| जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन चारों में क्रमसे कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है। इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। इन दोनों ही प्रकार के अनुयोगों का कथन इस अधिकार में किया गया है।<br>१. आगमगत चार अनुयोग<br>1. आगम का चार अनुयोगों में विभाजन।<br>2. आगमगत चार अनुयोगों के लक्षण।<br>3. चारों अनुयोगों की कथन पद्धति में अन्तर।<br>4. चारों अनुयोगों का प्रयोजन।<br>5. चारों अनुयोगों की कथंचित् मुख्यता गौणता।<br>6. चारों अनुयोगों का मोक्षमार्ग के साथ समन्वय।<br>• चारों अनुयोगों के स्वाध्याय का क्रम। - दे. स्वाध्याय १।<br>२. अनुयोगद्वारों के भेद व लक्षण<br>1. अनुयोगद्वार सामान्य का लक्षण।<br>2. अनुयोगद्वारों के भेद-प्रभेदों के नाम निर्देश।<br>१. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार।<br>२. निर्देश, स्वामित्व आदि छः अनुयोगद्वार।<br>३. सत्, संख्यादि आठ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद।<br>४. पदमीमांसा आदि अनुयोगद्वार निर्देश।<br>• विभिन्न अनुयोगद्वारों के लक्षण। - दे. वह वह `नाम'।<br>३. अनुयोगद्वार निर्देश<br>1. सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों के क्रम का कारण।<br>2. अनुयोगद्वारों में परस्पर अन्तर।<br>• उपक्रम व प्रक्रम में अन्तर। - दे. उपक्रम।<br>3. अनुयोगद्वारों का परस्पर अन्तर्भाव।<br>4. ओघ और आदेश प्ररूपणाओं का विषय।<br>5. प्ररूपणाओं या अनुयोगों का प्रयोजन।<br>• अनुयोग व अनुयोग समास ज्ञान - दे. श्रुतज्ञान II<br>१. आगमगत चार अनुयोग<br>१. आगम का चार अनुयोगों में विभाजन<br>क्रियाकलाप में समाधिभक्ति-"प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः। <br>= प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग को नमस्कार है।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२ प्रथमानुयोगो....चरणानुयोगो....करणानुयोगो....द्रव्यानुयोगो इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टरूपेण चतुर्विधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम्। <br>= प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे उक्त लक्षणोंवाले चार अनुयोगों रूपसे चार प्रकार का श्रुतज्ञान जानना चाहिए। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१५)।<br>२. आगमगत चार अनुयोगों के लक्षण<br>१. प्रथमानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४३ प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधिनिधानं बोधातिबोधः समीचीनः ।।४३।। <br>= सम्यग्ज्ञान है सो परमार्थ विषय का अथवा धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का अथवा एक पुरुष के आश्रय कथा का अथवा त्रेसठ पुरुषों के चरित्र का अथवा पुण्य का अथवा रत्नत्रय और ध्यान का है कथन जिसमें सो प्रथमानुयोग रूप शास्त्र जानना चाहिए। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/९/२५८)।<br>[[हरिवंश पुराण]] सर्ग १०/७१ पदैः पञ्चसहस्रैस्तु प्रयुक्ते प्रथमे पुनः। अनुयोगे पुराणार्थस्त्रिषष्टिरुपवर्ण्यते ।।७१।। <br>= दृष्टिवाद के तीसरे भेद अनुयोगमें पाँच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेद प्रथमानुयोगमें त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण का वर्णन है ।।७१।। <br>([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१०३/१३८) ([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / [[जीव तत्त्व प्रदीपिका]] टीका गाथा संख्या./३६१-३६२/७७३/३) ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/८) ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१५)।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१,२/१,१,२/४ पढमाणियोगो पंचसहस्सपदेहि पुराणं वण्णेदि। <br>= प्रथमानुयोग अर्थाधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन करता है।<br>२. चरणानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४५ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ।।४५।। <br>= सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के अंगभूत चरणानुयोग शास्त्र को विशेष प्रकार से जानता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/११/२६१)।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/९ उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते। <br>= उपासकाध्ययन आदिमें श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१६)।<br>३. करणानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४४ लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ।।४४।। <br>= लोक अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रगट करनेवाले करणानुयोग को सम्यग्ज्ञान जानता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/१०/२६०)।