पद्मपुराण - पर्व 92: Difference between revisions
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<p>अथानंतर किसी समय गगनगामी एवं सूर्य के समान कांति के धारक सात निर्ग्रंथ मुनि विहार करते हुए मथुरापुरी आये। उनमें से प्रथम सुरमन्यु, द्वितीय श्रीमन्यु, तृतीय श्रीनिचय, चतुर्थ सर्वसुंदर, पंचम जयवान्, षष्ठ विनयलालस और सप्तम जयमित्र नाम के धारक थे। ये सभी चारित्र से सुंदर थे अर्थात् निर्दोष चारित्र के पालक थे। राजा श्रीनंदन की धरणी नामक रानी से उत्पन्न हुए पुत्र थे, निर्दोष गुणों से जगत् में प्रसिद्ध थे तथा प्रभापुर नगर के रहने वाले थे ।।1-4॥<span id="5" /> ये सभी, प्रीतिकर मुनिराज के केवलज्ञान के समय देवों का आगमन देख प्रतिबोध को प्राप्त हो पिता के साथ धर्म करने के लिए उद्यत हुए थे ॥5॥<span id="6" /> वीर शिरोमणि राजा श्रीनंदन, डमरमंगल नामक एक माह के बालक को राज्य देकर अपने पुत्रों के साथ प्रीतिंकर मुनिराज के समीप दीक्षित हुए थे ॥6।।<span id="7" /> समय पाकर श्रीनंदन राजा तो केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धालय में प्रविष्ट हुए और उनके उक्त पुत्र उत्तम मुनि हो सप्तर्षि हुए ॥7।।<span id="8" /></p> | <p>अथानंतर किसी समय गगनगामी एवं सूर्य के समान कांति के धारक सात निर्ग्रंथ मुनि विहार करते हुए मथुरापुरी आये। उनमें से प्रथम सुरमन्यु, द्वितीय श्रीमन्यु, तृतीय श्रीनिचय, चतुर्थ सर्वसुंदर, पंचम जयवान्, षष्ठ विनयलालस और सप्तम जयमित्र नाम के धारक थे। ये सभी चारित्र से सुंदर थे अर्थात् निर्दोष चारित्र के पालक थे। राजा श्रीनंदन की धरणी नामक रानी से उत्पन्न हुए पुत्र थे, निर्दोष गुणों से जगत् में प्रसिद्ध थे तथा प्रभापुर नगर के रहने वाले थे ।।1-4॥<span id="5" /> ये सभी, प्रीतिकर मुनिराज के केवलज्ञान के समय देवों का आगमन देख प्रतिबोध को प्राप्त हो पिता के साथ धर्म करने के लिए उद्यत हुए थे ॥5॥<span id="6" /> वीर शिरोमणि राजा श्रीनंदन, डमरमंगल नामक एक माह के बालक को राज्य देकर अपने पुत्रों के साथ प्रीतिंकर मुनिराज के समीप दीक्षित हुए थे ॥6।।<span id="7" /> समय पाकर श्रीनंदन राजा तो केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धालय में प्रविष्ट हुए और उनके उक्त पुत्र उत्तम मुनि हो सप्तर्षि हुए ॥7।।<span id="8" /></p> | ||
<p>जहाँ परस्पर का अंतर कंदों के समूह से आवृत्त था ऐसे वर्षाकाल के समय वे सब मुनि मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे वर्षायोग लेकर विराजमान हुए ।।8।।<span id="9" /> उन मुनियों के तप के प्रभाव से चमरेंद्र के द्वारा निर्मित महामारी उस प्रकार नष्ट हो गई जिस प्रकार कि श्वसुर के द्वारा देखी हुई विट मनुष्य के पास गई नारी नष्ट हो जाती है ॥9।।<span id="10" /> अत्यधिक मेघों से सींची गई मथुरा के देशों की उपजाऊ भूमि बिना जोते बखरे अर्थात् अनायास ही उत्पन्न होने वाले बहुत भारी धान्य के समूह से व्याप्त हो गई ॥10॥<span id="11" /> उस समय रोग और ईतियों से छूटी शुभ मथुरा नगरी उस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार कि पिता के देखने से संतुष्ट हुई नई बहू सुशोभित होती है ॥11॥<span id="12" /> वे सप्तर्षि नाना प्रकार के रस परित्याग आदि तथा वेला तेला आदि उपवासों के साथ अत्यंत उत्कट तप करते थे ॥12॥<span id="13" /> वे अत्यंत दूरवर्ती आकाश को निमेष मात्र में लाँघकर विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूरवर्ती नगरों में पारणा करते थे ॥13।।<span id="14" /> वे उत्तम मुनिराज परगृह में प्राप्त एवं हस्तरूपी पात्र में स्थित भिक्षा को केवल शरीर की स्थिरता के लिए ही भक्षण करते थे ॥14॥