प्राण: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">प्राण निर्देश व तत्संबंधी शंकाएँ</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">प्राण का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<span class="GRef"> धवला/2/1,1/412/2 </span><span class="SanskritText">प्राणिति जीवति एभिरति प्राणाः । </span>= <span class="HindiText">जिनके द्वारा जीव जीता है, उनको प्राण कहते हैं ।<br /> | <span class="GRef"> धवला/2/1,1/412/2 </span><span class="SanskritText">प्राणिति जीवति एभिरति प्राणाः । </span>= <span class="HindiText">जिनके द्वारा जीव जीता है, उनको प्राण कहते हैं ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2">निश्चय अथवा भाव प्राण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 </span><span class="SanskritText">अस्य जीवस्य सहजविजृंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के ... वस्तुस्वरूपतया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे .... ।</span> = <span class="HindiText">इस जीव को, सहज रूप से प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है ... वस्तु का स्वरूप होने से सदा अविनाशी निश्चय जीवत्व होने पर भी ... ।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 </span><span class="SanskritText">अस्य जीवस्य सहजविजृंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के ... वस्तुस्वरूपतया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे .... ।</span> = <span class="HindiText">इस जीव को, सहज रूप से प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है ... वस्तु का स्वरूप होने से सदा अविनाशी निश्चय जीवत्व होने पर भी ... ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 </span><span class="SanskritText">इंद्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणाः । तेषु चित्सा-मान्यान्वयिनो भावप्राणाः ।</span> = <span class="HindiText">प्राण इंद्रिय, बल, आयु तथा उच्छ्वास रूप हैं । उनमें (प्राणों में) चित्सामान्य रूप अन्वय वाले वे भाव प्राण हैं । <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/11 )</span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 </span><span class="SanskritText">इंद्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणाः । तेषु चित्सा-मान्यान्वयिनो भावप्राणाः ।</span> = <span class="HindiText">प्राण इंद्रिय, बल, आयु तथा उच्छ्वास रूप हैं । उनमें (प्राणों में) चित्सामान्य रूप अन्वय वाले वे भाव प्राण हैं । <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/11 )</span><br /> | ||
देखें [[ जीव#1.1 | जीव - 1.1 ]]निश्चय से आत्मा के ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राण है ।</span> <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/27/306/6 </span><span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयंते ।</span> =<span class="HindiText"> पूर्व आचार्यों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र को भाव प्राण कहा है । <br /> | देखें [[ जीव#1.1 | जीव - 1.1 ]]निश्चय से आत्मा के ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राण है ।</span> <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/27/306/6 </span><span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयंते ।</span> =<span class="HindiText"> पूर्व आचार्यों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र को भाव प्राण कहा है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">व्यवहार वा द्रव्य प्राण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 </span><span class="SanskritText">पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः ।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल सामान्य रूप अन्वय वाले वे द्रव्यप्राण है । </span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 </span><span class="SanskritText">पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः ।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल सामान्य रूप अन्वय वाले वे द्रव्यप्राण है । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/10 </span><span class="SanskritText">पौद्गलिकद्रव्येंद्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणाः । </span>= <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य से निपजी जो द्रव्य इंद्रियादिक उनके प्रवर्तन रूप द्रव्य प्राण हैं ।<br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/10 </span><span class="SanskritText">पौद्गलिकद्रव्येंद्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणाः । </span>= <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य से निपजी जो द्रव्य इंद्रियादिक उनके प्रवर्तन रूप द्रव्य प्राण हैं ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">अतीत प्राण का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/419/1 </span><span class="PrakritText">दसण्हं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम . </span>= <span class="HindiText">दशों प्राणों के अभाव को अतीत प्राण कहते हैं ।<br /> | <span class="GRef"> धवला 2/1,1/419/1 </span><span class="PrakritText">दसण्हं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम . </span>= <span class="HindiText">दशों प्राणों के अभाव को अतीत प्राण कहते हैं ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">दश प्राणों के नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मूलाचार/1191</span> <span class="PrakritGatha">पंचय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।1191।</span> =<span class="HindiText"> पाँच इंद्रिय प्राण, मन, वचन काय बल रूप तीन बल प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण और आयु प्राण इस तरह दस प्राण हैं । <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/46), (धवला 2/1,1,/412/2), (गोम्मटसार जीवकांड/130/343), (प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/146), (कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/139) (पं.सं./सं./1/124), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/539) </span> <br /> | <span class="GRef"> मूलाचार/1191</span> <span class="PrakritGatha">पंचय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।