हरिवंश पुराण - सर्ग 63: Difference between revisions
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<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में बलदेव के</strong> <strong>तप का वर्णन करने वाला त्रैसठवां सर्ग समाप्त हुआ ॥63॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में बलदेव के</strong> <strong>तप का वर्णन करने वाला त्रैसठवां सर्ग समाप्त हुआ ॥63॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर स्नेह से भरे बलदेव जल प्राप्त करने के लिए बहुत व्याकुल हुए । वे हृदय में कृष्ण को धारण किये हुए आगे बढ़े जाते थे । यद्यपि अपशकुन उन्हें पद-पद पर रोकते थे तथापि वे दूसरे वन में बहुत दूर जा पहुँचे ॥1॥ जिस मार्ग से मृगों के झुंड जाते थे बलदेव उसी मार्ग से दौड़ते जाते थे और वे जगह-जगह मृगतृष्णा को जल समझकर लुभा जाते थे । उस समय उन्हें समस्त दिशाएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो लहराते हुए तालाबों से युक्त ही हों ॥2॥ तदनंतर बलदेव को एक तालाब दिखा जो मधुर शब्द करने वाले चक्रवाक, कलहंस और सारस पक्षियों से युक्त था, तरंगों से व्याप्त था एवं भ्रमर-गुंजित कमलों से सहित था ॥3॥ तालाब के देखते ही बलदेव के हृदय ने एक लंबी सांस ली और उसकी शीतल सुगंधित वायु सम्मुख आकर इनके शरीर से लग गयी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उसने अपनी मित्रता ही प्रकट की हो ॥4॥
तदनंतर चारों ओर से आने वाले प्यासे जंगली जानवर जिन्हें भयपूर्ण दृष्टि से देख रहे थे ऐसे बलदेव जंगली हाथियों के मदजल से सुवासित उस सरोवर पर बड़े आदर से जा पहुँचे ॥5॥ उन्होंने घाट में अवगाहन कर शीतल पानी पिया, अपनी प्यास की व्यथा दूर कर और कमल के पत्ती का एक पात्र बनाकर उसे पानी से भरा तथा कपड़े से उसे ढंक लिया ॥6॥ पानी लेकर वे बड़े वेग से दौड़े । उस समय पैरों के आघात से उड़ी धूलि से उनके सिर के बाल धूसरित हो गये थे और मैं अनेक विघ्नों से भरे वन में कृष्ण को अकेला छोड़ आया हूँ इस आशंका से उनका हृदय बार-बार कंपित हो रहा था ॥7॥
तदनंतर वस्त्र के द्वारा सब ओर से जिनका शरीर ढंका था ऐसे कृष्ण को बलदेव ने दूर से देखा । देखकर वे सोचने लगे कि मैं शूरवीर कृष्ण को जिस भूमि में सुला गया था यह वहाँ गहरी नींद में सो रहा है ॥ 8॥ पास आने पर उन्होंने विचार किया कि अभी यह सुख निद्रा से सो रहा है इसलिए स्वयं ही जगने दिया जाये । इस प्रकार कृष्ण को जगाने की उपेक्षा कर वे स्वयं ही उनके जागने की प्रतीक्षा करने लगे ॥9॥ जब कृष्ण बहुत देर तक नहीं जगे तब बलदेव ने कहा, वीर ! इतना अधिक क्यों सो रहे हो? बहुत हो गया, निद्रा छोड़ो और इच्छानुसार जल पिओ । इस प्रकार मधुर स्वर में एक-दो बार कहकर वे पुनः वचन रोककर चुप बैठ रहे ॥10॥
तदनंतर बलभद्र ने देखा कि तीक्ष्ण मुख वाली काली एक मक्खी रुधिर की गंध से कृष्ण के ओढ़े हुए वस्त्र के भीतर घुस तो गयो पर निकलने का मार्ग न मिलने से व्याकुल हो रही है ॥ 11 ॥ यह देख उन्होंने शीघ्र ही कृष्ण का मुख उघाड़ा और उन्हें निष्प्राण देख हाय मैं मारा गया यह कहकर वे एकदम चीख पड़े । हाय-हाय ! यह कृष्ण प्यास से मर ही गया है । यह सोच वे उनके शरीर पर गिर पड़े ॥ 12 ॥ कृष्ण के मोह से जिनका मन अत्यंत मोहित हो रहा था ऐसे बलदेव को तत्काल मूर्छा आ गयी । यद्यपि मूर्छा का आना अनिष्ट था तथापि उस समय उसने इनका बड़ा उपकार किया । अन्यथा स्नेहरूपी पाश से दृढ़ बंधे हुए बलदेव अवश्य ही प्राण त्याग कर देते ॥ 13 ॥ सचेत होने पर वे अपने हाथ से चारों ओर कृष्ण के शरीर का स्पर्श करने लगे । उसी समय उन्होंने तीव्र गंध से युक्त, रुधिर से लाल-लाल पैर का घाव देखा ॥