हरिवंश पुराण - सर्ग 1: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>श्रीमज्जिनसेनाचार्यविरचितं</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>श्रीमज्जिनसेनाचार्यविरचितं</p> | ||
<p>हरिवंशपुराणम्</p> | <p>हरिवंशपुराणम्</p> | ||
<p><strong>यदु कुल जलधि सुचंद्र सम, वृष रथचक्र सुनेमि ।</strong></p> | <p><strong>यदु कुल जलधि सुचंद्र सम, वृष रथचक्र सुनेमि ।</strong></p> | ||
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<p><strong>देव शास्त्र गुरु को प्रणमि, बार बार शिर नाय ।</strong></p> | <p><strong>देव शास्त्र गुरु को प्रणमि, बार बार शिर नाय ।</strong></p> | ||
<p><strong>श्री हरिवंश पुराणकी, भाषा लिखूं बनाय ॥2॥</strong></p> | <p><strong>श्री हरिवंश पुराणकी, भाषा लिखूं बनाय ॥2॥</strong></p> | ||
<p> जो वादी-प्रतिवादियों के द्वारा निर्णीत होने के कारण सिद्ध है, उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य लक्षण से युक्त जीवादि द्रव्यों को सिद्ध करने वाला है और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा अनादि तथा पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सादि है, ऐसा जिन-शासन सदा मंगलरूप है ॥1॥ जिनका शुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय सूर्य हैं तथा जो अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी से सदा वृद्धिंगत हैं ऐसे श्री वर्धमान जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥2॥ जो सर्वज्ञ हैं, युग के प्रारंभ की सब व्यवस्थाओं के करने वाले हैं तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलायी है, उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेव को नमस्कार हो ॥3॥ जिन्होंने अपने ही समान आचरण करने वाला द्वितीय तीर्थ प्रकट किया था तथा जिन्होंने अंतरंग बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी ऐसे उन अजितनाथ जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥4॥ जिन शंभव नाथ के भक्त भव्यजन संसार अथवा मोक्ष― दोनों ही स्थानों में सुख को प्राप्त हुए थे, उन तृतीय संभवनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥5॥ लोगों को आनंदित करने वाले जिन अभिनंदन नाथ ने सार्थक नाम को धारण करने वाले चतुर्थ तीर्थ की प्रवृत्ति की थी<strong>,</strong> उन श्री अभिनंदन जिनेंद्र के लिए मन-वचन-काय से नमस्कार हो ॥6॥ जिन्होंने विस्तृत अर्थ से सहित पंचम तीर्थ को प्रवृत्ति की थी तथा जो सदा सुमति-सद̖बुद्धि के धारक थे, उन पंचम सुमतिनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो | <p> जो वादी-प्रतिवादियों के द्वारा निर्णीत होने के कारण सिद्ध है, उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य लक्षण से युक्त जीवादि द्रव्यों को सिद्ध करने वाला है और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा अनादि तथा पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सादि है, ऐसा जिन-शासन सदा मंगलरूप है ॥1॥<span id="2" /> जिनका शुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय सूर्य हैं तथा जो अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी से सदा वृद्धिंगत हैं ऐसे श्री वर्धमान जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥2॥<span id="3" /> जो सर्वज्ञ हैं, युग के प्रारंभ की सब व्यवस्थाओं के करने वाले हैं तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलायी है, उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेव को नमस्कार हो ॥3॥<span id="4" /> जिन्होंने अपने ही समान आचरण करने वाला द्वितीय तीर्थ प्रकट किया था तथा जिन्होंने अंतरंग बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी ऐसे उन अजितनाथ जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥4॥<span id="5" /> जिन शंभव नाथ के भक्त भव्यजन संसार अथवा मोक्ष― दोनों ही स्थानों में सुख को प्राप्त हुए थे, उन तृतीय संभवनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥5॥<span id="6" /> लोगों को आनंदित करने वाले जिन अभिनंदन नाथ ने सार्थक नाम को धारण करने वाले चतुर्थ तीर्थ की प्रवृत्ति की थी<strong>,</strong> उन श्री अभिनंदन जिनेंद्र के लिए मन-वचन-काय से नमस्कार हो ॥6॥<span id="7" /> जिन्होंने विस्तृत अर्थ से सहित पंचम तीर्थ को प्रवृत्ति की थी तथा जो सदा सुमति-सद̖बुद्धि के धारक थे, उन पंचम सुमतिनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥7॥<span id="8" /> कमलों की प्रभा को जीतने वाली जिनकी प्रभा ने दिशाओं को देदीप्यमान किया था, उन छठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥8॥<span id="9" /> जिन्होंने आत्महित से संपन्न होकर परहित के लिए सप्तम तीर्थ की उत्पत्ति की थी तथा जो स्वयं कृतकृत्य थे, उन सुपार्श्वनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥9॥<span id="10" /> जो इंद्रों के द्वारा सेवित अष्टम तीर्थ के प्रवर्तक एवं रक्षक थे तथा जो चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति के धारक थे उन चंद्रप्रभ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥10॥<span id="11" /> जिन्होंने अपने शरीर तथा दाँतों की कांति से कुंदपुष्प की कांति को परास्त कर दिया था और जो नौवें तीर्थ के प्रवर्तक थे, उन पुष्पदंत भगवान के लिए नमस्कार हो ॥11 ॥<span id="12" /> जो प्राणियों के संताप को दूर करने वाले उज्ज्वल एवं शीतल दसवें तीर्थ के कर्ता थे, उन कुमार्ग के नाशक श्री शीतलनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥12॥<span id="13" /> जिन्होंने श्री शीतलनाथ भगवान के मोक्ष जाने के बाद व्युच्छित्ति को प्राप्त तीर्थ को प्रकट कर भव्य जीवों का संसार नष्ट किया था तथा जो ग्यारहवें जिनेंद्र थे, उन श्री श्रेयांसनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥13 ॥<span id="14" /> जिन्होंने कुतीर्थरूपी अंधकार को नष्ट कर बारहवाँ उज्ज्वल तीर्थ प्रकट किया था तथा जो सबके स्वामी थे ऐसे, उन वासुपूज्य भगवान् रूपी सूर्य को नमस्कार हो ॥14॥<span id="15" /> जिन्होंने कुमार्ग रूपी मल से मलिन संसार को तेरहवें तीर्थ के द्वारा निर्मल किया था, उन विमलनाथ भगवान् को नमस्कार हो ॥15॥<span id="16" /> जो चौदहवें तीर्थ के कर्ता थे तथा जिन्होंने अनंत अर्थात् संसार को जीत लिया था और जो मिथ्या धर्म रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान थे, उन अनंतनाथ जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥16॥<span id="17" /> जो अधर्म के मार्ग से पाताल-नरक में पड़ने वाले प्राणियों का उद्धार करने में समर्थं पंद्रहवें तीर्थ के कर्ता थे, उन श्री धर्मनाथ मुनींद्र के लिए नमस्कार हो ॥17॥<span id="18" /> जो सोलहवें तीर्थ के कर्ता थे, जिन्होंने अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि नाना ईतियों को शांत किया था, जो चक्ररत्न के स्वामी थे और स्वयं अत्यंत शांत थे, उन शांतिनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥18॥<span id="19" /> जिन्होंने सत्रहवाँ तीर्थ प्रवृत्त किया था, जो विशाल कीर्ति के धारक थे तथ जो जिनेंद्र होने के पूर्व चक्ररत्न को प्रवृत्त करने वाले चक्रवर्ती थे, उन श्री कुंथु जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥19॥