एषणा: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> एक समिति । शरीर की स्थिरता के लिए पिंडशुद्धिपूर्वक मुनि का छियाछीस दोषों से रहित आहार ग्रहण करना । छियालीस दोषों में सोलह उद्गम दोष सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष और चार दानी दोष होते हैं । <span class="GRef"> पद्मपुराण 14.108, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.124, 9.187-188, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 9.93 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> एक समिति । शरीर की स्थिरता के लिए पिंडशुद्धिपूर्वक मुनि का छियाछीस दोषों से रहित आहार ग्रहण करना । छियालीस दोषों में सोलह उद्गम दोष सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष और चार दानी दोष होते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#108|पद्मपुराण - 14.108]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.124, 9.187-188, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 9.93 </span></p> | ||
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Revision as of 22:16, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
धवला पुस्तक 13/5,4,26/55/2
किमेसणं, असण-पाण खादिय-सादियं।
= प्रश्न-ऐषणा किसे कहते हैं? उत्तर-अशन, पान, खाद्य और सवाद्य इनका नाम एषणा है।
2. आहार का एक दोष-
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 231
चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ॥23॥
= चौदह मल दोषों से रहित, यतन से शोध कर संयमी जन को आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए।
अधिक जानकारी के लिये देखें आहार - 2.3।
3. वस्तिका का एक दोष-
भगवती आराधना/636-638/836 उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु । वसइ असंसत्तए ण्णिप्पाहुडियाए-सेज्जाए ।636। सुहणिक्खवणपवेसुणघणाओ अवियडअणंधयाराओ ।637। घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढग-णजोग्गे ।638।
जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जंतुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं ।
अधिक जानकारी के लिये देखें वस्तिका '।
आहार संबंधी विषय - देखें आहार ।
लोकेषणा-देखें राग - 4।
समिति - देखें समिति - 1।
शुद्धि - देखें शुद्धि ।
पुराणकोष से
एक समिति । शरीर की स्थिरता के लिए पिंडशुद्धिपूर्वक मुनि का छियाछीस दोषों से रहित आहार ग्रहण करना । छियालीस दोषों में सोलह उद्गम दोष सोलह उत्पादन दोष, दस एषणा दोष और चार दानी दोष होते हैं । पद्मपुराण - 14.108, हरिवंशपुराण 2.124, 9.187-188, पांडवपुराण 9.93