14॥ और देखते ही निश्चय कर लिया कि सोते समय ही किसी ने तीक्ष्ण बाण से इसे पैर में प्रहार किया हैं । जिनका जागना कठिन है ऐसे कृष्ण को मारने वाला कौन पुरुष आज यहाँ शिकार के फल को प्राप्त हुआ है ? ॥15॥ इस प्रकार कहकर बलवान् बलदेव ने कुपित हो ऐसा भयंकर सिंहनाद किया जो समस्त वन में व्याप्त हो गया तथा जिसने वन के दुर्गम स्थानों में चलने वाले व्याघ्र, सिंह और हाथियों का गर्व नष्ट कर दिया ॥16 ꠰। उन्होंने कहा कि भाग्य के फेर से सोते हुए मेरे छोटे भाई को जिस किसी अकारण वैरी ने छल से मारा है वह आज शीघ्र ही मुझे दर्शन दे― मेरे सामने आवे ॥17॥ यशरूपी धन को धारण करने वाले शूरवीर ऐसे शत्रु को भी नहीं मारते जो सो रहा हो, शस्त्ररहित हो, नम्रीभूत हो, मानरहित हो, बार-बार पीठ दिखाकर भाग रहा हो, अनेक विघ्नों से युक्त हो, स्त्री हो अथवा बालक हो ॥18॥ इस प्रकार जोर-जोर से कहते हुए वे इधर-उधर कुछ दूर तक आकर दौड़े भी परंतु जब उन्हें किसी दूसरे का मार्ग नहीं मिला तब वे कृष्ण के पास वापस आकर तथा उन्हें गोद में लेकर रोने लगे ॥19॥
― हाय जगत् के प्रिय ! हा जगत् के स्वामी ! हा समस्त जनों को आश्रय देने वाले ! हा जनार्दन ! तू मुझे छोड़ कहां चला गया ? हाँ भाई ! तू जल्दी आ, जल्दी आ― इस प्रकार कहते हुए वे चिरकाल तक रोते रहे ॥20॥ वे चेतनाशून्य― निर्जीव कृष्ण को सुंदर एवं संताप को दूर करने वाला पानी बार-बार पिलाते थे परंतु जिस प्रकार दूरानुदूर भव्य के हृदय में सम्यग्दर्शन नहीं प्रवेश करता है उसी प्रकार उनके गले में वह जल थोड़ा भी प्रवेश नहीं करता था ॥ 21 ॥ मूढ़बुद्धि बलदेव सामने बैठकर कोमल हाथों से उनका मुख धोते थे, हर्षपूर्वक उसे देखते थे, चूमते थे, सूँघते थे और वचन सुनने की इच्छा करते थे । आचार्य कहते हैं कि ऐसी आत्म-मूढ़ता को धिक्कार है ॥ 22 ॥ ‘स्वर्ग के समान विशाल वैभव से युक्त द्वारिकापुरी अग्नि से भस्म हो गयी है इसलिए अब जीने की क्या आवश्यकता है‘ ? यह सोचकर क्या तू तप्त हो रहा है ? अरे नहीं भाई ! नाना प्रकार की अविनाशी खानों से युक्त भरतक्षेत्र की भूमि पहले के समान अब भी मौजूद है ꠰ ॥23॥ भोजराज का कुल तथा समस्त यादवों का क्षय हो जाने से मैं बंधु रहित हो गया हूँ यह सोचकर क्या तू मोह को प्राप्त हो रहा है ? पर ऐसा करना उचित नहीं । हे दृढ़प्रतिज्ञ ! यदि तू और मैं जीवित हूँ तो समझ कि हमारे समस्त बंधुओं का समूह जीवित है ॥ 24 ॥ अनेकों पूर्वजन्म में तथा इस जन्म में भी निरंतर मेरी ओर तू स्थिर नयन होकर देखता रहा फिर भी तुझे तृप्ति नहीं हुई फिर आज तू तृप्त कैसे हो गया ? ॥25॥ हाय ! मोहवश तुझे अकेला छोड़ पानी के लिए गये हुए मैंने लोक के सारभूत नररूपी रत्नों का आभूषण अपहृत करा लिया । अन्यथा मेरे पास रहते इसे हरने वाला कौन था ? ॥26॥ अरे भाई ! तू तो कंस के क्रोध और मदरूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए वज्रस्वरूप था । भूमिगोचरी और विद्याधररूपी सर्पों को नष्ट करने के लिए गरुड़ स्वरूप था और जरासंध के यशरूपी सागर को पीने वाला था पर खेद है कि तू इस गोष्पद में डूब गया ॥27॥
हे नारायण ! देख, जो सूर्य तेरे समान अपने उग्र तेज से शत्रु तुल्य रात्रि के अंधकार को नष्ट कर संसार को संतप्त करता है वही अब अस्ताचल की ओर जा रहा है ॥ 28 ।꠰ इस सूर्य ने तुझे दीर्घनिद्रा में निमग्न देखकर ही मानो अपने किरणरूपी हाथ अन्य स्थानों से संकोचकर अस्ताचलरूपी मस्तक पर रख छोड़े हैं और उनसे ऐसा जान पड़ता है मानो तेरे प्रति शोक ही कर रहा है । सो ठीक ही है क्योंकि तेरा यह सोना तीनों लोकों में किसके शोक के लिए नहीं है ? ॥29॥ जो वारुणी-पश्चिम दिशारूपी मदिरा का अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है तथा आंसुओं से युक्त चक्रवाक पक्षियों का समूह जिसकी दशा पर शोक प्रकट कर रहा है ऐसा यह सूर्य नीचे गिरा जा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी ( मदिरा ) का प्रेमी कौन व्यक्ति नीचे नहीं गिरता है ? ॥30॥ अथवा यह सूर्य, इस समय शोक का भार दूर कर समुद्र में अवगाहन कर रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो स्नान कर तुझे जलांजलि ही देना चाहता है । ठीक ही है क्योंकि काल को जानने वाला पुरुष यथायोग्य कार्य करता ही है ॥31॥ हे भाई ! देख, यह समस्त संसार संध्या की लाली से सब ओर से आच्छादित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे दीर्घ निद्रा में निमग्न होने पर संसार के सब मनुष्यों के रोदनजन्य नेत्रों की लालिमा से ही मानो लाल-लाल हो रहा है ॥32॥ हे देवभक्त ! यह संध्या भी फीकी पड़ बड़े वेग से जाते हुए सूर्य के रथ के पीछे-पीछे चली जा रही है । उठ संध्या-वंदन कर । हे देव ! व्यर्थ को निद्रा से क्या कार्य सिद्ध होता है ? ॥33॥ जो अतिदुःषमा नामक छठे काल के समान समस्त जगत् को एक वर्ण (ब्राह्मणादि वर्ण के भेद से रहित) एक वर्णरूप, पक्ष में एक श्यामवर्ण रूप कर रही है, अतिशय दुष्ट है, एवं अपेतदर्शना― सम्यग्दर्शन से रहित (पक्ष में देखने की शक्ति से रहित) है ऐसी यह अंधकार की संतति बड़े वेग से सब ओर फैल रही है ॥34॥ देखो, ये घ्राणेंद्रिय और कर्णेंद्रिय के बल से युक्त जंगली जानवर अपने पैरों की गंध और शब्द को ग्रहण कर इस ओर आ रहे हैं इसलिए आओ इस दुर्ग में चलें वहाँ अपनी रात्रि कुशलपूर्वक बीत जायेगी ॥35॥ हे भाई! जो तू फूलों से चित्र-विचित्र, आश्चर्यकारी मंडप में बंधुजनों तथा राजाओं को दर्शन देता था और लक्ष्मी को पुष्ट करने वाले, अत्यंत कोमल एवं तकियों से सुशोभित शय्या पर स्त्रीजनों के साथ शयन करता था हे लक्ष्मीपते ! वही तू आज पर्वत और वन को गुफाओं में रहने वाले गीध, कौवे तथा शृगाल आदि भक्षक जंतुओं के समूह से सेवित होता हुआ कंकरीली-पथरीली भूमि पर सो रहा है ॥36-37॥ जो तू पहले प्रणय-क्रीड़ा से कुपित स्त्रियों को प्रसन्न करता था और तेरे कुपित हो जाने पर वे तुझे प्रसन्न करती थीं और इस तरह रति-क्रीड़ा से रात्रि व्यतीत करता था वही तू आज चेतना से रहित हो रात्रि व्यतीत कर रहा है ॥38॥ हे वीर ! जो तू पहले प्रातःकाल में सुंदर वारवनिताओं के सुसंगीतों एवं वंदीजनों के उच्च पाठों के शब्दों से प्रबोध को प्राप्त होता था― जागता था, वही तू आज शृंगालियों के विरस शब्दों से प्रबोध को प्राप्त हो रहा है ॥39॥ हे भाई ! अब प्रातःकाल हुआ चाहता है । पूर्व सूर्यरूप पति के द्वारा प्रेषित अनुरागवती संध्या भी लाल हो रही है सो ऐसी जान पड़ती है मानो तुम्हारा समाचार जानने के लिए ही सूर्य ने उसे पहले से भेजा है अतः शय्या से विरक्त होओ― उठ कर बैठो ॥40॥ देखो, यह उदयाचल से सूर्य उदित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो इस समय तुझ प्रधान पुरुष के लिए अपनी किरणों से विकसित कमलों की लक्ष्मी से युक्त अर्घ देने के लिए ही शीघ्रता से बढ़ा आ रहा है ॥ 41 ॥
बलभद्र को कृष्ण प्राणों से अधिक प्यारे थे इसलिए उन्होंने उन्हें जगाने के लिए सैकड़ों प्रियवचन कहे परंतु जिस प्रकार पहले से प्रगाढ़ नींद में सोये भोले-भाले बालक के विषय में कहे प्रियवचन निष्फल जाते हैं उसी प्रकार उनके वे प्रियवचन निष्फल गये ॥42॥ जिस प्रकार जन्मकाल में कंस के भय से बलभद्र ने कृष्ण को अपने भुजरूप पंजर के मध्य में ले लिया था तथा वसुदेव ने उन पर छत्र लगा लिया था उसी प्रकार अब भी उन्होंने स्पर्शनेंद्रिय संबंधी सुख का अनुभव करते हुए उन्हीं भुजरूप पंजर के मध्य में ले लिया और लेकर वे वन के मध्य में इधर-उधर घूमने लगे ॥43॥
