समवसरण: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> तीर्थंकरों की सभाभूमि । यहाँ सुर और असुर आदि आकर तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का श्रवण करते हैं । यहाँ अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान भी होता है । महोदयमंडप में श्रुतकेवली श्रुत का व्याख्यान करते हैं । इस मंडप के आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप यहाँ और होते हैं जिनमें कथा कहने वाले आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते हैं । इन मंडपों के समीप में अन्य ऐसे स्थान यहाँ बने होते हैं जहाँ केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं । यहाँ भव्यकूट नाम के ऐसे स्तूप भी होते हैं जिन्हें अभव्य नहीं देख पाते । <span class="GRef"> महापुराण 33.73, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.1-161, 57. 86-89, 104, | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> तीर्थंकरों की सभाभूमि । यहाँ सुर और असुर आदि आकर तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का श्रवण करते हैं । यहाँ अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान भी होता है । महोदयमंडप में श्रुतकेवली श्रुत का व्याख्यान करते हैं । इस मंडप के आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप यहाँ और होते हैं जिनमें कथा कहने वाले आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते हैं । इन मंडपों के समीप में अन्य ऐसे स्थान यहाँ बने होते हैं जहाँ केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं । यहाँ भव्यकूट नाम के ऐसे स्तूप भी होते हैं जिन्हें अभव्य नहीं देख पाते । <span class="GRef"> महापुराण 33.73, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#1|हरिवंशपुराण - 7.1-161]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_57#86|57.86-89]] , [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_57#104|104]], पांडवपुराण 22. 60-66, </span>देखें [[ आस्थानमंडल ]]</p> | ||
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Revision as of 15:25, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
अर्हंत भगवान् के उपदेश देने की सभा का नाम समवसरण है, जहाँ बैठकर तिर्यंच मनुष्य व देव‒पुरुष व स्त्रियाँ सब उनकी अमृतवाणी से कर्ण तृप्त करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकार से देव लोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुष्प वाटिकाएँ, वापियाँ, चैत्य वृक्ष आदि होते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्यजन अधिकतर इसी के देखने में उलझ जाते हैं। अत्यंत भावुक व श्रद्धालु व्यक्ति ही अष्टमभूमि में प्रवेशकर साक्षात् भगवान् के दर्शनों से तथा उनकी अमृतवाणी से नेत्र, कान व जीवन सफल करते हैं।
- समवसरण का लक्षण
- समवसरण में अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान
- मिथ्यादृष्टि अभव्य जन श्रीमंडप के भीतर नहीं जाते
- समवसरण का माहात्म्य
- समवसरण देवकृत होता है
- समवसरण का स्वरूप
- समवसरण का विस्तार
1. समवसरण का लक्षण
महापुराण/33/73 समेत्यावसरावेक्षास्तिष्ठंत्यस्मिं सुरासुरा:। इति तज्झैर्निरुक्तं तत्सरणं समवादिकम् ।73। =इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्यध्वनि के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं, इसलिए जानकार गणधरादि देवों ने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है।73।
2. समवसरण में अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान
हरिवंशपुराण/57/86-89 तत: स्तंभसहस्रस्थो मंडपोऽस्ति महोदय:। नाम्ना मूर्तिमतिर्यत्र वर्तते श्रुतदेवता।86। तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरैर्बहुश्रुतेर्वृत:। श्रुतं व्याकुरुते यत्र श्रायसं श्रुतकेवली।87। तदर्धमानाश्चत्वारस्तत्परीवारमंडपा:। आक्षेपण्यादयो येषु कथ्यंते कथकै: कथा।88। तत्प्रकीर्णकवासेषु चित्रेष्वाचक्षते स्फुटम् । ऋषय: स्वेष्टमर्थिभ्य: केवलादिमहर्द्धय:।89। =[भवनभूमि नाम की सप्तम भूमि में स्तूपों से आगे एक पताका लगी हुई है] उसके आगे 1000 खंभों पर खड़ा हुआ महोदय नाम का मंडप है, जिसमें मूर्तिमती श्रुतदेवता विद्यमान रहती है।86। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके बहुश्रुत के धारक अनेक धीर वीर मुनियों से घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुत का व्याख्यान करते हैं।87। महोदय मंडप के आधे विस्तारवाले चार परिवार मंडप और हैं, जिनमें कथा कहने वाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं।88। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने रहते हैं, जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुकजनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं।89। (हरिषेण कृत कथा कोष। कथा नं.60/श्लोक 155-160)
3. मिथ्यादृष्टि अभव्य जन श्रीमंडप के भीतर नहीं जाते
तिलोयपण्णत्ति/4/932 मिच्छाइट्ठिअभव्वा तेसुमसण्णी ण होंति कइआइं। तह य अणज्झवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा।932। =इन (बारह) कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं से सहित जीव भी नहीं होते हैं।932।
हरिवंशपुराण/57/104 भव्यकूटाख्यया स्तूपा भास्वत्कूटास्ततोऽपरे। यानभव्या न पश्यंति प्रभावांधीकृतेक्षणा:।104। =[सप्तभूमि में अनेक स्तूप हैं। उनमें सर्वार्थसिद्धि नाम के अनेकों स्तूप हैं।] उनके आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नाम के स्तूप रहते हैं, जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते। क्योंकि उनके प्रभाव से उनके नेत्र अंधे हो जाते हैं।104।
4. समवसरण का माहात्म्य
तिलोयपण्णत्ति/4/929-933 जिणवंदणापयट्टा पल्लासंखेज्जभागपरिमाणा। चेट्ठंति विविहजीवा एक्केक्के समवसरणेसुं।929। कोट्ठाणं खेत्तादो जीवक्खेत्तं फलं असंखगुणं। होदूण अपुट्ठ त्ति हु जिणमाहप्पेण गच्छंति।930। संखेज्जजोयणाणि बालप्पहुदी पवेसणिग्गमणे। अंतोमुहुत्तकाले जिणमाहप्पेण गच्छंति।931। आतंकरोगमरणुप्पत्तीओ वेरकामबाधाओ। तण्हा छहपीडाओ जिणमाहप्पेण ण हवंति।933। =एक-एक समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेव की वंदना में प्रवृत्त होते हुए स्थित रहते हैं।929। कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं।930। जिनभगवान् के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करने अथवा निकलने में अंतर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यातयोजन चले जाते हैं।931। इसके अतिरिक्त वहाँ पर जिनभगवान् के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, बैर, कामबाधा तथा तृष्णा (पिपासा) और क्षुधा की पीड़ाएँ नहीं होती हैं।933।
5. समवसरण देवकृत होता है
तिलोयपण्णत्ति/4/710 ताहे सक्काणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणिं। विक्किरियाए धणदो विरएदि विचित्तरूवेहिं।710। =सौधर्म इंद्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा संपूर्ण तीर्थंकरों के समवसरण को विचित्ररूप से रचता है।710।
6. समवसरण का स्वरूप
तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा का भावार्थ
