विकल्प: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./१२४ <span class="SanskritText">विकल्पस्तदाकारावभासनम्। यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">(स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है)। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात् ज्ञानभूमि में प्रतिभासित बाह्य पदार्थों के आकार या प्रतिबिम्ब ज्ञान के विकल्प कहे जाते हैं।) </span><br /> | प्र.सा./त.प्र./१२४ <span class="SanskritText">विकल्पस्तदाकारावभासनम्। यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">(स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है)। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात् ज्ञानभूमि में प्रतिभासित बाह्य पदार्थों के आकार या प्रतिबिम्ब ज्ञान के विकल्प कहे जाते हैं।) </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./४२/१८१/३ <span class="SanskritText">घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्म-कमित्यर्थः। </span>=<span class="HindiText"> ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि ग्रहण व्यापार रूप से ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है।–(और भी, | द्र.सं./टी./४२/१८१/३ <span class="SanskritText">घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्म-कमित्यर्थः। </span>=<span class="HindiText"> ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि ग्रहण व्यापार रूप से ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है।–(और भी, देखें - [[ आकार#1 | आकार / १ ]]) </span><br /> | ||
पं.ध./५/६०८ <span class="SanskritText">अर्थालोकविकल्पः। </span><br /> | पं.ध./५/६०८ <span class="SanskritText">अर्थालोकविकल्पः। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./३९१ <span class="SanskritGatha">आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैत्द्धि लक्षणम्।३९१। </span><span class="HindiText">अर्थ का प्रतिभास विकल्प कहलाता है ।६०८। साकार शब्द में आकार शब्द का अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषय रूप है । विकल्प शब्द का अर्थ उपयोग सहित अवस्था होता है, क्योंकि ज्ञान का यह आकार लक्षण है ।३९१। (प.ध./उ./८३७) <br /> | पं.ध./उ./३९१ <span class="SanskritGatha">आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैत्द्धि लक्षणम्।३९१। </span><span class="HindiText">अर्थ का प्रतिभास विकल्प कहलाता है ।६०८। साकार शब्द में आकार शब्द का अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषय रूप है । विकल्प शब्द का अर्थ उपयोग सहित अवस्था होता है, क्योंकि ज्ञान का यह आकार लक्षण है ।३९१। (प.ध./उ./८३७) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./५/१६/३ <span class="SanskritText">यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमयीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। </span>=<span class="HindiText"> जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। ( द्र.सं./टी./४२/१८४/२) <br /> | द्र.सं./टी./५/१६/३ <span class="SanskritText">यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमयीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। </span>=<span class="HindiText"> जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। ( द्र.सं./टी./४२/१८४/२) <br /> | ||
देखें - [[ जीव#1.3.3 | जीव / १ / ३ / ३ ]][समाधिकाल में स्वसंवेदन की निर्विकल्पता के कारण ही जीव को कथंचित् जड़ कहा जाता है।] </span><br /> | |||
पं.ध./पू./७१६<span class="SanskritGatha"> तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम्।७१६। पं.ध./उ./८५९ शुद्धः स्वात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादसंक्रान्तात्मसंगतेः।८५९।</span> = <span class="HindiText">यहाँ पर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किन्तु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञानरूप हो जाता है।७१६। वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है वह संक्रान्त्यात्मक न होने से निर्विकल्परूप ही है।८५९। <br /> | पं.ध./पू./७१६<span class="SanskritGatha"> तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम्।७१६। पं.ध./उ./८५९ शुद्धः स्वात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादसंक्रान्तात्मसंगतेः।८५९।</span> = <span class="HindiText">यहाँ पर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किन्तु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञानरूप हो जाता है।७१६। वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है वह संक्रान्त्यात्मक न होने से निर्विकल्परूप ही है।८५९। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने </strong> </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./१७० <span class="SanskritText">कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति। यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति। हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः। किं वहुना। तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अतएव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति। तन्न खलु संयतं स्वभाववादिनामिति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>वह (विपरीत वितर्क) किस प्रकार है? पूर्वोक्तस्वरूप आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है? उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में स्थित रहता है। <strong>उत्तर–</strong>हे प्राथमिक शिष्य, अग्नि की भाँति क्या आत्मा अचेतन है? अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा और इसलिए वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। और वह वास्तव में स्वभाववादियों को सम्मत नहीं है।–(विशेष | नि.सा./ता.