इस प्रकार अनेक दिन-रात व्यतीत होने पर भी उनके मन, वचन और शरीर में जरा भी आलस्य नहीं आया― वे प्रतिदिन कृष्ण के शव को धारण किये हुए वन में घूमते रहें तथा रंचमात्र भी प्रीति को प्राप्त नहीं हुए ॥44॥
जब ग्रीष्मऋतु चली गयी और आतप के वैभव को नष्ट करने वाली वर्षा ऋतु ने गरजते बादलों की घटा तथा जलवर्षा से जगत् में, जहां-तहाँ हर्ष प्राप्त करा दिया तब कृष्ण के कहे अनुसार भील के विषम वेष को धारण करता हुआ जरत्कुमार अखंडितरूप से सुंदर लोगों से व्याप्त पांडवों की पुरी दक्षिण मथुरा में पहुंचा ॥ 45-46 ॥
कृष्ण के दूत का कार्य करने वाले जरत्कुमार ने पांडवों की सभा में प्रवेश कर विनयपूर्वक दूत की सब मर्यादाओं का पालन किया । तदनंतर जब वह सभा में बैठ गया तब युधिष्ठिर आदि ने उससे स्वामी की कुशल-वार्ता पूछी ॥47॥ शोक से जिसका कंठ रुंध गया था तथा स्वर गद्गद हो गया था ऐसे जरत्कुमार ने द्वारिका तथा कुटुंबी जनों के जल जाने और अपने प्रमाद से कृष्ण के मारे जाने का सब समाचार कह दिया और विश्वास दिलाने के लिए देदीप्यमान किरणों से युक्त, कृष्ण का दिया कौस्तुभमणि उनके सामने दिखा दिया । तदनंतर बहुत भारी दुःख से भरा जरत्कुमार गला फाड़-फाड़कर जोर से रोने लगा ॥48-49 ॥ उसी समय माता कुंती तथा पांडवों की स्त्रियों के कंठ से उत्पन्न रोने का विशाल शब्द उठ खड़ा हुआ । यही नहीं, उस समय जो वहाँ विद्यमान थे वे सभी रोने लगे जिससे पांडवों के भवन में समुद्र-जैसी ध्वनि गूंज उठी ॥50॥ वे सब रोते-रोते कह रहे थे कि हा प्रधानपुरुष ! हा अद्वितीयधीर ! हा जगत् का कष्ट दूर करने में सदा उद्यत रहने वाले ! विधि ने तुम्हारे ऊपर यह क्या चेष्टा की । हाय-हाय, बड़े दुःख की बात है इस प्रकार चिरकाल तक रुदन चलता रहा ॥51॥
तदनंतर जब रोना-चीखना बंद हुआ तब जगत् का वृत्तांत जानने वाले पांडव आदि बांधवों ने सब ओर घेरकर बैठे आत्मीयजनों के संतोष के अर्थ कृष्ण के लिए जल दिया ॥52॥ पहले का निंद्य वेष दूर कर जिसने मानसिक व्यथा को कुछ-कुछ कम कर दिया था ऐसे जरत्कुमार को आगे कर पांडव लोग दुःख से पीड़ित बलदेव को देखने की इच्छा से चले ॥53॥ द्रौपदी आदि रानियों, माता-पुत्रों एवं सेना के साथ बड़ी शीघ्रता से चलकर कुछ दिनों बाद उन्होंने वन में बलदेव को प्राप्त कर देखा । उस समय बलदेव कृष्ण के मृत शरीर को उबटन लगाना, स्नान कराना तथा आभूषण पहनाना आदि व्यर्थ क्रियाएँ कर रहे थे । उन्हें देख सब बंधुजन आदर के साथ उनसे लिपट गये और उच्च शब्द कर चिरकाल तक रोते रहे ॥54-55॥ कुंती और उनके पुत्रों ने नमस्कार कर बलदेव से कृष्ण के दाह-संस्कार को प्रार्थना की परंतु जिस प्रकार बालक विषफल को नहीं देता है उलटा कुपित होता है उसी प्रकार बलदेव ने भी मांगने पर कृष्ण का मृतक शरीर नहीं दिया, उलटा क्रोध प्रकट किया ॥56 ॥ बलदेव ने कहा कि हे पांडवो ! स्नान की शीघ्र तैयारी करो और फिर उत्तम भोजन-पान की व्यवस्था करो, हमारा प्रभु ( कृष्ण ) प्यासा है तथा शीघ्र ही भोजन करना चाहता है । बलदेव के इस प्रकार कहने पर पांडवों ने स्नान तथा भोजन-पान की तैयारी की ॥57॥
बलदेव ने कृष्ण को आसन पर बैठाकर नहलाया, भोजन कराया और पानी पिलाया परंतु उनका वह सब प्रयत्न व्यर्थ गया । यद्यपि पांडव भी बलदेव के इस कार्य को व्यर्थ मानते थे तथापि वे उनके कहे अनुसार आचरण कर अपने आपको कृतकृत्य मानते थे ॥58॥ इस प्रकार बलदेव के पीछे-पीछे चलने वाले पांडवों ने उनके कहे अनुसार कार्य कर उस वन में वर्षाकाल पूर्ण किया । तदनंतर उनके मोहरूपी मेघपटल को भेदने के लिए शरदकाल प्रकट हुआ ॥59॥ पहले कृष्ण के शरीर से सदा सप्तपर्ण के समान सुगंधि आती थी परंतु उस समय दुर्गंध आने लगी और वह दुर्गंध दूर देश तक फैल गयी सो ठीक ही है क्योंकि दोनों गंधों की एक साथ स्थिति नहीं होती ॥60॥