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/१० त्रिलोकसारे जिनान्तरलोकविभागादिग्रन्थव्याख्यानं करणानुयोगो विज्ञेयः। <br>= त्रिलोकसार में तीर्थंकरों का अन्तराल और लोकविभाग आदि व्याख्यान है। ऐसे ग्रन्थरूप करणानुयोग जानना चाहिए। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/१५४/१७)।<br>४. द्रव्यानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४६ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालाकमातनुते ।।४६।। <br>= द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीवरूप सुतत्त्वों को, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष को तथा भावश्रुतरूपी प्रकाश का विस्तारता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/९२/२६१)।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,७/१५८/४ सताणियोगम्हि जमत्थित्तं उत्तं तस्स पमाणं परूवेदि दव्वाणियोगे। <br>= सत्प्ररूपणामें जो पदार्थों का अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाण का वर्णन द्रव्यानुयोग करता है। यह लक्षण अनुयोगद्वारों के अन्तर्गत द्रव्यानुयोग का है।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/११ प्राभृततत्त्वार्थसिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्धजीवादिषड्द्रव्यादीनां मुख्यवृत्त्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो भण्यते। <br>= समयसार आदि प्राभृत और तत्त्वार्थसूत्र तथा सिद्धान्त आदि शास्त्रों में मुख्यता से शुद्ध-अशुद्ध जीव आदि छः द्रव्य आदि का जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१८)।<br>३. चारों अनुयोगों की कथन पद्धति में अन्तर<br>१. द्रव्यानुय ग व करणानुयोग में <br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १३/४०/५ एवं पुढविजलतेउवाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन तृतीयगाथापादत्रयेण च....धवलजयधवलमहाधवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रयबीजपदं सूचितम्। `सव्वेसुद्धा हु सुद्वणयां इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेनपञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभृतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितम्।....यच्चाध्यात्मग्रन्थस्यं बीजपदभूतं शुद्धात्मस्वरूपमुक्तं तत्पुनरुपादेयमेव। <br>= इस रीति से चौदह मार्गणाओं के कथन के अन्तर्गत `पुढबिजलतेउवाऊ' इत्यादि दो गाथाओं और तीसरी गाथा के तीन पदों से धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन (करुणानुयोग के) सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, उनके बीजपद की सूचना ग्रन्थकारने की है। सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इस तृतीय गाथा के चौथे पादसे शुद्धात्मतत्त्व के प्रकाशक पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतों का बीजपद सूचित किया है। तहाँ जो अध्यात्मग्रन्थ का बीज पदभूत शुद्धात्मा का स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है।<br>नोट-(धवल आदि करणानुयोग के शास्त्रों के अनुसार जीव तत्त्व का व्याख्यान पृथिवी जल आदि असद्भूत व्यवहार गत पर्यायों के आधारपर किया जाता है; और पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोग के शास्त्रों के अनुसार उसी जीव तत्त्व का व्याख्यान उसकी शुद्धाशुद्ध निश्चय नयाश्रित पर्यायों के आधारपर किया जाता है। इस प्रकार करणानुयोगमें व्यवहार नय की मुख्यता से और द्रव्यानुयोग में निश्चयनय की मुख्यता से कथन किया जाता है।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०४/९ करणानुयोगविषैं....व्यवहारनय की प्रधानता लिये व्याख्यान जानना।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/८/४०७/२ करणानुयोगविषैं भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये व्याख्यान हो है ताकौं सर्वथा तैसे ही न मानना।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/८/४०६/१४ करणानुयोग विषैं तौ यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है। आचरण करावने की मुख्यता नाहीं।<br>रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल-समयसार आदि ग्रन्थ अध्यात्म है और आगम की चर्चा गोमट्टसार (करणानुयोग) में है।<br>२. द्रव्यानुयोग व चरणानुयोग में<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१४/४२९/७ (द्रव्यानुयोग के अनुसार) रागादि भाव घटें बाह्य ऐसैं अनुक्रमतै श्रावक मुनि धर्म होय। अथवा ऐसै श्रावक मुनि धर्म अंगीकार किये पंचम षष्ठम आदि गुणस्थाननि विषै रागादि घटावनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति हो है। ऐसा निरूपण चरणानुयोग विषैं किया।