<span id="15" /></p> | <p>जहाँ परस्पर का अंतर कंदों के समूह से आवृत्त था ऐसे वर्षाकाल के समय वे सब मुनि मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे वर्षायोग लेकर विराजमान हुए ।।8।।<span id="9" /> उन मुनियों के तप के प्रभाव से चमरेंद्र के द्वारा निर्मित महामारी उस प्रकार नष्ट हो गई जिस प्रकार कि श्वसुर के द्वारा देखी हुई विट मनुष्य के पास गई नारी नष्ट हो जाती है ॥9।।<span id="10" /> अत्यधिक मेघों से सींची गई मथुरा के देशों की उपजाऊ भूमि बिना जोते बखरे अर्थात् अनायास ही उत्पन्न होने वाले बहुत भारी धान्य के समूह से व्याप्त हो गई ॥10॥<span id="11" /> उस समय रोग और ईतियों से छूटी शुभ मथुरा नगरी उस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार कि पिता के देखने से संतुष्ट हुई नई बहू सुशोभित होती है ॥11॥<span id="12" /> वे सप्तर्षि नाना प्रकार के रस परित्याग आदि तथा वेला तेला आदि उपवासों के साथ अत्यंत उत्कट तप करते थे ॥12॥<span id="13" /> वे अत्यंत दूरवर्ती आकाश को निमेष मात्र में लाँघकर विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूरवर्ती नगरों में पारणा करते थे ॥13।।<span id="14" /> वे उत्तम मुनिराज परगृह में प्राप्त एवं हस्तरूपी पात्र में स्थित भिक्षा को केवल शरीर की स्थिरता के लिए ही भक्षण करते थे ॥14॥<span id="15" /></p> | ||
<p>अथानंतर किसी एक दिन जब कि सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था तब महाशांति को धारण करने वाले वे धीर-वीर मुनिराज जूड़ा प्रमाण भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए ॥15।।<span id="16" /> जो शुद्ध भिक्षा ग्रहण करने के अभिप्राय से युक्त थे और जिनकी लंबी-लंबी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं ऐसे वे मुनि विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए | <p>अथानंतर किसी एक दिन जब कि सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था तब महाशांति को धारण करने वाले वे धीर-वीर मुनिराज जूड़ा प्रमाण भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए ॥15।।<span id="16" /> जो शुद्ध भिक्षा ग्रहण करने के अभिप्राय से युक्त थे और जिनकी लंबी-लंबी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं ऐसे वे मुनि विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर पहुँचे ॥16।।<span id="17" /> उन मुनियों को देखकर संभ्रम से रहित अर्हद्दत्त सेठ इस प्रकार विचार करने लगा कि यह ऐसा वर्षाकाल कहाँ और यह मुनियों की चेष्टा कहाँ ? ॥17।।<span id="18" /><span id="19" /> इस नगरी के आस-पास प्राग्भार पर्वत की कंदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के मूल में, शून्य घर में, जिनालय में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो मुनिराज स्थित हैं उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाले वे मुनिराज समय का खंडन कर अर्थात् वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर परिभ्रमण नहीं करते ॥18-19॥<span id="20" /> परंतु ये मुनि आगम के अर्थ को विपरीत करने वाले हैं, ज्ञान से रहित हैं, आचार्यों से रहित हैं और आचार से भ्रष्ट हैं इसीलिए इस समय यहाँ घूम रहे हैं ॥20॥<span id="21" /></p> | ||
