अंतराय: Difference between revisions
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<p class="HindiText">अंतराय नाम विघ्न का है। जो कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है, उसको अंतराय कर्म कहते हैं। साधुओं की आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चिंटी आदि पड़ जाने के कारण जो बाधा आती है उसे अंतराय कहते हैं। दोनों ही प्रकार के अंतरायों के भेद-प्रभेदों का कथन इस अधिकार में किया गया है।</p> | <p class="HindiText">अंतराय नाम विघ्न का है। जो कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है, उसको अंतराय कर्म कहते हैं। साधुओं की आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चिंटी आदि पड़ जाने के कारण जो बाधा आती है उसे अंतराय कहते हैं। दोनों ही प्रकार के अंतरायों के भेद-प्रभेदों का कथन इस अधिकार में किया गया है।</p> | ||
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<div class="HindiText"> <p> ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों मे आठवां कर्म । यह इष्ट पदार्थों की प्राप्ति में विघ्नकारी होता है । इसके पाँच भेद होते हैं—दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और मध्यम स्थिति विविध रूपा होती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.95-98, 58.218 280-287 | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों मे आठवां कर्म । यह इष्ट पदार्थों की प्राप्ति में विघ्नकारी होता है । इसके पाँच भेद होते हैं—दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और मध्यम स्थिति विविध रूपा होती है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#95|हरिवंशपुराण - 3.95-98]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#218|58.218]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_58#280|58.280-287]] </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.156-160 </span>देखें [[ कर्म ]]।</p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
अंतराय नाम विघ्न का है। जो कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है, उसको अंतराय कर्म कहते हैं। साधुओं की आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चिंटी आदि पड़ जाने के कारण जो बाधा आती है उसे अंतराय कहते हैं। दोनों ही प्रकार के अंतरायों के भेद-प्रभेदों का कथन इस अधिकार में किया गया है।
1. अंतराय कर्म
1. अंतराय कर्म का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/27
विघ्नकरणमंतरायस्य ॥27॥
= विघ्न करना अंतराय का कार्य है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/10/327) (राजवार्तिक अध्याय 6/10/4/517/17) (धवला पुस्तक 13/5,5,137/390/4) (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या.800/979/8)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/13/394
दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेशः॥
- दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से यह अर्थात् अंतराय संज्ञा मिली है।
धवला पुस्तक 13/5,5,137/389/12
अंतरमेति गच्छतीत्यंतरायः।
= जो अंतर अर्थात् मध्य में आता है वह अंतराय कर्म है।
2. अंतराय कर्म के भेद
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/13
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।
= दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनके पाँच अंतराय हैं।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1234) (पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 2/4) (षट्खंडागम पुस्तक 6/1,9-1/सूत्र 46/78); (षट्खंडागम पुस्तक 12/2,4,14/22/485) ( धवला पुस्तक 13/5,5,137/389/9) ( पंचसंग्रह / अधिकार 2/334); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 33/27/2)
3. दानादि अंतराय कर्मों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/13/394/6
यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुंक्ते, उपभोक्तुमभिवांछन्नपि नीपभुंक्ते, उत्सहितुंकामोऽपि नीत्सहते।
= जिसके उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ भी नहीं कर पाता है, भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, और उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/13/2/580/32) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या.33/30/18)
4. अंतराय कर्म का कार्य
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 5/59
अंतराय कर्म के उदय से जीव चाहै सो न होय। बहुरि तिसहो का क्षयोपशमतैं किंचित् मात्र चाहा भी होय।
5. अंतराय कर्म के बंध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 6/27
विघ्नकरणमंतरायस्य ॥27॥
= दानादि में विघ्न डालना अंतराय कर्म का आस्रव है।
राजवार्तिक अध्याय 6/27/1/531/30
तद्विस्तरस्तु विव्रियते - ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात-दानलाभभोगोपभोगवीर्यस्नानानुलेपनगंधमाल्याच्छादनविभूषणशयनासनभक्ष्यभोज्यपेयलेह्यपरिभोगविघ्नकरण - विभवसमृद्धि - विस्मय - द्रव्यापरित्याग - द्रव्यासंप्रयोगसमर्थनाप्रमावर्णवाद - देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण - निरवद्योपकरणपरित्याग - परवीर्यापहरण - धर्मव्यवच्छेदनकरण - कुशलाचरणतपस्विगुरुचैत्यपूजाव्याघात - प्रव्रजितकृपणदोनानाथवस्त्रपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रियापरनिरोधबंधनगुह्यांगछेदन - कर्ण - नासिकौष्ठकर्तन - प्राणिवधादिः।
= उसका विस्तार इस प्रकार है - ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गंध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभव समृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग न करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवता के लिए निवेदित या अनिवेदित द्रव्य का ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्र वाले तपस्वी, गुरु तथा चेत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दीन, अनाथ को दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र, आश्रय आदि में विघ्न करना, पर निरोध, बंधन, गुह्य अंगच्छेद, नाक, ओठ आदि का काट देना, प्राणिवध आदि अंतराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।
(तत्त्वार्थसार अधिकार 4/55-58) ( गोम्मटसार कर्मकांड/ जीव तत्त्व प्रदीपिका मूल 810/985)
2. आहार संबंधी अंतराय
1. श्रावक संबंधी पंचेंद्रियगत अंतराय
1. सामान्य 6 भेद
लांटी संहिता अधिकार 5/240
दर्शनात्स्पर्शनाच्चैव मनसि स्मरणादपि। श्रवणाद्गंधनाच्चापि रसनादंतरायकाः ॥240॥
= श्रावकों के लिए भोजन के अंतराय कई प्रकार के हैं।
- कितने ही अंतराय देखने से होते हैं,
- कितने ही छूने से वा स्पर्श करने से होते हैं,
- कितने ही मन में स्मरण कर लेने मात्र से होते हैं,
- कितने ही सुनने से होते हैं,
- कितने ही सूंघने से होते हैं और
- कितने ही अंतराय चखने वा स्वाद लेने से अथवा खाने मात्र से होते हैं।
2. स्पर्शन संबंधी अंतराय
सागार धर्मामृत अधिकार 4/31
.......स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ॥31॥
= रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, सूखी हड्डी, कुत्ता, बिल्ली और चांडाल आदि का स्पर्श हो जाने पर आहार छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार 5/242,247