<br>३. करणानुयोग व चरणानुयोग में<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०६/१४ करणानुयोग विषैं तो यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है। आचरण करावने की मुख्यता नाहीं। तातैं यहु तौ चरणानुयोगादिक कै अनुसार प्रवर्तै, तिसतै जो कार्य होना है सो स्वयमेव हो होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहे तौ कैसे होय?<br>४. चारों अनुयोगों का प्रयोजन<br>१. प्रथमानुयोग का प्रयोजन<br>[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ३६१-३६२/७७३/३ प्रथमानुयोगः प्रथमं मिथ्यादृष्टिमविरतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोंऽधिकारः प्रथमानुयोगः। <br>= प्रथम कहिये मिथ्यादृष्टि अव्रती, विशेष ज्ञानरहित; ताको उपदेश देने निमित्त जो प्रवृत्त भया अधिकार अनुयोग कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/२/३९४/११ जे जीव तुच्छ बुद्धिं होंय ते भी तिस करि धर्म सन्मुख होये हैं। जातैं वे जीव सूक्ष्म निरूपण को पहिचानैं नाहीं, लौकिक वार्तानिकूं जानैं। तहाँ तिनिका उपयोग लागै। बहुरि प्रथमानुयोगविषैं लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकौ ते नीकैं समझ जांय।<br>२. करुणानुयोग का प्रयोजन <br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/३/३९५/२० जे जीव धर्म विषैं उपयोग लगाय चाहैं....ऐसे विचारविषैं (अर्थात् करणानुयोग विषय उनका) उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूट स्वयमेव तत्काल धर्म उपजै है। तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र ही है। बहुरि ऐसा सूक्ष्म कथन जिनमत विषैं ही है, अन्यत्र नाहीं, ऐसै महिमा जान जिनमत का श्रद्धानी हो है। बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होय इस करणानुयोग को अभ्यासै है, तिनकौ यहु तिसका (तत्त्वनिका) विशेषरूप भासै है।<br>३. चरणानुयोग का प्रयोजन<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/४/३९७/७ जे जीव हित-अहितकौ जानै नाहीं, हिंसादि पाप कार्यनि विषैं तत्पर होय रहे हैं, तिनिको जैसे वे पापकार्य कौं छोड़ धर्मकार्यनिविषैं लागैं, तैसे उपदेश दिया। ताकौ जानि धर्म आचरण करने कौ सम्मुख भये।....ऐसै साधनतैं कषाय मन्द हो है। ताका फलतै इतना तौ हो है, जो कुगति विषै दुःख न पावैं, अर सुगतिविषैं सुख पावैं।....बहुरि (जो) जीवतत्त्व के ज्ञानी होय करि चरणानुयोगकौ अभ्यासै हैं, तिनकौं ए सर्व आचरण अपने वीतरागभाव के अनुसारी भासै हैं। एकदेश वा सर्व देश वीतरागता भये ऐसी श्रावकदशा और मुनिदशा हो है।<br>४. द्रव्यानुयोग का प्रयोजन<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/५/३९८/४ जे जीवादि द्रव्यानिकौ का तत्त्वनिकौ पहिचानें नाहीं; आपापरकौ भिन्न जानैं नाहीं, तिनिकौ हेतु दृष्टान्त युक्तिकरि वा प्रमाणनयादि करि तिनिका स्वरूप ऐसै दिखाया जैसैं याके प्रतीति होय जाय। उनके भावों को पहिचानने का अभ्यास राखै तौ शीघ्र ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाय। बहुरि जिनिकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीवद्रव्यानुयोग कौ अभ्यासैं। तिनिको अपने श्रद्धान के अनुसारि सो सर्व कथन प्रतिभासै है। <br>५. चारों अनुयोगोंकी कथचित् मुख्यता गौणता<br>१. प्रथमानुयोगकी गौणता<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/६/४०१/९ यहाँ (प्रथमानुयोगमें) उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसै याको प्रमाण कीजिये है। याकौं तारतम्य न मानि लैना। तारतम्य करणानुयोग विषैं निरूपण किया है सो जानना। बहुरि प्रथमानुयोगविषैं उपचाररूप कोई धर्मका अंग भये सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है। - (जैसे) निश्चय सम्यक्त्वका तौ व्यवहार विषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्वके कोई एक अंग विषैं सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्वका उपचार किया, ऐसे उपचार करि सम्यक्त्व भया कहिए है।<br>२. करणानुयोगकी गौणता<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०४/१५ करणानुयोग विषैं......व्यवहार नयकी प्रधानता लिये व्याख्यान जानना, जातै व्यवहार बिना विशेष जान सके नाहीं। बहुरि कहीं निश्चय वर्णन भी पाइये है।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०७/२ करणानुयोगविषैं भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिए व्याख्यान हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।<br>मो.मा.प./८/७/४०६/२४ करणानुयोग विषैं तौ यथार्थ पदार्थ जनावनैका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करावनैंकी मुख्यता नाहीं।