<p>यद्यपि वे मुनि असमय में आये थे तो भी | <p>यद्यपि वे मुनि असमय में आये थे तो भी अर्हद्दत्त सेठ की भक्त एवं अभिप्राय को ग्रहण करने वाली वधू ने उन्हें आहार देकर संतुष्ट किया था ॥21।।<span id="22" /> आहार के बाद वे शुद्ध-निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले मुनियों से व्याप्त अर्हंत भगवान् के उस मंदिर में गये जहाँ कि तीन लोक को आनंदित करने वाले श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा विराजमान थी ।।22।।<span id="23" /> अथानंतर जो पृथिवी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे ऐसे उन ऋद्धिधारी उत्तम मुनियों को मंदिर में विद्यमान श्री द्युतिभट्टारक ने देखा ।।23॥<span id="24" /> उन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा के साथ पैदल चल कर ही जिन मंदिर में प्रवेश किया तथा द्युतिभट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधि से उनकी पूजा की ॥24॥<span id="25" /> 'यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।' यह जानकर द्युतिभट्टारक के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया ।।25।।<span id="26" /> तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि, जिनेंद्र भगवान् की वंदना कर आकाशमार्ग से पुनः अपने स्थान को चले गये ॥26॥<span id="30" /><span id="27" /> जब वे आकाश में उड़े तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जान कर द्युतिभट्टारक के शिष्य जो अन्य मुनि थे वे अपनी निंदा गर्हा आदि करते हुए निर्मल हृदय को प्राप्त हुए अर्थात् जो मुनि पहले उन्हें उन्मार्गगामी समझकर उनकी निंदा का विचार कर रहे थे वे ही मुनि अब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जान कर अपने अज्ञान की निंदा करने लगे तथा अपने चित्त की कलुषता को उन्होंने दूर कर दिया ।।27।<span id="28" /></p> | ||
<p>इसी बीच में | <p>इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिन-मंदिर में आया सो द्युतिभट्टारक ने उससे कहा कि आज तुमने उत्तम मुनि देखे होंगे ? ॥28॥<span id="26" /> वे मुनि सबके द्वारा वंदित हैं, पूजित हैं, महाधैर्यशाली हैं, एवं महाप्रतापी हैं। वे मथुरा के निवासी हैं और उन्होंने मेरे साथ वार्तालाप किया है ॥26॥<span id="30" /><span id="27" /> महातपश्चरण ही जिनका धन है, जो शुभ चेष्टाओं के धारक हैं, अत्यंत उदार हैं, वंदनीय हैं और आकाश में गमन करने वाले हैं ऐसे उन मुनियों के आज हमने दर्शन किये हैं।।30।।<span id="31" /> तदनंतर द्युतिभट्टारक से साधुओं का प्रभाव सुनकर अर्हद्दत्त सेठ बहुत ही खिन्नचित्त हो पश्चात्ताप से संतप्त हो गया ।।31।।<span id="32" /> वह विचार करने लगा कि यथार्थ अर्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो । मेरा अनिष्ट आचरण अयुक्त था, अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक नहीं है ॥32।।<span id="33" /> इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि कौन होगा जिसने उठ कर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से संतुष्ट नहीं किया ॥33॥<span id="34" /> जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोड़ता है तथा देख कर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है ॥34।।<span id="35" /> मैं पापी हूँ, पापकर्मा हूँ, पापात्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर रहने वाला जो कोई निंद्यतम है वह मैं हूँ ।।35।।<span id="36" /> जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लेता तब तक शरीर एवं मर्मस्थल में मेरा मन दाह को प्राप्त होता रहेगा ॥36।।<span id="37" /> अहंकार से उत्पन्न हुए इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों को वंदना के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।।37।।</p> | ||
