हरिवंश पुराण - सर्ग 32: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर किसी समय वह रोहिणी अपने भर्ता― वसुदेव के साथ विचित्र शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने शुभ को सूचित करने वाले चार स्वप्न देखे ॥1॥ पहले स्वप्न में उसने गंभीर गर्जन करता हुआ चंद्रमा के समान सफेद विशाल हाथी देखा । दूसरे स्वप्न में पर्वत के समान ऊँची एवं बड़ी-बड़ी लहरों से युक्त अत्यधिक शब्द करने वाला समुद्र देखा । तीसरे स्वप्न में पूर्ण चंद्रमा को देखकर चंद्रमुखी रोहिणी का मनोरथ पूर्ण हो गया और चौथे स्वप्न में उसने मुख में प्रवेश करता हुआ कुंद के समान सफेद सिंह देखा ॥2-3॥ | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर किसी समय वह रोहिणी अपने भर्ता― वसुदेव के साथ विचित्र शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने शुभ को सूचित करने वाले चार स्वप्न देखे ॥1॥<span id="2" /><span id="3" /> पहले स्वप्न में उसने गंभीर गर्जन करता हुआ चंद्रमा के समान सफेद विशाल हाथी देखा । दूसरे स्वप्न में पर्वत के समान ऊँची एवं बड़ी-बड़ी लहरों से युक्त अत्यधिक शब्द करने वाला समुद्र देखा । तीसरे स्वप्न में पूर्ण चंद्रमा को देखकर चंद्रमुखी रोहिणी का मनोरथ पूर्ण हो गया और चौथे स्वप्न में उसने मुख में प्रवेश करता हुआ कुंद के समान सफेद सिंह देखा ॥2-3॥<span id="4" /><span id="5" /> प्रातःकाल के समय जागने पर जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान सुशोभित थे ऐसी रोहिणी ने वे स्वप्न पति के लिए बतलाये और पति ने उनका यह फल बताया कि हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही ऐसा पुत्र होगा जो धीर<strong>, </strong>वीर<strong>, </strong>अलंघ्य<strong>, </strong>चंद्रमा के समान कांति वाला<strong>, </strong>अद्वितीय वीर<strong>, </strong>पृथिवी का स्वामी और जनता का प्यारा होगा ॥4-5॥<span id="6" /> इस प्रकार पति के द्वारा बताये हुए स्वप्नों का शुभ फल सुनकर सुंदरी रोहिणी हर्षित हो उठो तथा चंद्रमा की शोभा धारण करने लगी ॥6॥<span id="7" /> उसी समय महासामानिक देव महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर रोहिणी के गर्भ में उस तरह स्थित हो गया जिस तरह कि पृथिवी के गर्भ में उत्तम मणि स्थित होता है ॥7॥<span id="8" /></p> | ||
<p> तदनंतर जिसके समस्त दोहला पूर्ण किये गये थे ऐसी रोहिणी ने सुख से नौ माह पूर्ण होने पर शुभ नक्षत्रों में चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र उत्पन्न किया ॥8॥ जो जरासंध आदि राजा एक वर्ष से राजा रुधिर के यहाँ रह रहे थे उस पुत्र का जन्मोत्सव देखकर प्रसन्न होते हुए अपने-अपने स्थान पर गये । जाते समय राजा रुधिर ने उन सबका खूब सत्कार किया ॥2॥ वह बालक अत्यंत सुंदर था इसलिए पृथिवी तल पर अपना राम नाम प्रसिद्ध कर माता<strong>-</strong>पिता और बंधुजनों की प्रीति को बढ़ाता हुआ दिन<strong>-</strong>प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥10॥</ | <p> तदनंतर जिसके समस्त दोहला पूर्ण किये गये थे ऐसी रोहिणी ने सुख से नौ माह पूर्ण होने पर शुभ नक्षत्रों में चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र उत्पन्न किया ॥8॥<span id="2" /> जो जरासंध आदि राजा एक वर्ष से राजा रुधिर के यहाँ रह रहे थे उस पुत्र का जन्मोत्सव देखकर प्रसन्न होते हुए अपने-अपने स्थान पर गये । जाते समय राजा रुधिर ने उन सबका खूब सत्कार किया ॥2॥<span id="10" /> वह बालक अत्यंत सुंदर था इसलिए पृथिवी तल पर अपना राम नाम प्रसिद्ध कर माता<strong>-</strong>पिता और बंधुजनों की प्रीति को बढ़ाता हुआ दिन<strong>-</strong>प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥10॥<span id="11" /><span id="12" /><span id="13" /></p> | ||
