाँ गंगा द्वार पर उन्होंने मन, वचन, काय की क्रिया को प्रशस्त कर तीन दिन का उपवास किया ॥3॥ जिसमें दो घोड़े जुते हुए थे ऐसे वेगशाली रथ पर सवार होकर उन्होंने द्वार खोला और समुद्र में घुटने पर्यंत प्रवेश किया । उस समय लंबी भुजाओं के धारक भरत अपने हाथ में वज्रकांड नामक धनुष लिये हुए थे, तथा वैशाख आसन से खड़े थे । वे दृष्टि के स्थिर करने, कड़ी मुट्ठी बांधने और डोरी पर बाण स्थापित करने में अत्यंत निपुण थे । उसी समय उन्होंने अपने नाम से चिह्नित अमोघ नाम का शीघ्रगामी बाण छोड़ा ॥4-6॥ वज्र के समान चमकता हुआ बाण शीघ्र ही बारह योजन जाकर मागधदेव के भवन में गिरा और उसने भवन में प्रवेश करते ही समस्त आकाश को शब्दायमान कर दिया ॥7॥ बाण के गिरते ही मागधदेव का भवन और हृदय दोनों ही एक साथ हिल उठे । वह बहुत ही क्षोभ को प्राप्त हुआ । परंतु जब उसने चक्रवर्ती के नाम से चिह्नित बाण को देखा और चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका है यह जाना तब वह अपने पुण्य को अल्प जान अपनी निंदा करने लगा । तदनंतर जिसका मान खंडित हो गया था ऐसा मागधदेव हाथों में रत्न लेकर भरत के पास आया ॥8-9॥ आकर उस बुद्धिमान् देव ने पृथिवी का सारभूत हार, मुकुट, रत्न निर्मित दो कुंडल, अच्छे-अच्छे रत्न, वस्त्र तथा तीर्थोदक की भेंट दी और कहा कि हे स्वामिन् ! बताइए मैं क्या करूँ ? मुझे आज्ञा दीजिए । तदनंतर भरत से विदा हो वह अपने स्थान पर गया और भरत भी वहाँ से चलकर दक्षिण दिशा में रहने वाले महाबलवान् भूत और व्यंतर देवों के समूह को वश करते हुए समुद्र के वैजयंत द्वार पर जा पहुंचे ॥10-12॥
वहां पर उन्होंने मागधदेव के समान उस प्रदेश के स्वामी वरतनुदेव को बुलाया और वरतनुदेव ने आकर चूड़ामणि, सुंदर कंठहार, कवच, वीरों के बाजूबंद, कड़े और करधनी भेंट कर भरत को प्रणाम किया । तदनंतर सेवक वृत्ति को स्वीकार करने वाले वरतनुभरत से विदा ले अपने स्थान पर चला गया ॥13-14॥ वहाँ से चलकर भरत पश्चिम दिशा के समस्त राजाओं को वश करते हुए वेदिका के किनारे-किनारे चलकर सिंधुनदी के मनोहर द्वार पर पहुँचे ॥15॥ वहाँ इंद्र के समान पराक्रम को धारण करने वाले चक्रवर्ती भरत ने गंगाद्वार के समान वहाँ के अधिपति प्रभासदेव को नम्रीभूत कर अपने वश किया ॥16 ॥ तथा उससे संतानक वृक्षों के पुष्पों की उत्तम माला, मोतियों की जाली, मुकुट और रत्नों से चित्र-विचित्र कटिसूत्र प्राप्त किया ॥17॥
तदनंतर भरत, चक्ररत्न के पीछे-पीछे चलकर विजयार्ध पर्वत की वेदिका के समीप आये । वहाँ उन्होंने उपवास कर पर्वत के अधिष्ठाता (विजयार्धकुमार) देव का स्मरण किया ॥18॥ वह देव अपने अवधिज्ञान से भरत को वहाँ आया जानकर आया । उसने भरत को प्रणाम कर बड़ी ऋद्धियों से उनका अभिषेक किया तथा झारी, कलशजल, उत्तम सिंहासन, छत्र और दो चमर भेंट कर कहा कि मैं आपका हूँ― आपका सेवक हूँ । इस प्रकार निवेदन कर वह चला गया ॥19-20॥ राजा भरत वहाँ चक्ररत्न की पूजा कर तमिस्र गुहा के द्वार पर आये । वहीं घबड़ाया हुआ कृतमाल नाम का देव उनके पास आया ॥21॥ और तिलक आदि चौदह दिव्य आभूषण देकर तथा प्रणाम कर मैं आपका हूँ यह कहता हुआ चला गया ॥22॥ राज राजेश्वर भरत की आज्ञा से उनके अयोध्या नामक सेनापति ने सुआ के समान कांति वाले कुमुदामेलक नामक अश्व रत्न पर सवार हो तथा पीछे की ओर अपना मुख कर दंड रत्न से गुहाद्वार के किवाड़ों को ताड़ित किया और ताड़ित कर वह एकदम पीछे भाग गया ॥23-24॥ खुला हुआ गुहाद्वार जब छह माह में ऊष्मा रहित हो गया तब चक्रवर्ती ने विजयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो सेना के साथ उसमें प्रवेश किया ॥25॥ गुहा के बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दो नदियां थीं, उनके तट पर भरत ने सेनाओं को छोड़ दिया― उन्हें विश्राम कराया ॥26॥ उस गुफा में निरंतर अंधकार रहता था जिसे भरत ने काकणीमणि की किरणों से दूर कर दिया था । भरत की सेना ने वहाँ आलस्य रहित होकर एक दिन-रात निवास किया ॥27॥ काम दृष्टि नामक गृह पति रत्न और रत्न भद्रमुख नामक स्थपति रत्न इन दोनों ने उन नदियों पर मजबूत पुल बनाये ॥28॥ सेना उन पुलों के द्वारा शीघ्र ही नदियों को पार कर आगे बढ़ गयी और पहले की तरह उत्तर द्वार को खोलकर उत्तर भारत में जा पहुँची ॥29॥
उत्तर भारत के हजारों म्लेच्छ राजा चक्रवर्ती की अपूर्व सेना को देखकर क्षुभित हो गये और शीघ्र ही सामने आकर अनायास युद्ध करने लगे ॥30॥ तदनंतर क्रोध से भरें अयोध्या सेनापति ने युद्ध में म्लेच्छ राजाओं के साथ युद्ध करता था उन्हें शीघ्र ही खदेड़ कर अपना अयोध्या नाम सार्थक किया ꠰꠰31॥ सेनापति से भयभीत हुए म्लेच्छ, अपने कुलदेवता, दर्भ शय्या पर शयन करने वाले एवं भयंकर मेघ मुख नागकुमारों को शरण गये ॥32॥ जिसमें मेघ मुख देव आकाश को व्याप्त कर युद्ध के लिए आ डटे परंतु जयकुमार ने उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त कर दिया और स्वयं मेघ स्वर यह नाम प्राप्त किया ॥33॥ कुछ देर बाद मेष मुख देव भयंकर मेघों से आकाश को व्याप्त कर मुट्ठी बराबर मोटी-मोटी धाराओं से सेना के मस्तक पर जलवर्षा करने लगे ॥34॥ तदनंतर जिसमें बिजली के साथ वज्र की भयंकर गर्जना हो रही थी ऐसी जलवृष्टि देखकर चक्रवर्ती ने सेना के नीचे चर्म रत्न और ऊपर छत्र रत्न फैला दिया ॥35॥ बारह योजन पर्यंत फैली एवं जल के भीतर तैरती हुई वह सेना अंडा के समान जान पड़ती थी । वह सेना सात दिन तक इसी तरह भयभीत रही ॥36॥ तदनंतर निधियों के स्वामी चक्रवर्ती ने कुपित होकर गणबद्ध देवों को आज्ञा दी और उन्होंने उन मेघमुख देवों को परास्त कर खदेड़ दिया ॥37॥ तत्पश्चात् जिन्होंने वृष्टि का संकोच कर लिया था ऐसे मेघमुख देवों की प्रेरणा पाकर वे म्लेच्छ राजा उत्तमोत्तम कन्याएँ लेकर चक्रवर्ती की शरण में आयें ॥38॥ चक्रवर्ती ने उन भयभीत तथा आज्ञा पाने की इच्छा करने वाले म्लेच्छ राजाओं को अभयदान दिया और उसके बाद श्रम से रहित हो सिंधुनदी की वेदिका के किनारे-किनारे गमन किया ॥39॥
बीच में सिंधुकूट पर निवास करने वाली सिंधु देवी ने भरत का अभिषेक कर उन्हें पादपीठ से सुशोभित दो उत्तम आसन भेंट किये ॥40॥ चक्रवर्ती सेना को हिमवान् पर्वत की तराई में ठहराकर तथा स्वयं तीन दिन के उपवास का नियम लेकर दर्भ शय्या पर आरूढ़ हुए ॥41॥ तदनंतर जिन्होंने तीर्थ जल से स्नान किया था, उत्तम वेषभूषा धारण की थी, जो घोड़ों के रथ पर सवार थे, जिनके आगे-आगे चक्ररत्न चल रहा था और जो रण में अत्यंत कुशल थे ऐसे भरत, जहाँ हिमवान् पर्वत का हिमवत् नामक छोटा कूट था वहाँ आये और बाण हाथ में ले तथा वैशाख आसन से खड़े होकर बोले कि हे इस देश में रहने वाले नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवो! तुम लोग शीघ्र ही मेरी आज्ञा सुनो । यह कह उन्होंने धनुष खींचकर बाण छोड़ा ॥ 42-44॥ वज्र के समान शब्द करता हुआ वह बाण बारह योजन दूर जाकर गिरा तथा हिमवत् कूट पर रहने वाला देव उसे देखकर भरत के पास आया ॥45॥ उसने दिव्य औषधिओं की माला तथा दिव्य हरिचंदन देकर भरत की पूजा की । तदनंतर आज्ञा की इच्छा करता हुआ वह भरत से विदा ले अपने स्थानपर चला गया ॥46 ॥