<p>अथानंतर कार्तिकी पूर्णिमा को निकटवर्ती जानकर जिसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, जो महासम्यग्दृष्टि था, राजा के समान वैभव का धारक था, मुनियों के माहात्म्य को अच्छी तरह जानता था, तथा अपनी निंदा करने में तत्पर था ऐसा | <p>अथानंतर कार्तिकी पूर्णिमा को निकटवर्ती जानकर जिसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, जो महासम्यग्दृष्टि था, राजा के समान वैभव का धारक था, मुनियों के माहात्म्य को अच्छी तरह जानता था, तथा अपनी निंदा करने में तत्पर था ऐसा अर्हद्दत्त सेठ सप्तर्षियों की पूजा करने के लिए अपने बंधुजनों के साथ मथुरा की ओर चला ॥38-36।।<span id="40" /> रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों के समूह के साथ वह सप्तर्षियों की पूजा करने के लिए बड़ी शीघ्रता से जा रहा था ॥40॥<span id="41" /> परम समृद्धि से युक्त एवं शुभध्यान करने में तत्पर रहने वाला वह सेठ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन सप्तर्षियों के स्थान पर पहुँच गया ॥41॥<span id="42" /> वहाँ उत्तम सम्यक्त्व को धारण करने वाला वह श्रेष्ठ मुनियों की वंदना कर पूर्ण प्रयत्न से पूजा की तैयारी करने के लिए उद्यत हुआ ॥42॥<span id="43" /> प्याऊ, नाटक-गृह तथा संगीत शाला आदि से सुशोभित वह आश्रम का स्थान स्वर्ग प्रदेश के समान मनोहर हो गया ।।43॥<span id="44" /> यह वृत्तांत सुन राजा दशरथ का चतुर्थ पुत्र शत्रुघ्न महातुरंग पर सवार हो सप्तर्षियों के समीप गया ॥44॥<span id="4" /> मुनियों की परम भक्ति और पुत्र के अत्यधिक स्नेह से उसकी माता सुप्रजा भी खजाना लेकर उसके पीछे आ पहुँची ॥4॥<span id="46" /></p> | ||
<p>तदनंतर भक्त हृदय एवं हर्ष से भरे शत्रुघ्न ने नियम को पूर्ण करने वाले मुनियों को नमस्कार कर उनसे पारणा करने की प्रार्थना की ॥46॥<span id="47" /> तब उन मुनियों में जो मुख्य मुनि थे उन्होंने कहा कि हे नरश्रेष्ठ ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है उसे ग्रहण करने के लिए मुनि प्रवृत्ति नहीं करते ॥47॥<span id="48" /> जो न स्वयं की गई है, न दूसरे से कराई गई और न मन से जिसकी अनुमोदना की गई है ऐसी भिक्षा को विधिपूर्वक ग्रहण करने वाले योगियों का तप पुष्ट होता है ॥48।।<span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /> तदनंतर शत्रुघ्न ने कहा कि हे मुनिश्रेष्ठो ! आप प्रार्थना करने वालों पर अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतः हमारे ऊपर यह प्रसन्नता करने के योग्य हैं कि आप कुछ काल तक मेरी इस नगरी में और ठहरिये जिससे कि इसमें रहने वाली प्रजा को आनंददायी सुभिक्ष की प्राप्ति हो सके ॥46-50॥<span id="51" /> आप लोगों के आने पर यह नगरी उस तरह सब ओर से समृद्ध हो गई है जिस तरह कि वर्षा के नष्ट हो जाने पर कमलिनी सब ओर से समृद्ध हो जाती है― खिल उठती है ॥51॥<span id="52" /> इतना कहकर श्रद्धा से भरा शत्रुघ्न चिंता करने लगा कि मैं प्रमादरहित हो विधिपूर्वक मुनियों के लिए मनवांछित आहार कब दूंगा ॥52॥<span id="53" /> </p> | <p>तदनंतर भक्त हृदय एवं हर्ष से भरे शत्रुघ्न ने नियम को पूर्ण करने वाले मुनियों को नमस्कार कर उनसे पारणा करने की प्रार्थना की ॥46॥<span id="47" /> तब उन मुनियों में जो मुख्य मुनि थे उन्होंने कहा कि हे नरश्रेष्ठ ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है उसे ग्रहण करने के लिए मुनि प्रवृत्ति नहीं करते ॥47॥<span id="48" /> जो न स्वयं की गई है, न दूसरे से कराई गई और न मन से जिसकी अनुमोदना की गई है ऐसी भिक्षा को विधिपूर्वक ग्रहण करने वाले योगियों का तप पुष्ट होता है ॥48।।<span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /> तदनंतर शत्रुघ्न ने कहा कि हे मुनिश्रेष्ठो ! आप प्रार्थना करने वालों पर अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतः हमारे ऊपर यह प्रसन्नता करने के योग्य हैं कि आप कुछ काल तक मेरी इस नगरी में और ठहरिये जिससे कि इसमें रहने वाली प्रजा को आनंददायी सुभिक्ष की प्राप्ति हो सके ॥