1191।</span> =<span class="HindiText"> पाँच इंद्रिय प्राण, मन, वचन काय बल रूप तीन बल प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण और आयु प्राण इस तरह दस प्राण हैं । <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/46), (धवला 2/1,1,/412/2), (गोम्मटसार जीवकांड/130/343), (प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/146), (कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/139) (पं.सं./सं./1/124), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/539) </span> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">इंद्रिय व इंद्रिय प्राण में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/412/3 </span><span class="SanskritText"> नैतेषामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिष्वंतर्भावः चक्षुरादि- क्षयोपशमनिबंधनानामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिजातिभिः साम्याभावात् ।</span> =<span class="HindiText"> इन पाँचों इंद्रियों (इंद्रिय प्राणों ) का एकेंद्रिय जाति आदि पांच जातियों में अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि चक्षुरिंद्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न हुई इंद्रियों की एकेंद्रिय जाति आदि जातियों के साथ समानता नहीं पायी जाती है ।<br /> | <span class="GRef"> धवला 2/1,1/412/3 </span><span class="SanskritText"> नैतेषामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिष्वंतर्भावः चक्षुरादि- क्षयोपशमनिबंधनानामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिजातिभिः साम्याभावात् ।</span> =<span class="HindiText"> इन पाँचों इंद्रियों (इंद्रिय प्राणों ) का एकेंद्रिय जाति आदि पांच जातियों में अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि चक्षुरिंद्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न हुई इंद्रियों की एकेंद्रिय जाति आदि जातियों के साथ समानता नहीं पायी जाती है ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">आनपान व मन, वचन काय को प्राणपना कैसे है ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/256/4 </span><span class="SanskritText">भवंत्विंद्रियायुष्काया= प्राणव्यपदेशभाजः तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलंभात् । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसुमतां मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छ्वासमनोवचसां न प्राणव्यपदेशो युज्यते तांयंतरेणापि अपर्याप्तावस्थायां जीवनोपलंभादिति चेन्न, तैर्विना पश्चाज्जीवतामनुपलभ्यतस्तेषामपि प्राणत्वविरोधात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न </strong>- पाँचों इंद्रियाँ, आयु और काय बल, ये प्राण संज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे जन्म से लेकर मरण तक भव धारण रूप से पाये जाते हैं । और उनमें से किसी एक के अभाव हो जाने पर मरण भी देखा जाता है । परंतु उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल इनको प्राण संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्था में जीवन पाया जाता है । <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल के बिना अपर्याप्त अवस्था के पश्चात् पर्याप्त अवस्था में जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं है ।<br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,34/256/4 </span><span class="SanskritText">भवंत्विंद्रियायुष्काया= प्राणव्यपदेशभाजः तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलंभात् । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसुमतां मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छ्वासमनोवचसां न प्राणव्यपदेशो युज्यते तांयंतरेणापि अपर्याप्तावस्थायां जीवनोपलंभादिति चेन्न, तैर्विना पश्चाज्जीवतामनुपलभ्यतस्तेषामपि प्राणत्वविरोधात् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न </strong>- पाँचों इंद्रियाँ, आयु और काय बल, ये प्राण संज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे जन्म से लेकर मरण तक भव धारण रूप से पाये जाते हैं । और उनमें से किसी एक के अभाव हो जाने पर मरण भी देखा जाता है । परंतु उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल इनको प्राण संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्था में जीवन पाया जाता है । <strong>उत्तर-</strong> नहीं, क्योंकि उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल के बिना अपर्याप्त अवस्था के पश्चात् पर्याप्त अवस्था में जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं है ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">प्राणों के त्याग का उपाय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/151 </span>उत्थानिका - <span class="SanskritText">अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमंतरंग ग्राह्यति </span>- <span class="PrakritGatha">जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ।151।</span> = <span class="HindiText">अब पौद्गलिक प्राणों की संततिकी निवृत्ति का अंतरंग हेतु समझाते हैं - जो इंद्रियादि का विजयी होकर उपयोग मात्र का ध्यान करता है, वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं । अर्थात् उसके प्राणों का संबंध नहीं होता ।<br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/151 </span>उत्थानिका - <span class="SanskritText">अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमंतरंग ग्राह्यति </span>- <span class="PrakritGatha">जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ।151।</span> = <span class="HindiText">अब पौद्गलिक प्राणों की संततिकी निवृत्ति का अंतरंग हेतु समझाते हैं - जो इंद्रियादि का विजयी होकर उपयोग मात्र का ध्यान करता है, वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं । अर्थात् उसके प्राणों का संबंध नहीं होता ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7">प्राणों का स्वामित्व</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7.1" id="1.7.1">स्थावर जीवों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/13/172/10 </span><span class="SanskritText">कति पुनरेषा (स्थावराणां) प्राणाः । चत्वारः स्पर्शनेंद्रियप्राणाः कायबलप्राणाः उच्छ्वासनिश्वासप्राणः आयुःप्राणश्चेति । </span>= <span class="HindiText">स्थावरों के चार प्राण होते हैं - स्पर्शनेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास-निश्वास और आयु प्राण । <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/13/9/128/16 )</span> <span class="GRef">( धवला 2/1,1/418/11 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 )</span>।