<span id="20" /> जो अठारहवें तीर्थंकर थे, प्राणियों का कल्याण करने वाले थे और जिन्होंने पापरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया था, उन चक्ररत्न के धारक भी अरनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥20॥<span id="21" /> जिन्होंने उन्नीसवें तीर्थ के द्वारा अपनी स्थायी कीर्ति स्थापित की थी तथा जो मोहरूपी महामल्ल को नष्ट करने के लिए अद्वितीय मल्ल थे, ऐसे मल्लिनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥21॥<span id="22" /> जिन्होंने अपना बीसवाँ तीर्थ प्रवृत्त कर लोगों को संसार से पार किया था, उन श्री मुनिसुव्रत भगवान के लिए निरंतर नमस्कार हो ॥22॥<span id="23" /> जो मुनियों में मुख्य थे, जिन्होंने अंतरंग-बहिरंग शत्रुओं को नम्रीभूत कर दिया था और जिन्होंने इक्कीसवां तीर्थ प्रकट किया था, उन नमिनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥23॥<span id="24" /> जो सूर्य के समान देदीप्यमान थे, हरिवंशरूपी पर्वत के उत्तम शिखामणि थे और बाईसवें तीर्थरूपी उत्तम चक्र के नेमि (अयोधारा) स्वरूप थे उन अरिष्टनेमि तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥24॥<span id="25" /> जो तेईसवें तीर्थ के धर्ता थे तथा जिनके ऊपर पर्वत उठाकर उपद्रव करने वाला असुर धरणेंद्र के द्वारा नष्ट किया गया था, वे पार्श्वनाथ भगवान जयवंत हों ॥ 25 ॥<span id="26" /> इस प्रकार इस अवसर्पिणी के तृतीय और चतुर्थ काल में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले जो जिनेंद्र हुए हैं, वे सब हम लोगों की सिद्धि के लिए हों ॥26 ॥<span id="27" /><span id="28" /> जो भूतकाल की अपेक्षा अनंत हैं, वर्तमान की अपेक्षा संख्यात हैं, और भविष्यत् की अपेक्षा अनंतानंत हैं वे अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु समस्त पंच परमेष्ठी सब जगह तथा सब काल में मंगलस्वरूप हों ॥ 27-28॥<span id="29" /></p> | ||
<p> जो जीवसिद्धि नामक ग्रंथ (पक्ष में जीवों की मुक्ति) के रचयिता हैं तथा जिन्होंने युक्त्यनुशासन नामक ग्रंथ (पक्ष में हेतुवाद के उपदेश) की रचना की है, ऐसे श्री समंतभद्रस्वामी के वचन इस संसार में भगवान् महावीर के वचनों के समान विस्तार को प्राप्त हैं ॥29॥ जिनका ज्ञान संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियां श्री ऋषभ जिनेंद्र की सूक्तियों के समान सत् पुरुषों की बुद्धि को सदा विकसित करती हैं ॥30॥ जो इंद्र, चंद्र<strong>, </strong>अर्क और जैनेंद्र व्याकरणों का अवलोकन करने वाली है<strong>,</strong> ऐसी देववंद्य देवनंदी आचार्य की वाणी वंदनीय क्यों नहीं है <strong>? | <p> जो जीवसिद्धि नामक ग्रंथ (पक्ष में जीवों की मुक्ति) के रचयिता हैं तथा जिन्होंने युक्त्यनुशासन नामक ग्रंथ (पक्ष में हेतुवाद के उपदेश) की रचना की है, ऐसे श्री समंतभद्रस्वामी के वचन इस संसार में भगवान् महावीर के वचनों के समान विस्तार को प्राप्त हैं ॥29॥<span id="30" /> जिनका ज्ञान संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियां श्री ऋषभ जिनेंद्र की सूक्तियों के समान सत् पुरुषों की बुद्धि को सदा विकसित करती हैं ॥30॥<span id="32" /> जो इंद्र, चंद्र<strong>, </strong>अर्क और जैनेंद्र व्याकरणों का अवलोकन करने वाली है<strong>,</strong> ऐसी देववंद्य देवनंदी आचार्य की वाणी वंदनीय क्यों नहीं है <strong>? ॥</strong>31 ॥ जो हेतु सहित बंध और मोक्ष का विचार करने वाली हैं ऐसी श्री वज्रसूरि की उक्तियां धर्मशास्त्रों का व्याख्यान करने वाले गणधरों की उक्तियों के समान प्रमाणरूप हैं ॥32॥<span id="33" /> जो मधुर है― माधुर्य गुण से सहित है (पक्ष में अनुपम रूप से युक्त है) और शीलालंकारधारिणी है― शीलरूपी अलंकार का वर्णन करने वाली है (पक्ष में शीलरूपी अलंकार को धारण करने वाली है) इस प्रकार सुलोचना (सुंदर नेत्रों वाली) वनिता के समान<strong>, </strong>महासेन कवि को सुलोचना नामक कथा का किसने वर्णन नहीं किया है <strong>? </strong>अर्थात् सभी ने वर्णन किया है ॥33॥<span id="34" /> श्री रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति सूर्य की मूर्ति के समान लोक में अत्यंत प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्य की मूर्ति कृतपद्मोदयोद्योता है अर्थात् कमलों के विकास और उद्योत-प्रकाश को करने वाली है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति भी कृतपद्मोदयोद्योता अर्थात् श्री राम के अभ्युदय का प्रकाश करने वाली है― पद्मपुराण की रचना के द्वारा श्री राम के अभ्युदय को निरूपित करने वाली है और सूर्य की मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित अभ्यस्त होती रहती है ॥34॥<span id="35" /> जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख-पाद आदि अंगों के द्वारा अपने आपके विषय में मनुष्यों का गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार श्री वरांग चरित की अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छंद-अलंकार रीति आदि अंगों से अपने आपके विषय में किस मनुष्य के गाढ़ अनुराग को उत्पन्न नहीं करती ? ॥35॥<span id="36" /> श्री शांत ( शांतिषेण) कवि की वक्रोक्ति रूप रचना, रमणीय उत्प्रेक्षाओं के बल से, मनोहर अर्थ के प्रकट होने पर किसके मन को अनुरक्त नहीं करती है ? ॥36॥<span id="37" /> जो गद्य-पद्य संबंधी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष अर्थात् तिलकरूप हैं तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथविशेष) का निरूपण करने वाले हैं<strong>,</strong> ऐसे विशेषवादी कवि का विशेषवादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है ॥37॥<span id="38" /> श्रीकुमारसेनगुरु का वह यश इस संसार में समुद्र पर्यंत सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचंद्र नामक शिष्य के उदय से उज्ज्वल है तथा जो अविजितरूप है― किसी के द्वारा जीता नहीं जा सकता है ॥38॥<span id="39" /> जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं, ऐसे श्री वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशमान हो रही है ॥39॥<span id="40" /> अपरिमित ऐश्वर्य को धारण करने वाले श्री पार्श्वनाथ जिनेंद्र की जो गुण स्तुति है वही जिनसेन स्वामी की कीर्ति को विस्तृत कर रही है । </p> | ||
<p>भावार्थ― श्री जिनसेन स्वामी ने जो पार्श्वाभ्युदय काव्य की रचना की है वही उनकी कीर्ति को विस्तृत कर रही है ॥40॥ वर्धमान पुराणरूपी उगते हुए सूर्य की सूक्तिरूपी किरणें विद्वज्जनों के अंतःकरणरूपी पर्वतों को मध्यवर्तिनी स्फटिक की दीवालों पर देदीप्यमान हैं | <p>भावार्थ― श्री जिनसेन स्वामी ने जो पार्श्वाभ्युदय काव्य की रचना की है वही उनकी कीर्ति को विस्तृत कर रही है ॥40॥<span id="41" /> वर्धमान पुराणरूपी उगते हुए सूर्य की सूक्तिरूपी किरणें विद्वज्जनों के अंतःकरणरूपी पर्वतों को मध्यवर्तिनी स्फटिक की दीवालों पर देदीप्यमान हैं ॥ 41 ॥<span id="42" /> जिस प्रकार स्त्रियों के मुखों के द्वारा अपने कानों में धारण की हुई आम की मंजरी निर्गुणा― डोरा-रहित होने पर भी गुण सौंदर्य विशेष को धारण करती है उसी प्रकार सत् पुरुषों के द्वारा श्रवण की हुई निर्गुणा― गुण-रहित रचना भी गुणों को धारण करती है । भावार्थ― यदि निर्गुण रचना को भी सत् पुरुष श्रवण करते हैं तो वह गुणसहित के समान जान पड़ती है ॥42॥<span id="43" /></p> | ||