<br>३. चरणानुयोगकी गौणता<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/८/४०७/१९ चरणानुयोगविषैं जैसे जीवनिकै अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण होय सो उपदेश दिया है। तहाँ धर्म तौ निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, सोई है। ताकै साधनादिक उपचारतैं धर्म है, सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि नाना प्रकार उपचार धर्मके भेदादिकका या विषै निरूपण करिए है।<br>४. द्रव्यानुयोगकी प्रधानता<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१५/४३०/९ मोक्षमार्गका मूल उपदेश तौ तहाँ (द्रव्यानुयोग विषै) ही है।<br>६. चारों अनुयोगोंका मोक्षमार्ग के साथ समन्वय<br>१. प्रथमानुयोगका समन्वय<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/६/४००/१६ प्रश्न-(प्रथमानुयोगमें) ऐसा झूठा फल दिखावना तो योग्य नाहीं, ऐसे कथनकौ प्रमाण कैसे कीजिए? उत्तर-जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म विषैं न लागैं, वा पाप तैं न डरैं, तिनिका भला करनेके अर्थि ऐसे वर्णन करिए है।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१२/४२५/१५ <br> <b>प्रश्न</b> - (प्रथमानुयोग) रागादिका निमित्त होय, सो कथन ही न करना था। <br> <b>उत्तर</b> - सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्य कथन विषै लागै नाहीं, तातै जैसे बालकको बतासाकै आश्रय औषध दीजिये, तैसै सरागीकूँ भोगादि कथनकै आश्रय धर्मविषैं रुचि कराईए है।<br>२. करणानुयोगका समन्वय<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१३/४२७/१३ प्रश्न-द्वीप समुद्रादिकके योजनादि निरूपे तिनमें कहा सिद्धि है? उत्तर-तिनिकौं जानै किछू तिनिविषैं इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होय, तातैं पूर्वोक्त सिद्धि हो है। <br> <b>प्रश्न</b> - तौ जिसतैं किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा पाषाणादिककौं भी जानै तहाँ इष्ट अनिष्टपनों न मानिए है, सो भी कार्यकारी भया? <br> <b>उत्तर</b> - सरागी जीव रागादि प्रयोजन बिना काहूको जाननेका उद्यम न करै। जो स्वयमेव उनका जानना होय - तो तहाँते उपयोगको छुड़ाया ही चाहे है। यहाँ उद्यमकरि द्वीप समुद्रादिककौ जानै है, तहाँ उपयोग लगावै है। सो रागादि घटै ऐसा कार्य हो है। बहुरि पाषाणादि विषै लोकका कोई प्रयोजन भास जाय तौ रागादिक होय आवै। अर द्वीपादिकविषैं इस लोक सम्बन्धी कार्य किछू नाहीं, तातैं रागादिका कारण नाहीं....। ....बहुरि यथावत् रचना जाननै करि भ्रम मिटें उपयोग की निर्मलता होय, तातैं यह अभ्यासकारी है।<br>३. चरणानुयोगका समन्वय<br>[[प्रवचनसार]] / [[ प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका | तत्त्वप्रदीपिका ]] / गाथा संख्या २००/क.१२-१३ द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि, द्रव्यं, मिथो द्वयमिदं ननु स्वयपेक्षम्। तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग, द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।१२।। द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः, द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ। बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेऽपि, द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु ।।१३।।<br>= चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिए या तो द्रव्यका आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्गमें आरोहण करो ।।१२।। द्रव्यकी सिद्धिमें चरणकी सिद्धि है और चरणकी सिद्धिमें द्रव्यकी सिद्धि है, यह जानकर कर्मोंसे (शुभाशुभ भावों) से अविरत दूसरे भी, द्रव्यसे अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो ।।१३।।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१४/४२८/२० <br> <b>प्रश्न</b> - चरणानुयोगविषैं बाह्यव्रतादि साधनका उपदेश है, सो इनतैं किछू सिद्धि नाहीं। अपने परिणाम निर्मल चाहिए, बाह्य चाहो जैसे प्रवर्त्तौ। उत्तर-आत्म परिणामनिकै और बाह्यप्रवृत्तिकै निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हैं। जातैं छमस्थकै क्रिया परिणामपूर्वक हो है। - अथवा बाह्य पदार्थनिका आश्रय पाय परिणाम हो सकै हैं। तातैं परिणाम मेटनेके अर्थ बाह्य वस्तुका निषेध करना समयसारादिविषैं (स. सा. /मू. /२८५) - कह्या है। - बहुरि जो बाह्यसंयमतैं किछू सिद्धि न होय तौ सर्वार्थसिद्धिके वासी देव सम्यग्दृष्टि बहुत ज्ञानी तिनिकै तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्यके पंचम गुणस्थान होय, सो कारण कहा। बहुरि तीर्थंकरादि गृहस्थ पद छोड़ि काहेकौं संयम ग्रहैं।<br>४. द्रव्यानुयोगका समन्वय<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१५/४२९/१९ <br> <b>प्रश्न</b> - द्रव्यानुयोगविषैं व्रत-संयमादि व्यवहारधर्मका होनपना प्रगट किया है।....