<br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/13/172/10 </span><span class="SanskritText">कति पुनरेषा (स्थावराणां) प्राणाः । चत्वारः स्पर्शनेंद्रियप्राणाः कायबलप्राणाः उच्छ्वासनिश्वासप्राणः आयुःप्राणश्चेति । </span>= <span class="HindiText">स्थावरों के चार प्राण होते हैं - स्पर्शनेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास-निश्वास और आयु प्राण । <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/13/9/128/16 )</span> <span class="GRef">( धवला 2/1,1/418/11 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 )</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7.2" id="1.7.2">त्रस जीवों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/14/176/6 </span><span class="SanskritText">द्वींद्रियस्य तावत् षट् प्राणाः, पूर्वोक्ता एव रसनवाक्यप्राणाधिकाः । त्रींद्रियस्य सप्त त एव घ्राणप्राणाधिकाः । चतुरिंद्रियस्याष्टौ त एवं चक्षुः प्राणाधिकाः । पंचेंद्रियस्य तिरश्चोऽसंज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिकाः । संज्ञिनो दश त एव मनोबलप्राणाधिकाः ।</span> = <span class="HindiText">पूर्वोक्त (स्पर्शेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास, और आयु प्राण इन ) चार प्राणों में रसना प्राण और वचन प्राण इन दो प्राणों के मिला देने पर दोइंद्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं । इनमें घ्राण के मिला देने पर तीन इंद्रिय जीव के सात प्राण होते हैं । इनमें चक्षु प्राण के मिला देने पर चौइंद्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं । इनमें श्रोत्र प्राण के मिला देने पर तिर्यंच असंज्ञी के नौ प्राण होते हैं । इनमें मनोबल के मिला देने पर संज्ञी जीवों के दस प्राण होते हैं । <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/14/4/129/1 )</span>, <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/47-49 )</span>, <span class="GRef">( धवला 2/1,1/418/1 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/133/146 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 )</span> ।<br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/14/176/6 </span><span class="SanskritText">द्वींद्रियस्य तावत् षट् प्राणाः, पूर्वोक्ता एव रसनवाक्यप्राणाधिकाः । त्रींद्रियस्य सप्त त एव घ्राणप्राणाधिकाः । चतुरिंद्रियस्याष्टौ त एवं चक्षुः प्राणाधिकाः । पंचेंद्रियस्य तिरश्चोऽसंज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिकाः । संज्ञिनो दश त एव मनोबलप्राणाधिकाः ।</span> = <span class="HindiText">पूर्वोक्त (स्पर्शेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास, और आयु प्राण इन ) चार प्राणों में रसना प्राण और वचन प्राण इन दो प्राणों के मिला देने पर दोइंद्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं । इनमें घ्राण के मिला देने पर तीन इंद्रिय जीव के सात प्राण होते हैं । इनमें चक्षु प्राण के मिला देने पर चौइंद्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं । इनमें श्रोत्र प्राण के मिला देने पर तिर्यंच असंज्ञी के नौ प्राण होते हैं । इनमें मनोबल के मिला देने पर संज्ञी जीवों के दस प्राण होते हैं । <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/14/4/129/1 )</span>, <span class="GRef">( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/47-49 )</span>, <span class="GRef">( धवला 2/1,1/418/1 )</span>, <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/133/146 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 )</span> ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7.3" id="1.7.3">पर्याप्तपर्याप्त की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/50 </span><span class="PrakritGatha">पंचक्ख-दुए पाणा मण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कण्णक्खिगंधरसणारहिया सेसेसु ते अण्णेसु ।50।</span> = <span class="HindiText">अपर्याप्त पंचेंद्रियद्विक में मन-वचन-बल और श्वासोच्छ्वास इन तीन से कम शेष सात प्राप्त होते हैं । अपर्याप्त चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय तथा एकेंद्रिय के क्रम से कर्णेंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय, घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय कम करने पर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते हैं । <span class="GRef"> (धवला 2/1,1/418/9), (गोम्मटसार जीवकांड व टीका /133/346), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/141), (पं.सं./सं./1/125) </span> <br /> | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/50 </span><span class="PrakritGatha">पंचक्ख-दुए पाणा मण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कण्णक्खिगंधरसणारहिया सेसेसु ते अण्णेसु ।50।</span> = <span class="HindiText">अपर्याप्त पंचेंद्रियद्विक में मन-वचन-बल और श्वासोच्छ्वास इन तीन से कम शेष सात प्राप्त होते हैं । अपर्याप्त चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय तथा एकेंद्रिय के क्रम से कर्णेंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय, घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय कम करने पर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते हैं । <span class="GRef"> (धवला 2/1,1/418/9), (गोम्मटसार जीवकांड व टीका /133/346), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/141), (पं.सं./सं./1/125) </span> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7.4" id="1.7.4">सयोग अयोग केवली की अपेक्षा</strong> <br /> | ||