46-50॥<span id="51" /> आप लोगों के आने पर यह नगरी उस तरह सब ओर से समृद्ध हो गई है जिस तरह कि वर्षा के नष्ट हो जाने पर कमलिनी सब ओर से समृद्ध हो जाती है― खिल उठती है ॥51॥<span id="52" /> इतना कहकर श्रद्धा से भरा शत्रुघ्न चिंता करने लगा कि मैं प्रमादरहित हो विधिपूर्वक मुनियों के लिए मनवांछित आहार कब दूंगा ॥52॥<span id="53" /> </p> | ||
<p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन उत्तम मुनिराज ने उसके लिए यथायोग्य काल के प्रभाव का निरूपण किया ॥53।।<span id="54" /> उन्होंने कहा कि जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायगा तब यहाँ धर्म-कर्म से रहित अत्यंत भयंकर समय होगा ॥54॥<span id="55" /> दुष्ट पाखंडी लोगों के द्वारा यह परमोन्नत जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायगा जिस तरह कि धूलि के छोटे-छोटे कणों के द्वारा सूर्य का बिंब तिरोहित हो जाता है ॥55॥<span id="56" /> उस समय ग्राम श्मशान के समान, नगर यमलोक के समान और देश क्लेश से युक्त निंदित तथा दुष्ट चेष्टाओं के करने वाले होंगे ॥56॥<span id="57" /> यह संसार चोरों के समान कुकर्म में निरत तथा क्रूर दुष्ट पाखंडी लोगों से निरंतर व्याप्त होगा ॥57॥<span id="58" /> यह पृथिवीतल दुष्ट तथा निर्धन गृहस्थ से व्याप्त होआ; साथ ही यहाँ हिंसा संबंधी हजारों दुःख निरंतर प्राप्त होते रहेंगे ॥58॥<span id="59" /> पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेहरहित होंगे तथा कलिकाल के प्रकट होने पर राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे ॥59॥<span id="60" /> कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे तथापि उनके मन में पाप होगा और वे दुर्गति को प्राप्त कराने में समर्थ कथाओं से परस्पर एक दूसरे को मोहित करते हुए क्रीड़ा करेंगे ॥60॥<span id="61" /> हे शत्रुघ्न ! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जावेंगे ॥61॥<span id="62" /> तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रत रूप गुणों से सहित एवं दिगंबर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे ॥62॥<span id="63" /> अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुहृदय लोग भय के पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं ।।63॥<span id="64" /> हँसी करने में उद्यत कितने ही मूढ मनुष्य शांतचित्त मुनियों को तिरस्कृत कर मूढ मनुष्यों के लिए आहार देवेंगे ॥64॥<span id="65" /> इस प्रकार अनिष्ट भावना को धारण करने वाले गृहस्थ उत्तम मुनि का तिरस्कार कर तथा मोही मुनि को बुलाकर उसके लिए योग्य आहार आदि देंगे ॥65॥<span id="66" /> जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तथापि निरर्थक होता है― उसमें फल नहीं लगता है उसी प्रकार शीलरहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ गृहस्थों का दान भी निरर्थक होता है ॥66।।<span id="67" /> जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार आदि देता है वह मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करता है ॥67॥<span id="68" /></p> | <p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन उत्तम मुनिराज ने उसके लिए यथायोग्य काल के प्रभाव का निरूपण किया ॥53।।<span id="54" /> उन्होंने कहा कि जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायगा तब यहाँ धर्म-कर्म से रहित अत्यंत भयंकर समय होगा ॥54॥