इत्यादि कथन सुन जीव हैं सो स्वच्छन्द होय पुण्य छोड़ि पापविषैं प्रवर्त्तेगे तातैं इनका वांचना सुनना युक्तं नाहीं। उत्तर-जैसे गर्दभ मिश्री खाए मरै, तौ मनुष्य तौ मिश्री खाना न छाड़ै। तैसै विपरीतबुद्धि अध्यात्म ग्रन्थ सुनि स्वच्छन्द होय तौ विवेकी तौ अध्यात्मग्रन्थनिका अभ्यास न छोड़ैं। इतना करै जाकौ स्वच्छन्द होता जानै, ताकौ जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसे उपदेश दें। बहुरि अध्यात्म ग्रन्थनिविषैं भी जहाँ तहाँ स्वच्छन्द होनेका निषेध कीजिये है। ....बहुरि जो झूठा दोषकी कल्पनाकरि अध्यात्म शास्त्रका बाँचना-सुनना निषेधिये तौ मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो तहाँ ही है। ताका निषेध किये मोक्षमार्ग का निषेध होय।<br>२. अनुयोगद्वारोंके भेद व लक्षण<br>१. अनुयोगद्वार सामान्यका लक्षण<br>[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/३-२२/$७/३ किमणिओगद्दारं णाम। अहियारो भण्णमाणस्थस्स अवगमोवाओ।<br>= अनुयोगद्वार किसे कहते हैं? कहे जानेवाले अर्थके जानने के उपायभूत अधिकारको अनुयोगद्वार कहते हैं।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,५/१००-१०१/१५३/८ अनियोगो नियोगो भाषा विभाषा वार्त्तिकेत्यर्थः। उक्तं च-अणियोगो य णियोगो भासा विभासा य वट्टिया चेय। एदे अणिओअस्स दु णामा एयट्ठआ पंच ।।१००।। सूई मुद्दा पडिहो संभवदल-वट्टिया चेय। अणियोगनिरुत्तीए दिट्ठंता होंति पंचेय ।।१०१।।<br>= अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ये पाँचों पर्यायवाची नाम हैं। कहा भी है - अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक ये पाँच अनुयोग के एकार्थवाची नाम जानने चाहिए ।।१००।। अनुयोगकी निरुक्तिमें सूची, मुद्रा, प्रतिघ, संभवदल और वार्त्तिका ये पाँच दृष्टान्त होते हैं ।।१०१।। विशेषार्थ - लकड़ीसे किसी वस्तुको तैयार करनेके लिए पहिले लकड़ीके निरुपयोगी भागको निकालनेके लिए उसके ऊपर एक रेखामें जो डोरा डाला जाता है, वह सूचीकर्म है। अनन्तर उस डोरासे लकड़ीके ऊपर जो चिह्न कर दिया जाता है वह मुद्रा कर्म है। इसके बाद उसके निरुपयोगी भागको छाँटकर निकाल दिया जाता है। इसे ही प्रतिघ या प्रतिघात कर्म कहते हैं। फिर इस लकड़ीके आवश्यकतानुसार जो भाग कर लिये जाते हैं वह सम्भव-दलकर्म है और अन्तमें वस्तु तैयार करके उसपर पालिश आदि कर दी जाती है, वह वार्त्तिका कर्म है। इस तरह इन पाँच कर्मों से जैसे विवक्षित वस्तु तैयार हो जाती है, उसी प्रकार अनुयोग शब्दसे भी आगमानुकूल सम्पूर्ण अर्थका ग्रहण होता है। नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ये चारों अनुयोग शब्दके द्वारा प्रगट होनेवाले अर्थको ही उत्तरोत्तर विशद करते हैं, अतएव वे अनुयोगके ही पर्यायवाची नाम हैं।<br>([[धवला]] पुस्तक संख्या ४,१,५४/१२२-१२३/२६०)।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८३/२ अनुयोगोऽधिकारः परिच्छेदः प्रकरणमित्याद्येकोऽर्थः।<br>= अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद, प्रकरण, इत्यादिक सब शब्द एकार्थवाची है।<br>२. अनुयोगद्वारोंके भेद-प्रभेदोंके नाम निर्देश<br>१. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार<br>[[स्याद्वादमंजरी]] श्लोक संख्या २८/३०९/२२ चत्वारि हि प्रवचनानुयोगमहानगरस्य द्वाराणि उपक्रमः निक्षैपः अनुगमः नयश्चेति।<br>= प्रवचन अनुयोगरूपी महानगरके चार द्वार हैं - उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय। (इनके प्रभेद व लक्षण - दे. वह-वह नाम)<br>२. निर्देश, स्वामित्व आदि छः अनुयोगद्वार<br>[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या १/७ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ।।७।।<br>= निर्देश, स्वामित्व, साधना (कारण), अधिकरण (आधार), स्थिति (काल) तथा विधान (प्रकार)-ऐसे छः प्रकारसे सात तत्त्वोंको जाना जाता है।<br>(लधीयस्त्रय पृ. १५)।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१/१८/३४ किं कस्म केण कत्थ व केवचिरं कदिविधो य भावो त्ति। छहि अणिओगद्दारेहि सव्वभावाणुगंतव्वा ।।१८।।<br>= पदार्थ क्या है (निर्देश), किसका है (स्वामित्व), किसके द्वारा होता है (साधन), कहाँपर होता है (अधिकरण), कितने समय तक रहता है (स्थिति), कितने प्रकारका है (विधान), इस प्रकार इन छह अनुयोगद्वारोंसे सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान करना चाहिए।<br>३. सत् संख्यादि ८ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद-प्रभेद<br><br>(Kosh1_P000102_Fig0009)<br>४. पदमीमांसादि अनुयोगद्वार निर्देश<br>[[षट्खण्डागम]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४/सू.१/१८ वेयणादव्वविहाणे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुए त्ति ।।१।।<br>= अब वेदना द्रव्य विधानका प्रकरण है। उसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ।।१।।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,१/१८/५ तत्थ पदं दुविहं-ववत्थापदं भेदपदमिदि।