अथानंतर― कृष्ण का भाई सिद्धार्थ, जो सारथि था, मरकर स्वर्ग में देव हुआ था और जिसने दीक्षा लेते समय संबोधने की व्यवस्था स्वीकृत की थी, काललब्धि की निकटता से संबोधने के लिए बलदेव के निकट आया ॥61॥ उसने एक मायामयी ऐसा रथ बलदेव के लिए दिखाया जो पर्वत के अत्यंत विषम तट को पार कर तो टूटा नहीं और सम-चौरस मार्ग पर आते ही टूट गया । वह देव उस रथ को संधि को फिर से ठीक कर रहा था परंतु वह ठीक होता नहीं था ॥62 ॥ बलदेव ने यह देख उससे कहा कि हे भाई! बड़ा आश्चर्य है जो तेरा रथ पर्वत के विषम तट पर तो टूटा नहीं और वह समान मार्ग में टूट गया । अब इसका इस जन्म में फिर से खड़ा होना कैसे संभव है ? इसे ठीक करने का तेरा प्रयत्न व्यर्थ है ॥63 ॥ इसके उत्तर में उस देव ने कहा कि जो कृष्ण महाभारत-जैसे रण का पारदर्शी है अर्थात् उतने विकट युद्ध में जिसका बाल बांका नहीं हुआ, वह जरत्कुमार के हाथ में स्थित धनुष से छूटे बाण के लगने मात्र से नीचे गिर गया । अब इस जन्म में उसका फिर से उठना कैसे संभव हो सकता है ? ॥64॥ इतना कह वह देव, जहाँ पानी का अंश भी नहीं था ऐसे शिलातल पर कोमल कमलिनी लगाने लगा । यह देख बलदेव ने पूछा कि शिलातल पर कमलिनी की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ॥65॥ इसका उत्तरदेव ने दिया कि निर्जीव शरीर में कृष्ण की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर देने के बाद वह एक सूखे वृक्ष को सींचने लगा । बलदेव ने फिर पूछा― भाई ! सूखे वृक्ष को सींचने से क्या लाभ है ? इसका देव ने उत्तर दिया कि मृत कृष्ण को स्नानादि कराने से क्या लाभ है ? तदनंतर वह देव एक मरे बैल के शरीर को घास-पानी देने लगा । यह देख बलदेव ने फिर पूछा कि अरे मूर्ख ! इस मृतक शरीर को घास-पानी देने से क्या लाभ है ? इसके उत्तर में देव ने कहा कि मृतक कृष्ण को आहार-पानी देने से क्या लाभ है ? इस प्रकार उस देव ने बड़ी कठिनाई से बलदेव को समझाया ॥66॥ प्रतिबोध को प्राप्त हुए बलदेव कहने लगे कि कृष्ण सचमुच ही प्राणरहित हो गया है । हे भद्र मानुष ! तू जो कह रहा है वह ऐसा ही है, यही सत्य है, इसमें रंचमात्र भी अन्यथा बात नहीं है; हे सत्पुरुष ! हे भव्य ! तूने ठोक ही कहा है ॥67 । इसके उत्तर में देव ने कहा कि यहाँ जो कुछ हुआ है वह सब नेमिजिनेंद्र पहले ही कह चुके थे । संसार को स्थिति को जानते हुए भी आपने कृष्ण का मृत शरीर धारण कर छह माह व्यर्थ ही बिता दिये ॥68॥ इस संसार में कौन किसका बहिरंग हिंसक है ? अपना अंतरंग शुभ कर्म ही रक्षक है । यथार्थ में आयु ही अपनी रक्षा का कारण है, उसका क्षय होनेपर सब प्रकार से क्षय हो जाता है ॥69॥ संपत्ति हाथी के कान के समान चंचल है । संयोग, प्रियजनों के वियोग से दुःख देने वाले हैं और जीवन मरण के दुःख से नीरस है । एक मोक्ष ही अविनाशी है अतः विद्वज्जनों को उसे ही प्राप्त करना चाहिए ॥70॥ इस प्रकार पूर्वरूप को धारण करने वाले अपने वंश के देव से जिन्हें रत्नत्रय की प्राप्ति हुई थी और जिनका मोह दूर हो गया था ऐसे बलदेव, मेघपटल से रहित चंद्रमा के समान उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥7॥
