हरिवंश पुराण - सर्ग 13: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर षट̖खंड पृथिवी के स्वामी महाराज भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर अर्ककीर्ति नामक पुत्र का अभिषेक किया और स्वयं अतिशय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एवं कठिनाई से निग्रह करने योग्य इंद्रियरूपी मृगसमूह को पकड़ने के लिए जाल के समान जिनदीक्षा धारण कर ली ॥1-2॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक! महाराज भरत ने अपने समस्त केश पंचमुट्ठियों से उखाड़कर फेंक दिये तथा उनके कर्मबंधन की स्थिति इतनी जल्दी क्षीण हुई कि उन्होंने केशलोंच के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥3॥ तदनंतर बत्तीसों इंद्रों ने आकर जिनके केवलज्ञान की पूजा की और जो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान थे ऐसे भगवान् भरत ने चिरकाल तक पृथिवी पर विहार किया ॥4॥ सर्वदर्शी भगवान् भरत की आयु भी चौरासी लाख पूर्व की थी उसमें से सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार काल में बीते, छह लाख पूर्व साम्राज्य पद में व्यतीत हुए और एक लाख पूर्व उन्होंने मुनि पद में विहार किया ॥5॥ आयु के अंत समय वे वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलास पर्वत पर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मों का क्षय कर वहीं से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, देवों ने उनकी स्तुति-वंदना की ॥6॥</p> | <span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर षट̖खंड पृथिवी के स्वामी महाराज भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर अर्ककीर्ति नामक पुत्र का अभिषेक किया और स्वयं अतिशय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एवं कठिनाई से निग्रह करने योग्य इंद्रियरूपी मृगसमूह को पकड़ने के लिए जाल के समान जिनदीक्षा धारण कर ली ॥1-2॥<span id="3" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक! महाराज भरत ने अपने समस्त केश पंचमुट्ठियों से उखाड़कर फेंक दिये तथा उनके कर्मबंधन की स्थिति इतनी जल्दी क्षीण हुई कि उन्होंने केशलोंच के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥3॥<span id="4" /> तदनंतर बत्तीसों इंद्रों ने आकर जिनके केवलज्ञान की पूजा की और जो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान थे ऐसे भगवान् भरत ने चिरकाल तक पृथिवी पर विहार किया ॥4॥<span id="5" /> सर्वदर्शी भगवान् भरत की आयु भी चौरासी लाख पूर्व की थी उसमें से सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार काल में बीते, छह लाख पूर्व साम्राज्य पद में व्यतीत हुए और एक लाख पूर्व उन्होंने मुनि पद में विहार किया ॥5॥<span id="6" /> आयु के अंत समय वे वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलास पर्वत पर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मों का क्षय कर वहीं से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, देवों ने उनकी स्तुति-वंदना की ॥6॥<span id="7" /></p> | ||
<p>राजा अर्ककीर्ति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ । अर्ककीर्ति उसे लक्ष्मी देव तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ ॥7॥ स्मितयश के बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन के प्रतापवान्, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेंद्रविक्रम, महेंद्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इंद्रद्युम्न, इंद्रद्युम्न के महेंद्रजित्, महेंद्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक आदि अनेक राजा क्रम से सूर्यवंश में उत्पन्न हुए । ये सब राजा विशाल यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौंप तप कर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥8-12॥ भरत को आदि लेकर चौदह लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गये । उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये परंतु उनके बीच में एक-एक राजा इंद्रपद को प्राप्त होता रहा ॥13-14॥ सूर्यवंश में उत्पन्न हुए कितने ही धीर-वीर राजा अंत में राज्य का भार छोड़ और तप का भार धारण कर स्वर्ग गये तथा कितने ही मोक्ष को प्राप्त हुए ॥15 | <p>राजा अर्ककीर्ति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ । अर्ककीर्ति उसे लक्ष्मी देव तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ ॥7॥<span id="8" /><span id="9" /><span id="10" /><span id="11" /><span id="12" /> स्मितयश के बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन के प्रतापवान्, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेंद्रविक्रम, महेंद्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इंद्रद्युम्न, इंद्रद्युम्न के महेंद्रजित्, महेंद्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक आदि अनेक राजा क्रम से सूर्यवंश में उत्पन्न हुए । ये सब राजा विशाल यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौंप तप कर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥8-12॥<span id="13" /><span id="14" /> भरत को आदि लेकर चौदह लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गये । उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये परंतु उनके बीच में एक-एक राजा इंद्रपद को प्राप्त होता रहा ॥13-14॥<span id="15" /> सूर्यवंश में उत्पन्न हुए कितने ही धीर-वीर राजा अंत में राज्य का भार छोड़ और तप का भार धारण कर स्वर्ग गये तथा कितने ही मोक्ष को प्राप्त हुए ॥15 ॥<span id="16" /><span id="17" /> भगवान् ऋषभ देव के जो बाहुबली पुत्र थे उनसे सोमयश नामक पुत्र हुआ । वही सोमयश सोमवंश (चंद्रवंश) का कर्ता हुआ । सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और सुबल के भुजबली पुत्र हुआ । इन्हें आदि लेकर सोमवंश में उत्पन्न हुए अनेक राजा मोक्ष को प्राप्त हुए ॥16-17॥<span id="18" /><span id="19" /> इस प्रकार भगवान् वृषभदेव का तीर्थ पृथिवी पर पचास लाख करोड़ सागर तक अनवरत चलता रहा । इस तीर्थकाल में अपनी दो शाखाओं-सूर्यवंश और चंद्रवंश में उत्पन्न हुए इक्ष्वाकुवंशीय तथा कुरुवंशीय आदि अनेक राजा स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥18-19॥<span id="20" /><span id="21" /><span id="22" /><span id="23" /><span id="24" /><span id="25" /></p> | ||
<p> विद्याधरों के स्वामी राजा नमि के रत्नमाली, रत्नमाली के रत्नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्नरथ के रत्न चिह्न, रत्न चिह्न के चंद्ररथ, चंद्ररथ के वज्रजंघ, वज्रजंघ के वज्रसेन, वज्रसेन के वज्रदंष्ट्र, वज्रदंष्ट्र के वज्रध्वज, वज्रध्वज के वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्र के सुवज्र, सुवज्र के वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वज्राभ के वज्रबाहु, वज्रबाहु के वज्रांक, वज्रांक के वज्रसुंदर, वज्र सुंदर के वज्रास्य, वज्रास्य के वज्रपाणि, वज्रपाणि के वज्रभानु, वज्रभानु के वज्रवान्, वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुख के सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युद्ंष्ट्र, विद्युद्ंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ के विद्युवेग और विद्युद्वेग के वैद्युत पुत्र हुआ । इन्हें आदि लेकर जो विद्याधर राजा हुए वे भी भगवान् आदिनाथ के तीर्थ में पुत्रों के लिए राज्य-वैभव सौंप तपश्चरण कर यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥20-25 | <p> विद्याधरों के स्वामी राजा नमि के रत्नमाली, रत्नमाली के रत्नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्नरथ के रत्न चिह्न, रत्न चिह्न के चंद्ररथ, चंद्ररथ के वज्रजंघ, वज्रजंघ के वज्रसेन, वज्रसेन के वज्रदंष्ट्र, वज्रदंष्ट्र के वज्रध्वज, वज्रध्वज के वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्र के सुवज्र, सुवज्र के वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वज्राभ के वज्रबाहु, वज्रबाहु के वज्रांक, वज्रांक के वज्रसुंदर, वज्र सुंदर के वज्रास्य, वज्रास्य के वज्रपाणि, वज्रपाणि के वज्रभानु, वज्रभानु के वज्रवान्, वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुख के सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युद्ंष्ट्र, विद्युद्ंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ के विद्युवेग और विद्युद्वेग के वैद्युत पुत्र हुआ । इन्हें आदि लेकर जो विद्याधर राजा हुए वे भी भगवान् आदिनाथ के तीर्थ में पुत्रों के लिए राज्य-वैभव सौंप तपश्चरण कर यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥20-25 ॥<span id="26" /></p> | ||
<p>अथानंतर सर्वार्थसिद्धि से चयकर दूसरे अजितनाथ तीर्थंकर हुए । इनके पंचकल्याणकों का वर्णन भगवन् ऋषभदेव के समान ही जानना चाहिए ॥26॥ इनके काल में सगर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ । वह अक्षीण निधियों तथा रत्नों का स्वामी था और भरत चक्रवर्ती के समान प्रसिद्ध था ॥27॥ इसके अद्भुत को आदि लेकर साठ हजार पुत्र थे । ये सभी पुत्र अद्भुत चेष्टाओं के धारक थे और परस्पर में महाप्रीति से युक्त थे ॥28॥ किसी समय ये समस्त भाई कैलास पर्वतपर गये वहाँ आठ पादस्थान बनाकर दंडरत्न से वहाँ की भूमि खोदने लगे परंतु इस क्रिया से कुपित होकर नागराज ने सबको भस्म कर दिया ॥29॥ चक्रवर्ती सगर संसार को स्थिति का ज्ञाता था इसलिए पुत्रों का शोक छोड़ उसने अजितनाथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली और कर्म-बंधन से छूट कर मोक्ष प्राप्त किया | <p>अथानंतर सर्वार्थसिद्धि से चयकर दूसरे अजितनाथ तीर्थंकर हुए । इनके पंचकल्याणकों का वर्णन भगवन् ऋषभदेव के समान ही जानना चाहिए ॥26॥<span id="27" /> इनके काल में सगर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ । वह अक्षीण निधियों तथा रत्नों का स्वामी था और भरत चक्रवर्ती के समान प्रसिद्ध था ॥27॥<span id="28" /> इसके अद्भुत को आदि लेकर साठ हजार पुत्र थे । ये सभी पुत्र अद्भुत चेष्टाओं के धारक थे और परस्पर में महाप्रीति से युक्त थे ॥28॥<span id="29" /> किसी समय ये समस्त भाई कैलास पर्वतपर गये वहाँ आठ पादस्थान बनाकर दंडरत्न से वहाँ की भूमि खोदने लगे परंतु इस क्रिया से कुपित होकर नागराज ने सबको भस्म कर दिया ॥29॥<span id="30" /> चक्रवर्ती सगर संसार को स्थिति का ज्ञाता था इसलिए पुत्रों का शोक छोड़ उसने अजितनाथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली और कर्म-बंधन से छूट कर मोक्ष प्राप्त किया ॥30॥<span id="31" /><span id="32" /> तदनंतर अजिननाथ के बाद संभवनाथ, उनके बाद अभिनंदन नाथ, उनके बाद सुमतिनाथ, उनके बाद पद्मप्रभ, उनके बाद सुपार्श्वनाथ, उनके बाद चंद्रप्रभ, उनके बाद पुष्पदंत और उनके बाद शीतलनाथ हुए ॥31-32॥