देखें [[ केवली#5.10 | केवली - 5.10-13]] | देखें [[ केवली#5.10 | केवली - 5.10-13]] | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> अपर्याप्तावस्था में भाव मन क्यों नहीं ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/8/1,1,35/259/8 </span><span class="SanskritText">भावेंद्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनसः सत्त्वमिंद्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येंद्रियैरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽंगीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्व- प्रसंगात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धयेदिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिषष्पत्तौ पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्तेः । न बाह्यार्थस्मरणशक्तेः प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्तेः प्राक् सत्त्वविरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वनिरूपणमिति सिद्धम् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong>जीव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेंद्रियों- की तरह भाव मन का भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेंद्रियों का सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्धाव क्यों नहीं कहा । <strong>उत्तर -</strong>नहीं क्योंकि, बाह्य इंद्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मनका अपर्याप्तिरूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्त्व का प्रसंग आ जायेगा ।<strong> प्रश्न -</strong> पर्याप्ति के निरूपण से ही द्रव्यमन का अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा । <strong>उत्तर-</strong> </span> | <span class="GRef"> धवला/8/1,1,35/259/8 </span><span class="SanskritText">भावेंद्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनसः सत्त्वमिंद्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येंद्रियैरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽंगीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्व- प्रसंगात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धयेदिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिषष्पत्तौ पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्तेः । न बाह्यार्थस्मरणशक्तेः प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्तेः प्राक् सत्त्वविरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वनिरूपणमिति सिद्धम् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong>जीव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेंद्रियों- की तरह भाव मन का भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेंद्रियों का सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्धाव क्यों नहीं कहा । <strong>उत्तर -</strong>नहीं क्योंकि, बाह्य इंद्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मनका अपर्याप्तिरूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्त्व का प्रसंग आ जायेगा ।<strong> प्रश्न -</strong> पर्याप्ति के निरूपण से ही द्रव्यमन का अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा । <strong>उत्तर-</strong> </span> | ||
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<li | <li class="HindiText"> नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थ की स्मरण शक्ति की पूर्णता में ही पर्याप्ति इस प्रकार का व्यवहार मान लेने से द्रव्यमन के अभाव में भी मन; पर्याप्ति का निरूपण बन जाता है । </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> बाह्य पदार्थों की स्मरणरूप शक्ति के पहले द्रव्य मन का सद्भाव बन जायेगा ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य मन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पहले उसका सत्त्व मान लेने में विरोध आता है । अतः अपर्याप्ति रूप अवस्था में भावमन के अस्तित्व का निरूपण नहीं करना द्रव्य मन के अस्तित्व का ज्ञापक है, ऐसा समझना चाहिए ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाओं में प्राणों का स्वामित्व - देखें [[ सत्#2.5 | सत् - 2.5-6 ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> प्राणों का यथायोग्य मार्गणा स्थानों में अंतर्भाव - देखें [[ मार्गणा#8 | मार्गणा - 8 ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> जीव को प्राणी कहने की विवक्षा - देखें [[ जीव#1.3.4 | जीव - 1.3.4]]<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">निश्चय-व्यवहार प्राण समन्वय</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">प्राण प्ररूपणा में निश्चय प्राम अभिप्रेत है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/404/3 </span><span class="PrakritText">दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति । तण्ण घडदे । कुदो । भाविंदियाभावादो । ... अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमज्जत्तकाले सत्त पाणा पीडिदूण दो चेव पण्णा भवंति, पंचण्ह दव्वेंदियाणामभावादो । </span>= <span class="HindiText">कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियों की पूर्णता की अपेक्षा (केवली के) दस प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है क्योंकि सयोगी जिनके भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती है । .... यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव है ।<br /> | <span class="GRef"> धवला 2/1, 1/404/3 </span><span class="PrakritText">दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति । तण्ण घडदे । कुदो । भाविंदियाभावादो । ... अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमज्जत्तकाले सत्त पाणा पीडिदूण दो चेव पण्णा भवंति, पंचण्ह दव्वेंदियाणामभावादो । </span>= <span class="HindiText">कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियों की पूर्णता की अपेक्षा (केवली के) दस प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है क्योंकि सयोगी जिनके भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती है । .... यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव है ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">दश प्राण पुद्गलात्मक हैं जीव का स्वभाव नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/147 </span><span class="SanskritText"> तत्र जीवस्य स्वभावत्वमवात्पनोति पुद्गलद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् ।</span> = <span class="HindiText">वह उसका (प्राण जीव का) स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से रचित है ।