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,१/१९/२ एत्थभेदपदेन उक्कस्सादिसरूवेण अहियारो। उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्ण-सादि-अणादि-धुव-अद्धुव ओज-जुम्म-ओम-विसिट्ठ-णोमणोविसिट्टपदभेदेण एत्थतेरस पदाणि।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १०/४,२,४,१/गा. २/१९ पदमीमांसा संखा गुणयारो चउत्ययं च सामित्तं। ओजो अप्पाबहुगं ठाणाणि य जीवसमुहारो।<br>= पद दो प्रकारका है - व्यवस्थापद और भेदपद। यहाँ उत्कृष्टादि भेदपदका अधिकार है। उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओमनोविशिष्ट पदके भेदसे यहाँ तेरह पद हैं। - पदमीमांसा, संख्या, गुणकार, चौथा स्वामित्व, ओज, अल्पबहुत्व, स्थान और जीव समुदाहार, ये आठ अनुयोगद्वार हैं।<br>३. अनुयोगद्वार निर्देश<br>१. सत्, संख्याआदि अनुयोगद्वारोंके क्रमका कारण<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,७/१५५-१५८/७ संताणियोगो सेसाणियोगद्दाराणं जेण जोणीभूदो तेण पढमं संताणियोगो चेव भण्णदे।....णिय-संखा-गुणिदोगाहणखेत्तं खेत्तं उच्चदे दि। एदं चेव अदीद-फुसणेण सह फोसण उच्चदे। तदो दो वि अहियारा संखा-जोणिणो। णाणेग-जीवे अस्सिऊण उच्चमाण-कालंतर-परूवणा वि संखा-जोणी। इदंथोवमिदं च बहुवमिदि भण्णमाण-अप्पाबहुगं पि संखा-जोणी। तेण एदाणमाइम्हि दव्वपमाणाणुगमो भणण-जोग्गो।....भावो....तस्स बहुवण्णादो।...अवगय-वट्टमाण फासो सुहेण दो वि पच्छा जाणदु त्ति फोसणपरूवणादो होदु णाम पुव्वं खेत्तस्स परूवणा,....अणवगयखेत्तफोसणस्स तक्कालंतर-जाणणुवायाभावादो। तहा भावप्पाबहुगाणं पि परूवणा खेत्त-फोसणाणुगममंतरेण ण तव्विषया होंति त्ति पुव्वमेव खेत्त-फोसण-परूवणा कायव्वा। .....ण ताव अंतरपरूवणा एत्थ भणणजोग्गा कालजोणित्तादी। ण भावो वि तस्स तदो हेट्ठिम-अहियारजोणित्तादो। ण अप्पाबहुगं पि तस्स वि सेसाणियोग-जोणित्तादो। परिसेसादी कालो चेव तत्थ परूवणा-जोगी त्ति। भावप्पाबहुगाणं जोणित्तादो पुव्वमेवंतरपरूवणा उत्ता अप्पाबहुग-जोणित्तादो पुव्वमेव भावपरूवणा उच्चदे।<br>= सत्प्ररूपणारूप अनुयोगद्वार जिस कारणसे शेष अनुयोगद्वारोंका योनिभूत है, उसी कारण सबसे पहले सत्प्ररूपणाका ही निरूपण किया है ।।पृ. १५५।। अपनी-अपनी संख्यासे गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते हैं। इसी प्रकार अतीतकालीन स्पर्शके साथ स्पर्शनानुगम कहा जाता है। इसलिए इन दोनों ही अधिकारोंका संख्याधिकार योनिभूत है। उसी प्रकार नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा वर्णन की जानेवाली काल प्ररूपणा और अन्तर प्ररूपणाका भी संख्याधिकार योनिभूत है। तथा यह अल्प है और यह बहुत है इस प्रकार कहे जानेवाले अल्पबहुत्वानुयोगद्वारका भी संख्याधिकार योनिभूत है। इसलिए इन सबके आदिमें द्रव्यप्रमाणानुगम या संख्यानुयोगद्वारका ही कथन करना चाहिए। बहुत विषयवाला होनेके कारण भाव प्ररूपणाका वर्णन यहाँ नहीं किया गया है ।।पृ. १५६।। जिसने वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लिया है, वह अनन्तर सरलतापूर्वक अतीत व वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लेवे, इसलिए स्पर्शनप्ररूपणासे पहिले क्षेत्रप्ररूपणाका कथन रहा आवे। जिसने क्षेत्र और स्पर्शनको नहीं जाना है, उसे तत्सम्बन्धी काल और अन्तरको जाननेका कोई भी उपाय नहीं हो सकता है। उसी प्रकार भाव और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा क्षेत्र और स्पर्शनानुगमके बिना क्षेत्र और स्पर्शनको विषय करनेवाली नहीं हो सकती। इसलिए इन सबके पहिले ही क्षेत्र और स्पर्शनानुगमका कथन करना चाहिए ।।पृ. १५७।। यहाँपर अन्तरप्ररूपणाका कथन तो किया नहीं जा सकता है, क्योंकि अन्तरप्ररूपणाकी योनिभूत कालप्ररूपणा है। स्पर्शनप्ररूपणाके बाद भावप्ररूपणाका भी वर्णन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कालप्ररूपणासे नीचेका अधिकार भावप्ररूपणाका योनिभूत है। उसी प्रकार स्पर्शनप्ररूपणाके बाद अल्पबहुत्वका भी कथन नहीं किया जा सकता, क्योंकि शेषानुयोग (भावानुयोग) अल्पबहुत्व-प्ररूपणाका योनिभूत है। तब परिशेषन्यायसे वहाँपर काल ही प्ररूपणाके योग्य है यह बात सिद्ध हो जाती है ।।पृ. १५७।। भाव प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणाकी योनिभूत होनेसे इन दोनों के पहिले ही अन्तर प्ररूपणाका उल्लेख किया गया है तथा अल्पबहुत्वकी योनि होनेसे इसके पीछे ही भावप्ररूपणाका कथन किया है ।।पृ. १५८।।<br>([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८,२-६/४१)।<br>२. अनुयोगद्वारोंमें परस्पर अन्तर<br>१. काल अन्तर व भंग विचयमें अन्तर<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या ७/२,१,२/२७/१० णाणाजीवेहि काल-भंगविचयाणं को विसेसो। ण, णाणाजीवेहि भंगविचयस्स मग्गणाणं विच्छेदाविच्छेदत्थित्तपरूवयस्स मग्गणकालंतरेहि सह एयत्तविरोहादो।