<span id="33" /> गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सर्व-प्रथम इक्ष्वाकु वंश उत्पन्न हुआ फिर उसी इक्ष्वाकुवंश से सूर्यवंश और चंद्रवंश उत्पन्न हुए । उसी समय कुरुवंश तथा उग्रवंश आदि अन्य अनेक वंश प्रचलित हुए । पहले भोगभूमि में ऋषि नहीं थे परंतु आगे चलकर भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए और उनका उत्कृष्ट श्रीवंश प्रचलित हुआ । इस प्रकार मैंने तेरे लिए अनेक राजाओं और विद्याधरों के वंशों का कथन किया ॥33॥<span id="34" /> अब जिस समय शीतलनाथ भगवान् का शुद्ध एवं उज्ज्वल दसवां तीर्थ बीत रहा था तथा केवलज्ञानरूपी दीपक से उज्ज्वल संसार में इंद्र और देवों का आगमन जारी था ऐसे समय महाप्रभाव के धारक हरियों का जो वंश प्रकट हुआ था उसका भी वर्णन करता हूँ । हे राजन् ! जिनमार्ग में इसका जो यथार्थ वर्णन है उसे तू श्रवण कर ॥34॥<span id="13" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥13॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥13॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर षट̖खंड पृथिवी के स्वामी महाराज भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर अर्ककीर्ति नामक पुत्र का अभिषेक किया और स्वयं अतिशय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एवं कठिनाई से निग्रह करने योग्य इंद्रियरूपी मृगसमूह को पकड़ने के लिए जाल के समान जिनदीक्षा धारण कर ली ॥1-2॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक! महाराज भरत ने अपने समस्त केश पंचमुट्ठियों से उखाड़कर फेंक दिये तथा उनके कर्मबंधन की स्थिति इतनी जल्दी क्षीण हुई कि उन्होंने केशलोंच के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥3॥ तदनंतर बत्तीसों इंद्रों ने आकर जिनके केवलज्ञान की पूजा की और जो मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समान थे ऐसे भगवान् भरत ने चिरकाल तक पृथिवी पर विहार किया ॥4॥ सर्वदर्शी भगवान् भरत की आयु भी चौरासी लाख पूर्व की थी उसमें से सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार काल में बीते, छह लाख पूर्व साम्राज्य पद में व्यतीत हुए और एक लाख पूर्व उन्होंने मुनि पद में विहार किया ॥5॥ आयु के अंत समय वे वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलास पर्वत पर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मों का क्षय कर वहीं से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, देवों ने उनकी स्तुति-वंदना की ॥6॥
राजा अर्ककीर्ति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ । अर्ककीर्ति उसे लक्ष्मी देव तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ ॥7॥ स्मितयश के बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन के प्रतापवान्, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेंद्रविक्रम, महेंद्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इंद्रद्युम्न, इंद्रद्युम्न के महेंद्रजित्, महेंद्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक आदि अनेक राजा क्रम से सूर्यवंश में उत्पन्न हुए । ये सब राजा विशाल यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौंप तप कर मोक्ष को प्राप्त हुए ॥8-12॥ भरत को आदि लेकर चौदह लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गये । उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये परंतु उनके बीच में एक-एक राजा इंद्रपद को प्राप्त होता रहा ॥13-14॥ सूर्यवंश में उत्पन्न हुए कितने ही धीर-वीर राजा अंत में राज्य का भार छोड़ और तप का भार धारण कर स्वर्ग गये तथा कितने ही मोक्ष को प्राप्त हुए ॥15 ॥ भगवान् ऋषभ देव के जो बाहुबली पुत्र थे उनसे सोमयश नामक पुत्र हुआ । वही सोमयश सोमवंश (चंद्रवंश) का कर्ता हुआ । सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और सुबल के भुजबली पुत्र हुआ । इन्हें आदि लेकर सोमवंश में उत्पन्न हुए अनेक राजा मोक्ष को प्राप्त हुए ॥16-17॥ इस प्रकार भगवान् वृषभदेव का तीर्थ पृथिवी पर पचास लाख करोड़ सागर तक अनवरत चलता रहा । इस तीर्थकाल में अपनी दो शाखाओं-सूर्यवंश और चंद्रवंश में उत्पन्न हुए इक्ष्वाकुवंशीय तथा कुरुवंशीय आदि अनेक राजा स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥18-19॥