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/147 </span><span class="SanskritText"> तत्र जीवस्य स्वभावत्वमवात्पनोति पुद्गलद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् ।</span> = <span class="HindiText">वह उसका (प्राण जीव का) स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से रचित है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/145 </span><span class="SanskritText">व्यवहारेण ... आयुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि संबद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवति ।</span> =<span class="HindiText"> व्यवहार नय से .. आयु आदि चार अशुद्ध प्राणों से संबद्ध होने से जीता है । वह शुद्ध नय से जीव का स्वरूप नहीं है । <br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/145 </span><span class="SanskritText">व्यवहारेण ... आयुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि संबद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवति ।</span> =<span class="HindiText"> व्यवहार नय से .. आयु आदि चार अशुद्ध प्राणों से संबद्ध होने से जीता है । वह शुद्ध नय से जीव का स्वरूप नहीं है । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">दश प्राणों का जीव के साथ कथंचित् भेदाभेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/332-344/423/24 </span><span class="SanskritText">कायादिप्राणैः सह कथंचिद् भेदाभेदः । कथं । इति चेत् तप्तायःपिंडवद्वर्तमानकाले पृथक्त्वं कर्तुंनायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेदः । निश्चयेन पुनर्मरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छंति तेन कारणेन भेदः ।</span> = <span class="HindiText">कायादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् भेद व अभेद है । वह ऐसे है कि तपे हुए लोहे के गोले की भाँति वर्तमान काल में वे दोनों पृथक् नहीं किये जाने के कारण व्यवहार नय से अभिन्न हैं । और निश्चय नय से क्योंकि मरण काल में कायादि प्राण जीव के साथ नहीं जाते इसलिए भिन्न हैं । </span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/332-344/423/24 </span><span class="SanskritText">कायादिप्राणैः सह कथंचिद् भेदाभेदः । कथं । इति चेत् तप्तायःपिंडवद्वर्तमानकाले पृथक्त्वं कर्तुंनायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेदः । निश्चयेन पुनर्मरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छंति तेन कारणेन भेदः ।</span> = <span class="HindiText">कायादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् भेद व अभेद है । वह ऐसे है कि तपे हुए लोहे के गोले की भाँति वर्तमान काल में वे दोनों पृथक् नहीं किये जाने के कारण व्यवहार नय से अभिन्न हैं । और निश्चय नय से क्योंकि मरण काल में कायादि प्राण जीव के साथ नहीं जाते इसलिए भिन्न हैं । </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/127/244/4 </span><span class="SanskritText">स्वकीयप्राणह्रते सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेदः । ... यदि पुनरेकांतेन देहात्मनोर्भेदा एव तर्हि परकीय देहघाते दुःखं न स्यान्न च तथा । निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । </span>= <span class="HindiText">अपने प्राणों का घात होने पर दुख की उत्पत्ति होती है अतः व्यवहार नयकर प्राण और जीव को अभेद है । ... यदि एकांत से प्राणों को सर्वथा जुदे मानें तो जैसे पर के शरीर का घात होने परदुःख नहीं होता वैसे अपने देह का घात होने पर दुःख नहीं होना चाहिए । इसलिए व्यवहार नये से एकत्व है निश्चय से नहीं, क्योंकि देह का विनाश होने पर भी जीव का विनाश नहीं होता है । इसलिए भेद है ।<br /> | <span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2/127/244/4 </span><span class="SanskritText">स्वकीयप्राणह्रते सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेदः । ... यदि पुनरेकांतेन देहात्मनोर्भेदा एव तर्हि परकीय देहघाते दुःखं न स्यान्न च तथा । निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । </span>= <span class="HindiText">अपने प्राणों का घात होने पर दुख की उत्पत्ति होती है अतः व्यवहार नयकर प्राण और जीव को अभेद है । ... यदि एकांत से प्राणों को सर्वथा जुदे मानें तो जैसे पर के शरीर का घात होने परदुःख नहीं होता वैसे अपने देह का घात होने पर दुःख नहीं होना चाहिए । इसलिए व्यवहार नये से एकत्व है निश्चय से नहीं, क्योंकि देह का विनाश होने पर भी जीव का विनाश नहीं होता है । इसलिए भेद है ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">निश्चय व्यवहार प्राणों का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 </span><span class="SanskritText">अथास्य जीवस्य सहजविजंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गल- संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति ।</span> = <span class="HindiText">अब इस जीवको सहज रूप (स्वाभाविक) प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है, और तीनों कालों में अवस्थायित्व जिसका लक्षण है, ऐसा वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी, संसारावस्था में आदि प्रवाह रूप से प्रवर्तमान पुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों में संयुक्तता है, जो कि व्यवहार जीवत्व का हेतु है और विभक्त करने योग्य है ।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 </span><span class="SanskritText">अथास्य जीवस्य सहजविजंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गल- संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति ।</span> = <span class="HindiText">अब इस जीवको सहज रूप (स्वाभाविक) प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है, और तीनों कालों में अवस्थायित्व जिसका लक्षण है, ऐसा वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी, संसारावस्था में आदि प्रवाह रूप से प्रवर्तमान पुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों में संयुक्तता है, जो कि व्यवहार जीवत्व का हेतु है और विभक्त करने योग्य है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/27/306/9 </span><span class="SanskritText">संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादि भावप्राणधारणाद् इति सिद्धम् । </span>= <span class="HindiText">संसारी जीव द्रव्य प्राणों की अपेक्षा और सिद्ध जीव भाव प्राणों की अपेक्षा से जीव कहे जाते हैं । <br /> | <span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/27/306/9 </span><span class="SanskritText">संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादि भावप्राणधारणाद् इति सिद्धम् । </span>= <span class="HindiText">संसारी जीव द्रव्य प्राणों की अपेक्षा और सिद्ध जीव भाव प्राणों की अपेक्षा से जीव कहे जाते हैं । <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">प्राणों को जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/30/68/7 </span><span class="SanskritText">अत्र ...