- 1. समवसरण के स्वरूप में 31 अधिकार हैं - सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, (प्रथमकोट) चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तंभ, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, साल (द्वितीय कोट), उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल (तृतीय-कोट), कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल (चतुष्क कोट), श्रीमंडप, ऋषि आदि गण, वेदी, पीठ, द्वितीय-पीठ, तृतीय पीठ, और गंधकूटी।712-715। 2. समवसरण की सामान्य भूमि गोल होती है।716। 3. उसकी प्रत्येक दिशा में आकाश में स्थित बीस-बीस हजार सोपान (सीढ़ियाँ) हैं।720। 4. इसमें चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ, और सर्वत्र अंतर भाग में तीन-तीन पीठ होते हैं। यह उसका विन्यास (कोटों आदि का सामान्य निर्देश) है।723। (देखें चित्र सं - 1 पृष्ठ 333) 5. प्रत्येक दिशा में सोपानों से लेकर अष्टम भूमि के भीतर गंधकुटी की प्रथम पीठ तक, एक-एक बीथी (सड़क) होती है।724। वीथियों के दोनों बाजुओं में वीथियों जितनी ही लंबी दो वेदियाँ होती हैं।728। आठों भूमियों के मूल में बहुत से तोरणद्वार होते हैं।731। 6. सर्वप्रथम धूलिशाल नामक प्रथम कोट है।733। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं।734। (देखें चित्र सं - 2 पृष्ठ 333) प्रत्येक गोपुर (द्वार) के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं।737। प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला है।743। (देखें चित्र सं - 3 पृष्ठ 333) ज्योतिषदेव इन द्वारों की रक्षा करते हैं।744। 7. धूलिसाल कोट के भीतर चैत्य प्रासाद भूमियाँ हैं (विशेष देखें वृक्ष )।751। जहाँ पाँच-पाँच प्रासादों के अंतराल से एक-एक चैत्यालय स्थित हैं।752। इस भूमि के भीतर पूर्वोक्त चार वीथियों के पार्श्वभागों में नाट्यशालाएँ हैं।756। जिनमें 32 रंगभूमियाँ हैं। प्रत्येक रंगभूमि में 32 भवनवासी कन्याएँ नृत्य करती हैं।758-759। 8. प्रथम (चैत्यप्रासाद) भूमि के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचोबीच गोल मानस्तंभ भूमि हैं।761। (विशेष देखें मानस्तंभ । चित्र सं.4 पृष्ठ 333) 9. इस प्रथम चैत्यप्रासादभूमि से आगे, प्रथम वेदी है, जिसका संपूर्ण कथन धूलिशालकोटवत् जानना।792-793। 10. इस वेदी से आगे खातिका भूमि है।795। जिसमें जल से पूर्ण खातिकाएँ हैं।796। 11. इससे आगे पूर्व वेदिका सदृश ही द्वितीय वेदिका है।799। 12. इसके आगे लताभूमि है, जो अनेकों क्रीड़ा पर्वतों व वापिकाओं आदि से शोभित है।800-801। 13. इसके आगे दूसरा कोट है, जिसका वर्णन धूलिसालवत् है, परंतु यह यक्षदेवों से रक्षित है।802। 14. इसके आगे उपवन नाम की चौथी भूमि है।803। जो अनेक प्रकार के वनों, वापिकाओं व चैत्य वृक्षों से शोभित है।804-805। 15. सब वनों के आश्रित सब वीथियों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो (कुल 16) नाट्यशालाएँ होती हैं। आदि वाली आठ में भवनवासी देवकन्याएँ और आगे की आठ में कल्पवासी देवकन्याएँ नृत्य करती हैं।815-816। 16. इसके पूर्वसदृश ही तीसरी वेदी है जो यक्षदेवों से रक्षित है।817। 17. इसके आगे ध्वज-भूमि है, जिसकी प्रत्येक दिशा में सिंह, गज आदि दस चिह्नों से चिह्नित ध्वजाएँ हैं। प्रत्येक चिह्न वाली ध्वजाएँ 108 हैं। और प्रत्येक ध्वजा अन्य 108 क्षुद्रध्वजाओं से युक्त है। कुल ध्वजाएँ=(10×108×4) + (10×108×108×4)=470880। 18. इसके आगे तृतीय कोट है जिसका समस्त वर्णन धूलिसाल कोट के सदृश है।827। 19. इसके आगे छठी कल्पभूमि है।828। जो दस प्रकार के कल्पवृक्षों से तथा अनेकों वापिकाओं, प्रासादों, सिद्धार्थ वृक्षों (चैत्यवृक्षों) से शोभित है।829-833।