विद्याधरों के स्वामी राजा नमि के रत्नमाली, रत्नमाली के रत्नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्नरथ के रत्न चिह्न, रत्न चिह्न के चंद्ररथ, चंद्ररथ के वज्रजंघ, वज्रजंघ के वज्रसेन, वज्रसेन के वज्रदंष्ट्र, वज्रदंष्ट्र के वज्रध्वज, वज्रध्वज के वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्र के सुवज्र, सुवज्र के वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वज्राभ के वज्रबाहु, वज्रबाहु के वज्रांक, वज्रांक के वज्रसुंदर, वज्र सुंदर के वज्रास्य, वज्रास्य के वज्रपाणि, वज्रपाणि के वज्रभानु, वज्रभानु के वज्रवान्, वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुख के सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युद्ंष्ट्र, विद्युद्ंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ के विद्युवेग और विद्युद्वेग के वैद्युत पुत्र हुआ । इन्हें आदि लेकर जो विद्याधर राजा हुए वे भी भगवान् आदिनाथ के तीर्थ में पुत्रों के लिए राज्य-वैभव सौंप तपश्चरण कर यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥20-25 ॥
अथानंतर सर्वार्थसिद्धि से चयकर दूसरे अजितनाथ तीर्थंकर हुए । इनके पंचकल्याणकों का वर्णन भगवन् ऋषभदेव के समान ही जानना चाहिए ॥26॥ इनके काल में सगर नाम का दूसरा चक्रवर्ती हुआ । वह अक्षीण निधियों तथा रत्नों का स्वामी था और भरत चक्रवर्ती के समान प्रसिद्ध था ॥27॥ इसके अद्भुत को आदि लेकर साठ हजार पुत्र थे । ये सभी पुत्र अद्भुत चेष्टाओं के धारक थे और परस्पर में महाप्रीति से युक्त थे ॥28॥ किसी समय ये समस्त भाई कैलास पर्वतपर गये वहाँ आठ पादस्थान बनाकर दंडरत्न से वहाँ की भूमि खोदने लगे परंतु इस क्रिया से कुपित होकर नागराज ने सबको भस्म कर दिया ॥29॥ चक्रवर्ती सगर संसार को स्थिति का ज्ञाता था इसलिए पुत्रों का शोक छोड़ उसने अजितनाथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली और कर्म-बंधन से छूट कर मोक्ष प्राप्त किया ॥30॥ तदनंतर अजिननाथ के बाद संभवनाथ, उनके बाद अभिनंदन नाथ, उनके बाद सुमतिनाथ, उनके बाद पद्मप्रभ, उनके बाद सुपार्श्वनाथ, उनके बाद चंद्रप्रभ, उनके बाद पुष्पदंत और उनके बाद शीतलनाथ हुए ॥31-32॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सर्व-प्रथम इक्ष्वाकु वंश उत्पन्न हुआ फिर उसी इक्ष्वाकुवंश से सूर्यवंश और चंद्रवंश उत्पन्न हुए । उसी समय कुरुवंश तथा उग्रवंश आदि अन्य अनेक वंश प्रचलित हुए । पहले भोगभूमि में ऋषि नहीं थे परंतु आगे चलकर भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए और उनका उत्कृष्ट श्रीवंश प्रचलित हुआ । इस प्रकार मैंने तेरे लिए अनेक राजाओं और विद्याधरों के वंशों का कथन किया ॥33॥ अब जिस समय शीतलनाथ भगवान् का शुद्ध एवं उज्ज्वल दसवां तीर्थ बीत रहा था तथा केवलज्ञानरूपी दीपक से उज्ज्वल संसार में इंद्र और देवों का आगमन जारी था ऐसे समय महाप्रभाव के धारक हरियों का जो वंश प्रकट हुआ था उसका भी वर्णन करता हूँ । हे राजन् ! जिनमार्ग में इसका जो यथार्थ वर्णन है उसे तू श्रवण कर ॥34॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥13॥