शुष्कचर्मास्थिलोमादिस्पर्शनान्नैव भोजयेत्। मूषकादिपशुस्पर्शात्त्यजेदाहारमंजसा ॥242॥
= सूखा चमड़ा, सूखी हड्डी, बालादि का स्पर्श हो जाने पर भोजन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार चूहा, कुत्ता, बिल्ली आदि घातक पशुओं का स्पर्श हो जाने पर शीघ्र ही भोजन का त्याग कर देना चाहिए ॥242॥
नोट - और भी देखो आहार के 14 मल दोष - देखें आहार - II.4.2।
3. रसना संबंधी अंतराय
सागार धर्मामृत अधिकार 4/32,33
.....भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्यविवेचनैः ॥32॥
- जिस वस्तु का त्याग कर दिया है, उसके भोजन कर लेने पर, तथा जिन्हें भोजन से अलग नहीं कर सकते ऐसे जीवित दो इंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय जीवों के संसर्ग हो जाने पर (मिल जाने पर) अथवा तीन चार आदि मरे हुए जीवों के मिल जाने पर उस समय का भोजन छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार 5/244-247
प्राक्परिसंख्यया त्यक्तं वस्तुजातं रसादिकम्। भ्रांत्या विस्मृतमादाय त्यजेद्भोज्यमसंशयम् ॥244॥ आमगोरससंपृक्तं द्विदलान्नं परित्यजेत्। लालायाः स्पर्शमात्रेण त्वरितं बहुमूर्च्छनात् ॥245॥ भोज्यमध्यादशेषांश्च दृष्ट्वा त्रसकलेवरान्। यद्वा समूलतो रोम दृष्ट्वा सद्यो न भोजयेत् ॥246॥ चर्मतीयादिसम्मिश्रात्सदोषमनशनादिकम्। परिज्ञायेंगितैः सूक्ष्मैः कुर्यादाहारवर्जनम् ॥247॥
= भोगोपभोग पदार्थों का परिमाण करते समय जिन पदार्थों का त्याग कर दिया है अथवा जिन रसों का त्याग कर दिया है उनको भूल जाने के कारण अथवा किसी समय अन्य पदार्थ का भ्रम हो जाने के कारण ग्रहण कर ले तथा फिर उसी समय स्मरण आ जाय अथवा किसी भी तरह मालूम हो जाय तो बिना किसी संदेह के उस समय भोजन छोड़ देना चाहिए ॥244॥ कच्चे दूध, दही आदि गोरस में मिले हुए चना, उड़द, मूँग, रमास (बोड़ा) आदि जिनके बराबर दो भाग हो जाते हैं (जिनकी दाल बन जाती है) ऐसे अन्न का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि कच्चे गोरस में मिले चना, उड़द, मूँगादि अन्नों के खाने से मुँह की लार का स्पर्श होते ही उसमें उसी समय अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥245॥ यदि बने हुए भोजन में किसी भी प्रकार के त्रस जीवों का क्लेवर दिखाई पड़े तो उसे देखते ही भोजन छोड़ देना चाहिए, इसी प्रकार यदि भोजन में जड़ सहित बाल दिखाई दे तो भी भोजन छोड़ देना चाहिए ॥246॥ "यह भोजन चमड़े के पानी से बना है वा इसमें चमड़े के बर्तन में रखे हुए घी, दूध, तेल, पानी आदि पदार्थ मिले हुए हैं और इसलिए यह भोजन अशुद्ध व सदोष हो गया है" ऐसा किसी भी सूक्ष्म इशारे से व किसी भी सूक्ष्म चेष्टा से मालूम हो जाये तो उसी समय आहार छोड़ देना चाहिए।
4. गंध संबंधी अंतराय
लांटी संहिता अधिकार 5/243
गंधनांमद्यगंधेव पूतिगंधेव तत्समे। आगते घ्राणमार्गं च नान्नं भुंजोत दोषवित् ॥243॥
= भोजन के अंतराय और दोषों को जाननेवाले श्रावकों को मद्य की दुर्गंध आने पर वा मद्य की दुर्गंध के समान गंध आने पर अथवा और भी अनेकों प्रकार की दुर्गंध आने पर भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
5. दृष्टि या दर्शन संबंधी अंतराय
सागार धर्मामृत अधिकार 4/31
दृष्ट्वार्द्र चर्मास्थिसुरामांसासृक्पूयपूर्वकम्....॥31॥
= गीला चमड़ा, गीली हड्डी, मदिरा, मांस, लोहू तथा पीबादि पदार्थों को देखकर उसी समय भोजन छोड़ देना चाहिए। या पहले दीख जाने पर उसी समय भोजन न करके कुछ काल पीछे करना चाहिए
(लांटी संहिता अधिकार 5/241)।
चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 21/43/15
