निदान: Difference between revisions
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भ.आ./मू./१२१५/१२१५ <span class="PrakritText">तत्थ णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं।१२१५।</span> =<span class="HindiText">निदान शल्य के तीन भेद हैं–प्रशस्त, अप्रशस्त व भोगकृत। (अ.ग.श्रा./७/२०)। </span></li> | भ.आ./मू./१२१५/१२१५ <span class="PrakritText">तत्थ णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं।१२१५।</span> =<span class="HindiText">निदान शल्य के तीन भेद हैं–प्रशस्त, अप्रशस्त व भोगकृत। (अ.ग.श्रा./७/२०)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">प्रशस्तादि निदानों के लक्षण</strong> </span><br> | ||
भ.आ./मू./१२१६-१२१९/१२१५ <span class="PrakritText">संजमहेदुं पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघदणबुद्धी सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं।१२१६। माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधरजिणत्तं। सोभग्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु।१२१७। कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पच्छेइ परवधादीयं। जह उग्गसेणघादे णिदाणं वसिट्ठेण।१२१८। देविगमणिसभोगो। णारिस्सरसिट्ठिसत्थवाहत्तं। केसवचक्कधरत्तं पच्छंतो होदि भोगकदं।१२१९।</span> =<span class="HindiText">पौरुष, शारीरिकबल, वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरे को प्राप्त हों ऐसी मन की एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं। धनिककुल में, बंधुओं के कुल में उत्पन्न होने का निदान करना प्रशस्त निदान है।१२१६। अभिमान के वश होकर उत्तम मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है। क्योंकि, मानकषाय से दूषित होकर उपर्युक्त अवस्था की अभिलाषा की जाती है।१२१७। क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुवधादिक की इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है।१२१८। देव मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपना, केशवपद, सकलचक्रवर्तीपना, इनकी भोगों के लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है।१२१९। (ज्ञा./२५/३४-३६); (अ.ग.श्रा./७/२१-२५)। </span></li> | भ.आ./मू./१२१६-१२१९/१२१५ <span class="PrakritText">संजमहेदुं पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघदणबुद्धी सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं।१२१६। माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधरजिणत्तं। सोभग्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु।१२१७। कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पच्छेइ परवधादीयं। जह उग्गसेणघादे णिदाणं वसिट्ठेण।१२१८। देविगमणिसभोगो। णारिस्सरसिट्ठिसत्थवाहत्तं। केसवचक्कधरत्तं पच्छंतो होदि भोगकदं।१२१९।</span> =<span class="HindiText">पौरुष, शारीरिकबल, वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरे को प्राप्त हों ऐसी मन की एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं। धनिककुल में, बंधुओं के कुल में उत्पन्न होने का निदान करना प्रशस्त निदान है।१२१६। अभिमान के वश होकर उत्तम मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है। क्योंकि, मानकषाय से दूषित होकर उपर्युक्त अवस्था की अभिलाषा की जाती है।१२१७। क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुवधादिक की इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है।१२१८। देव मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपना, केशवपद, सकलचक्रवर्तीपना, इनकी भोगों के लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है।१२१९। (ज्ञा./२५/३४-३६); (अ.ग.श्रा./७/२१-२५)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">प्रशस्ताप्रशस्त निदान की इष्टता अनिष्टता</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">प्रशस्ताप्रशस्त निदान की इष्टता अनिष्टता</strong></span><br> |
Revision as of 22:20, 1 March 2015
- निदान सामान्य का लक्षण
स.सि./७/३७/३७२/७ भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा निदानम् ।=भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है वह निदान है। (रा.वा./७/३७/६/५५९/९); (द्र.सं./टी./४२/१८४/१)।
स.सि./७/१८/३५६/९ निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा। =भोगों की लालसा निदान शल्य है। (रा.वा./७/१८/२/५४५/३४); (१२/४,२,८,९/२८४/९)। - निदान के भेद
भ.आ./मू./१२१५/१२१५ तत्थ णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं।१२१५। =निदान शल्य के तीन भेद हैं–प्रशस्त, अप्रशस्त व भोगकृत। (अ.ग.श्रा./७/२०)। - प्रशस्तादि निदानों के लक्षण
भ.आ./मू./१२१६-१२१९/१२१५ संजमहेदुं पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघदणबुद्धी सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं।१२१६। माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधरजिणत्तं। सोभग्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु।१२१७। कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पच्छेइ परवधादीयं। जह उग्गसेणघादे णिदाणं वसिट्ठेण।१२१८। देविगमणिसभोगो। णारिस्सरसिट्ठिसत्थवाहत्तं। केसवचक्कधरत्तं पच्छंतो होदि भोगकदं।१२१९। =पौरुष, शारीरिकबल, वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरे को प्राप्त हों ऐसी मन की एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं। धनिककुल में, बंधुओं के कुल में उत्पन्न होने का निदान करना प्रशस्त निदान है।१२१६। अभिमान के वश होकर उत्तम मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है। क्योंकि, मानकषाय से दूषित होकर उपर्युक्त अवस्था की अभिलाषा की जाती है।१२१७। क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुवधादिक की इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है।१२१८। देव मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपना, केशवपद, सकलचक्रवर्तीपना, इनकी भोगों के लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है।१२१९। (ज्ञा./२५/३४-३६); (अ.ग.श्रा./७/२१-२५)। - प्रशस्ताप्रशस्त निदान की इष्टता अनिष्टता
भ.आ./मू./१२२३-१२२६ कोढी संतो लद्धूण डहइ उच्छं रसायणं एसो। सो सामण्णं णासेइ भोगहेदुं णिदाणेण।१२२३। पुरिसत्तादि णिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति। जं पुरिसत्ताइमओ भावी भवमओ य संसारो।१२२४। दुक्खक्खयकम्मक्खयसमाधिमरणं च बोहिलाहो य। एयं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं।१२२५। पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए। आराधयस्स णियमा तत्थमकदे णिदाणे वि।१२२६। =जैसे कोई कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोग का नाशक रसायन पाकर उसको जलाता है, वैसे ही निदान करने वाला मनुष्य सर्व दु:खरूपी रोग के नाशक संयम का भोगकृत निदान के नाश करता है।१२२३। संयम के कारणभूत पुरुषत्व, संहनन आदिरूप (प्रशस्त) निदान भी मुमुक्षु मुनि नहीं करते क्योंकि पुरुषत्वादि पर्याय भी भव ही हैं और भव संसार है।१२२४। मेरे दु:खों का नाश हो, मेरे कर्मों का नाश हो, मेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति हो इन बातों की प्रार्थना करनी चाहिए। (क्योंकि ये मोक्ष के कारणभूत प्रशस्त निदान हैं)।१२२५। जिसने रत्नत्रय की आराधना की है उसको निदान न करने पर भी अन्य जन्म में निश्चय से पुरुषत्व आदि व संयम आदि की प्राप्ति होती है।१२२६। (अ.ग.श्रा./२३-२५)।