शुद्धचैतन्यादिशुद्धप्राणसहितः शुद्ध जीवास्तिकाय एवोपादेयरूपेणध्यातव्य इति भावार्थ;</span>= <span class="HindiText">यहाँ ... शुद्ध चैतन्यादि शुद्ध प्राणों से सहित शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय रूप से ध्यान चाहिए, ऐसा भावार्थ है ।</span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/30/68/7 </span><span class="SanskritText">अत्र ...शुद्धचैतन्यादिशुद्धप्राणसहितः शुद्ध जीवास्तिकाय एवोपादेयरूपेणध्यातव्य इति भावार्थ;</span>= <span class="HindiText">यहाँ ... शुद्ध चैतन्यादि शुद्ध प्राणों से सहित शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय रूप से ध्यान चाहिए, ऐसा भावार्थ है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/12/31/6 </span><span class="SanskritText">अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः ।</span> = <span class="HindiText">अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्ति तथा प्राणों से भिन्न अपना शुद्धात्मा ही उपादेय है । </span><br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/12/31/6 </span><span class="SanskritText">अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः ।</span> = <span class="HindiText">अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्ति तथा प्राणों से भिन्न अपना शुद्धात्मा ही उपादेय है । </span><br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) व्यवहार काल का एक प्रमाण । श्वास लेने और छोड़ने में लगने वाला समय प्राण कहलाता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.16,19 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) व्यवहार काल का एक प्रमाण । श्वास लेने और छोड़ने में लगने वाला समय प्राण कहलाता है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#16|हरिवंशपुराण - 7.16]],19 </span></p> | ||
<p id="2">(2) जीव की जीवितव्यता का लक्षण । इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये प्राण कहलाते हैं । इनकी विद्यमानता से ही जीव प्राणी कहा जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 24.105 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) जीव की जीवितव्यता का लक्षण । इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये प्राण कहलाते हैं । इनकी विद्यमानता से ही जीव प्राणी कहा जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 24.105 </span></p> | ||
<p id="6">(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.166 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.166 </span></p> | ||
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Revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
काल का प्रमाण विशेष - देखें गणित - I.1.4 ।
जीव में जीवितव्य के लक्षणों को प्राण कहते हैं, वह दो प्रकार है - निश्चय और व्यवहार । जीव की चेतनत्व शक्ति उसका निश्चय प्राण है और पाँच इंद्रिय, मन, वचन, काय, आयु व श्वासोच्छ्वास ये दस व्यवहार प्राण हैं । इनमें - से एकेंद्रियादि जीवों के यथा योग्य 4,6,7 आदि प्राण पाये जाते हैं ।
- प्राण निर्देश व तत्संबंधी शंकाएँ
- प्राण का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/45 बाहिरपाणेंहि जहा तहेव अब्भंतरेहि पाणेहिं । जीवंति जेहिं जीवा पाणा ते होंति बोहव्वा ।45। = जिस प्रकार बाह्य प्राण के द्वारा जीव जीते हैं उसी प्रकार जिन अभ्यंतर प्राणों के द्वारा जीव जीते हैं, वे प्राण कहलाते हैं ।45। (धवला/1,1,34/गा 41/256); (गोम्मटसार जीवकांड/129/341 ); (पं.सं./सं./1/45)
धवला/2/1,1/412/2 प्राणिति जीवति एभिरति प्राणाः । = जिनके द्वारा जीव जीता है, उनको प्राण कहते हैं ।
- निश्चय अथवा भाव प्राण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 अस्य जीवस्य सहजविजृंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के ... वस्तुस्वरूपतया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे .... । = इस जीव को, सहज रूप से प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है ... वस्तु का स्वरूप होने से सदा अविनाशी निश्चय जीवत्व होने पर भी ... ।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 इंद्रियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा हि प्राणाः । तेषु चित्सा-मान्यान्वयिनो भावप्राणाः । = प्राण इंद्रिय, बल, आयु तथा उच्छ्वास रूप हैं । उनमें (प्राणों में) चित्सामान्य रूप अन्वय वाले वे भाव प्राण हैं । ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/11 )
देखें जीव - 1.1 निश्चय से आत्मा के ज्ञानदर्शनोपयोग रूप चैतन्य प्राण है । स्याद्वादमंजरी/27/306/6 सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयंते । = पूर्व आचार्यों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र को भाव प्राण कहा है ।
- व्यवहार वा द्रव्य प्राण
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/30 पुद्गलसामान्यान्वयिनो द्रव्यप्राणाः । = पुद्गल सामान्य रूप अन्वय वाले वे द्रव्यप्राण है ।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/129/341/10 पौद्गलिकद्रव्येंद्रियादिव्यापाररूपाः द्रव्यप्राणाः । = पुद्गल द्रव्य से निपजी जो द्रव्य इंद्रियादिक उनके प्रवर्तन रूप द्रव्य प्राण हैं ।
- निरुक्ति अर्थ
- अतीत प्राण का लक्षण
धवला 2/1,1/419/1 दसण्हं पाणाणमभावो अदीदपाणो णाम . = दशों प्राणों के अभाव को अतीत प्राण कहते हैं ।
- दश प्राणों के नाम निर्देश
मूलाचार/1191 पंचय इंदियपाणा मणवचकाया दु तिण्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दस पाणा ।1191। = पाँच इंद्रिय प्राण, मन, वचन काय बल रूप तीन बल प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण और आयु प्राण इस तरह दस प्राण हैं । ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/46), (धवला 2/1,1,/412/2), (गोम्मटसार जीवकांड/130/343), (प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/146), (कार्तिकेय अनुप्रेक्षा /मूल/139) (पं.सं./सं./1/124), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/539)