<p>साधु पुरुष याचना के बिना ही काव्य के दोषों को दूर कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि स्वर्ण की कालिमा को दूर हटा ही देती है ॥43 | <p>साधु पुरुष याचना के बिना ही काव्य के दोषों को दूर कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि स्वर्ण की कालिमा को दूर हटा ही देती है ॥43 ॥<span id="44" /> जिस प्रकार समुद्र की लहरें भीतर पड़े हुए मैल को शीघ्र ही बाहर निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार सत् पुरुषों को सभाएं किसी कारण काव्य के भीतर आये हुए दोष को शीघ्र ही निकालकर दूर कर देती हैं ॥44॥<span id="45" /> जिस प्रकार समुद्र की निर्मल सीपों के द्वारा ग्रहण किया हुआ जल मोतीरूप हो जाता है उसी प्रकार दोषरहित सत् पुरुषों की सभाओं के द्वारा ग्रहण की हुई जड़ रचना भी उत्तम रचना के समान देदीप्यमान होने लगती है ॥45॥<span id="46" /> दुर्वचनरूपी विष से दूषित जिनके मुखों के भीतर जिह्वाएं लपलपा रही हैं ऐसे दुर्जनरूपी साँपों को सज्जनरूपी विषवैद्य अपनी शक्ति से शीघ्र ही वश कर लेते हैं ॥46॥<span id="47" /> जिस प्रकार मधुर गर्जना करने वाले मेघ, अत्यधिक धूलि से युक्त, रूक्ष और तीव्र दाह उत्पन्न करने वाले ग्रीष्मकाल को समय आने पर शांत कर देते हैं उसी प्रकार मधुर भाषण करने वाले सत् पुरुष, अत्यधिक अपराध करने वाले, कठोर प्रकृति एवं संताप उत्पन्न करने वाले दुष्ट पुरुष को समय आने पर शांत कर लेते हैं ॥ 47॥<span id="48" /> जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा की किरणें, अच्छे और बुरे पदार्थों को एकाकार करने में प्रवृत्त अंधकार की राशि को दूर कर देती हैं उसी प्रकार विद्वान् मनुष्य, सज्जन और दुर्जन के साथ समान प्रवृत्ति करने में तत्पर मूर्ख मनुष्य को दूर कर देती हैं ॥48॥<span id="49" /> इस प्रकार साधुओं की सहायता पाकर मैं रोग और अभिमान से रहित अपने इस काव्यरूपी शरीर को संसार में स्थायी करता हूं ॥ 49 ॥<span id="50" /><span id="51" /> अब मैं उस हरिवंश पुराण को कहता हूँ जो बद्धमल है― प्रारंभिक इतिहास से सहित (पक्ष में जड़ से युक्त है), पृथिवी में अत्यंत प्रसिद्ध है, अनेक शाखाओं― कथाओं-उपकथाओं से विभूषित है, विशाल पुण्यरूपी फल से युक्त है, पवित्र है, कल्पवृक्ष के समान है, उत्कृष्ट है, श्री नेमिनाथ भगवान के चरित्र से उज्ज्वल है और मन को हरण करने वाला है ॥ 50-51 ॥<span id="52" /><span id="53" /> जिस प्रकार सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थ को, अत्यंत तुच्छ तेज के धारक मणि, दीपक, जुगनू तथा बिजली आदि भी यथायोग्य-अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार बड़े-बड़े विद्वान् महात्माओं के द्वारा प्रकाशित इस पुराण के प्रकाशित करने में मेरे जैसा अल्प शक्ति का धारक पुरुष भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रवृत्त हो रहा है ॥ 52-53 ॥<span id="54" /> जिस प्रकार सूर्य का आलोक पाकर मनुष्य का नेत्र दूरवर्ती पदार्थ को भी देख लेता है उसी प्रकार पूर्वाचार्यरूपी सूर्य का आलोक पाकर मेरा सुकुमार मन अत्यंत दूरवर्ती कालांतरित पदार्थ को भी देखने में समर्थ है ॥54॥<span id="55" /> जिसके प्रतिपादनीय पदार्थ-क्षेत्र, द्रव्य, काल, भव और भाव के भेद से पाँच भेदों में विभक्त हैं तथा प्रामाणिक पुरुषों― आप्तजनों ने जिसका निरूपण किया है ऐसा आगम नाम का प्रमाण, प्रसिद्ध प्रमाण है ॥ 55 ॥<span id="58" /><span id="59" /> इस तंत्र के मूलकर्ता स्वयं श्री वर्धमान तीर्थंकर हैं, उनके बाद उत्तर तंत्र के कर्ता श्री गौतम गणधर हैं, और उनके अनंतर उत्तरोत्तर तंत्र के कर्ता क्रम से अनेक आचार्य हुए हैं सो वे सभी सर्वज्ञ के कथन का अनुवाद करने वाले होने से हमारे लिए प्रमाणभूत हैं ॥56-57꠰। इस पंचमकाल में तीन केवली, पांच चौदह पूर्व के ज्ञाता, पाँच ग्यारह अंगों के धारक, ग्यारह दसपूर्व के जानकार और चार आचारांग के ज्ञाता इस तरह पाँच प्रकार के मुनि हुए हैं ॥ 58-59 ॥<span id="60" /> </p> | ||
<p> श्री वर्धमान जिनेंद्र के मुख से श्री इंद्रभूति ( गौतम ) गणधर ने श्रुत को धारण किया, उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जंबू नामक अंतिम केवली ने ॥60॥ उनके बाद क्रम से 1. विष्णु, 2. नंदिमित्र, 3. अपराजित, 4. गोवर्धन, और 5. भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए | <p> श्री वर्धमान जिनेंद्र के मुख से श्री इंद्रभूति ( गौतम ) गणधर ने श्रुत को धारण किया, उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जंबू नामक अंतिम केवली ने ॥60॥<span id="61" /> उनके बाद क्रम से 1. विष्णु, 2. नंदिमित्र, 3. अपराजित, 4. गोवर्धन, और 5. भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए ॥61॥<span id="62" /><span id="63" /> इनके बाद ग्यारह अंग और दसपूर्व के जानने वाले निम्नलिखित ग्यारह मुनि हुए― 1. विशाख, 2. प्रोष्ठिल, 3. क्षत्रिय, 4. जय, 5. नाग, 6. सिद्धार्थ, 7. धृतिषेण, 8. विजय, 9. बुद्धिल, 10. गंगदेव, और 11. धर्मसेन ॥62-63 ॥<span id="64" /> इनके अनंतर 1. नक्षत्र, 2. यशःपाल, 3. पांडु, 4. ध्रुवसेन और 5. कंसाचार्य ये पांच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए ॥64 ॥<span id="65" /> तदनंतर 1. सुभद्र, 2. यशोभद्र, 3. यशोबाहु और लोहार्य ये चार मुनि आचारांग के धारक हुए ॥65॥<span id="66" /> इस प्रकार इन तथा अन्य आचार्यों से जो आगम का एकदेश विस्तार को प्राप्त हुआ था उसी का यह एकदेश यहाँ कहा जाता है ॥ 66 ॥<span id="67" /> यह ग्रंथ अर्थ की अपेक्षा पूर्व ही है अर्थात् इस ग्रंथ में जो वर्णन किया गया है वह पूर्वाचार्यों से प्रसिद्ध ही है परंतु शास्त्र के विस्तार से डरने वाले लोगों के लिए इसमें संक्षेप से सारभूत पदार्थों का संग्रह किया गया है इसलिए इस रचना की अपेक्षा यह अपूर्व अर्थात् नवीन है ॥67॥<span id="68" /> जो भव्यजीव मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सदा इसका अभ्यास करते हुए कथन अथवा श्रवण करेंगे उनके लिए यह पुराण कल्याण करने वाला होगा ॥68 ॥<span id="69" /> बाह्य और अभ्यंतर के भेद से तप दो प्रकार का कहा गया है सो उन दोनों प्रकार के तपों में अज्ञान का विरोधी होने से स्वाध्याय परम तप कहा गया है ॥69॥<span id="70" /> यतश्च इस पुराण का अर्थ उत्तम पुरुषार्थों का करने वाला है इसलिए देश-काल के ज्ञाता मनुष्यों के लिए मात्सर्य भाव छोड़कर इसका कथन तथा श्रवण करना चाहिए ॥ 70 ॥<span id="71" /><span id="72" /></p> | ||