तदनंतर जरत्कुमार और पांडवों के साथ उन्होंने तुंगीगिरि के शिखर पर कृष्ण का दाह संस्कार कर जरत्कुमार को राज्य दिया और जीवन को क्षणभंगुर समझ परिग्रह के त्याग का निश्चय कर साथियों के साथ उसी पर्वत के शिखर का आश्रय लिया । उन्होंने, मैं यहाँ रहता हुआ भी पल्लव देश में स्थित श्री नेमिजिनेंद्र की शिष्यता को प्राप्त हुआ हूँ यह कहकर पंच मुष्टियों से सिर के बाल उखाड़कर मुनि-दीक्षा धारण कर ली ॥ 72-74 ॥ बलदेव शरीर से अत्यंत सुंदर थे । इसलिए पारणाओं के लिए नगर में प्रवेश करते समय स्त्रियों की विपरीत चेष्टा होने लगी । यह जान त्रियोग को धारण करने वाले रणवती बलदेव यदि वन में भिक्षा मिले तो लेंगे अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा कर संतोष को प्राप्त हुए ॥75॥ पांडवों ने हरिवंश के राजा जरत्कुमार के लिए बहुत-सी राज-कन्याएँ दी अपने पत्रों के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपी और उसके बाद जिनेंद्र भगवान् को लक्ष्य कर सबके-सब पल्लव देश को ओर चले गये ॥ 76 ॥ संयम की ओर जिनकी बुद्धि लग रही थी ऐसी द्रौपदी आदि स्त्रियाँ तथा संसार से जिसकी बुद्धि विमुख हो गयी थी ऐसी माता कुंती भी पांडवों के पीछे-पीछे जा रही थीं ॥ 77॥
इधर अखंड चारित्र के धारक एवं मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप तीन दंडों का दृढ़ता के साथ खंडन करने में तत्पर मुनिराज बलदेव, सज्जनों को इष्ट अनित्यत्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओं के चिंतवन में व्याप्त हो गये ॥78॥ वे विचार करने लगे कि जिन महल, शरीर, धन, सांसारिक सुख और बंधुजनों में ये नित्य हैं, यह समझकर ममताभाव उत्पन्न होता है, उनमें आत्मा के सिवाय किसी में भी नित्यता नहीं है, सभी क्षणभंगुर हैं ॥79॥ जिस प्रकार व्याघ्र के मुख में पड़े मृग के बच्चे को कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के दुःख से पीड़ित मेरे लिए धम के सिवाय न भाई-बंधु शरण हैं और न धन ही शरण है । इस प्रकार वे अशरण अनुप्रेक्षा का चिंतवन करते थे ॥80॥ नाना योनियों और कुलकोटियों के समूह से मुक्त इस संसाररूपी चक्र के ऊपर चढ़े प्राणी, महाविषम कर्मरूपी मंत्र से प्रेरित हो स्वामी से भृत्य और पिता से पुत्र आदि अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं ॥81॥
यह जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है । एक धर्म को छोड़कर दूसरा इसका सहायक नहीं है । इस प्रकार वे एकत्व अनुप्रेक्षा का चिंतवन करते थे ॥82॥ मैं नित्य हूँ और शरीर अनित्य है । मैं चेतन हूँ और शरीर अचेतन है । जब शरीर से भी मुझमें भिन्नता है तब दूसरी वस्तुओं से भिन्नता क्यों नहीं होगी ? ॥83॥ यह अपना अथवा पराया शरीर रज, वीर्यरूप निंद्य निमित्तों से उत्पन्न है, सप्त धातुओं से भरा है एवं वात, पित्त, कफ इन तीन दोषों से युक्त है इसलिए ऐसा कौन पवित्र आत्मा होगा जो इस अपवित्र शरीर में वियोग के समय शोक को प्राप्त होगा और संयोग के समय राग करेगा ? ॥84॥ काययोग, वचनयोग और मनोयोग यह तीन प्रकार का योग ही आस्रव है । इसी के निमित्त से आत्मा में पुण्य और पापकर्म का आगमन होता है । आस्रव के बाद यह जीव कर्मबंधनरूप दृढ़ सांकल से बद्ध होकर भयंकर संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है ॥85॥ द्रव्यास्रव और भावास्रवरूप दोनों प्रकार के आस्रव का रुक जाना संवर है । यह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से होता है । निर्जरा के साथ-साथ संवर के हो जाने पर यह जोव स्वकृत कर्मों का क्षय कर सिद्ध हो जाता है ॥86॥ अनुबंधिनी और निरनुबंधिनी के भेद से निर्जरा के मूल में दो भेद हैं । फिर अनुबंधिनी निर्जरा के अकुशला और कुशला के भेद से दो भेद हैं । नरकादि गतियों में जो प्रतिसमय कर्मों की निर्जरा होती है वह अकुशलानुबंधिनी निर्जरा है और संयम के प्रभाव से देव आदि गतियों में जो निर्जरा होती है वह कुशलानुबंधिनी निर्जरा है । जिस निर्जरा के बाद पुनः कर्मों का बंध होता रहता है वह अनुबंधिनी निर्जरा है और जिस निर्जरा के बाद पूर्वकृत कर्म खिरते तो हैं पर नवीन कर्मो का बंध नहीं होता उसे निरनुबंधिनी निर्जरा कहते हैं ।