< | <p> तदनंतर एक समय कुमार वसुदेव के हित में उद्यत समुद्रविजय आदि सभी भाई राजा रुधिर के घर श्रीमंडप में बैठे थे कि एक दिव्य विद्याधारी आकाश से उतरकर वहाँ आयी और सब को अभिनंदन कर सुखदायक आसन पर बैठ गयी । कुछ समय बाद उसने वसुदेव को लक्ष्य कर कहा कि हे देव ! आपकी पत्नी वेगवती तथा हमारी पुत्री बालचंद्रा आपके चरणों में गिरकर आपका प्रिय दर्शन करना चाहती हैं ॥11-13 ॥<span id="14" /> कुमारी बालचंद्रा के प्राण एक आप में ही अटक रहे हैं इसलिए शीघ्र जाकर उसे विवाहों और उसका चित्त संतुष्ट करो ॥ 14 ॥<span id="15" /> विद्याधरी के वचन सुनकर कुमार वसुदेव ने अपनी दृष्टि बड़े भाई समुद्रविजय पर डाली और अभिप्राय को जानने वाले बड़े भाई ने भी जल्दी जाओ कहकर उन्हें छोड़ दिया-विद्याधरी के साथ जाने की अनुमति दे दी ॥15॥<span id="16" /> तदनंतर विद्याधरी वसुदेव को लेकर गगनवल्लभपुर गयी और समुद्रविजय आदि राजा शौर्यपुर चले गये ॥ 16 ॥<span id="17" /> वसुदेव ने गगनवल्लभ नगर में अपनी प्रिया वेगवती से मिलकर पूर्णचंद्र के समान मुख वाली बालचंद्रा को विवाहा ॥17॥<span id="18" /> और विवाह के बाद वे नयी वधू बालचंद्रा तथा हृदय को अत्यंत प्रिय लगने वाली वेगवती के साथ क्रीड़ा करते हुए कुछ दिन तक वहीं सुख से रहे आये ॥18॥<span id="19" /> कुछ दिन बाद कुमार वसुदेव ने उन दोनों स्त्रियों के साथ शीघ्र ही शौर्यपुर लोटने की इच्छा प्रकट की जिससे एणीपुत्र की पूर्व भव की माँ वनवती देवी ने रत्नों से देदीप्यमान एक विमान रचकर उन्हें दे दिया ॥19 ॥<span id="20" /> यह देख बालचंद्रा के पिता कांचनदंष्ट्र तथा वेगवती के बड़े भाई मानसवेग ने समस्त परिवार के साथ बालचंद्रा और वेगवती को कुमार के लिए सौंप दिया ॥20॥<span id="21" /> कुमार दोनों स्त्रियों को साथ ले इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा अरिंजयपुर नगर गये और वहाँ जाकर विद्युद्वेग से मिले ॥21॥<span id="22" /> वहाँ से प्रिया मदनवेगा और अनावृष्णि नामक उसके पुत्र को लेकर वे शीघ्र ही उसी विमान से आकाश में उड़ गये ॥ 22 ॥<span id="23" /> तदनंतर शोध ही लक्ष्मी से समृद्ध गंधसमृद्ध नामक नगर में जाकर वे गांधार राजा की पुत्री प्रभावती से मिले ॥23 ॥<span id="24" /> तत्पश्चात् परिवार सहित उसे विमान में बैठाकर महान् हर्ष को प्राप्त होते हुए वे असितपर्वत नामक नगर में पहुँचे ॥ 24॥<span id="25" /> वहाँ राजा सिंहदंष्ट्र की पुत्री प्रिया नीलंयशा से मिले और वियोग के बाद मिली हुई उस नीलंयशा के साथ नाना प्रकार को क्रीड़ा करने लगे ॥ 25 ॥<span id="26" /> तत्पश्चात् उसे साथ ले किन्नरोद्गीत नामक नगर पहुंचे और वहाँ नील कमल की कलिकाओं के समान श्यामवर्ण श्यामा नामक स्त्री को उन्होंने अच्छी तरह मनाया― प्रसन्न किया ॥26॥