<p> इस पुराण में सर्वप्रथम लोक के आकार का वर्णन, फिर राजवंशों की उत्पत्ति, तदनंतर हरिवंश का अवतार, फिर वसुदेव की चेष्टाओं का कथन, तदनंतर नेमिनाथ का चरित, द्वारिका का निर्माण, युद्ध का वर्णन और निर्वाण― ये आठ शुभ अधिकार कहे गये हैं ॥71-72 | <p> इस पुराण में सर्वप्रथम लोक के आकार का वर्णन, फिर राजवंशों की उत्पत्ति, तदनंतर हरिवंश का अवतार, फिर वसुदेव की चेष्टाओं का कथन, तदनंतर नेमिनाथ का चरित, द्वारिका का निर्माण, युद्ध का वर्णन और निर्वाण― ये आठ शुभ अधिकार कहे गये हैं ॥71-72 ॥<span id="73" /> ये सभी अधिकार संग्रह की भावना से संगृहीत अपने अवांतर अधिकारों से अलंकृत हैं तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निर्मित शास्त्रों का अनुसरण करने वाले मुनियों के द्वारा गुंफित हैं ॥73॥<span id="74" /> वस्तु का निरूपण करने के लिए दो प्रकार की देशना पायी जाती है, एक विभाग रूप से और दूसरी विस्तार रूप से इनमें से यहाँ विभागरूपीय देशना का निरूपण किया जाता है ॥ 74 ॥<span id="75" /> प्रथम ही इस ग्रंथ में श्री वर्धमान जिनेंद्र की धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति का वर्णन है, फिर गणधरों की संख्या और भगवान के राजगृह में आगमन का निरूपण है ॥ 75 ॥<span id="76" /> तदनंतर श्रेणिक राजा का गौतम स्वामी से प्रश्न करना, तदनंतर क्षेत्र, काल का निरूपण, फिर कुलकरों की उत्पत्ति और भगवान् ऋषभदेव की उत्पत्ति का वर्णन है ॥ 76 ॥<span id="77" /> तत्पश्चात् क्षत्रिय आदि वर्गों का निरूपण, हरिवंश को उत्पत्ति का कथन और उसी हरिवंश में भगवान् मुनिसुव्रत के जन्म लेने का निरूपण है ॥77॥<span id="78" /><span id="79" /><span id="80" /><span id="81" /><span id="82" /> तदनंतर दक्ष प्रजापति का उल्लेख, वसु का वृत्तांत, अंधकवृष्णि के दसकुमारों का जन्म, सुप्रतिष्ठ मुनि के केवलज्ञान को उत्पत्ति, राजा अंधकवृष्णि को दीक्षा, समुद्रविजय का राज्य, वसुदेव का सौभाग्य, उपाय पूर्वक वसुदेव का बाहर निकलना, वहाँ उन्हें सोमा और विजयसेना कन्याओं का लाभ होना, जंगली हाथी का वश करना, श्यामा के साथ वसुदेव का संगम, अंगारक विद्याधर के द्वारा वसुदेव का हरण, चंपा नगरी में वसुदेव का छोड़ना, वहाँ गंधर्वसेना का लाभ, विष्णुकुमार मुनि का चरित, सेठ चारुदत्त का चरित, उसी को मुनि का दर्शन होना, तथा वसुदेव को सुंदरी नीलयशा और सोमश्री का लाभ होने का वर्णन है ॥ 78-82 ॥<span id="83" /><span id="84" /><span id="85" /><span id="86" /> तदनंतर वेदों की उत्पत्ति, राजा सौदास की कथा, वसुदेव को कपिला कन्या और पद्मावती का लाभ, चारुहासिनी और रत्नवती की प्राप्ति, सोमदत्त की पुत्री का लाभ, वेगवती का समागम, मदनवेगा का लाभ, बालचंद्रा का अवलोकन, प्रियंसुंदरी का लाभ, बंधुमती का समागम, प्रभावती को प्राप्ति, रोहिणी का स्वयंवर, संग्राम में वसुदेव की जीत और उनका भाइयों के साथ समागम होने का कथन है ॥ 83-86 ॥<span id="87" /><span id="88" /><span id="89" /><span id="90" /> तत्पश्चात् बलदेव की उत्पत्ति, कंस का व्याख्यान, जरासंध के कहने से राजा सिंहरथ का बाँधना, कंस को जीवद्यशा की प्राप्ति होना, पिता उग्रसेन को बंधन में डालना, देवकी के साथ वसुदेव का समागम होना, देवकी के पुत्र के हाथ से मेरा मरण है, ऐसा भ सत्यवादी अतिमुक्तकमुनि का आदेश सुन कंस का व्याकुल होना, देवकी का प्रसव हमारे घर ही हो इस प्रकार कंस की वसुदेव से प्रार्थना करना, वसुदेव का अतिमुक्तकमुनि से प्रश्न, देवकी के आठ पुत्रों के भवांतर पूछना और भगवान नेमिनाथ के पापापहारी चरित का निरूपण है ॥ 87-90॥<span id="91" /><span id="92" /><span id="93" /><span id="94" /><span id="95" /><span id="96" /><span id="97" /><span id="98" /><span id="99" /> तदनंतर श्रीकृष्ण की उत्पत्ति, गोकुल में उनकी बालचेष्टाएँ, बलदेव के उपदेश से समस्त शास्त्रों का ग्रहण, धनुषरत्न का चढ़ाना, यमुना में नाग को नाथना, घोड़ा, हाथी, चाणूरमल्ल और कंस का वध, उग्रसेन का राज्य, सत्यभामा का पाणिग्रहण, सर्व कुटुंबियों सहित श्रीकृष्ण का परमप्रीति का अनुभव करना, कंस की स्त्री जीवद्यशा का विलाप, जरासंध का क्रोध, रण में भेजे हुए कालयवन की पराजय, श्रीकृष्ण के द्वारा युद्ध में अपराजित का मारा जाना, यादवों का परम हर्ष और निर्भयता के साथ रहना, पुत्रोत्पत्ति के निमित्त शिवादेवी के सोलह स्वप्न देखना, पति के द्वारा स्वप्नों का फल कहा जाना, नेमिनाथ भगवान का जन्म, सुमेरुपर्वत पर उनका जन्माभिषेक होना, भगवान् की बालक्रीड़ा और महान अभ्युदय का विस्तार, जरासंध का पीछा करना, यादवों का सागर का आश्रय करना, देवी के द्वारा की हुई माया से जरासंध का लौटना, तीन दिन के उपवास का नियम लेकर कृष्ण का डाभ की शय्या पर आरूढ़ होना, इंद्र की आज्ञा से गौतम नामक देव के द्वारा समुद्र का संकोच करना और कुबेर के द्वारा वहाँ क्षणभर में द्वारावती (द्वारिका) नगरी की रचना होना इन सबका वर्णन है ॥91-99॥<span id="100" /><span id="101" /><span id="102" /><span id="103" /><span id="104" /><span id="105" /><span id="106" /><span id="107" /><span id="108" /> तदनंतर रुक्मिणी का हरा जाना, देदीप्यमान भानुकुमार और प्रद्युम्नकुमार का जन्म होना, रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न का पूर्वभव के बैरी धूमकेतु असुर के द्वारा हरण होना, विजयार्ध में प्रद्युम्न की स्थिति, नारद के द्वारा प्रद्युम्न के माता-पिता को इष्ट समाचार की सूचना देना, प्रद्युम्न को सोलह लाभों तथा प्रज्ञप्ति विद्या की प्राप्ति होना, राजा कालसंवर के साथ प्रद्युम्न का युद्ध, मातापिता का मिलाप, शंबकुमार की उत्पत्ति, प्रद्युम्न की बालक्रीड़ा, वसुदेव का प्रद्युम्न से प्रश्न, प्रद्युम्न द्वारा अपने भ्रमण का वृत्तांत, सकल यादवकुमारों का कीर्तन, समाचार पाकर प्रति शत्रु जरासंध का कृष्ण के प्रति दूत भेजना, यादवों की सभा में क्षोभ उत्पन्न होना, दोनों सेनाओं का पास-पास आना, विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों में क्षोभ उत्पन्न होना, श्री वसुदेव का पराक्रम, अक्षौहिणी दल का प्रमाण, रथी, अतिरथ, समरथ और अर्धरथ राजाओं का निरूपण, जरासंध के चक्रव्यूह को नष्ट करने के लिए श्रीकृष्ण की सेना में गरुड़व्यूह को रचना होना, बलदेव को सिंहवाहिनी और कृष्ण को गरुड़वाहिनी विद्या की प्राप्ति होना, नेमि के सारथी के रूप में उनके मामा के पुत्र का आगमन, नेमि, अनावृष्णि तथा अर्जुन के द्वारा चक्रव्यूह का भेदा जाना, पांडवों का कौरवों के साथ युद्ध, दोनों सेनाओं के अधिपति कृष्ण तथा जरासंध के महायुद्ध का वर्णन है ॥ 100-108॥<span id="109" /><span id="110" /><span id="111" /><span id="112" /><span id="113" /><span id="114" /><span id="115" /><span id="116" /></p> | ||
< | <p>तदनंतर श्रीकृष्ण के चक्ररत्न की उत्पत्ति होना, जरासंध का मारा जाना, विद्याधरियों के द्वारा वसुदेव श्रीकृष्ण की विजय का समाचार सुनाना, कृष्ण का कोटिशिला का उठाना, वसुदेव का आगमन, श्रीकृष्ण का दिग्विजय, दिव्यरत्नों की उत्पत्ति, दोनों भाइयों का राज्याभिषेक, द्रौपदी का हरण, श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों के साथ जाकर धातकीखंड से द्रौपदी का पुनः वापस लाना, श्रीकृष्ण को नेमिनाथ की सामर्थ्य का ज्ञान होना, नेमिनाथ की जलक्रीड़ा, पांचजन्य शंख का बजाना, नेमिनाथ के विवाह का आरंभ, पशुओं का छुड़ाना, दीक्षा लेना, केवलज्ञान उत्पन्न होना, ज्ञानकल्याणक के लिए देवों का आगमन, समवसरण का निर्माण, राजीमती का तप धारण करना, सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार के धर्म का उपदेश देना, धर्म-तीर्थों में विहार, श्रीकृष्ण के छह भाइयों का संयम धारण करना, नेमिनाथ का गिरिनार पर्वतपर आरूढ़ होना, देवकी के प्रश्न का उत्तर देना, रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि आठ महादेवियों के भवांतरों का निरूपण, गजकुमार का जन्म, उनकी दीक्षा और वसुदेव से भिन्न नौ भाइयों का संसार से उद्विग्न हो तपश्चरण करने का निरूपण है ॥ 109-116 ॥<span id="117" /><span id="118" /><span id="119" /><span id="120" /><span id="121" /><span id="122" /><span id="123" /><span id="124" /><span id="125" /> </p> | ||