चक्रवर्ती वहाँ से चलकर वृषभाचल पर्वतपर आये और वहाँ उन्होंने काकणी रत्न से साफ-साफ अपना यह नाम लिखा कि मैं भगवान् वृषभदेव का पुत्र भरत चक्रवर्ती हूँ । नाम लिखकर तथा बाँचकर वे विजया पर्वत की वेदिका के समीप आये ॥47-48 ॥ वहाँ जाकर उन्होंने उपवास धारण किया । दोनों श्रेणियों के निवासी नमि और विनमि को जब यह ज्ञात हुआ कि भरत यहाँ विद्यमान हैं तब वे गंधार आदि विद्याधरों के साथ वहाँ आये ॥ 49॥ समस्त विद्याधरों ने उन्हें नमस्कार किया और भरत ने नमि, विनमि से सुभद्रा नामक स्त्री-रत्न ग्रहण किया । तत्पश्चात् वे गंगा नदी की वेदिका के किनारे-किनारे चलकर गंगा कूट के समीप आये और तीन दिन के उपवास का नियम लेकर वहाँ ठहर गये । वहाँ गंगाकूट पर रहने वाली गंगा देवी ने उनके आने का समाचार जानकर सुवर्णमय एक हजार कलशों से उनका अभिषेक किया ॥50-51 ॥ अभिषेक के बाद उसने पादपीठ से युक्त दो रत्नों के सिंहासन भेंट किये । यहाँ विजयार्ध पर्वत का स्वामी विजयार्ध कुमारदेव चक्रवर्ती की आज्ञा में खड़ा रहा ॥ 52 ॥
तदनंतर वहाँ से चलकर अठारह हजार म्लेच्छ राजाओं को वश करते और उनसे उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट स्वीकार करते हुए भरत विजयार्ध की दूसरी गुफा खंडकाप्रपात के समीप पहुंचे ॥53॥ वहाँ वे तीन दिन के उपवास का नियम लेकर ठहर गये । यहाँ नाट्यमाल नामक देव ने उन्हें नाना प्रकार के आभूषण और बिजली के समान चमकते हुए दो कुंडल भेंट किये ॥54॥ जिस प्रकार पहले अयोध्या सेनापति ने दंडरत्न के द्वारा सिंधुनदी की गुफा का द्वार खोला था उसी प्रकार यहाँ भी उसने दंडरत्न से गंगानदी को गुफा का द्वार खोला और भरत उस द्वार से प्रवेश कर सेना सहित बाहर निकल आये ॥55॥ इस तरह अतिशय कुशल भरत ने साठ हजार वर्षों में छह खंडों से युक्त समस्त भरतक्षेत्र को जीतकर अयोध्या नगरी की ओर प्रस्थान किया ॥56॥
अथानंतर समीप आने पर जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब भरत ने संदेह युक्त हो बुद्धिसागर पुरोहित से पूछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश कर लेने पर भी यह दिव्य चक्र रत्न अयोध्या में प्रवेश क्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है ? ॥57-58॥ पुरोहित ने कहा कि आपके जो महाबलवान् भाई हैं वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं ॥59॥ यह सुनकर भरत ने शीघ्र ही उनके पास साम, दाम आदि नीति के साथ दूत भेजे ॥60 ॥
तदनंतर इस निमित्त से जिन्हें बोधिकी प्राप्ति हुई थी ऐसे भरत के अभिमानी भाइयों ने त्याग को ही महोत्सव मान अपने-अपने राज्य छोड़ दिये ॥61॥ जो संसार से भयभीत थे, जिनकी मानरूपी शल्य छूट चुकी थी, और जो अंतरंग में मोक्ष की इच्छा रखते थे ऐसे भरत के समस्त भाइयों ने भगवान् वृषभदेव के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥62॥ उन सुकुमार एवं भव्य-शिरोमणि कुमारों ने जो देश छोड़े थे विद्वानों को उनके नाम इस प्रकार जानना चाहिए ॥63॥ कुरुजांगल, पंचाल, सूरसेन, पटच्चर, तुलिंग, काशी, कौशल्य, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, त्रिगत, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयान्, कोशल और मोक ये मध्य देश थे ॥64-65॥ वालीक, आत्रेय, कांबोज, यवन, आभीर, मद्रक, क्वाथतीय, शूर, वाटवान, कैकय, गांधार, सिंधु, सौवीर, भारद्वाज, दशेरुक, प्रास्थाल और तीर्णकर्ण ये देश उत्तर की ओर स्थित थे ॥