<span id="27" /><span id="28" /><span id="29" /><span id="30" /> तदनंतर श्यामा को लेकर श्रावस्ती पहुंचे । वहाँ से प्रियंगुसुंदरी और बंधुमती को साथ ले महापुर गये । महापुर से प्रिया सोमश्री को लेकर इलावर्धनपुर पहुंचे । वहाँ से माननीय रत्नावती को लेकर भद्रिलपुर गये । वहाँ से चारुहासिनी को साथ लेकर तथा उसके पुत्र पौंड्र को वहीं बसाकर जयपुर गये । वहाँ से अश्वसेना को साथ ले शालगुह नगर पहुँचे । वहाँ से पद्मावती को लेकर वेदसामपुर गये ॥27-30॥<span id="31" /> वहाँ अपने कपिल नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर कपिला को साथ ले अचलग्राम आये ॥31॥<span id="32" /> वहाँ से मित्रश्री को लेकर तिलवस्तु नगर गये वहाँ पांच सौ कन्याओं को ग्रहणकर गिरितट नगर पहुँचे ॥32॥<span id="33" /><span id="34" /> वहाँ से सोमश्री को साथ ले चंपापुरी पहुँचे । वहाँ से मंत्री की पुत्री और गंधर्वसेना को साथ ले विजयखेट नगर गये । वहाँ अकरदृष्टि नामक पुत्र से मिल कर तथा विजयसेना को साथ लेकर कुलपुर पहुंचे ॥33-34 ॥<span id="35" /><span id="36" /> वहाँ से पद्मश्री<strong>, </strong>अवंतिसुंदरी<strong>, </strong>पुत्र सहित शूरसेना<strong>, </strong>जरा<strong>, </strong>जीवंद्यशा तथा अपनी अन्य स्त्रियों को साथ ले हर्षित होते हुए शीघ्रगामी विमान से वापस आये ॥35-36 ॥<span id="37" /> जो सुंदर संगीत से युक्त तथा सूर्य के विमान के समान देदीप्यमान था ऐसा उनका वह विमान शीघ्र ही शौर्यपुर आ पहुँचा ॥37॥<span id="38" /></p> | ||
<p> तदनंतर वनवती देवी ने स्वयं ही पहले से आकर वसुदेव के आगमन से उत्पन्न हर्ष से राजा समुद्रविजय को वृद्धिंगत किया― वसुदेव के आगमन का समाचार सुनाकर प्रसन्न किया ॥38॥ तत्पश्चात् राजा समुद्रविजय<strong>, </strong>प्रजाजनों से नगर की शोभा कराकर बड़े हर्ष से आदर से युक्त बंधु जनों के साथ कुमार वसुदेव को लेने के लिए उनके सम्मुख गये ॥39॥ वसुदेव ने अपनी समस्त स्त्रियों सहित विमान से उतरकर बड़े भाइयों तथा अन्य गुरुजनों को प्रणाम किया तथा अन्य लोगों ने प्रेमपूर्वक वसुदेव को प्रणाम किया ॥40॥ जिनके नेत्रों में हर्ष के अश्रु भर रहे थे ऐसी शिवा आदि महारानियों ने स्त्रियों सहित नमस्कार करते हुए वसुदेव का आलिंगन कर आकाश की ओर मुंह कर बार-बार यही आशीर्वाद दिया कि अब पुनः वियोग न हो ॥41 | <p> तदनंतर वनवती देवी ने स्वयं ही पहले से आकर वसुदेव के आगमन से उत्पन्न हर्ष से राजा समुद्रविजय को वृद्धिंगत किया― वसुदेव के आगमन का समाचार सुनाकर प्रसन्न किया ॥38॥<span id="39" /> तत्पश्चात् राजा समुद्रविजय<strong>, </strong>प्रजाजनों से नगर की शोभा कराकर बड़े हर्ष से आदर से युक्त बंधु जनों के साथ कुमार वसुदेव को लेने के लिए उनके सम्मुख गये ॥39॥<span id="40" /> वसुदेव ने अपनी समस्त स्त्रियों सहित विमान से उतरकर बड़े भाइयों तथा अन्य गुरुजनों को प्रणाम किया तथा अन्य लोगों ने प्रेमपूर्वक वसुदेव को प्रणाम किया ॥40॥<span id="41" /> जिनके नेत्रों में हर्ष के अश्रु भर रहे थे ऐसी शिवा आदि महारानियों ने स्त्रियों सहित नमस्कार करते हुए वसुदेव का आलिंगन कर आकाश की ओर मुंह कर बार-बार यही आशीर्वाद दिया कि अब पुनः वियोग न हो ॥41 ॥<span id="42" /> कुमार ने आगत जनता का यथायोग्य सम्मान किया और जनता ने भी उनके प्रति आदर का भाव प्रकट किया ꠰ </p> | ||