वृ./१७० <span class="SanskritText">कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति। यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति। हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः। किं वहुना। तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अतएव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति। तन्न खलु संयतं स्वभाववादिनामिति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>वह (विपरीत वितर्क) किस प्रकार है? पूर्वोक्तस्वरूप आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है? उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में स्थित रहता है। <strong>उत्तर–</strong>हे प्राथमिक शिष्य, अग्नि की भाँति क्या आत्मा अचेतन है? अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा और इसलिए वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। और वह वास्तव में स्वभाववादियों को सम्मत नहीं है।–(विशेष देखें - [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान / ६ ]])। | ||
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Revision as of 15:26, 6 October 2014
विकल्प दो प्रकार का होता है–रागात्मक व ज्ञानात्मक। राग के सद्भाव में ही ज्ञान में ज्ञप्तिपरिवर्तन होता है। और उसके अभाव के कारण ही केवलज्ञान, स्वसंवेदन ज्ञान व शुक्लध्यान निर्विकल्प होते हैं।
- विकल्प सामान्य का लक्षण
- राग की अपेक्षा
द्र.सं./टी./४१/१७४/१ अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति। अथवा वस्तुवृत्त्या संकल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः। = अन्तरंग में मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा खेद का करना है, वह विकल्प है। अथवा वास्तव में जो संकल्प (पुत्र आदि मेरे हैं, ऐसा भाव) है, वही विकल्प है, अर्थात् विकल्प संकल्प की पर्याय है। (पं.का./ता.वृ./७/१९/८); (प.प्र./टी./१/१६/२४/१) ।
- ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा
प्र.सा./त.प्र./१२४ विकल्पस्तदाकारावभासनम्। यस्तु मुकुरुन्दहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानम्। = (स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है)। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात् ज्ञानभूमि में प्रतिभासित बाह्य पदार्थों के आकार या प्रतिबिम्ब ज्ञान के विकल्प कहे जाते हैं।)
द्र.सं./टी./४२/१८१/३ घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्म-कमित्यर्थः। = ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि ग्रहण व्यापार रूप से ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है।–(और भी, देखें - आकार / १ )
पं.ध./५/६०८ अर्थालोकविकल्पः।
पं.ध./उ./३९१ आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैत्द्धि लक्षणम्।३९१। अर्थ का प्रतिभास विकल्प कहलाता है ।६०८। साकार शब्द में आकार शब्द का अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषय रूप है । विकल्प शब्द का अर्थ उपयोग सहित अवस्था होता है, क्योंकि ज्ञान का यह आकार लक्षण है ।३९१। (प.ध./उ./८३७)
- ज्ञप्तिपरिवर्तन की अपेक्षा
पं.ध./उ./८३४ विकल्पो योगसंक्रान्तिरर्थाज्ज्ञानस्य पर्ययः। ज्ञेयाकारः स ज्ञेयार्थात् ज्ञेयार्थान्तरसंगतः।८३४। = योगों की प्रवृत्ति के परिवर्तन को विकल्प कहते हैं, अर्थात् एक ज्ञान के विषयभूत अर्थ से दूसरे विषयान्तरत्व को प्राप्त होने वाली जो ज्ञेयाकाररूप ज्ञान की पर्याय है, वह विकल्प कहलाता है।
मो.मा.प्र./७/३१०/९ रागद्वेष के वशतैं किसी ज्ञेय के जाननेविषै उपयोग लगावना। किसी ज्ञेय के जाननेतै छुड़ावना, ऐसे बराबर उपयोग का भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाकौं जानैं हैं, ताकौ यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोगर्कौ नाहीं भ्रमावै है। तहाँ निर्विकल्प दशा जाननी।
- राग की अपेक्षा
- ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प
द्र.सं./टी./४/१३/१ निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं। = दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है। (पं.का./ता.वृ./४०/८०/१५)
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प हैं– देखें - गुण / २ ।
- सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना
पं.ध./उ./८३८ विकल्पः सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारो मनागपि। योगसंक्रान्तिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना।८३८। = ज्ञान का स्वलक्षणभूत व विकल्प सम्यग्दर्शन के निर्विकल्प व सविकल्प के कथन में कुछ भी अधिकार नहीं है, किन्तु योग-संक्रान्तिरूप जो विकल्प, वही इस समय सम्यक्त्व के सविकल्प और निविकल्प के विचार करते समय अधिकार रखता है।
- लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है
पं.ध./उ./८५८ सिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा।८५८। = इतना कहने से यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है, वह स्वतः उपयोगरूप न होने से निर्विकल्प है।
- मति श्रुत ज्ञान की कथंचित् निर्विकल्पता–देखें - ऊपर।
- स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है
द्र.सं./टी./५/१६/३ यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमयीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। = जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। ( द्र.सं./टी./४२/१८४/२)
देखें - जीव / १ / ३ / ३ [समाधिकाल में स्वसंवेदन की निर्विकल्पता के कारण ही जीव को कथंचित् जड़ कहा जाता है।]
पं.ध./पू./७१६ तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम्।७१६। पं.ध./उ./८५९ शुद्धः स्वात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादसंक्रान्तात्मसंगतेः।८५९। = यहाँ पर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किन्तु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञानरूप हो जाता है।७१६। वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है वह संक्रान्त्यात्मक न होने से निर्विकल्परूप ही है।८५९।