66-67॥ खड्ग, अंगारक, पौंड्र, मल्ल, प्रवक, मस्तक, प्राद्योतिष, वंग, मगध, मानवतिक, मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे । बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दांडीक, कलिंग, आंसिक, कुंतल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन, ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, कल्लीवनोपांत, दुर्ग, सूर, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगर्त, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद, ये सब देश पश्चिम दिशा में स्थित थे । दशार्णक, किष्किंध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अंतप, कौशल, पतन और विनिहात्र, ये देश विंध्याचल के ऊपर स्थित थे ॥68-74॥ भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वज्र खंडिक, ये देश मध्यदेश के आश्रित थे ॥75 ॥ पिता-भगवान् वृषभदेव के द्वारा दिये हुए इन सब देशों को मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले भरत के छोटे भाइयों ने स्त्रियों के समान छोड़ दिया साथ ही उन्होंने आज्ञाकारी सेवकों का भी परित्याग कर दिया ॥76 ॥
अथानंतर कुमार बाहुबली ने भरत के प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट की । उन्होंने उनके सुदर्शनचक्र को अलातचक्र के समान तुच्छ समझा और ‘‘मैं आपके आधीन नहीं हूं’’ । यह कहकर दूत भेज दिये तथा वे शीघ्र ही अक्षौहिणी सेना साथ ले युद्ध के लिए पोदनपुर से निकल पड़े ॥77-78॥ इधर सेनारूपी सागर से दिशाओं को व्याप्त करते हुए चक्रवर्ती भरत भी आ पहुंचे जिससे विततानदी के पश्चिम दिग्भाग में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई ॥79॥ तदनंतर दोनों राजाओं के मंत्रियों ने परस्पर सलाह कर कहा कि देशवासियों का क्षय न हो इसलिए दोनों ही राजाओं में धर्म युद्ध हो ॥80॥
भरत और बाहुबली ने मंत्रियों की यह बात मानकर सर्वप्रथम दृष्टि युद्ध शुरू किया और आकाश में खड़े हुए देव और विद्याधरों ने दोनों को चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से युक्त देखा । अर्थात् दोनों भाई चिरकाल तक टिमकार रहित नेत्रों से खड़े रहे और कोई किसी से हारा नहीं । परंतु अंत में छोटे भाई ने बड़े भाई को हरा दिया क्योंकि बड़े भाई पाँच सौ धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि ऊपर की ओर थी और छोटे भाई उनसे पचीस धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि नीचे की ओर थी ॥81-82॥ दृष्टि युद्ध के बाद दोनों भाइयों का तालाब में भयंकर जल युद्ध हुआ । उस समय दोनों ही भाई एक दूसरे पर अपनी भुजाओं से लहरें उछाल-उछालकर दुःसह आघात कर रहे थे । परंतु इस युद्ध में भी बड़े भाई भरत हार गये ॥83 ॥ तदनंतर दोनों का रंगभूमि में चिरकाल तक मल्ल युद्ध हुआ । उनका वह मल्ल युद्ध तालों की फटाटोप से युक्त था तथा नाना प्रकार के पैंतरा बदलने की चतुराई से पूर्ण था ॥ 84॥ उस समय युद्ध करते हुए दोनों वरों के पदाघात से जिसका हृदय फट गया था ऐसी पृथिवीरूपी स्त्री भय से ही मानो चिल्ला उठी थी ॥85 ॥ अंत में दयावान् बाहुबली अपने भुज यंत्र से भरत को पकड़कर तथा ऊपर की ओर उठाकर इस प्रकार खड़े हो गये मानो कोई देव रत्नों के पर्वत को उठाकर खड़ा हो ॥86॥ देखने वाले देवों के समूह, विद्याधरों तथा भूमिगोचरी मनुष्यों ने उसी समय जोर से यह शब्द किया कि अहो ? वीर्यम्― आश्चर्यकारी शक्ति है, अहो ! धैर्यम्― आश्चर्यकारी धैर्य है, साधु-साधु ठीक है, ठीक है आदि ॥87॥