<p> तदनंतर जिनका उदय<strong>, </strong>बंधरूपी सागर के लिए हितकारी था ऐसे रोहिणी कुमार वसुदेव (पक्ष में चंद्रमा) शौर्यपुर में रहते हुए क्रीड़ा करने लगे ॥42॥ सदा हित करने में उद्यत रहने वाली वनवती देवी समुद्रविजय और वसुदेव को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और अंत में उनसे पूछकर अपने स्थान को चली गयी ॥43॥ जो शूरवीरता से बलिष्ठ थे<strong>, </strong>जिन्होंने राजाओं के समूह को जीत लिया था<strong>, </strong>जो उदार एवं सुंदर चरित्र से युक्त थे<strong>, </strong>विद्याधरियों के स्वामी थे<strong>, </strong>देवतुल्य थे<strong>, </strong>और महान् वैभव को प्राप्त थे ऐसे वसुदेव को देखकर उस समय शौर्यपुर के लोग अत्यंत संतुष्ट हो यही कहते थे कि यह पूर्वोपार्जित जैनधर्म की ही महिमा है ॥44॥</p> | <p> तदनंतर जिनका उदय<strong>, </strong>बंधरूपी सागर के लिए हितकारी था ऐसे रोहिणी कुमार वसुदेव (पक्ष में चंद्रमा) शौर्यपुर में रहते हुए क्रीड़ा करने लगे ॥42॥<span id="43" /> सदा हित करने में उद्यत रहने वाली वनवती देवी समुद्रविजय और वसुदेव को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और अंत में उनसे पूछकर अपने स्थान को चली गयी ॥43॥<span id="44" /> जो शूरवीरता से बलिष्ठ थे<strong>, </strong>जिन्होंने राजाओं के समूह को जीत लिया था<strong>, </strong>जो उदार एवं सुंदर चरित्र से युक्त थे<strong>, </strong>विद्याधरियों के स्वामी थे<strong>, </strong>देवतुल्य थे<strong>, </strong>और महान् वैभव को प्राप्त थे ऐसे वसुदेव को देखकर उस समय शौर्यपुर के लोग अत्यंत संतुष्ट हो यही कहते थे कि यह पूर्वोपार्जित जैनधर्म की ही महिमा है ॥44॥<span id="32" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में समस्त</strong> <strong>भाइयों और स्त्रियों</strong> <strong>के समागम को वर्णन करने वाला बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥32॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में समस्त</strong> <strong>भाइयों और स्त्रियों</strong> <strong>के समागम को वर्णन करने वाला बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥32॥<span id="33" /><span id="34" /></strong></p> | ||
<p><strong>विद्याधर कांड समाप्त</strong></p> | <p><strong>विद्याधर कांड समाप्त</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर किसी समय वह रोहिणी अपने भर्ता― वसुदेव के साथ विचित्र शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने शुभ को सूचित करने वाले चार स्वप्न देखे ॥1॥ पहले स्वप्न में उसने गंभीर गर्जन करता हुआ चंद्रमा के समान सफेद विशाल हाथी देखा । दूसरे स्वप्न में पर्वत के समान ऊँची एवं बड़ी-बड़ी लहरों से युक्त अत्यधिक शब्द करने वाला समुद्र देखा । तीसरे स्वप्न में पूर्ण चंद्रमा को देखकर चंद्रमुखी रोहिणी का मनोरथ पूर्ण हो गया और चौथे स्वप्न में उसने मुख में प्रवेश करता हुआ कुंद के समान सफेद सिंह देखा ॥2-3॥ प्रातःकाल के समय जागने पर जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान सुशोभित थे ऐसी रोहिणी ने वे स्वप्न पति के लिए बतलाये और पति ने उनका यह फल बताया कि हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही ऐसा पुत्र होगा जो धीर, वीर, अलंघ्य, चंद्रमा के समान कांति वाला, अद्वितीय वीर, पृथिवी का स्वामी और जनता का प्यारा होगा ॥4-5॥ इस प्रकार पति के द्वारा बताये हुए स्वप्नों का शुभ फल सुनकर सुंदरी रोहिणी हर्षित हो उठो तथा चंद्रमा की शोभा धारण करने लगी ॥6॥ उसी समय महासामानिक देव महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर रोहिणी के गर्भ में उस तरह स्थित हो गया जिस तरह कि पृथिवी के गर्भ में उत्तम मणि स्थित होता है ॥7॥