- स्वसंवेदन में ज्ञान का सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा
द्र.सं./टी./४२/१८४/६ अत्राह शिष्यः इत्युक्तप्रकारेण यन्निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भण्यते तन्न घटते। कस्मादिति चेत् उच्यते। सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शन यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पकं भण्यते। परं किंतु तन्निर्विकल्पमपि विकल्पजनकं भवति। जैनमते तु विकल्पस्योत्पादकं भवत्येव न, किंतु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति। तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति। तत्र परिहारः कथंचित् सविकल्पकं निर्विकल्पकं च। तथाहि–यथा विषयानन्दरूपं स्वसंवेदनं रागसंवित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमिति शेषानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूपं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमपि स्वसंवित्त्याकारैकविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। यत एवेहापूर्वस्वसंवित्त्याकारान्तर्मुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मा विकल्पा अपि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम्। = प्रश्न–यहाँ शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकार से प्राभृत शास्त्र में जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा है, वह घटित नहीं होता, क्योंकि जैनमत में जैसे सत्तावलोकनरूप चक्षुदर्शन आदि हैं, उसको निर्विकल्प कहते हैं, उसी प्रकार बौद्धमत में ज्ञान निर्विकल्प है, तथापि विकल्प को उत्पन्न करने वाला होता है। और जैनमत में तो ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने वाला है ही नहीं, किन्तु स्वरूप से ही विकल्प सहित है। और इसी प्रकार स्वपरप्रकाशक भी है। उत्तर–परिहार करते हैं। जैन सिद्धान्त में ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित निर्विकल्प माना गया है। सो ही दिखाते हैं। जैसे विषयों में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह राग के जानने रूप विकल्पस्वरूप होने से सविकल्प है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प हैं उनका सद्भाव होने पर भी उन विकल्पों की मुख्यता नहीं; इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान है वह आत्मसंवेदन के आकाररूप एक विकल्प के होने से यद्यपि सविकल्प है, तथापि बाह्य विषयों के अनिच्छित विकल्पों का उस ज्ञान में सद्भाव होने पर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। तथा–क्योंकि यहाँ अपूर्व संवित्ति के आकाररूप अन्तरंग में मुख्य प्रतिभास के होने पर भी बाह्य विषय वाले अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी हैं। इस कारण ज्ञान निज तथा पर को प्रकाश करने वाला भी सिद्ध हुआ।
- शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना
ज्ञा./४१/८ न पश्यति तदा किंचिन्न शृणोति न जिघ्रति। स्पृष्टं किंचिन्न जानाति साक्षन्निर्वृत्तिलेपवत्। = उस (शुक्ल) ध्यान के समय चित्राम की मूर्ति की तरह हो जाता है। इस कारण यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ संघता है और न कुछ स्पर्श किये हुए को जानता है।८।
पं.ध./उ./८४२-८४३ यत्पुनज्ञनिमेकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित्। अस्ति तद्ध्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः।८४२। एकरूपमिवाभाति ज्ञानं ध्यानैकतानतः। तत् स्यात् पुनः पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवर्ति च ।८४३। = किन्तु जो किसी विषय में निरन्तर रूप से ज्ञान रहता है, उसे ध्यान कहते हैं और इस ध्यान में भी वास्तव में क्रम ही है, किन्तु अक्रम नहीं है।८४२। ध्यान की एकाग्रता के कारण ध्यानरूप ज्ञान अक्रमवर्ति की तरह प्रतीत होता है, परन्तु वह ध्यानरूप ज्ञान पुनः-पुनः उसी-उसी विषय में होता रहता है, इसलिए क्रमवर्ती ही है।८४३।
- केवलज्ञान में कथंचित् निर्विकल्प व सविकल्पपना
प्र.सा./मू./४२ परिणमदि णेयमट्ठं णादा जदि णेव खाइगं तस्स। णाणंत्ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्त।४२। = ज्ञाता यदि ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमित होता है (अर्थात् ‘यह काला है, यह पीला है’ ऐसा विकल्प करता है तो उसके क्षायिकज्ञान होता ही नहीं। जिनेन्द्रदेवों ने ऐसे ज्ञान को कर्म को ही अनुभव करने वाला कहा है।४२।
पं.ध./उ./८३६, ८४५ अस्ति क्षायिकज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात्। नार्थादार्थान्तराकारयोगसंक्रान्तिलक्षणात्।८३६। नोह्यं तत्राप्यतिव्याप्तिः क्षायिकात्यक्षसंविदि। स्यात्परिणामवत्त्वेऽपि पुनर्वृत्तेरसंभवात्।८४५। = स्वलक्षण की अपेक्षा से क्षायिकज्ञान में जो विकल्पपना है वह अर्थ से अर्थान्तराकाररूप योग संक्रान्ति के विकल्प की अपेक्षा नहीं है।८३६। क्षायिक अतीन्द्रिय केवलज्ञान में अतिव्याप्ति का प्रसंग भी नहीं आता, क्योंकि उसमें स्वाभाविक रूप से परिणमन होते हुए भी पुनर्वृत्ति सम्भव नहीं है।८४५।
- निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने
नि.सा./ता.वृ./१७० कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति। यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति। हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः। किं वहुना। तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अतएव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति। तन्न खलु संयतं स्वभाववादिनामिति। = प्रश्न–वह (विपरीत वितर्क) किस प्रकार है? पूर्वोक्तस्वरूप आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है? उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में स्थित रहता है। उत्तर–हे प्राथमिक शिष्य, अग्नि की भाँति क्या आत्मा अचेतन है? अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा और इसलिए वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। और वह वास्तव में स्वभाववादियों को सम्मत नहीं है।–(विशेष देखें - केवलज्ञान / ६ )।