<span id="55" /> दुष्ट पाखंडी लोगों के द्वारा यह परमोन्नत जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायगा जिस तरह कि धूलि के छोटे-छोटे कणों के द्वारा सूर्य का बिंब तिरोहित हो जाता है ॥55॥<span id="56" /> उस समय ग्राम श्मशान के समान, नगर यमलोक के समान और देश क्लेश से युक्त निंदित तथा दुष्ट चेष्टाओं के करने वाले होंगे ॥56॥<span id="57" /> यह संसार चोरों के समान कुकर्म में निरत तथा क्रूर दुष्ट पाखंडी लोगों से निरंतर व्याप्त होगा ॥57॥<span id="58" /> यह पृथिवीतल दुष्ट तथा निर्धन गृहस्थ से व्याप्त होआ; साथ ही यहाँ हिंसा संबंधी हजारों दुःख निरंतर प्राप्त होते रहेंगे ॥58॥<span id="59" /> पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेहरहित होंगे तथा कलिकाल के प्रकट होने पर राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे ॥59॥<span id="60" /> कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे तथापि उनके मन में पाप होगा और वे दुर्गति को प्राप्त कराने में समर्थ कथाओं से परस्पर एक दूसरे को मोहित करते हुए क्रीड़ा करेंगे ॥60॥<span id="61" /> हे शत्रुघ्न ! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जावेंगे ॥61॥<span id="62" /> तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रत रूप गुणों से सहित एवं दिगंबर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे ॥62॥<span id="63" /> अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुहृदय लोग भय के पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं ।।63॥<span id="64" /> हँसी करने में उद्यत कितने ही मूढ मनुष्य शांतचित्त मुनियों को तिरस्कृत कर मूढ मनुष्यों के लिए आहार देवेंगे ॥64॥<span id="65" /> इस प्रकार अनिष्ट भावना को धारण करने वाले गृहस्थ उत्तम मुनि का तिरस्कार कर तथा मोही मुनि को बुलाकर उसके लिए योग्य आहार आदि देंगे ॥65॥<span id="66" /> जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तथापि निरर्थक होता है― उसमें फल नहीं लगता है उसी प्रकार शीलरहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ गृहस्थों का दान भी निरर्थक होता है ॥66।।<span id="67" /> जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार आदि देता है वह मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करता है ॥67॥<span id="68" /></p> |
Latest revision as of 18:37, 15 September 2024
बानवेवां पर्व
अथानंतर किसी समय गगनगामी एवं सूर्य के समान कांति के धारक सात निर्ग्रंथ मुनि विहार करते हुए मथुरापुरी आये। उनमें से प्रथम सुरमन्यु, द्वितीय श्रीमन्यु, तृतीय श्रीनिचय, चतुर्थ सर्वसुंदर, पंचम जयवान्, षष्ठ विनयलालस और सप्तम जयमित्र नाम के धारक थे। ये सभी चारित्र से सुंदर थे अर्थात् निर्दोष चारित्र के पालक थे। राजा श्रीनंदन की धरणी नामक रानी से उत्पन्न हुए पुत्र थे, निर्दोष गुणों से जगत् में प्रसिद्ध थे तथा प्रभापुर नगर के रहने वाले थे ।।1-4॥ ये सभी, प्रीतिकर मुनिराज के केवलज्ञान के समय देवों का आगमन देख प्रतिबोध को प्राप्त हो पिता के साथ धर्म करने के लिए उद्यत हुए थे ॥5॥ वीर शिरोमणि राजा श्रीनंदन, डमरमंगल नामक एक माह के बालक को राज्य देकर अपने पुत्रों के साथ प्रीतिंकर मुनिराज के समीप दीक्षित हुए थे ॥6।। समय पाकर श्रीनंदन राजा तो केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धालय में प्रविष्ट हुए और उनके उक्त पुत्र उत्तम मुनि हो सप्तर्षि हुए ॥7।।