<p>तदनंतर भगवान नेमिनाथ के द्वारा त्रेसठ शलाकापुरुषों की उत्पत्ति का वर्णन, तीर्थंकरों के अंतर का विस्तार, बलदेव का प्रश्न, प्रद्युम्न की दीक्षा, रुक्मिणी आदि कृष्ण की स्त्रियों और पुत्रियों का संयम ग्रहण करना, द्वीपायन मुनि के क्रोध से द्वारिका पुरी का विनाश, जिनके भाई, पुत्र तथा स्त्रियाँ जल गयी थीं ऐसे बलराम और कृष्ण का द्वारिका से निकलना, असह्य शोक, कौशांबी के वन में दोनों भाइयों का जाना, बलभद्र की रक्षा से रहित श्रीकृष्ण का भाग्यवश जरत्कुमार के द्वारा छोड़े हुए बाण से प्रमादपूर्वक मारा जाना, तदनंतर मारने वाले जरत्कुमार का शोक करना, बलराम का दुस्तर शोक, सिद्धार्थ देव के द्वारा प्रतिबोधित होनेपर बलदेव का विरक्त हो दीक्षा धारण करना, ब्रह्मलोक में जन्म होना, पांडवों का तप के लिए वन को जाना, गिरिनार पर्वत पर नेमिनाथ का निर्वाण होना, महान् आत्मा के धारक पांच पांडवों का उपसर्ग जीतना, जरत्कुमार की दीक्षा, उसकी विस्तृत संतान, हरिवंश के दीपक राजा जितशत्रु को केवलज्ञान, विशाल लक्ष्मी के धारक राजा श्रेणिक का अंत में नगर प्रवेश, श्री वर्धमान जिनेंद्र और उनके गणधरों का निर्वाण और देवों के द्वारा किया हुआ दीपमालिका महोत्सव का वर्णन है । श्री जिनसेन स्वामी कहते हैं कि इस पुराण में इन सबका मैं वर्णन करूंगा ॥117-125 | <p>तदनंतर भगवान नेमिनाथ के द्वारा त्रेसठ शलाकापुरुषों की उत्पत्ति का वर्णन, तीर्थंकरों के अंतर का विस्तार, बलदेव का प्रश्न, प्रद्युम्न की दीक्षा, रुक्मिणी आदि कृष्ण की स्त्रियों और पुत्रियों का संयम ग्रहण करना, द्वीपायन मुनि के क्रोध से द्वारिका पुरी का विनाश, जिनके भाई, पुत्र तथा स्त्रियाँ जल गयी थीं ऐसे बलराम और कृष्ण का द्वारिका से निकलना, असह्य शोक, कौशांबी के वन में दोनों भाइयों का जाना, बलभद्र की रक्षा से रहित श्रीकृष्ण का भाग्यवश जरत्कुमार के द्वारा छोड़े हुए बाण से प्रमादपूर्वक मारा जाना, तदनंतर मारने वाले जरत्कुमार का शोक करना, बलराम का दुस्तर शोक, सिद्धार्थ देव के द्वारा प्रतिबोधित होनेपर बलदेव का विरक्त हो दीक्षा धारण करना, ब्रह्मलोक में जन्म होना, पांडवों का तप के लिए वन को जाना, गिरिनार पर्वत पर नेमिनाथ का निर्वाण होना, महान् आत्मा के धारक पांच पांडवों का उपसर्ग जीतना, जरत्कुमार की दीक्षा, उसकी विस्तृत संतान, हरिवंश के दीपक राजा जितशत्रु को केवलज्ञान, विशाल लक्ष्मी के धारक राजा श्रेणिक का अंत में नगर प्रवेश, श्री वर्धमान जिनेंद्र और उनके गणधरों का निर्वाण और देवों के द्वारा किया हुआ दीपमालिका महोत्सव का वर्णन है । श्री जिनसेन स्वामी कहते हैं कि इस पुराण में इन सबका मैं वर्णन करूंगा ॥117-125 ॥<span id="126" /> </p> | ||
<p>गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार हरिवंशपुराण का यह संग्रह सहित अवांतर विभाग दिखा दिया । अब इसके आगे भव्य सभासद् आत्म-सिद्धि के लिए इसके विस्तार का वर्णन श्रवण करें ॥126 | <p>गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार हरिवंशपुराण का यह संग्रह सहित अवांतर विभाग दिखा दिया । अब इसके आगे भव्य सभासद् आत्म-सिद्धि के लिए इसके विस्तार का वर्णन श्रवण करें ॥126 ॥<span id="127" /> हे विद्वज्जनो ! जब एक ही महापुरुष का चरित पाप का नाश करने वाला है तब समस्त तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और बलभद्रों के चरित का निरूपण करने वाले इस ग्रंथ की महिमा का क्या कहना ? सो ठीक ही है क्योंकि जब एक ही महामेघ का जल अत्यधिक संताप को नष्ट करने वाला है तब लोक में सर्वत्र व्याप्त मेघसमूह से पड़ने वाली हजारों जल धाराओं की महिमा का क्या कहना है ? ॥127॥<span id="128" /> विवेकीजन, लौकिक पुराणरूपी टेढ़े-मेढ़े कुपथ के भ्रमण को छोड़, सीधे तथा हित प्राप्त करने वाले इस पुराणरूपी मार्ग को ग्रहण करें । मोह से भरे हुए दिङ̖मूढ मनुष्य को छोड़ अत्यंत शुद्धदृष्टि को धारण करने वाला ऐसा कौन मनुष्य है जो जिनेंद्रदेवरूपीसूर्य के द्वारा लंबे-चौड़े मार्ग के प्रकाशित होने पर भी भृगुपात करेगा― किसी पहाड़ की चट्टान से नीचे गिरेगा ? अर्थात् कोई नहीं ॥128॥<span id="1" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे श्री जिनसेनाचार विरचित हरिवंशपुराण में संग्रह विभाग वर्णन नाम का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ ॥1॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे श्री जिनसेनाचार विरचित हरिवंशपुराण में संग्रह विभाग वर्णन नाम का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ ॥1॥<span id="2" /></strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
श्रीमज्जिनसेनाचार्यविरचितं
हरिवंशपुराणम्
यदु कुल जलधि सुचंद्र सम, वृष रथचक्र सुनेमि ।
भव्य कमल दिनकर जयौ, जयौ जिनेंद्र सुनेमि ॥1॥
देव शास्त्र गुरु को प्रणमि, बार बार शिर नाय ।
श्री हरिवंश पुराणकी, भाषा लिखूं बनाय ॥2॥
जो वादी-प्रतिवादियों के द्वारा निर्णीत होने के कारण सिद्ध है, उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य लक्षण से युक्त जीवादि द्रव्यों को सिद्ध करने वाला है और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा अनादि तथा पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सादि है, ऐसा जिन-शासन सदा मंगलरूप है ॥1॥ जिनका शुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय सूर्य हैं तथा जो अनंत चतुष्टय रूपी लक्ष्मी से सदा वृद्धिंगत हैं ऐसे श्री वर्धमान जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥2॥ जो सर्वज्ञ हैं, युग के प्रारंभ की सब व्यवस्थाओं के करने वाले हैं तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलायी है, उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेव को नमस्कार हो ॥3॥ जिन्होंने अपने ही समान आचरण करने वाला द्वितीय तीर्थ प्रकट किया था तथा जिन्होंने अंतरंग बहिरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी ऐसे उन अजितनाथ जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥4॥ जिन शंभव नाथ के भक्त भव्यजन संसार अथवा मोक्ष― दोनों ही स्थानों में सुख को प्राप्त हुए थे, उन तृतीय संभवनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥5॥ लोगों को आनंदित करने वाले जिन अभिनंदन नाथ ने सार्थक नाम को धारण करने वाले चतुर्थ तीर्थ की प्रवृत्ति की थी, उन श्री अभिनंदन जिनेंद्र के लिए मन-वचन-काय से नमस्कार हो ॥6॥ जिन्होंने विस्तृत अर्थ से सहित पंचम तीर्थ को प्रवृत्ति की थी तथा जो सदा सुमति-सद̖बुद्धि के धारक थे, उन पंचम सुमतिनाथ तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥7॥ कमलों की प्रभा को जीतने वाली जिनकी प्रभा ने दिशाओं को देदीप्यमान किया था, उन छठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥8॥ जिन्होंने आत्महित से संपन्न होकर परहित के लिए सप्तम तीर्थ की उत्पत्ति की थी तथा जो स्वयं कृतकृत्य थे, उन सुपार्श्वनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥9॥ जो इंद्रों के द्वारा सेवित अष्टम तीर्थ के प्रवर्तक एवं रक्षक थे तथा जो चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति के धारक थे उन चंद्रप्रभ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥10॥ जिन्होंने अपने शरीर तथा दाँतों की कांति से कुंदपुष्प की कांति को परास्त कर दिया था और जो नौवें तीर्थ के प्रवर्तक थे, उन पुष्पदंत भगवान के लिए नमस्कार हो ॥11 ॥ जो प्राणियों के संताप को दूर करने वाले उज्ज्वल एवं शीतल दसवें तीर्थ के कर्ता थे, उन कुमार्ग के नाशक श्री शीतलनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥12॥ जिन्होंने श्री शीतलनाथ भगवान के मोक्ष जाने के बाद व्युच्छित्ति को प्राप्त तीर्थ को प्रकट कर भव्य जीवों का संसार नष्ट किया था तथा जो ग्यारहवें जिनेंद्र थे, उन श्री श्रेयांसनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥13 ॥ जिन्होंने कुतीर्थरूपी अंधकार को नष्ट कर बारहवाँ उज्ज्वल तीर्थ प्रकट किया था तथा जो सबके स्वामी थे ऐसे, उन वासुपूज्य भगवान् रूपी सूर्य को नमस्कार हो ॥14॥ जिन्होंने कुमार्ग रूपी मल से मलिन संसार को तेरहवें तीर्थ के द्वारा निर्मल किया था, उन विमलनाथ भगवान् को नमस्कार हो ॥15॥ जो चौदहवें तीर्थ के कर्ता थे तथा जिन्होंने अनंत अर्थात् संसार को जीत लिया था और जो मिथ्या धर्म रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान थे, उन अनंतनाथ जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥16॥ जो अधर्म के मार्ग से पाताल-नरक में पड़ने वाले प्राणियों का उद्धार करने में समर्थं पंद्रहवें तीर्थ के कर्ता थे, उन श्री धर्मनाथ मुनींद्र के लिए नमस्कार हो ॥17॥ जो सोलहवें तीर्थ के कर्ता थे, जिन्होंने अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि नाना ईतियों को शांत किया था, जो चक्ररत्न के स्वामी थे और स्वयं अत्यंत शांत थे, उन शांतिनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥18॥ जिन्होंने सत्रहवाँ तीर्थ प्रवृत्त किया था, जो विशाल कीर्ति के धारक थे तथ जो जिनेंद्र होने के पूर्व चक्ररत्न को प्रवृत्त करने वाले चक्रवर्ती थे, उन श्री कुंथु जिनेंद्र को नमस्कार हो ॥19॥ जो अठारहवें तीर्थंकर थे, प्राणियों का कल्याण करने वाले थे और जिन्होंने पापरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया था, उन चक्ररत्न के धारक भी अरनाथ जिनेंद्र के लिए नमस्कार हो ॥20॥ जिन्होंने उन्नीसवें तीर्थ के द्वारा अपनी स्थायी कीर्ति स्थापित की थी तथा जो मोहरूपी महामल्ल को नष्ट करने के लिए अद्वितीय मल्ल थे, ऐसे मल्लिनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥21॥ जिन्होंने अपना बीसवाँ तीर्थ प्रवृत्त कर लोगों को संसार से पार किया था, उन श्री मुनिसुव्रत भगवान के लिए निरंतर नमस्कार हो ॥22॥ जो मुनियों में मुख्य थे, जिन्होंने अंतरंग-बहिरंग शत्रुओं को नम्रीभूत कर दिया था और जिन्होंने इक्कीसवां तीर्थ प्रकट किया था, उन नमिनाथ भगवान के लिए नमस्कार हो ॥23॥ जो सूर्य के समान देदीप्यमान थे, हरिवंशरूपी पर्वत के उत्तम शिखामणि थे और बाईसवें तीर्थरूपी उत्तम चक्र के नेमि (अयोधारा) स्वरूप थे उन अरिष्टनेमि तीर्थंकर के लिए नमस्कार हो ॥24॥ जो तेईसवें तीर्थ के धर्ता थे तथा जिनके ऊपर पर्वत उठाकर उपद्रव करने वाला असुर धरणेंद्र के द्वारा नष्ट किया गया था, वे पार्श्वनाथ भगवान जयवंत हों ॥ 25 ॥ इस प्रकार इस अवसर्पिणी के तृतीय और चतुर्थ काल में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले जो जिनेंद्र हुए हैं, वे सब हम लोगों की सिद्धि के लिए हों ॥26 ॥ जो भूतकाल की अपेक्षा अनंत हैं, वर्तमान की अपेक्षा संख्यात हैं, और भविष्यत् की अपेक्षा अनंतानंत हैं वे अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु समस्त पंच परमेष्ठी सब जगह तथा सब काल में मंगलस्वरूप हों ॥ 27-28॥
जो जीवसिद्धि नामक ग्रंथ (पक्ष में जीवों की मुक्ति) के रचयिता हैं तथा जिन्होंने युक्त्यनुशासन नामक ग्रंथ (पक्ष में हेतुवाद के उपदेश) की रचना की है, ऐसे श्री समंतभद्रस्वामी के वचन इस संसार में भगवान् महावीर के वचनों के समान विस्तार को प्राप्त हैं ॥29॥ जिनका ज्ञान संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियां श्री ऋषभ जिनेंद्र की सूक्तियों के समान सत् पुरुषों की बुद्धि को सदा विकसित करती हैं ॥30॥ जो इंद्र, चंद्र, अर्क और जैनेंद्र व्याकरणों का अवलोकन करने वाली है, ऐसी देववंद्य देवनंदी आचार्य की वाणी वंदनीय क्यों नहीं है ? ॥31 ॥ जो हेतु सहित बंध और मोक्ष का विचार करने वाली हैं ऐसी श्री वज्रसूरि की उक्तियां धर्मशास्त्रों का व्याख्यान करने वाले गणधरों की उक्तियों के समान प्रमाणरूप हैं ॥32॥ जो मधुर है― माधुर्य गुण से सहित है (पक्ष में अनुपम रूप से युक्त है) और शीलालंकारधारिणी है― शीलरूपी अलंकार का वर्णन करने वाली है (पक्ष में शीलरूपी अलंकार को धारण करने वाली है) इस प्रकार सुलोचना (सुंदर नेत्रों वाली) वनिता के समान, महासेन कवि को सुलोचना नामक कथा का किसने वर्णन नहीं किया है ? अर्थात् सभी ने वर्णन किया है ॥33॥ श्री रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति सूर्य की मूर्ति के समान लोक में अत्यंत प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्य की मूर्ति कृतपद्मोदयोद्योता है अर्थात् कमलों के विकास और उद्योत-प्रकाश को करने वाली है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति भी कृतपद्मोदयोद्योता अर्थात् श्री राम के अभ्युदय का प्रकाश करने वाली है― पद्मपुराण की रचना के द्वारा श्री राम के अभ्युदय को निरूपित करने वाली है और सूर्य की मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित अभ्यस्त होती रहती है ॥34॥ जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख-पाद आदि अंगों के द्वारा अपने आपके विषय में मनुष्यों का गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार श्री वरांग चरित की अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छंद-अलंकार रीति आदि अंगों से अपने आपके विषय में किस मनुष्य के गाढ़ अनुराग को उत्पन्न नहीं करती ? ॥35॥ श्री शांत ( शांतिषेण) कवि की वक्रोक्ति रूप रचना, रमणीय उत्प्रेक्षाओं के बल से, मनोहर अर्थ के प्रकट होने पर किसके मन को अनुरक्त नहीं करती है ? ॥36॥ जो गद्य-पद्य संबंधी समस्त विशिष्ट उक्तियों के विषय में विशेष अर्थात् तिलकरूप हैं तथा जो विशेषत्रय (ग्रंथविशेष) का निरूपण करने वाले हैं, ऐसे विशेषवादी कवि का विशेषवादीपना सर्वत्र प्रसिद्ध है ॥37॥ श्रीकुमारसेनगुरु का वह यश इस संसार में समुद्र पर्यंत सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचंद्र नामक शिष्य के उदय से उज्ज्वल है तथा जो अविजितरूप है― किसी के द्वारा जीता नहीं जा सकता है ॥38॥ जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं, ऐसे श्री वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशमान हो रही है ॥39॥ अपरिमित ऐश्वर्य को धारण करने वाले श्री पार्श्वनाथ जिनेंद्र की जो गुण स्तुति है वही जिनसेन स्वामी की कीर्ति को विस्तृत कर रही है ।
भावार्थ― श्री जिनसेन स्वामी ने जो पार्श्वाभ्युदय काव्य की रचना की है वही उनकी कीर्ति को विस्तृत कर रही है ॥40॥ वर्धमान पुराणरूपी उगते हुए सूर्य की सूक्तिरूपी किरणें विद्वज्जनों के अंतःकरणरूपी पर्वतों को मध्यवर्तिनी स्फटिक की दीवालों पर देदीप्यमान हैं ॥ 41 ॥ जिस प्रकार स्त्रियों के मुखों के द्वारा अपने कानों में धारण की हुई आम की मंजरी निर्गुणा― डोरा-रहित होने पर भी गुण सौंदर्य विशेष को धारण करती है उसी प्रकार सत् पुरुषों के द्वारा श्रवण की हुई निर्गुणा― गुण-रहित रचना भी गुणों को धारण करती है । भावार्थ― यदि निर्गुण रचना को भी सत् पुरुष श्रवण करते हैं तो वह गुणसहित के समान जान पड़ती है ॥42॥