तदनंतर अच्छी तरह जीतकर जब बाहुबली ने भरत को छोड़ा तब उन्होंने क्रोध के कारण अपमृत्यु करने वाले सुदर्शनचक्र का स्मरण किया और स्मरण करते ही हजार अरों को धारण करने वाला सुदर्शनचक्र उनके हाथ में आकर खड़ा हो गया ॥88॥ एक हजार यक्ष जिसकी रक्षा कर रहे थे तथा जो सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभा का धारक था ऐसे सुदर्शनचक्र को उन्होंने ऊपर की ओर घुमाकर भाई को मारने के लिए छोड़ा ॥89॥ परंतु वह देवाधिष्ठित चक्र चरमोत्तम शरीर के धारक बाहुबली के मारने में असमर्थ रहा इसलिए उनकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर वापस आ गया ॥90॥ तदनंतर बाहुबली बड़े भाई को निर्दय देख हाथों से कान ढककर लक्ष्मी की इस प्रकार निंदा करने लगे ॥91॥ जिस प्रकार कीचड़ स्वच्छ, अनुकूल, एवं मिले हुए जल को विपरीत मलिन कर देती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ, अनुकूल और मिले हुए मनुष्यों के चित्त को विपरीत कर देती है अतः इसे धिक्कार हो ॥92॥ जिस प्रकार यंत्र-मूर्ति― (कोल्हू) मधुर एवं चिक्कण स्वभाव वाले तिलहनों के दीर्घकालिक स्नेह― तेल को हर लेती है तथा अत्यंत अस्थिर होती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव वाले मनुष्यों के चिर-कालिक स्नेह― प्रिय को नष्ट कर देती है एवं अत्यंत अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥93॥ जिस प्रकार दृष्टिविष सर्प की दृष्टि नरेंद्र-विष वैद्यों के लिए भी सब ओर से स्वयं अत्यंत दुःख से देखने के योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी नरेंद्र-राजाओं के लिए भी सब ओर से अत्यंत दुःप्रेक्ष्य-दुःख से देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करने वाली है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥94 ॥
जिस प्रकार अग्नि की शिखा सदा मूल, मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको संताप करने वाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी आदि, मध्य और अंत में दुःख कर स्पर्श से सहित है― सब दशाओं में दुःख देने वाली है तथा देदीप्यमान― तेज तर्राटे से युक्त होने पर भी सबको संताप उत्पन्न करने वाली है― आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिक्कार हो ॥95॥ मनुष्यलोक में सुख वही है जो चित्त को संतुष्ट करने वाला हो परंतु बंधुजनों में विरोध होने पर मनुष्यों को न सुख प्राप्त होता है और न धन ही उनके पास स्थिर रहता है ॥96॥ जिस प्रकार शीत-ज्वर से आक्रांत मनुष्यों के लिए शीतल स्पर्श दुःख उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार बंधुजनों के विरुद्ध होने पर भोग भी मनुष्यों के लिए दुःख उत्पन्न करते हैं ॥97॥ इस प्रकार विचार कर तथा राज्य का परित्याग कर बाहुबली तप करने लगे और कैलास पर्वतपर एक वर्ष का प्रतिमा योग लेकर निश्चल खड़े हो गये ॥98॥ उनके चरण, वामी के बिलों से निकले हुए मणि भूषित साँपों से इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पहले मणि भूषित आश्रित राजाओं से सुशोभित होते थे ॥99॥ जिस प्रकार पहले कोमलांगी वल्लभा उनके समस्त शरीर का आलिंगन करती थी उसी प्रकार कोमलांगी माधवीलता उनके मुनि होने पर भी उन बाहुबली के समस्त शरीर का आलिंगन कर रही थी ॥100 । दो विद्याधर परियाँ उनके शरीर पर लिपटी हुई लता को दूर करती रहती थीं जिससे श्याम मूर्ति के धारक एवं स्थिर खड़े हुए योगिराज बाहुबली मरकत मणि के पर्वत के समान सुशोभित हो रहे थे ॥101॥ तदनंतर भरत ने आकर जिन्हें नमस्कार किया था ऐसे बाहुबली मुनिराज कषायों का अंत कर तथा केवल ज्ञान उत्पन्न कर भगवान् वृषभदेव के सभासद् हो गये-उनके समवसरण में पहुंच गये ॥ 102 ॥