- इंद्रिय व इंद्रिय प्राण में अंतर
धवला 2/1,1/412/3 नैतेषामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिष्वंतर्भावः चक्षुरादि- क्षयोपशमनिबंधनानामिंद्रियाणामेकेंद्रियादिजातिभिः साम्याभावात् । = इन पाँचों इंद्रियों (इंद्रिय प्राणों ) का एकेंद्रिय जाति आदि पांच जातियों में अंतर्भाव नहीं होता है, क्योंकि चक्षुरिंद्रियावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न हुई इंद्रियों की एकेंद्रिय जाति आदि जातियों के साथ समानता नहीं पायी जाती है ।
- उच्छ्वास व प्राण में अंतर- देखें उच्छ्वास - 2,3 ।
- पर्याप्ति व प्राण में अंतर - देखें पर्याप्ति - 2.7
- उच्छ्वास व प्राण में अंतर- देखें उच्छ्वास - 2,3 ।
- आनपान व मन, वचन काय को प्राणपना कैसे है ?
धवला 1/1,1,34/256/4 भवंत्विंद्रियायुष्काया= प्राणव्यपदेशभाजः तेषामाजन्मन आमरणाद्भवधारणत्वेनोपलंभात् । तत्रैकस्याप्यभावतोऽसुमतां मरणसंदर्शनाच्च । अपि तूच्छ्वासमनोवचसां न प्राणव्यपदेशो युज्यते तांयंतरेणापि अपर्याप्तावस्थायां जीवनोपलंभादिति चेन्न, तैर्विना पश्चाज्जीवतामनुपलभ्यतस्तेषामपि प्राणत्वविरोधात् । = प्रश्न - पाँचों इंद्रियाँ, आयु और काय बल, ये प्राण संज्ञा को प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे जन्म से लेकर मरण तक भव धारण रूप से पाये जाते हैं । और उनमें से किसी एक के अभाव हो जाने पर मरण भी देखा जाता है । परंतु उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल इनको प्राण संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इनके बिना भी अपर्याप्त अवस्था में जीवन पाया जाता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि उच्छ्वास, मनोबल और वचन बल के बिना अपर्याप्त अवस्था के पश्चात् पर्याप्त अवस्था में जीवन नहीं पाया जाता है, इसलिए उन्हें प्राण मानने में कोई विरोध नहीं है ।
- प्राणों के त्याग का उपाय
प्रवचनसार/151 उत्थानिका - अथ पुद्गलप्राणसंततिनिवृत्तिहेतुमंतरंग ग्राह्यति - जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहिं सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ।151। = अब पौद्गलिक प्राणों की संततिकी निवृत्ति का अंतरंग हेतु समझाते हैं - जो इंद्रियादि का विजयी होकर उपयोग मात्र का ध्यान करता है, वह कर्मों के द्वारा रंजित नहीं होता, उसे प्राण कैसे अनुसरण कर सकते हैं । अर्थात् उसके प्राणों का संबंध नहीं होता ।
- प्राणों का स्वामित्व
- स्थावर जीवों की अपेक्षा
सर्वार्थसिद्धि/2/13/172/10 कति पुनरेषा (स्थावराणां) प्राणाः । चत्वारः स्पर्शनेंद्रियप्राणाः कायबलप्राणाः उच्छ्वासनिश्वासप्राणः आयुःप्राणश्चेति । = स्थावरों के चार प्राण होते हैं - स्पर्शनेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास-निश्वास और आयु प्राण । ( राजवार्तिक/2/13/9/128/16 ) ( धवला 2/1,1/418/11 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 )।
- त्रस जीवों की अपेक्षा
सर्वार्थसिद्धि/2/14/176/6 द्वींद्रियस्य तावत् षट् प्राणाः, पूर्वोक्ता एव रसनवाक्यप्राणाधिकाः । त्रींद्रियस्य सप्त त एव घ्राणप्राणाधिकाः । चतुरिंद्रियस्याष्टौ त एवं चक्षुः प्राणाधिकाः । पंचेंद्रियस्य तिरश्चोऽसंज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिकाः । संज्ञिनो दश त एव मनोबलप्राणाधिकाः । = पूर्वोक्त (स्पर्शेंद्रिय, कायबल, उच्छ्वास, और आयु प्राण इन ) चार प्राणों में रसना प्राण और वचन प्राण इन दो प्राणों के मिला देने पर दोइंद्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं । इनमें घ्राण के मिला देने पर तीन इंद्रिय जीव के सात प्राण होते हैं । इनमें चक्षु प्राण के मिला देने पर चौइंद्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं । इनमें श्रोत्र प्राण के मिला देने पर तिर्यंच असंज्ञी के नौ प्राण होते हैं । इनमें मनोबल के मिला देने पर संज्ञी जीवों के दस प्राण होते हैं । ( राजवार्तिक/2/14/4/129/1 ), ( पंचसंग्रह / प्राकृत/1/47-49 ), ( धवला 2/1,1/418/1 ), ( गोम्मटसार जीवकांड/133/146 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/140 ) ।
- पर्याप्तपर्याप्त की अपेक्षा
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/50 पंचक्ख-दुए पाणा मण वचि उस्सास ऊणिया सव्वे । कण्णक्खिगंधरसणारहिया सेसेसु ते अण्णेसु ।50। = अपर्याप्त पंचेंद्रियद्विक में मन-वचन-बल और श्वासोच्छ्वास इन तीन से कम शेष सात प्राप्त होते हैं । अपर्याप्त चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय तथा एकेंद्रिय के क्रम से कर्णेंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय, घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय कम करने पर छह, पाँच, चार और तीन प्राण होते हैं । (धवला 2/1,1/418/9), (गोम्मटसार जीवकांड व टीका /133/346), (कार्तिकेयानुप्रेक्षा/141), (पं.सं./सं./1/125)
- सयोग अयोग केवली की अपेक्षा
देखें केवली - 5.10-13- सयोगकेवली के चार प्राण होते हैं - वचन, श्वासोच्छ्वास, आयु और काय । उपचार से तो सात प्राण कहे जाते हैं ।
- अयोगकेवली के केवल एक आयु प्राण ही होता है ।
- समुद्धात अवस्था में केवली भगवान् के 3,2 व 1 प्राण होते हैं - श्वासोच्छ्वास, आयु और काय ये तीन; श्वासोच्छ्वास कम करने पर दो, तथा काय बल कम करने पर केवल एक आयु प्राण होता है ।
- स्थावर जीवों की अपेक्षा
- अपर्याप्तावस्था में भाव मन क्यों नहीं ?
धवला/8/1,1,35/259/8 भावेंद्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाल एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनसः सत्त्वमिंद्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्येंद्रियैरग्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽंगीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्व- प्रसंगात् । पर्याप्तिनिरूपणात्तदस्तित्वं सिद्धयेदिति चेन्न, बाह्यार्थस्मरणशक्तिनिषष्पत्तौ पर्याप्तिव्यपदेशतो द्रव्यमनसोऽभावेऽपि पर्याप्तिनिरूपणोपपत्तेः । न बाह्यार्थस्मरणशक्तेः प्रागस्तित्वं योग्यस्य द्रव्यस्योत्पत्तेः प्राक् सत्त्वविरोधात् । ततो द्रव्यमनसोऽस्तित्वस्य ज्ञापकं भवति तस्यापर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वनिरूपणमिति सिद्धम् । = प्रश्न -जीव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेंद्रियों- की तरह भाव मन का भी सत्त्व पाया जाता है, इसलिए जिस प्रकार अपर्याप्त काल में भावेंद्रियों का सद्भाव कहा जाता है उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्धाव क्यों नहीं कहा । उत्तर -नहीं क्योंकि, बाह्य इंद्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मनका अपर्याप्तिरूप अवस्था में अस्तित्व स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्त्व का प्रसंग आ जायेगा । प्रश्न - पर्याप्ति के निरूपण से ही द्रव्यमन का अस्तित्व सिद्ध हो जायेगा । उत्तर-- नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थ की स्मरण शक्ति की पूर्णता में ही पर्याप्ति इस प्रकार का व्यवहार मान लेने से द्रव्यमन के अभाव में भी मन; पर्याप्ति का निरूपण बन जाता है ।