साधु पुरुष याचना के बिना ही काव्य के दोषों को दूर कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि स्वर्ण की कालिमा को दूर हटा ही देती है ॥43 ॥ जिस प्रकार समुद्र की लहरें भीतर पड़े हुए मैल को शीघ्र ही बाहर निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार सत् पुरुषों को सभाएं किसी कारण काव्य के भीतर आये हुए दोष को शीघ्र ही निकालकर दूर कर देती हैं ॥44॥ जिस प्रकार समुद्र की निर्मल सीपों के द्वारा ग्रहण किया हुआ जल मोतीरूप हो जाता है उसी प्रकार दोषरहित सत् पुरुषों की सभाओं के द्वारा ग्रहण की हुई जड़ रचना भी उत्तम रचना के समान देदीप्यमान होने लगती है ॥45॥ दुर्वचनरूपी विष से दूषित जिनके मुखों के भीतर जिह्वाएं लपलपा रही हैं ऐसे दुर्जनरूपी साँपों को सज्जनरूपी विषवैद्य अपनी शक्ति से शीघ्र ही वश कर लेते हैं ॥46॥ जिस प्रकार मधुर गर्जना करने वाले मेघ, अत्यधिक धूलि से युक्त, रूक्ष और तीव्र दाह उत्पन्न करने वाले ग्रीष्मकाल को समय आने पर शांत कर देते हैं उसी प्रकार मधुर भाषण करने वाले सत् पुरुष, अत्यधिक अपराध करने वाले, कठोर प्रकृति एवं संताप उत्पन्न करने वाले दुष्ट पुरुष को समय आने पर शांत कर लेते हैं ॥ 47॥ जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा की किरणें, अच्छे और बुरे पदार्थों को एकाकार करने में प्रवृत्त अंधकार की राशि को दूर कर देती हैं उसी प्रकार विद्वान् मनुष्य, सज्जन और दुर्जन के साथ समान प्रवृत्ति करने में तत्पर मूर्ख मनुष्य को दूर कर देती हैं ॥48॥ इस प्रकार साधुओं की सहायता पाकर मैं रोग और अभिमान से रहित अपने इस काव्यरूपी शरीर को संसार में स्थायी करता हूं ॥ 49 ॥ अब मैं उस हरिवंश पुराण को कहता हूँ जो बद्धमल है― प्रारंभिक इतिहास से सहित (पक्ष में जड़ से युक्त है), पृथिवी में अत्यंत प्रसिद्ध है, अनेक शाखाओं― कथाओं-उपकथाओं से विभूषित है, विशाल पुण्यरूपी फल से युक्त है, पवित्र है, कल्पवृक्ष के समान है, उत्कृष्ट है, श्री नेमिनाथ भगवान के चरित्र से उज्ज्वल है और मन को हरण करने वाला है ॥ 50-51 ॥ जिस प्रकार सूर्य के द्वारा प्रकाशित पदार्थ को, अत्यंत तुच्छ तेज के धारक मणि, दीपक, जुगनू तथा बिजली आदि भी यथायोग्य-अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार बड़े-बड़े विद्वान् महात्माओं के द्वारा प्रकाशित इस पुराण के प्रकाशित करने में मेरे जैसा अल्प शक्ति का धारक पुरुष भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार प्रवृत्त हो रहा है ॥ 52-53 ॥ जिस प्रकार सूर्य का आलोक पाकर मनुष्य का नेत्र दूरवर्ती पदार्थ को भी देख लेता है उसी प्रकार पूर्वाचार्यरूपी सूर्य का आलोक पाकर मेरा सुकुमार मन अत्यंत दूरवर्ती कालांतरित पदार्थ को भी देखने में समर्थ है ॥54॥ जिसके प्रतिपादनीय पदार्थ-क्षेत्र, द्रव्य, काल, भव और भाव के भेद से पाँच भेदों में विभक्त हैं तथा प्रामाणिक पुरुषों― आप्तजनों ने जिसका निरूपण किया है ऐसा आगम नाम का प्रमाण, प्रसिद्ध प्रमाण है ॥ 55 ॥ इस तंत्र के मूलकर्ता स्वयं श्री वर्धमान तीर्थंकर हैं, उनके बाद उत्तर तंत्र के कर्ता श्री गौतम गणधर हैं, और उनके अनंतर उत्तरोत्तर तंत्र के कर्ता क्रम से अनेक आचार्य हुए हैं सो वे सभी सर्वज्ञ के कथन का अनुवाद करने वाले होने से हमारे लिए प्रमाणभूत हैं ॥56-57꠰। इस पंचमकाल में तीन केवली, पांच चौदह पूर्व के ज्ञाता, पाँच ग्यारह अंगों के धारक, ग्यारह दसपूर्व के जानकार और चार आचारांग के ज्ञाता इस तरह पाँच प्रकार के मुनि हुए हैं ॥ 58-59 ॥
श्री वर्धमान जिनेंद्र के मुख से श्री इंद्रभूति ( गौतम ) गणधर ने श्रुत को धारण किया, उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जंबू नामक अंतिम केवली ने ॥60॥ उनके बाद क्रम से 1. विष्णु, 2. नंदिमित्र, 3. अपराजित, 4. गोवर्धन, और 5. भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए ॥61॥ इनके बाद ग्यारह अंग और दसपूर्व के जानने वाले निम्नलिखित ग्यारह मुनि हुए― 1. विशाख, 2. प्रोष्ठिल, 3. क्षत्रिय, 4. जय, 5. नाग, 6. सिद्धार्थ, 7. धृतिषेण, 8. विजय, 9. बुद्धिल, 10. गंगदेव, और 11. धर्मसेन ॥62-63 ॥ इनके अनंतर 1. नक्षत्र, 2. यशःपाल, 3. पांडु, 4. ध्रुवसेन और 5. कंसाचार्य ये पांच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए ॥64 ॥ तदनंतर 1. सुभद्र, 2. यशोभद्र, 3. यशोबाहु और लोहार्य ये चार मुनि आचारांग के धारक हुए ॥65॥ इस प्रकार इन तथा अन्य आचार्यों से जो आगम का एकदेश विस्तार को प्राप्त हुआ था उसी का यह एकदेश यहाँ कहा जाता है ॥ 66 ॥ यह ग्रंथ अर्थ की अपेक्षा पूर्व ही है अर्थात् इस ग्रंथ में जो वर्णन किया गया है वह पूर्वाचार्यों से प्रसिद्ध ही है परंतु शास्त्र के विस्तार से डरने वाले लोगों के लिए इसमें संक्षेप से सारभूत पदार्थों का संग्रह किया गया है इसलिए इस रचना की अपेक्षा यह अपूर्व अर्थात् नवीन है ॥67॥ जो भव्यजीव मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक सदा इसका अभ्यास करते हुए कथन अथवा श्रवण करेंगे उनके लिए यह पुराण कल्याण करने वाला होगा ॥68 ॥ बाह्य और अभ्यंतर के भेद से तप दो प्रकार का कहा गया है सो उन दोनों प्रकार के तपों में अज्ञान का विरोधी होने से स्वाध्याय परम तप कहा गया है ॥69॥ यतश्च इस पुराण का अर्थ उत्तम पुरुषार्थों का करने वाला है इसलिए देश-काल के ज्ञाता मनुष्यों के लिए मात्सर्य भाव छोड़कर इसका कथन तथा श्रवण करना चाहिए ॥ 70 ॥
इस पुराण में सर्वप्रथम लोक के आकार का वर्णन, फिर राजवंशों की उत्पत्ति, तदनंतर हरिवंश का अवतार, फिर वसुदेव की चेष्टाओं का कथन, तदनंतर नेमिनाथ का चरित, द्वारिका का निर्माण, युद्ध का वर्णन और निर्वाण― ये आठ शुभ अधिकार कहे गये हैं ॥71-72 ॥ ये सभी अधिकार संग्रह की भावना से संगृहीत अपने अवांतर अधिकारों से अलंकृत हैं तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निर्मित शास्त्रों का अनुसरण करने वाले मुनियों के द्वारा गुंफित हैं ॥73॥ वस्तु का निरूपण करने के लिए दो प्रकार की देशना पायी जाती है, एक विभाग रूप से और दूसरी विस्तार रूप से इनमें से यहाँ विभागरूपीय देशना का निरूपण किया जाता है ॥ 74 ॥ प्रथम ही इस ग्रंथ में श्री वर्धमान जिनेंद्र की धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति का वर्णन है, फिर गणधरों की संख्या और भगवान के राजगृह में आगमन का निरूपण है ॥ 75 ॥ तदनंतर श्रेणिक राजा का गौतम स्वामी से प्रश्न करना, तदनंतर क्षेत्र, काल का निरूपण, फिर कुलकरों की उत्पत्ति और भगवान् ऋषभदेव की उत्पत्ति का वर्णन है ॥ 76 ॥ तत्पश्चात् क्षत्रिय आदि वर्गों का निरूपण, हरिवंश को उत्पत्ति का कथन और उसी हरिवंश में भगवान् मुनिसुव्रत के जन्म लेने का निरूपण है ॥77॥ तदनंतर दक्ष प्रजापति का उल्लेख, वसु का वृत्तांत, अंधकवृष्णि के दसकुमारों का जन्म, सुप्रतिष्ठ मुनि के केवलज्ञान को उत्पत्ति, राजा अंधकवृष्णि को दीक्षा, समुद्रविजय का राज्य, वसुदेव का सौभाग्य, उपाय पूर्वक वसुदेव का बाहर निकलना, वहाँ उन्हें सोमा और विजयसेना कन्याओं का लाभ होना, जंगली हाथी का वश करना, श्यामा के साथ वसुदेव का संगम, अंगारक विद्याधर के द्वारा वसुदेव का हरण, चंपा नगरी में वसुदेव का छोड़ना, वहाँ गंधर्वसेना का लाभ, विष्णुकुमार मुनि का चरित, सेठ चारुदत्त का चरित, उसी को मुनि का दर्शन होना, तथा वसुदेव को सुंदरी नीलयशा और सोमश्री का लाभ होने का वर्णन है ॥ 78-82 ॥ तदनंतर वेदों की उत्पत्ति, राजा सौदास की कथा, वसुदेव को कपिला कन्या और पद्मावती का लाभ, चारुहासिनी और रत्नवती की प्राप्ति, सोमदत्त की पुत्री का लाभ, वेगवती का समागम, मदनवेगा का लाभ, बालचंद्रा का अवलोकन, प्रियंसुंदरी का लाभ, बंधुमती का समागम, प्रभावती को प्राप्ति, रोहिणी का स्वयंवर, संग्राम में वसुदेव की जीत और उनका भाइयों के साथ समागम होने का कथन है ॥ 83-86 ॥ तत्पश्चात् बलदेव की उत्पत्ति, कंस का व्याख्यान, जरासंध के कहने से राजा सिंहरथ का बाँधना, कंस को जीवद्यशा की प्राप्ति होना, पिता उग्रसेन को बंधन में डालना, देवकी के साथ वसुदेव का समागम होना, देवकी के पुत्र के हाथ से मेरा मरण है, ऐसा भ सत्यवादी अतिमुक्तकमुनि का आदेश सुन कंस का व्याकुल होना, देवकी का प्रसव हमारे घर ही हो इस प्रकार कंस की वसुदेव से प्रार्थना करना, वसुदेव का अतिमुक्तकमुनि से प्रश्न, देवकी के आठ पुत्रों के भवांतर पूछना और भगवान नेमिनाथ के पापापहारी चरित का निरूपण है ॥ 87-90॥ तदनंतर श्रीकृष्ण की उत्पत्ति, गोकुल में उनकी बालचेष्टाएँ, बलदेव के उपदेश से समस्त शास्त्रों का ग्रहण, धनुषरत्न का चढ़ाना, यमुना में नाग को नाथना, घोड़ा, हाथी, चाणूरमल्ल और कंस का वध, उग्रसेन का राज्य, सत्यभामा का पाणिग्रहण, सर्व कुटुंबियों सहित श्रीकृष्ण का परमप्रीति का अनुभव करना, कंस की स्त्री जीवद्यशा का विलाप, जरासंध का क्रोध, रण में भेजे हुए कालयवन की पराजय, श्रीकृष्ण के द्वारा युद्ध में अपराजित का मारा जाना, यादवों का परम हर्ष और निर्भयता के साथ रहना, पुत्रोत्पत्ति के निमित्त शिवादेवी के सोलह स्वप्न देखना, पति के द्वारा स्वप्नों का फल कहा जाना, नेमिनाथ भगवान का जन्म, सुमेरुपर्वत पर उनका जन्माभिषेक होना, भगवान् की बालक्रीड़ा और महान अभ्युदय का विस्तार, जरासंध का पीछा करना, यादवों का सागर का आश्रय करना, देवी के द्वारा की हुई माया से जरासंध का लौटना, तीन दिन के उपवास का नियम लेकर कृष्ण का डाभ की शय्या पर आरूढ़ होना, इंद्र की आज्ञा से गौतम नामक देव के द्वारा समुद्र का संकोच करना और कुबेर के द्वारा वहाँ क्षणभर में द्वारावती (द्वारिका) नगरी की रचना होना इन सबका वर्णन है ॥91-99॥ तदनंतर रुक्मिणी का हरा जाना, देदीप्यमान भानुकुमार और प्रद्युम्नकुमार का जन्म होना, रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न का पूर्वभव के बैरी धूमकेतु असुर के द्वारा हरण होना, विजयार्ध में प्रद्युम्न की स्थिति, नारद के द्वारा प्रद्युम्न के माता-पिता को इष्ट समाचार की सूचना देना, प्रद्युम्न को सोलह लाभों तथा प्रज्ञप्ति विद्या की प्राप्ति होना, राजा कालसंवर के साथ प्रद्युम्न का युद्ध, मातापिता का मिलाप, शंबकुमार की उत्पत्ति, प्रद्युम्न की बालक्रीड़ा, वसुदेव का प्रद्युम्न से प्रश्न, प्रद्युम्न द्वारा अपने भ्रमण का वृत्तांत, सकल यादवकुमारों का कीर्तन, समाचार पाकर प्रति शत्रु जरासंध का कृष्ण के प्रति दूत भेजना, यादवों की सभा में क्षोभ उत्पन्न होना, दोनों सेनाओं का पास-पास आना, विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों में क्षोभ उत्पन्न होना, श्री वसुदेव का पराक्रम, अक्षौहिणी दल का प्रमाण, रथी, अतिरथ, समरथ और अर्धरथ राजाओं का निरूपण, जरासंध के चक्रव्यूह को नष्ट करने के लिए श्रीकृष्ण की सेना में गरुड़व्यूह को रचना होना, बलदेव को सिंहवाहिनी और कृष्ण को गरुड़वाहिनी विद्या की प्राप्ति होना, नेमि के सारथी के रूप में उनके मामा के पुत्र का आगमन, नेमि, अनावृष्णि तथा अर्जुन के द्वारा चक्रव्यूह का भेदा जाना, पांडवों का कौरवों के साथ युद्ध, दोनों सेनाओं के अधिपति कृष्ण तथा जरासंध के महायुद्ध का वर्णन है ॥ 100-108॥
तदनंतर श्रीकृष्ण के चक्ररत्न की उत्पत्ति होना, जरासंध का मारा जाना, विद्याधरियों के द्वारा वसुदेव श्रीकृष्ण की विजय का समाचार सुनाना, कृष्ण का कोटिशिला का उठाना, वसुदेव का आगमन, श्रीकृष्ण का दिग्विजय, दिव्यरत्नों की उत्पत्ति, दोनों भाइयों का राज्याभिषेक, द्रौपदी का हरण, श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों के साथ जाकर धातकीखंड से द्रौपदी का पुनः वापस लाना, श्रीकृष्ण को नेमिनाथ की सामर्थ्य का ज्ञान होना, नेमिनाथ की जलक्रीड़ा, पांचजन्य शंख का बजाना, नेमिनाथ के विवाह का आरंभ, पशुओं का छुड़ाना, दीक्षा लेना, केवलज्ञान उत्पन्न होना, ज्ञानकल्याणक के लिए देवों का आगमन, समवसरण का निर्माण, राजीमती का तप धारण करना, सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार के धर्म का उपदेश देना, धर्म-तीर्थों में विहार, श्रीकृष्ण के छह भाइयों का संयम धारण करना, नेमिनाथ का गिरिनार पर्वतपर आरूढ़ होना, देवकी के प्रश्न का उत्तर देना, रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि आठ महादेवियों के भवांतरों का निरूपण, गजकुमार का जन्म, उनकी दीक्षा और वसुदेव से भिन्न नौ भाइयों का संसार से उद्विग्न हो तपश्चरण करने का निरूपण है ॥ 109-116 ॥
तदनंतर भगवान नेमिनाथ के द्वारा त्रेसठ शलाकापुरुषों की उत्पत्ति का वर्णन, तीर्थंकरों के अंतर का विस्तार, बलदेव का प्रश्न, प्रद्युम्न की दीक्षा, रुक्मिणी आदि कृष्ण की स्त्रियों और पुत्रियों का संयम ग्रहण करना, द्वीपायन मुनि के क्रोध से द्वारिका पुरी का विनाश, जिनके भाई, पुत्र तथा स्त्रियाँ जल गयी थीं ऐसे बलराम और कृष्ण का द्वारिका से निकलना, असह्य शोक, कौशांबी के वन में दोनों भाइयों का जाना, बलभद्र की रक्षा से रहित श्रीकृष्ण का भाग्यवश जरत्कुमार के द्वारा छोड़े हुए बाण से प्रमादपूर्वक मारा जाना, तदनंतर मारने वाले जरत्कुमार का शोक करना, बलराम का दुस्तर शोक, सिद्धार्थ देव के द्वारा प्रतिबोधित होनेपर बलदेव का विरक्त हो दीक्षा धारण करना, ब्रह्मलोक में जन्म होना, पांडवों का तप के लिए वन को जाना, गिरिनार पर्वत पर नेमिनाथ का निर्वाण होना, महान् आत्मा के धारक पांच पांडवों का उपसर्ग जीतना, जरत्कुमार की दीक्षा, उसकी विस्तृत संतान, हरिवंश के दीपक राजा जितशत्रु को केवलज्ञान, विशाल लक्ष्मी के धारक राजा श्रेणिक का अंत में नगर प्रवेश, श्री वर्धमान जिनेंद्र और उनके गणधरों का निर्वाण और देवों के द्वारा किया हुआ दीपमालिका महोत्सव का वर्णन है । श्री जिनसेन स्वामी कहते हैं कि इस पुराण में इन सबका मैं वर्णन करूंगा ॥117-125 ॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार हरिवंशपुराण का यह संग्रह सहित अवांतर विभाग दिखा दिया । अब इसके आगे भव्य सभासद् आत्म-सिद्धि के लिए इसके विस्तार का वर्णन श्रवण करें ॥126 ॥ हे विद्वज्जनो ! जब एक ही महापुरुष का चरित पाप का नाश करने वाला है तब समस्त तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और बलभद्रों के चरित का निरूपण करने वाले इस ग्रंथ की महिमा का क्या कहना ? सो ठीक ही है क्योंकि जब एक ही महामेघ का जल अत्यधिक संताप को नष्ट करने वाला है तब लोक में सर्वत्र व्याप्त मेघसमूह से पड़ने वाली हजारों जल धाराओं की महिमा का क्या कहना है ? ॥127॥ विवेकीजन, लौकिक पुराणरूपी टेढ़े-मेढ़े कुपथ के भ्रमण को छोड़, सीधे तथा हित प्राप्त करने वाले इस पुराणरूपी मार्ग को ग्रहण करें । मोह से भरे हुए दिङ̖मूढ मनुष्य को छोड़ अत्यंत शुद्धदृष्टि को धारण करने वाला ऐसा कौन मनुष्य है जो जिनेंद्रदेवरूपीसूर्य के द्वारा लंबे-चौड़े मार्ग के प्रकाशित होने पर भी भृगुपात करेगा― किसी पहाड़ की चट्टान से नीचे गिरेगा ? अर्थात् कोई नहीं ॥128॥
इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे श्री जिनसेनाचार विरचित हरिवंशपुराण में संग्रह विभाग वर्णन नाम का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ ॥1॥