तदनंतर चौदह महारत्नों और नौ निधियों से युक्त अतिशय बुद्धिमान् चक्रवर्ती भरत, पृथिवी का निष्कंटक उपभोग करने लगे ॥103 ॥ भरत महाराज दया से युक्त हो बिना किसी परीक्षा के बारह वर्ष तक लोगों के लिए मनचाहा दान देते रहे ॥104॥ तदनंतर जिन-शासन संबंधी वात्सल्य और भक्ति के भार से वशीभूत होकर उन्होंने जो तथा धान्य आदि के अंकुरों से श्रावकों की परीक्षा की, काकिणी रत्न से निर्मित रत्नत्रयसूत्र― यज्ञोपवीत को उनका चिह्न बनाया और आदर-सत्कार कर कृतयुग में उन्हें भक्तिपूर्वक दान दिया ॥105-106॥ आगे चलकर भरत के
द्वारा आदर को प्राप्त हुए वे व्रती ब्राह्मण कहे जाने लगे । इस तरह पहले कहे हुए तीन वर्णों के साथ मिलकर अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हो गये ॥107॥
1 चक्र, 2 छत्र, 3 खड्ग, 4 दंड, 5 काकिणी, 6 मणि, 7 चर्म, 8 सेनापति, 9 गृहपति, 10 हस्ती, 11 अश्व, 12 पुरोहित, 13 स्थपति और 14 स्त्री चक्रवर्ती के ये चौदह रत्न थे, इनमें प्रत्येक की एक-एक हजार देव रक्षा करते थे तथा ये अत्यधिक सुशोभित थे ॥108-109॥ 1 काल, 2 महाकाल, 3 पांडुक, 4 माणव, 5 नौसर्प, 6 सर्वरत्न, 7 शंख, 8 पद्म और 9 पिंगल ये पुण्यशाली चक्रवर्ती की नौ निधियां थीं । ये सभी निधियां अविनाशी थीं, निधिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं और निरंतर लोगों के उपकार में आती थीं ॥110-111॥ ये गाड़ी के आकार की थीं, चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों से सहित थीं । नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लंबी, आठ योजन गहरी और वक्षार गिरि के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं । प्रत्येक की एक-एक हजार यक्ष निरंतर देख-रेख रखते थे ॥112-113॥
इनमें से पहली कालनिधि में ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, एवं पुराण आदि का सद्भाव था अर्थात् कालनिधि से इन सबकी प्राप्ति होती थी ॥ 114 ॥ दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों के द्वारा निर्णय करने योग्य पंचलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था अर्थात् उससे इन सबकी प्राप्ति होती थी ॥115॥ तीसरी पांडुक निधि में शालि, ब्रीहि, जौ आदि समस्त प्रकार की धान्य तथा कडुए चिरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था ॥116॥ चौथी माणवक निधि, कवच, ढाल, तलवार, बाण, शक्ति, धनुष तथा चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य शस्त्रों से परिपूर्ण थी ॥117 ॥ पांचवीं सर्प-निधि, शय्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर में उपयोग आने वाले नाना प्रकार के भाजनों की पात्र थी ॥118 ॥ छठी सर्वरत्न निधि इंद्रनील मणि, महानील मणि, वज्रमणि आदि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी ॥ 119॥ सातवीं शंखनिधि, भेरी, शंख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी और मृदंग आदि आघात से तथा फूंककर बजाने योग्य नाना प्रकार के बाजों से पूर्ण थी ॥120॥ आठवीं पद्मनिधि पाटांबर, चीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कंबल तथा नाना प्रकार के रंग-बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थी ॥121 ॥ और नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषों के आभूषण और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी ॥122॥ ये नौ को नौ निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति के अधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं ॥123॥