20. कल्पभूमि के दोनों पार्श्वभाग में प्रत्येक वीथी के आश्रित चार-चार (कुल 16) नाट्यशालाएँ हैं।838। यहाँ ज्योतिष कन्याएँ नृत्य करती हैं।839। 21. इसके आगे चौथी वेदी है, जो भवनवासी देवों द्वारा रक्षित है।840। 22. इसके आगे भवनभूमियाँ हैं, जिनमें ध्वजा-पताकायुक्त अनेकों भवन हैं।841। 23. इस भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य में जिनप्रतिमाओं युक्त नौ-नौ स्तूप (कुल 72 स्तूप) हैं।844। 24. इसके आगे चतुर्थ कोट है जो कल्पवासी देवों द्वारा रक्षित है।848-849। 25. इसके आगे अंतिम श्रीमंडप भूमि है।852। इसमें कुल 16 दीवारें व उनके बीच 12 कोठे हैं।853। 26. पूर्वदिशा को आदि करके इन 12 कोठों में क्रम से गणधर आदि मुनिजन; कल्पवासी देवियाँ, आर्यिकाएँ व श्राविकाएँ, ज्योतिषी देवियाँ, व्यंतर देवियाँ, भवनवासी देवियाँ, भवनवासी देव, व्यंतरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तिर्यंच बैठते हैं।857-863। 27. इसके आगे पंचम वेदी है, जिसका वर्णन चौथे कोट के सदृश है।864। 28. इसके आगे प्रथम पीठ है, जिस पर बारह कोठों व चारों वीथियों के सन्मुख सोलह-सोलह सीढ़ियाँ हैं।865-866। इस पीठ पर चारों दिशाओं में सर पर धर्मचक्र रखे चार यक्षेंद्र स्थित हैं।870। पूर्वोक्त बारह के बारह गण इस पीठ पर चढ़कर प्रदक्षिणा देते हैं।873। 29. प्रथम पीठ के ऊपर द्वितीय पीठ होती है।875। जिसके चारों दिशाओं में सोपान हैं।879। इस पीठ पर सिंह, बैल आदि चिह्नों वाली ध्वजाएँ हैं व अष्टमंगल द्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि शोभित हैं।880-881। 30. द्वितीय पीठ के ऊपर तीसरी पीठ है।884। जिसके चारों दिशाओं में आठ-आठ सोपान हैं।886। 31. तीसरी पीठ के ऊपर एक गंधकुटी है, जो अनेक ध्वजाओं से शोभित है।887-888। गंधकुटी के मध्य में पादपीठ सहित सिंहासन है।893। जिस पर भगवान् चार अंगुल के अंतराल से आकाश में स्थित है।895। ( हरिवंशपुराण/7/1-161 ); ( धवला/9/4,1,44/109-113 ); ( महापुराण/22/77-312 )। (चित्र सं.5 पृष्ठ 334)
* मानस्तंभ का स्वरूप व विस्तार - देखें मानस्तंभ ।
* चैत्य वृक्ष का स्वरूप व विस्तार - देखें वृक्ष । (चित्र सं.6 पृष्ठ 334)
7. समवसरण का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/4/718 अवसप्पिणिए एदं भणिदं उस्सप्पिणीए विवरीदं। बारस जोयणमेत्ता सा सयलविदेहकत्ताणं।718। =यह जो सामान्य भूमि का प्रमाण बतलाया है (देखें आगे सारणी ) वह अवसर्पिणी काल का है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्र के संपूर्ण तीर्थंकरों के समवसरण की भूमि बारह योजन प्रमाण ही रहती है।718। (अवसर्पिणी काल में जिस प्रकार प्रथम तीर्थ से अंतिम तीर्थ तक भूमि आदि के विस्तार उत्तरोत्तर कम होते गये हैं उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल में वे उत्तरोत्तर बढ़ते होंगे। विदेह क्षेत्र के सभी समवसरणों में ये विस्तार प्रथम तीर्थंकर के समान जानने।)
प्रमाण - तिलोयपण्णत्ति/4/ गाथा सं.।
नोट - तीर्थंकरों की ऊँचाई के लिए। देखें तीर्थंकर - 5.3.2।
संकेत - यो.=योजन; को.=कोश; ध.=धनुष; अं=अंगुल।
नाम | गाथा सं. | लंबाई चौड़ाई या ऊँचाई | प्रथम ऋषभदेव के समवसरण में | 22 वें नेमिनाथ तक क्रमिक हानि | 23 वें पार्श्वनाथ के समवसरण में | 24वें वर्धमान के समवसरण में |
सामान्य भूमि | 816 | विस्तार (विशेष देखें तीर्थंकर - 5.3.4) | 12 योजन | 2 को. | 5/4 यो. | 1 यो. |
सोपान | 721 | लंबाई | 24x24 यो. | 24 यो. | को. | को. |
722 | चौड़ाई व लंबाई | 1 हाथ | x | 1 हाथ | 1 हाथ | |