- बाह्य पदार्थों की स्मरणरूप शक्ति के पहले द्रव्य मन का सद्भाव बन जायेगा ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य मन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पहले उसका सत्त्व मान लेने में विरोध आता है । अतः अपर्याप्ति रूप अवस्था में भावमन के अस्तित्व का निरूपण नहीं करना द्रव्य मन के अस्तित्व का ज्ञापक है, ऐसा समझना चाहिए ।
- गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाओं में प्राणों का स्वामित्व - देखें सत् - 2.5-6 ।
- प्राणों का यथायोग्य मार्गणा स्थानों में अंतर्भाव - देखें मार्गणा - 8 ।
- जीव को प्राणी कहने की विवक्षा - देखें जीव - 1.3.4
- प्राण का लक्षण
- निश्चय-व्यवहार प्राण समन्वय
- प्राण प्ररूपणा में निश्चय प्राम अभिप्रेत है
धवला 2/1, 1/404/3 दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति । तण्ण घडदे । कुदो । भाविंदियाभावादो । ... अध दव्विंदियस्स जदि गहणं कीरदि तो सण्णीणमज्जत्तकाले सत्त पाणा पीडिदूण दो चेव पण्णा भवंति, पंचण्ह दव्वेंदियाणामभावादो । = कितने ही आचार्य द्रव्येंद्रियों की पूर्णता की अपेक्षा (केवली के) दस प्राण कहते हैं, परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है क्योंकि सयोगी जिनके भावेंद्रियाँ नहीं पायी जाती है । .... यदि प्राणों में द्रव्येंद्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो ही प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येंद्रियों का अभाव है ।
- दश प्राण पुद्गलात्मक हैं जीव का स्वभाव नहीं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/147 तत्र जीवस्य स्वभावत्वमवात्पनोति पुद्गलद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् । = वह उसका (प्राण जीव का) स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से रचित है ।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/145 व्यवहारेण ... आयुराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि संबद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवति । = व्यवहार नय से .. आयु आदि चार अशुद्ध प्राणों से संबद्ध होने से जीता है । वह शुद्ध नय से जीव का स्वरूप नहीं है ।
- दश प्राणों का जीव के साथ कथंचित् भेदाभेद
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/332-344/423/24 कायादिप्राणैः सह कथंचिद् भेदाभेदः । कथं । इति चेत् तप्तायःपिंडवद्वर्तमानकाले पृथक्त्वं कर्तुंनायाति तेन कारणेन व्यवहारेणाभेदः । निश्चयेन पुनर्मरणकाले कायादिप्राणा जीवेन सहैव न गच्छंति तेन कारणेन भेदः । = कायादि प्राणों के साथ जीव का कथंचित् भेद व अभेद है । वह ऐसे है कि तपे हुए लोहे के गोले की भाँति वर्तमान काल में वे दोनों पृथक् नहीं किये जाने के कारण व्यवहार नय से अभिन्न हैं । और निश्चय नय से क्योंकि मरण काल में कायादि प्राण जीव के साथ नहीं जाते इसलिए भिन्न हैं ।
परमात्मप्रकाश टीका/2/127/244/4 स्वकीयप्राणह्रते सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्व्यवहारेणाभेदः । ... यदि पुनरेकांतेन देहात्मनोर्भेदा एव तर्हि परकीय देहघाते दुःखं न स्यान्न च तथा । निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद एव । = अपने प्राणों का घात होने पर दुख की उत्पत्ति होती है अतः व्यवहार नयकर प्राण और जीव को अभेद है । ... यदि एकांत से प्राणों को सर्वथा जुदे मानें तो जैसे पर के शरीर का घात होने परदुःख नहीं होता वैसे अपने देह का घात होने पर दुःख नहीं होना चाहिए । इसलिए व्यवहार नये से एकत्व है निश्चय से नहीं, क्योंकि देह का विनाश होने पर भी जीव का विनाश नहीं होता है । इसलिए भेद है ।
- निश्चय व्यवहार प्राणों का समन्वय
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/145 अथास्य जीवस्य सहजविजंभितानंतज्ञानशक्ति- हेतु के त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गल- संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति । = अब इस जीवको सहज रूप (स्वाभाविक) प्रगट अनंत ज्ञान शक्ति जिसका हेतु है, और तीनों कालों में अवस्थायित्व जिसका लक्षण है, ऐसा वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी जीवत्व होने पर भी, संसारावस्था में आदि प्रवाह रूप से प्रवर्तमान पुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों में संयुक्तता है, जो कि व्यवहार जीवत्व का हेतु है और विभक्त करने योग्य है ।
स्याद्वादमंजरी/27/306/9 संसारिणो दशविधद्रव्यप्राणधारणाद् जीवाः सिद्धाश्च ज्ञानादि भावप्राणधारणाद् इति सिद्धम् । = संसारी जीव द्रव्य प्राणों की अपेक्षा और सिद्ध जीव भाव प्राणों की अपेक्षा से जीव कहे जाते हैं ।
- प्राणों को जानने का प्रयोजन
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/30/68/7 अत्र ...शुद्धचैतन्यादिशुद्धप्राणसहितः शुद्ध जीवास्तिकाय एवोपादेयरूपेणध्यातव्य इति भावार्थ;= यहाँ ... शुद्ध चैतन्यादि शुद्ध प्राणों से सहित शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय रूप से ध्यान चाहिए, ऐसा भावार्थ है ।
द्रव्यसंग्रह टीका/12/31/6 अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः । = अभिप्राय यह है कि इन पर्याप्ति तथा प्राणों से भिन्न अपना शुद्धात्मा ही उपादेय है ।
- प्राण प्ररूपणा में निश्चय प्राम अभिप्रेत है
पुराणकोष से
(1) व्यवहार काल का एक प्रमाण । श्वास लेने और छोड़ने में लगने वाला समय प्राण कहलाता है । हरिवंशपुराण - 7.16,19
(2) जीव की जीवितव्यता का लक्षण । इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु और श्वासोच्छ्वास ये प्राण कहलाते हैं । इनकी विद्यमानता से ही जीव प्राणी कहा जाता है । महापुराण 24.105
(6) सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.166