चक्रवर्ती के एक-से-एक बढ़कर तीन सौ साठ रसोइया थे जो प्रतिदिन कल्याण कारी सीथों से युक्त आहार बनाते थे ॥124 ॥ एक हजार चावलों का एक कबल होता है ऐसे बत्तीस कबल प्रमाण चक्रवर्ती का आहार था, सुभद्रा का आहार एक कबल था और एक कबल अन्य समस्त लोगों को तृप्ति के लिए पर्याप्त था और एक कबल अन्य समस्त लोगों की तृप्ति के लिए पर्याप्त था ॥125 ॥ चक्रवर्ती के निन्यानवे हजार चित्रकार थे, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उतने ही देश थे और देवांगनाओं को भी जीतने वाली छियानवे हजार स्त्रियाँ श्रीं ॥126-127॥ एक करोड़ हल थे, तीन करोड़ कामधेनु गायें थीं, वायु के समान वेगशाली अठारह करोड़ घोड़े थे, मत्त एवं धीरे-धोरे गमन करने वाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे ॥128-129 ॥ अर्ककीर्ति और विवर्धन को आदि लेकर पाँच सो चरम शरीरी तथा आज्ञाकारी पुत्र थे ॥130॥ 1 भाजन, 2 भोजन, 3 शय्या, 4 सेना, 5 वाहन, 6 आसन, 7 निधि, 8 रत्न, 9 नगर और 10 नाट्य ये दस प्रकार के भोग थे ॥131 ॥ सेवा में निपुण, प्रमादरहित एवं परमहितकारी सोलह हजार गणबद्ध देव सदा उनकी सेवा करते थे ॥132॥
यद्यपि राजाधिराज चक्रवर्ती इस प्रकार के विभव से सहित थे तथापि उनकी बुद्धि शास्त्रों का अर्थ विचारने में निरत रहती थी और वे दुर्गतिरूपी ग्रह का सदा निग्रह करते रहते थे ॥133 ॥ भुजाओं से शत्रुओं का मथन करने वाले चक्रवर्ती ने यद्यपि बत्तीस हजार राजाओं को बिखेरकर उनका अभिमान नष्ट कर दिया था तथापि स्वयं अभिमान से रहित थे ॥134॥ जिनका वक्षःस्थल श्रीवृक्ष के चिह्न से सहित था, जो चौंसठ लक्षणों से युक्त थे, जो इंद्र की लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाले थे और जो नित्य एवं अखंडित पौरुष को धारण करने वाले थे ऐसे स्वयंभू पुत्र सोलहवें कुलकर भरत महाराज जब भरतक्षेत्र संबंधी छह खंडों की भूमि का नीति पूर्वक शासन करते थे तब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यथेष्ट अनुराग रखने वाले लोग निर्विघ्नरूप से निरंतर आनंद का उपभोग करते थे ॥135-137꠰꠰ जो अपनी लक्ष्मी के द्वारा बिना वचन बोले ही अन्य मनुष्यों के लिए पूर्व जन्म में किये हुए धर्मफल दिखला रहे थे ऐसे भरत महाराज किनके लिए धर्म के उपदेशक नहीं थे । भावार्थ― उनकी अनुपम विभूति को देखकर लोग अपने आप समझ जाते थे कि यह इनके पूर्वकृत धर्म का फल है इसलिए सबको धर्म करना चाहिए ॥ 138 ॥ इस प्रकार पूर्व जन्म में आचरण किये हुए धर्म के माहात्म्य से जो स्वयं अतिशय महान् थे, पौरुष से युक्त थे, सुख के भंडार थे, लोगों के लिए कल्पवृक्ष स्वरूप थे, सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रंजित मनोवृत्ति से युक्त थे, और लक्ष्मी से इंद्र के समान थे ऐसे चक्रवर्ती भरत, सिंह को चेष्टा के समान सुदृढ़ मन को जिनमार्ग में लीन रखने लगे ॥139 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भरत की दिग्विजय का वर्णन करने वाला ग्यारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥11॥