<br>= प्रश्न-नाना जीवोंकी अपेक्षा काल और नाना जीवोंका अपेक्षा भंग विचय इन दोनोंमें क्या भेद है? उत्तर-नहीं, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामक अनुयोगद्वार मार्गणाओंके विच्छेद और विच्छेदके अस्तित्वका प्ररूपक है। अतः उसका मार्गणाओंके काल और अन्तर बतलानेवाले अनुयोगद्वारोंके साथ एकत्व माननेमें विरोध आता है।<br>२. उत्कृष्ट विभक्ति सर्वस्थिति अद्धाच्छेदमें अन्तर<br>[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/३-२२/$२०/१४/१२ सव्वट्ठिदीए अद्धाछेदम्मि भणिद उक्कस्सट्ठिदीए च को भेदो। वुच्चदे-चरिमणिसेयस्स जो कालो सो उक्कस्सअद्धाछेदम्मि भणिदउक्कस्सटिठदी णाम। तत्थतणसव्वणिसेयाणं समूहो सव्वट्ठिदी णाम। तेण दोण्हमत्थि भेदो। उक्कस्सविहत्तीए उक्कस्सअद्धाछेदस्स च को भेदो। वुच्चदे-चरिमणिसेयस्स कालो उक्कस्सअद्धाच्छेदो णाम। उक्कस्सट्ठिदीविहत्ती पुण सव्वणिसेयाणं सव्वणिसेयपदेसाणं वा कालो। तेण एदेसिं पि अत्थि भेदो।<br>= प्रश्न-सर्वस्थिति और अद्धाच्छेदमें कही गयी उत्कृष्ट स्थितिमें क्या भेद है? उत्तर-अन्तिम निषेकका जो काल है वह उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें कही गयी उत्कृष्ट स्थिति है तथा वहाँपर रहनेवाले सम्पूर्ण निषेकोंका जो समूह है वह सर्व स्थिति है, इसलिए इन दोनोंमें भेद है। <br> <b>प्रश्न</b> - उत्कृष्ट विभक्ति व उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें क्या भेद है? उत्तर-अन्तिम निषेकके कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते हैं और समस्त निषेकोंके या समस्त निषेकोंके प्रदेशोंके कालको उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति कहते हैं, इसलिए इन दोनोंमें भेद है।<br>३. उत्कृष्ट विभक्ति व सर्वस्थितिमें अन्तर<br>[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या ३/३-२२/$२०/१५/५ एवं संते सव्वुक्कस्सविहत्तीणं णत्थि भेदो त्ति णासंकणिज्जं। ताणं पि णयविसेसवसेण कथं चि भेदुवलंभादो। तं जहा-ससुदायपहाणा उक्कस्सविहत्ती। अवयवपहाणा सव्वविहत्ति त्ति। <br>= ऐसा (उपरोक्त शंकाका समाधान) होते हुए सर्वविभक्ति और उत्कृष्ट विभक्ति इन दोनोंमें भेद नहीं है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, नयविशेषकी अपेक्षा उन दोनोंमें भी कथंचित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार है-उत्कृष्टविभक्ति समुदायप्रधान होती है और सर्वविभक्ति अवयवप्रधान होती है।<br>३. अनुयोगद्वारोंका परस्पर अन्तर्भाव<br>[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या २/२-२२/९९/८१/५ कमणियोगद्दारं कम्मिसंगहियं। वुच्चदे, समुक्कित्तणा ताव पुध ण वत्तव्वा सामित्तादिअणियोगद्दारेहि चेव एगेगपयडीणमत्थित्तसिद्धीदो अवगयत्यपरूवणाए फलाभावादो। सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्तीओ च ण वत्तव्वाओ, सामित्त-सण्णियासादिअणिओगद्दारेसु भण्णमाणेसु अवगयपयडिसंखस्स सिस्सस्स उक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णपयडिसंखाविसयपडिवोहुप्पत्तीदो। सादि-अणादिधुव-अद्धुव अहियारा वि ण वत्तव्वा कालंतरेसु परूविज्जमाणेसु तदवगमुप्पत्तीदो। भागाभागो ण वत्तव्वोः अवगयअप्पावहुग (स्स) संखविसयपडिवोहुप्पत्तीदो। भावो वि ण वत्तव्वो; उवदेसेण विणा वि मोहोदएण मोहपयडिविहत्तीए संभवो होदि त्ति अवगसुप्पत्तीदो। एवं संपहियसेसतेरसअत्थाहियारत्तादो एक्कारसअणिओगद्दारपरूवणा चउवीसअणियोगद्दारपरूवणाए सह ण विरुज्झदे।<br>= अब किस अनुयोगद्वारका किस अनुयोगद्वारमें संग्रह किया है इसका कथन करते हैं। यद्यपि समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंका अस्तित्व बतलाया जाता है तो भी उसे अलग नहीं कहना चाहिए, क्योंकि स्वामित्वादि अनुयोगोंके कथनके द्वारा प्रत्येक प्रकृतिका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है अतः जाने हुए अर्थका कथन करनेमें कोई फल नहीं है। तथा सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्य विभक्ति और अजघन्य विभक्तिका भी अलगसे कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वामित्व, सन्निकर्ष आदि अनुयोगद्वारोंके कथनसे जिस शिष्यने प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान कर लिया है उसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान हो ही जाता है तथा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अधिकारोंका पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि काल और अन्तर अनुयोग द्वारोंके कथन करनेपर उनका ज्ञान हो जाता है। तथा भागाभाग अनुयोगद्वारका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसे अल्पबहुत्वका ज्ञान हो गया है उसे भागाभागका ज्ञान हो ही जाता है। उसी प्रकार भाव अनुयोगद्वारका भी पृथक् पृथक् कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोहके उदयसे मोहप्रकृतिविभक्ति होती है, ये बात उपदेशके बिना भी ज्ञात हो जाती है। इस प्रकार शेष तेरह अनुयोगद्वार ग्यारह अनुयोगद्वारोंमें ही संग्रहीत हो जाते हैं। अतः ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन चौबीस अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ विरोधको नहीं प्राप्त होता।