परम योगी बलदेव मुनिराज ने इसी निरनुबंधिनी अनुप्रेक्षा का चिंतवन किया था ॥87 ॥ लोक की स्थिति अनादि, अनंत है, यह लोक अलोकाकाश के ठीक मध्य में स्थित है । इस लोक के भीतर छह काय के जीव निरंतर दुःख भोगते रहते हैं, ऐसा चिंतवन करना लोकानुप्रेक्षा है ॥ 88॥ प्रथम तो निगोद से निकलकर अन्य स्थावरों में उत्पन्न होना ही दुर्लभ है फिर त्रसपर्याय पाना दुर्लभ है, त्रसों में भी इंद्रियों की पूर्णता होना दुर्लभ है और इंद्रियों की पूर्णता होनेपर भी समीचीन धर्म जिसका लक्षण है एवं उत्तम समाधि का प्राप्त होना जिसका फल है ऐसी बोधि अर्थात् रत्न त्रय की प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है ॥ 89॥ जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ यह अहिंसादि लक्षण धर्म ही मोक्षप्राप्ति का कारण है । इसका त्याग करने से संसार का दुःख प्राप्त होता है-इस प्रकार चिंतवन करना सो अंतिम धर्मानुप्रेक्षा है ॥90॥ इस प्रकार परंपरा से प्रसिद्ध अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिंतवन करने वाले उत्कृष्ट बुद्धि के धारक बलदेव मुनिराज ने बाईस परीषहरूपी शत्रुओं को जीतकर भाई के मोह को जीत लिया ॥91 ॥ नाना प्रकार के नियम-आखड़ी आदि के लेने से उनकी जठराग्नि अत्यधिक प्रज्वलित रहती थी । उतने पर भी वे मोक्ष की सिद्धि के लिए भूख से आधा ही भोजन करते थे । इस प्रकार वे महामुनि क्षुधापरीषह को जीतते थे ॥ 92॥ प्रतिकार रहित धैर्य के धारक बलदेव मुनिराज, शांति रूपी घनघटा से अभिषिक्त होने के कारण शरीररूपी पर्वत के अवयवभूत अटवी को जलाने वाली दावानल के समान तीव्र प्यास से पीड़ित नहीं होते थे इस प्रकार वे तृषापरीषह पर विजय प्राप्त करते थे ॥93 ॥ तीव्र वायु और हिमवर्षा के समय रात-दिन खुले चबूतरे पर बैठकर तथा वायु और वर्षा से विषम वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठकर वे कठोर शीत परीषह के साथ युद्ध करते थे ॥94॥ ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के ऊंचे शिखर पर स्थित होकर वे चारों ओर से उष्ण परीषह सहन करते थे । उस समय उनके ऊपर दावानल का धुआं छा जाता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे छतरी की छाया से गरमी की बाधा को ही दूर कर रहे हों ॥ 95॥ चुपके-चुप के आने वाले हड्डीरहित जंतुओं-डांस, मच्छरों से उनका रुधिर खूब पिया गया फिर भी वे निश्चल रहते थे । इस प्रकार उन्होंने दंश, मशक नामक कठिन परीषह को बड़ी दृढ़ता से सहन किया था ॥96॥ जो शरीर में संलग्न था, अपायरहित होनेपर भी विश्वास के योग्य नहीं था, जिसका एक दिन भी पालन करना कठिन था एवं जो उत्तम स्त्री के समान लज्जा से सहित था, ऐसे नाग्न्यपरीषह को वे अपनी इच्छानुसार सहन करते थे ॥97॥ वे ध्यान के योग्य पहाड़ी मार्ग एवं वन की दुर्गम भूमियों में अकेले ही विहार कर सदा धर्मसाधन में प्रीति रखते थे और शत्रु की तरह रति परीषह के निग्रह करने में संलग्न रहते थे ॥98॥ भृकुटि लतारूपी कुटिल धनुष पर चढ़ाये हुए स्त्रियों के कटाक्षरूपी बाणों की वर्षा करने वाले कामदेवरूपी योधा को व्यर्थ करने वाले उन मुनिराज ने अतिशय बलवान् स्त्री-परीषह को जीता था ॥ 99 ॥
वे संयमी मनुष्यों के आवश्यक कार्यों में हानि न कर सवारी आदि का विचार किये बिना ही तीर्थ क्षेत्रों के लिए विहार करते थे और चर्या-परीषह से कभी खेद खिन्न नहीं होते थे ॥100॥ प्रासुक और एकांत भूमियों में ध्यान करने से जिनकी बुद्धि अत्यंत निर्मल हो गयी थी तथा जो उत्कृष्ट बुद्धि के धारक थे ऐसे बलदेव मुनिराज क्षेत्र अथवा काल में निश्चित आसनों के बीच निषद्या-परीषह से कभी दुःखी नहीं होते थे ॥101॥ वे मुनि ध्यान और अध्ययन में सदा निमग्न रहते थे, इसलिए रात्रि के समय क्रम-क्रम से बहुत थोड़ी निद्रा लेते थे वह भी पृथिवीरूपी शय्या पर एक करवट से और बिना कुछ ओढ़े हुए । इस प्रकार वे शय्या-परीषह से कभी पीड़ित नहीं होते थे ॥102॥