वीथी | 724 | चौड़ाई | सोपानवत् | |||
725 | लंबाई | को. | को. | को. | को. | |
वीथी के दोनों बाजुओं में वेदी | 729 | ऊँचाई | ध. | ध. | ध. | ध. |
प्रथम कोट | 746 | ऊँचाई | स्व स्व तीर्थंकर से चौगुनी | |||
748 | मूल में विस्तार | को. | को. | को. | को. | |
तोरण व गोपुर द्वारा | 747 | ऊँचाई | कोट से तोरण और उससे गोपुर अधिक-अधिक ऊँचे हैं। | |||
चैत्य व प्रासाद | 753 | ऊँचाई | स्व-स्व तीर्थंकर से 12 गुनी | |||
चैत्यप्रासाद भूमि | 754 | विस्तार | यो. | यो. | यो. | यो. |
नाट्यशाला | 757 | ऊँचाई | स्व-स्व तीर्थंकर से 12 गुनी | |||
प्रथम वेदी | 794 | ऊँचाई व विस्तार | प्रथम कोटवत् | |||
खातिका भूमि | 797 | विस्तार | प्रथम चैत्यप्रासाद भूमिवत् | |||
द्वि.वेदी | 799 | विस्तार | प्रथम कोट से दूना | |||
799 | ऊँचाई | प्रथम कोटवत् | ||||
लताभूमि | 801 | विस्तार | चैत्यप्रासाद भूमि से दूना | |||
द्वि.कोट | 802 | ऊँचाई | प्रथम कोटवत् | |||
विस्तार | प्रथम कोट से दूना | |||||
उपवन भूमि | 814 | विस्तार | चैत्यप्रासाद भूमि से दूना | |||
उपवनभूमि के भवन | 813 | ऊँचाई | स्व-स्व तीर्थंकरों से 12 गुनी | |||
तृतीय वेदी | 817 | विस्तार व ऊँचाई | द्वितीय वेदीवत् | |||
ध्वज भूमि | 826 | विस्तार | लता भूमिवत् | |||
ध्वजस्तंभ | 821 | ऊँचाई | स्व स्व तीर्थंकरों से 12 गुना | |||
822 | विस्तार | अं. | अं. | अं. | अं. | |
तृतीय कोट | 827 | विस्तार व ऊँचाई | द्वितीय कोटवत् | |||
कल्प भूमि | 828 | विस्तार | ध्वज भूमिवत् | |||
चतुर्थ वेदी | 840 | विस्तार व ऊँचाई | प्रथम वेदीवत् | |||
भवन भूमि | विस्तार | (कल्पभूमिवत् ?) | ||||
भवनभूमि की भवन पंक्तियाँ | 843 | विस्तार | प्रथम वेदी से 11 गुणा | |||
स्तूप | 846 | ऊँचाई | चैत्य वृक्षवत् अर्थात् स्व स्व तीर्थंकर से 12 गुणा (देखें वृक्ष ) | |||
चतुर्थ कोट | 850 | विस्तार | को. | को. | ध. | ध. |
श्रीमंडप के कोठे | 853 | ऊँचाई | स्व स्व तीर्थंकर से 12 गुणी | |||
854 | विस्तार | को. | को. | को. | ध. | |
पंचम वेदी | 864 | विस्तार | चतुर्थ कोट सदृश | |||
प्रथम पीठ | 865 | ऊँचाई | मानस्तंभ के पीठवत् | ध. | ध. | |
ध. | ध. | |||||
(देखें मानस्तंभ ) | ||||||
867 | विस्तार | को. | को. | को. | को. | |
871 | मेखला | ध. | ध. | ध. | ध. | |
द्वि.पीठ | 875 | ऊँचाई | 4 ध. | ध. | ध. | ध. |
882 | विस्तार | को. | को. | को. | को. | |
877 | मेखला | प्रथम पीठवत् | ||||
तृतीय पीठ | 884 | ऊँचाई | द्वितीय पीठवत् | |||
885 | विस्तार | प्रथम पीठ से चौथाई | ||||
गंधकुटी | 889 | विस्तार | 600 ध. | 25 ध. | 125 ध. | 50 ध. |
891 | ऊँचाई | 900 ध. | ध. | ध. | 75 ध. | |
सिंहासन | 894 | ऊँचाई | स्व स्व तीर्थंकरों के योग्य |
चित्र पेज नं 333
पुराणकोष से
तीर्थंकरों की सभाभूमि । यहाँ सुर और असुर आदि आकर तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि का श्रवण करते हैं । यहाँ अन्य केवली आदि के उपदेश देने का स्थान भी होता है । महोदयमंडप में श्रुतकेवली श्रुत का व्याख्यान करते हैं । इस मंडप के आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप यहाँ और होते हैं जिनमें कथा कहने वाले आक्षेपिणी आदि कथाएँ कहते हैं । इन मंडपों के समीप में अन्य ऐसे स्थान यहाँ बने होते हैं जहाँ केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं । यहाँ भव्यकूट नाम के ऐसे स्तूप भी होते हैं जिन्हें अभव्य नहीं देख पाते । महापुराण 33.73, हरिवंशपुराण - 7.1-161, 57.86-89 , 104, पांडवपुराण 22. 60-66, देखें आस्थानमंडल