अस्थिसुरामांसरक्तपूयमलमूत्रमृतांगिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाच्चाव्डालादिदर्शनात्तच्छब्दश्रवणाच्चभोजनं त्यजेत्।
= हड्डी, मद्य, चमड़ा, रक्त, पीब, मल, मूत्र, मृतक मनुष्य इन पदार्थों के दीख पड़ने पर तथा त्याग किये हुए अन्नादि का सेवन हो जाने पर अथवा चांडाल आदि के दिखाई दे जाने पर या उसका शब्द कान में पड़ जाने पर भोजन त्याग देना चाहिए। क्योंकि ये सब दर्शन प्रतिमा के अतिचार हैं।
6. श्रोत्र संबंधी अंतराय
सागार धर्मामृत अधिकार 4/32
श्रुत्वा कर्कशाक्रंदविड्वरप्रायनिस्सवनं....॥31॥
= 'इसका मस्तक काटो' इत्यादि रूप कठोर शब्दों को, 'हा हा' इत्यादि रूप आर्तस्वर वाले शब्दों को और परचक्र के आगमानादि विषयक विड्वरप्राय शब्दों को सुन करके भोजन त्याग देना चाहिए।
चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 21/43/16
चांडालादिदर्शनात्तच्छब्दश्रवणाच्च भोजनं त्यजेत्।
= चांडालादि के दिखाई दे जाने पर, या उसका शब्द कान में पड़ जाने पर आहार छोड़ देना चाहिए।
लांटी संहिता अधिकार 5/248-249
श्रवणाद्धिंसकं शब्दं मारयामीति शब्दवत्। दग्धो मृतः स इत्यादि श्रुत्वा भोज्यं परित्यजेत् ॥248॥ शोकाश्रितं वचः श्रुत्वा मोहाद्वा परिदेवनम्। दीनं भयानकं श्रुत्वा भोजनं त्वरितं त्यजेत् ॥249॥
= 'मैं इसको मारता हूँ' इस प्रकार के हिंसक शब्दों को सुनकर भोजन का परित्याग कर देना चाहिए। अथवा शोक से उत्पन्न होने वाले वचनों को सुनकर वा किसी के मोह से अत्यंत रोने के शब्द सुनकर अथवा अत्यंत दीनता के वचन सुनकर वा अत्यंत भयंकर शब्द सुनकर शीघ्र ही भोजन छोड़ देना चाहिए।
7. मन संबंधी अंतराय
सागार धर्मामृत अधिकार 4/33
....। इदं मांसमिति दृढसंकल्पे चाठानं त्यजेत् ॥33॥
= यह पदार्थ (जैसे तरबूज़) मांस के समान है अर्थात् वैसी ही आकृति का है इस प्रकार भक्ष्य पदार्थ में भी मन के द्वारा संकल्प हो जाने पर निस्संदेह भोजन छोड़ दे।
लांटी संहिता अधिकार 5/250
उपमानोपमेयाभ्यां तदिदं पिशितादिवत्। मनःस्मरणमात्रत्वात्कृत्स्नमन्नादिकं त्यजेत् ॥250॥
= `यह भोजन मांस के समान है वा रुधिर के समान है' इस प्रकार किसी भी उपमेय वा उपमान के द्वारा मन में स्मरण हो जावे तो भी उसी समय समस्त जलपानादि का त्याग कर देना चाहिए ॥250॥
2. साधु संबंधी अंतराय
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 495-500
कागामेज्झा छद्दी रोहण रुहिरं च अस्सुवादं च। जण्हूहिट्ठामरिसं जण्हुवरि वदिक्कमो चेव ॥495॥ णाभि अधोणिग्गमणं पच्चक्खियसेवणाय जंतुवहो। कागादिपिंडहरणं पाणीदो पिंडपडणं च ॥496॥ पाणीए जंतुवहो मांसादीदंसणे य उवसग्गो। पातंतरम्मि जीवो संपादो भोयणाणं च ॥497॥ उच्चारं पस्सवणं अभीजगिहपवसणं तहा पडणं। उववेसणं सदंसं भूमीसंफासणिट्ठुवणं ॥498॥ उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहारगामडाहो। पादेण किंचि गहणं करेण वा जं च भूमिए ॥499॥ एदे अण्णे बहुगा कारणभूदा अभोयणस्सेह। बीहणलोगदुगंछणसंजमणिव्वेदणट्ठ' च ॥500॥
=
- साधु के चलते समय वा खड़े रहते समय ऊपर जो कौआ आदि बीट करे तो वह काक नामा भोजन का अंतराय है।
- अशुचि वस्तु से चरण लिप्त हो जाना वह अमेध्य अंतराय है।
- वमन होना छर्दि है।
- भोजन का निषेध करना रोध है,
- अपने या दूसरे के लहू निकलता देखना रुधिर है।
- दुःख से आँसू निकलते देखना अश्रुपात है।
- पैर के नीचे हाथ से स्पर्श करना जान्वधः परामर्श है। तथा
- घुटने प्रमाण काठ के ऊपर उलंघ जाना वह जानूपरि व्यतिक्रम अंतराय है।
- नाभि से नीचा मस्तक कर निकलना वह नाभ्यधोनिर्गमन है।
- त्याग की गयी वस्तु का भक्षण करना प्रत्याख्यातसेवना है।
- जीव वध होना जंतुवध है।
- कौआ ग्रास ले जाये वह काकादिपिंडहरण है।