तदनंतर जिसके समस्त दोहला पूर्ण किये गये थे ऐसी रोहिणी ने सुख से नौ माह पूर्ण होने पर शुभ नक्षत्रों में चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र उत्पन्न किया ॥8॥ जो जरासंध आदि राजा एक वर्ष से राजा रुधिर के यहाँ रह रहे थे उस पुत्र का जन्मोत्सव देखकर प्रसन्न होते हुए अपने-अपने स्थान पर गये । जाते समय राजा रुधिर ने उन सबका खूब सत्कार किया ॥2॥ वह बालक अत्यंत सुंदर था इसलिए पृथिवी तल पर अपना राम नाम प्रसिद्ध कर माता-पिता और बंधुजनों की प्रीति को बढ़ाता हुआ दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा ॥10॥
तदनंतर एक समय कुमार वसुदेव के हित में उद्यत समुद्रविजय आदि सभी भाई राजा रुधिर के घर श्रीमंडप में बैठे थे कि एक दिव्य विद्याधारी आकाश से उतरकर वहाँ आयी और सब को अभिनंदन कर सुखदायक आसन पर बैठ गयी । कुछ समय बाद उसने वसुदेव को लक्ष्य कर कहा कि हे देव ! आपकी पत्नी वेगवती तथा हमारी पुत्री बालचंद्रा आपके चरणों में गिरकर आपका प्रिय दर्शन करना चाहती हैं ॥11-13 ॥ कुमारी बालचंद्रा के प्राण एक आप में ही अटक रहे हैं इसलिए शीघ्र जाकर उसे विवाहों और उसका चित्त संतुष्ट करो ॥ 14 ॥ विद्याधरी के वचन सुनकर कुमार वसुदेव ने अपनी दृष्टि बड़े भाई समुद्रविजय पर डाली और अभिप्राय को जानने वाले बड़े भाई ने भी जल्दी जाओ कहकर उन्हें छोड़ दिया-विद्याधरी के साथ जाने की अनुमति दे दी ॥15॥ तदनंतर विद्याधरी वसुदेव को लेकर गगनवल्लभपुर गयी और समुद्रविजय आदि राजा शौर्यपुर चले गये ॥ 16 ॥ वसुदेव ने गगनवल्लभ नगर में अपनी प्रिया वेगवती से मिलकर पूर्णचंद्र के समान मुख वाली बालचंद्रा को विवाहा ॥17॥ और विवाह के बाद वे नयी वधू बालचंद्रा तथा हृदय को अत्यंत प्रिय लगने वाली वेगवती के साथ क्रीड़ा करते हुए कुछ दिन तक वहीं सुख से रहे आये ॥18॥ कुछ दिन बाद कुमार वसुदेव ने उन दोनों स्त्रियों के साथ शीघ्र ही शौर्यपुर लोटने की इच्छा प्रकट की जिससे एणीपुत्र की पूर्व भव की माँ वनवती देवी ने रत्नों से देदीप्यमान एक विमान रचकर उन्हें दे दिया ॥19 ॥ यह देख बालचंद्रा के पिता कांचनदंष्ट्र तथा वेगवती के बड़े भाई मानसवेग ने समस्त परिवार के साथ बालचंद्रा और वेगवती को कुमार के लिए सौंप दिया ॥20॥ कुमार दोनों स्त्रियों को साथ ले इच्छानुसार चलने वाले विमान के द्वारा अरिंजयपुर नगर गये और वहाँ जाकर विद्युद्वेग से मिले ॥21॥ वहाँ से प्रिया मदनवेगा और अनावृष्णि नामक उसके पुत्र को लेकर वे शीघ्र ही उसी विमान से आकाश में उड़ गये ॥ 22 ॥ तदनंतर शोध ही लक्ष्मी से समृद्ध गंधसमृद्ध नामक नगर में जाकर वे गांधार राजा की पुत्री प्रभावती से मिले ॥23 ॥ तत्पश्चात् परिवार सहित उसे विमान में बैठाकर महान् हर्ष को प्राप्त होते हुए वे असितपर्वत नामक नगर में पहुँचे ॥ 24॥ वहाँ राजा सिंहदंष्ट्र की पुत्री प्रिया नीलंयशा से मिले और वियोग के बाद मिली हुई उस नीलंयशा के साथ नाना प्रकार को क्रीड़ा करने लगे ॥ 