<br>४. ओघ और आदेश प्ररूपणाओंका विषय<br>[[राजवार्तिक हिन्दी| राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/८/६८ सामान्य करि तो गुणस्थान विषैं कहिये और विशेष करि मार्गणा विषैं कहिए।<br>५. प्ररूपणाओं या अनुयोगोंका प्रयोजन<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१/४१५/२ प्ररूपणायां किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते, सूत्रेण सूचितार्थानां स्पष्टीकरणार्थं विंशतिविधानेन प्ररूपणोच्यते।<br>= प्रश्न-प्ररूपणा करनेमें क्या प्रयोजन है? उत्तर-सूत्रके द्वारा सूचित पदार्थोंके स्पष्टीकरण करनेके लिए बीस प्रकारसे प्ररूपणा कही जाती है।<br>अनुयोगसमास-<br>श्रुतज्ञानका एक भेद - दे. श्रुतज्ञान II।<br>अनुयोगी – <br>(यह शब्द नैयायिक व वैशेषिक दर्शनकार आधार व आश्रयके अर्थमें प्रयुक्त करते हैं। द्रव्य अपने गुणोंका अनुयोगी है, परन्तु गुण अपने द्रव्यका नहीं, क्योंकि द्रव्य ही गुणका आश्रय है, गुण द्रव्यका नहीं)।<br>अनुराग – <br>दे राग।<br>अनुराधा – <br>एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र।<br>अनुलोम – <br>([[पंचाध्यायी]] / पूर्वार्ध श्लोक संख्या २८८/भाषाकार) सामान्यकी मुख्यता तथा विशेषकी गौणता करनेसे जो अस्तिनास्तिरूप वस्तु प्रतिपादित होती है, उसको अनुलोमक्रम कहते हैं।<br>अनुवाद – <br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,२४/२०१/४ गतिरुक्तलक्षणा, तस्याः वदनं वादः। प्रसिद्धस्याचार्यपरम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चात् वादोऽनुवादः।<br>= गतिका लक्षण पहिले कह आये हैं। उसके कथन करनेको वाद कहते हैं। आचार्य परम्परासे आये हुए प्रसिद्ध अर्थका तदनुसार कथन करना अनुवाद है।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१११/३४९/३ तथोपदिष्टमेवानुवदनमनुवादः।....प्रसिद्धस्य कथनमनुवादः।<br>= जिस प्रकार उपदेश दिया है, उसी प्रकार कथन करनेको अनुवाद कहते हैं। अथवा प्रसिद्ध अर्थके अनुकूल कथन करनेको अनुवाद कहते हैं।<br>अनुवीचिभाषण – <br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ७/५,१/५३६/१२ अनुवीचिभाषणं अनुलोमभाषणमित्यर्थः।<br>= अनुवीचिभाषण अर्थात् विचारपूर्वक बोलना <br>(चा.स. /९३/३)।<br>चा.प./टी./४९/११ वीची वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सोऽनुवीचिभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुल्लंध्य भाषणीयमित्यर्थः।<br>= वीची वाग्लहरी को कहते हैं उसका अनुसरण करके जो भाषा बोली जाती है सो अनुवीचिभाषण है। जिनसूत्रकी अनुसारिणीभाषा अमुवीची भाषा है। पूर्वाचार्यकृत सूत्रकी परिपाटीको उल्लंघन न करके बोलना, ऐसा अर्थ है।<br>अनुवृत्ति- <br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या १/३३१४०/९ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः।<br>= द्रव्यका अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है।<br>[[स्याद्वादमंजरी]] श्लोक संख्या ४/१६/२ एकाकारप्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चानुवृत्तिः।<br>= एक नामसे जाननेवाली प्रतीतिको अनुवृत्ति अथवा सामान्य कहते हैं। किसी धर्मकी विधिरूपसे वृत्ति या अनुस्यूतिको अनुवृत्ति कहते हैं। जैसे घटमें घटत्वकी अनुवृत्ति है।<br>([[न्यायदीपिका]] अधिकार ३/$७६)।<br>अनुशिष्ट-<br>[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ६८/१९६/४ अणुसिट्ठि सूत्रानुसारेण शासनम्।<br>= अनुशिष्ट अर्थात् आगमके अविरुद्ध उपदेश करना।<br>[[Category:अ]] <br>[[Category:क्रियाकलाप]] <br>[[Category:द्रव्यसंग्रह]] <br>[[Category:पंचास्तिकाय]] <br>[[Category:पंचास्तिकाय संग्रह]] <br>[[Category:रत्नकरण्डश्रावकाचार]] <br>[[Category:अनगार धर्मामृत]] <br>[[Category:हरिवंश पुराण]] <br>[[Category:कषायपाहुड़]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] <br>[[Category:धवला]] <br>[[Category:भगवती आराधना]] <br>[[Category:मूलाचार]] <br>[[Category:त्रिलोकसार]] <br>[[Category:तत्त्वार्थसूत्र]] <br>[[Category:समयसार]] <br>[[Category:प्रवचनसार]] <br>[[Category:मोक्षमार्गप्रकाशक]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:स्याद्वादमंजरी]] <br>[[Category:षट्खण्डागम]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br>[[Category:राजवार्तिक हिन्दी]] <br>[[Category:वैशेषिक दर्शन]] <br>[[Category:पंचाध्यायी]] <br>[[Category:न्यायदीपिका]] <br>
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