- प्राणिपात्र से पिंड का गिर जाना पाणितः पिंडपतन है।
- पाणिपात्र में किसी जंतु का मर जाना पाणित जंतुवध है।
- मांस आदि का दिखना मांसादि दर्शन है।
- देवादिकृत उपसर्ग का होना उपसर्ग है।
- दोनों पैरों के बीच में कोई जीव गिर जाये वह जीवसंपात है।
- भोजन देने वाले के हाथ से भोजन गिर जाना वह भोजनसंपात है।
- अपने उदर से मल निकल जाये वह उच्चार है।
- मूत्रादि निकलना प्रस्रवण है।
- चांडालादि अभोज्य के घर में प्रवेश हो जाना अभोज्यगृह प्रवेश है।
- मूर्च्छादि से आप गिर जाना पतन है।
- बैठ जाना उपयेशन है।
- कुत्तादि का काटना संदंश है।
- हाथ से भूमि को छूना भूमिस्पर्श है।
- कफ आदि मल का फेंकना निष्ठीवन है।
- पेट से कृमि अर्थात् कीड़ों का निकलना उदरकृमिनिर्गमन है।
- बिना दिया किंचित् ग्रहण करना अदत्तग्रहण है।
- अपने व अन्य के तलवार आदि से प्रहार हो तो प्रहार है।
- ग्राम जले तो ग्रामदाह है।
- पाँव-द्वारा भूमि से कुछ उठा लेना वह पादेन किंचित् ग्रहण है।
- हाथ-द्वारा भूमि से कुछ उठाना वह करेण किंचित् ग्रहण है।
ये काकादि 32 अंतराय तथा दूसरे भी चांडाल स्पर्शादि, कलह, इष्टमरणादि बहुत से भोजन त्याग के कारण जानना। तथा राजादि का भय होने से, लोकनिंदा होने से, संयम के लिए, वैराग्य के लिए, आहार का त्याग करना चाहिए ॥495-500॥
(अनगार धर्मामृत अधिकार 5/42-60/550)
3. भोजन त्याग योग्य अवसर
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 480
आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ। पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहारवेच्छेदो।
= व्याधि के अकस्मात् हो जानेपर, देव-मनुष्यादि कृत उपसर्ग हो जानेपर, उत्तम क्षमा धारण करने के समय, ब्रह्मचर्य रक्षण करने के निमित्त, प्राणियों की दया पालने के निमित्त, अनशन तप के निमित्त, शरीर से ममता छोड़ने के निमित्त इन छः कारणों के होने पर भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/64/558
आतंके उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये। कायकार्श्यतपःप्राणिदयाद्यर्थं चानाहरेत् ॥64॥
= किसी भी आकस्मिक व्याधि - मारणांतिक पीड़ा के उठ खड़े होने पर, देवादिक के द्वारा किये उत्पातादिक के उपस्थित होने पर, अथवा ब्रह्मचर्य को निर्मल बनाये रखने के लिए यद्वा शरीर की कृशता, तपश्चरण और प्राणिरक्षा आदि धर्मों की सिद्धि के लिए भी साधुओं को भोजन का त्याग कर देना चाहिए।
4. एक स्थान से उठकर अन्यत्र चले जाने योग्य अवसर
अनगार धर्मामृत अधिकार 9/94/925
प्रक्षाल्य करौ मौनेनान्यत्रार्थाद् व्रजेद्यदेवाद्यात्। चतुरंगुलांतरसमक्रमः सहांजलिपुटस्तदैव भवेत् ॥94॥
= भोजन के स्थान पर यदि कीड़ी आदि तुच्छ जीव-जंतु चलते-फिरते अधिक नजर पड़ें, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाये तो संयमियों को हाथ धोकर वहाँ से दूसरी जगह के लिए आहारार्थ मौन पूर्वक चले जाना चाहिए। इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि भोजन करें उसी समय उनको अपने दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अंतर रखकर, समरूप में स्थापित करने चाहिए तथा उसी समय दोनों हाथों की अंजलि भी बनानी चाहिए।
• अयोग्य वस्तु खाये जाने का प्रायश्चित्त - देखें भक्ष्याभक्ष्य - 1।
पुराणकोष से
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों मे आठवां कर्म । यह इष्ट पदार्थों की प्राप्ति में विघ्नकारी होता है । इसके पाँच भेद होते हैं—दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और मध्यम स्थिति विविध रूपा होती है । हरिवंशपुराण - 3.95-98, 58.218, 58.280-287 वीरवर्द्धमान चरित्र 16.156-160 देखें कर्म ।