25 ॥ तत्पश्चात् उसे साथ ले किन्नरोद्गीत नामक नगर पहुंचे और वहाँ नील कमल की कलिकाओं के समान श्यामवर्ण श्यामा नामक स्त्री को उन्होंने अच्छी तरह मनाया― प्रसन्न किया ॥26॥ तदनंतर श्यामा को लेकर श्रावस्ती पहुंचे । वहाँ से प्रियंगुसुंदरी और बंधुमती को साथ ले महापुर गये । महापुर से प्रिया सोमश्री को लेकर इलावर्धनपुर पहुंचे । वहाँ से माननीय रत्नावती को लेकर भद्रिलपुर गये । वहाँ से चारुहासिनी को साथ लेकर तथा उसके पुत्र पौंड्र को वहीं बसाकर जयपुर गये । वहाँ से अश्वसेना को साथ ले शालगुह नगर पहुँचे । वहाँ से पद्मावती को लेकर वेदसामपुर गये ॥27-30॥ वहाँ अपने कपिल नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर कपिला को साथ ले अचलग्राम आये ॥31॥ वहाँ से मित्रश्री को लेकर तिलवस्तु नगर गये वहाँ पांच सौ कन्याओं को ग्रहणकर गिरितट नगर पहुँचे ॥32॥ वहाँ से सोमश्री को साथ ले चंपापुरी पहुँचे । वहाँ से मंत्री की पुत्री और गंधर्वसेना को साथ ले विजयखेट नगर गये । वहाँ अकरदृष्टि नामक पुत्र से मिल कर तथा विजयसेना को साथ लेकर कुलपुर पहुंचे ॥33-34 ॥ वहाँ से पद्मश्री, अवंतिसुंदरी, पुत्र सहित शूरसेना, जरा, जीवंद्यशा तथा अपनी अन्य स्त्रियों को साथ ले हर्षित होते हुए शीघ्रगामी विमान से वापस आये ॥35-36 ॥ जो सुंदर संगीत से युक्त तथा सूर्य के विमान के समान देदीप्यमान था ऐसा उनका वह विमान शीघ्र ही शौर्यपुर आ पहुँचा ॥37॥
तदनंतर वनवती देवी ने स्वयं ही पहले से आकर वसुदेव के आगमन से उत्पन्न हर्ष से राजा समुद्रविजय को वृद्धिंगत किया― वसुदेव के आगमन का समाचार सुनाकर प्रसन्न किया ॥38॥ तत्पश्चात् राजा समुद्रविजय, प्रजाजनों से नगर की शोभा कराकर बड़े हर्ष से आदर से युक्त बंधु जनों के साथ कुमार वसुदेव को लेने के लिए उनके सम्मुख गये ॥39॥ वसुदेव ने अपनी समस्त स्त्रियों सहित विमान से उतरकर बड़े भाइयों तथा अन्य गुरुजनों को प्रणाम किया तथा अन्य लोगों ने प्रेमपूर्वक वसुदेव को प्रणाम किया ॥40॥ जिनके नेत्रों में हर्ष के अश्रु भर रहे थे ऐसी शिवा आदि महारानियों ने स्त्रियों सहित नमस्कार करते हुए वसुदेव का आलिंगन कर आकाश की ओर मुंह कर बार-बार यही आशीर्वाद दिया कि अब पुनः वियोग न हो ॥41 ॥ कुमार ने आगत जनता का यथायोग्य सम्मान किया और जनता ने भी उनके प्रति आदर का भाव प्रकट किया ꠰
तदनंतर जिनका उदय, बंधरूपी सागर के लिए हितकारी था ऐसे रोहिणी कुमार वसुदेव (पक्ष में चंद्रमा) शौर्यपुर में रहते हुए क्रीड़ा करने लगे ॥42॥ सदा हित करने में उद्यत रहने वाली वनवती देवी समुद्रविजय और वसुदेव को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और अंत में उनसे पूछकर अपने स्थान को चली गयी ॥43॥ जो शूरवीरता से बलिष्ठ थे, जिन्होंने राजाओं के समूह को जीत लिया था, जो उदार एवं सुंदर चरित्र से युक्त थे, विद्याधरियों के स्वामी थे, देवतुल्य थे, और महान् वैभव को प्राप्त थे ऐसे वसुदेव को देखकर उस समय शौर्यपुर के लोग अत्यंत संतुष्ट हो यही कहते थे कि यह पूर्वोपार्जित जैनधर्म की ही महिमा है ॥44॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में समस्त भाइयों और स्त्रियों के समागम को वर्णन करने वाला बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥32॥
विद्याधर कांड समाप्त