धीर-वीर बुद्धि को धारण करने वाले बलदेव मुनिराज दुर्जनों के द्वारा तीक्ष्ण कुवचनरूपी शस्त्रों से हृदय में घायल होने पर भी कुवचनों की बाधा सहते हुए सदा इस बात का स्मरण रखते थे कि मुझे क्षमा से युक्त होना चाहिए ॥103 ॥ वे मुनि सदा ऐसी बुद्धि धारण करते थे कि यदि अस्त्र और शस्त्र के समूह से मेरा शरीर वध को प्राप्त होता है तो भी मुझे अच्छी तरह वध-परीषह सहन करना चाहिए ॥104॥ बाह्य और अभ्यंतर तप को करने वाले वे मुनि, हड्डीमात्र अवशिष्ट शरीर की स्थिरता के लिए यद्यपि चरणानुयोग की पद्धति से उद्यम करते थे― चर्या के लिए जाते थे पर कभी किसी से आहार आदि की याचना नहीं करते थे, इस प्रकार वे याचना-परीषह को जीतते थे॥105 ॥ वे मौन से आहार के लिए विहार करते थे, अपना शरीरमात्र दिखाते थे, चांद्री-चर्या से युक्त रहते थे अर्थात् चंद्रमा के समान अमीर-गरीब सभी के घर प्रवेश करते थे और लाभ-अलाभ में प्रसन्न रहते थे, इस प्रकार उन्होंने अलाभ-परीषह को जीत लिया था ॥ 106 ॥ वे रूखे, शीतल एवं प्रकृति के विरुद्ध आहार तथा वात, पित्त और कफ के प्रकोप से उत्पन्न रोग का प्रतिकार नहीं करते थे । सदा उसकी उपेक्षा ही करते थे । इस प्रकार रोग-परीषह को उन्होंने अच्छी तरह जीत लिया था ॥107॥ शयन, आसन आदि के समय कठोर लाख के कण, तृण तथा कंकड़ आदि के द्वारा पीड़ित होनेपर भी उनके अंतरंग में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता था और भी तृणस्पर्श-परीषह को अच्छी तरह सहन करते थे ॥108 ॥ जो हाथ के नाखूनों से शरीर का कभी स्पर्श नहीं करते थे नखों से शरीर का मल नहीं छुटाते थे ऐसे मैल से आवृत शुभ्रकाय मुनिराज, पहाड़ की ऊंची चोटी पर स्थित काले-काले मेघों के पटल से ढंके चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥109॥ यदि दूसरे लोग उनका आदर करते थे, तो उन्हें प्रसन्नता नहीं होती थी और अनादर करते थे तो मन में विकार भाव नहीं लाते थे । आदर और अनादर दोनों में ही अपनी बुद्धि को सदा विशुद्ध रखते थे, इस तरह वे सत्कार पुरस्कार-परीषह को अच्छी तरह सहन करते थे ॥110॥ इस समय पृथिवी पर मुझसे बढ़कर न कोई वादी है, न वाग्मी है, न गमक है और न महाकवि है । इस प्रकार के अहंकार को उन्होंने प्रज्ञा-परीषह के द्वारा किंचित् भी दूषित नहीं होने दिया था ॥111 ॥ यह अज्ञानी न पशु है, न मनुष्य है, न देखता है, न बोलता है, व्यर्थ ही इसने मौन ले रखा है । इस प्रकार के अज्ञानी जनों के वचनों की परवाह न कर वे अज्ञान-परीषह को सहन करते थे ॥ 112 ॥ उग्र तप के प्रभाव से पहले बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती थीं यह कहना व्यर्थ है क्योंकि आज तक हमें एक भी ऋद्धि की प्राप्ति नहीं हुई । इस प्रकार शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले बलदेव मुनिराज कभी नहीं कहते थे । इस तरह उन्होंने अदर्शन परीषह को अच्छी तरह सहन किया था ॥113॥ इस प्रकार जिन्होंने परीषहरूपी शत्रुओं को समाप्त कर दिया था । जो पंचेंद्रियों के विषयरूपी दोष को हरने वाले थे, शरीर से अत्यंत सुंदर थे, और जिनेंद्रप्रणीत सम्यक् चारित्र की भूमिका में विहार करने वाले थे ऐसे मुनिराज बलदेव ने चिरकाल तक तप किया ॥114॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में बलदेव के तप का वर्णन करने वाला त्रैसठवां सर्ग समाप्त हुआ ॥63॥