जहाँ परस्पर का अंतर कंदों के समूह से आवृत्त था ऐसे वर्षाकाल के समय वे सब मुनि मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे वर्षायोग लेकर विराजमान हुए ।।8।। उन मुनियों के तप के प्रभाव से चमरेंद्र के द्वारा निर्मित महामारी उस प्रकार नष्ट हो गई जिस प्रकार कि श्वसुर के द्वारा देखी हुई विट मनुष्य के पास गई नारी नष्ट हो जाती है ॥9।। अत्यधिक मेघों से सींची गई मथुरा के देशों की उपजाऊ भूमि बिना जोते बखरे अर्थात् अनायास ही उत्पन्न होने वाले बहुत भारी धान्य के समूह से व्याप्त हो गई ॥10॥ उस समय रोग और ईतियों से छूटी शुभ मथुरा नगरी उस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार कि पिता के देखने से संतुष्ट हुई नई बहू सुशोभित होती है ॥11॥ वे सप्तर्षि नाना प्रकार के रस परित्याग आदि तथा वेला तेला आदि उपवासों के साथ अत्यंत उत्कट तप करते थे ॥12॥ वे अत्यंत दूरवर्ती आकाश को निमेष मात्र में लाँघकर विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूरवर्ती नगरों में पारणा करते थे ॥13।। वे उत्तम मुनिराज परगृह में प्राप्त एवं हस्तरूपी पात्र में स्थित भिक्षा को केवल शरीर की स्थिरता के लिए ही भक्षण करते थे ॥14॥
अथानंतर किसी एक दिन जब कि सूर्य आकाश के मध्य में स्थित था तब महाशांति को धारण करने वाले वे धीर-वीर मुनिराज जूड़ा प्रमाण भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए ॥15।। जो शुद्ध भिक्षा ग्रहण करने के अभिप्राय से युक्त थे और जिनकी लंबी-लंबी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं ऐसे वे मुनि विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर पहुँचे ॥16।। उन मुनियों को देखकर संभ्रम से रहित अर्हद्दत्त सेठ इस प्रकार विचार करने लगा कि यह ऐसा वर्षाकाल कहाँ और यह मुनियों की चेष्टा कहाँ ? ॥17।। इस नगरी के आस-पास प्राग्भार पर्वत की कंदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के मूल में, शून्य घर में, जिनालय में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो मुनिराज स्थित हैं उत्तम चेष्टाओं को धारण करने वाले वे मुनिराज समय का खंडन कर अर्थात् वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर परिभ्रमण नहीं करते ॥18-19॥ परंतु ये मुनि आगम के अर्थ को विपरीत करने वाले हैं, ज्ञान से रहित हैं, आचार्यों से रहित हैं और आचार से भ्रष्ट हैं इसीलिए इस समय यहाँ घूम रहे हैं ॥20॥
यद्यपि वे मुनि असमय में आये थे तो भी अर्हद्दत्त सेठ की भक्त एवं अभिप्राय को ग्रहण करने वाली वधू ने उन्हें आहार देकर संतुष्ट किया था ॥21।। आहार के बाद वे शुद्ध-निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले मुनियों से व्याप्त अर्हंत भगवान् के उस मंदिर में गये जहाँ कि तीन लोक को आनंदित करने वाले श्री मुनिसुव्रत भगवान की प्रतिमा विराजमान थी ।।22।। अथानंतर जो पृथिवी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे ऐसे उन ऋद्धिधारी उत्तम मुनियों को मंदिर में विद्यमान श्री द्युतिभट्टारक ने देखा ।।23॥ उन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा के साथ पैदल चल कर ही जिन मंदिर में प्रवेश किया तथा द्युतिभट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधि से उनकी पूजा की ॥24॥ 'यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।' यह जानकर द्युतिभट्टारक के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया ।।25।। तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि, जिनेंद्र भगवान् की वंदना कर आकाशमार्ग से पुनः अपने स्थान को चले गये ॥26॥ जब वे आकाश में उड़े तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जान कर द्युतिभट्टारक के शिष्य जो अन्य मुनि थे वे अपनी निंदा गर्हा आदि करते हुए निर्मल हृदय को प्राप्त हुए अर्थात् जो मुनि पहले उन्हें उन्मार्गगामी समझकर उनकी निंदा का विचार कर रहे थे वे ही मुनि अब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जान कर अपने अज्ञान की निंदा करने लगे तथा अपने चित्त की कलुषता को उन्होंने दूर कर दिया ।।27।
इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिन-मंदिर में आया सो द्युतिभट्टारक ने उससे कहा कि आज तुमने उत्तम मुनि देखे होंगे ? ॥28॥ वे मुनि सबके द्वारा वंदित हैं, पूजित हैं, महाधैर्यशाली हैं, एवं महाप्रतापी हैं। वे मथुरा के निवासी हैं और उन्होंने मेरे साथ वार्तालाप किया है ॥26॥ महातपश्चरण ही जिनका धन है, जो शुभ चेष्टाओं के धारक हैं, अत्यंत उदार हैं, वंदनीय हैं और आकाश में गमन करने वाले हैं ऐसे उन मुनियों के आज हमने दर्शन किये हैं।।30।। तदनंतर द्युतिभट्टारक से साधुओं का प्रभाव सुनकर अर्हद्दत्त सेठ बहुत ही खिन्नचित्त हो पश्चात्ताप से संतप्त हो गया ।।31।। वह विचार करने लगा कि यथार्थ अर्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो । मेरा अनिष्ट आचरण अयुक्त था, अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक नहीं है ॥32।। इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि कौन होगा जिसने उठ कर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से संतुष्ट नहीं किया ॥33॥ जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोड़ता है तथा देख कर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है ॥34।। मैं पापी हूँ, पापकर्मा हूँ, पापात्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर रहने वाला जो कोई निंद्यतम है वह मैं हूँ ।।35।। जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लेता तब तक शरीर एवं मर्मस्थल में मेरा मन दाह को प्राप्त होता रहेगा ॥36।। अहंकार से उत्पन्न हुए इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों को वंदना के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।।37।।
अथानंतर कार्तिकी पूर्णिमा को निकटवर्ती जानकर जिसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, जो महासम्यग्दृष्टि था, राजा के समान वैभव का धारक था, मुनियों के माहात्म्य को अच्छी तरह जानता था, तथा अपनी निंदा करने में तत्पर था ऐसा अर्हद्दत्त सेठ सप्तर्षियों की पूजा करने के लिए अपने बंधुजनों के साथ मथुरा की ओर चला ॥38-36।। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों के समूह के साथ वह सप्तर्षियों की पूजा करने के लिए बड़ी शीघ्रता से जा रहा था ॥40॥ परम समृद्धि से युक्त एवं शुभध्यान करने में तत्पर रहने वाला वह सेठ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन सप्तर्षियों के स्थान पर पहुँच गया ॥41॥ वहाँ उत्तम सम्यक्त्व को धारण करने वाला वह श्रेष्ठ मुनियों की वंदना कर पूर्ण प्रयत्न से पूजा की तैयारी करने के लिए उद्यत हुआ ॥42॥ प्याऊ, नाटक-गृह तथा संगीत शाला आदि से सुशोभित वह आश्रम का स्थान स्वर्ग प्रदेश के समान मनोहर हो गया ।।43॥ यह वृत्तांत सुन राजा दशरथ का चतुर्थ पुत्र शत्रुघ्न महातुरंग पर सवार हो सप्तर्षियों के समीप गया ॥44॥ मुनियों की परम भक्ति और पुत्र के अत्यधिक स्नेह से उसकी माता सुप्रजा भी खजाना लेकर उसके पीछे आ पहुँची ॥4॥
तदनंतर भक्त हृदय एवं हर्ष से भरे शत्रुघ्न ने नियम को पूर्ण करने वाले मुनियों को नमस्कार कर उनसे पारणा करने की प्रार्थना की ॥46॥ तब उन मुनियों में जो मुख्य मुनि थे उन्होंने कहा कि हे नरश्रेष्ठ ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है उसे ग्रहण करने के लिए मुनि प्रवृत्ति नहीं करते ॥47॥ जो न स्वयं की गई है, न दूसरे से कराई गई और न मन से जिसकी अनुमोदना की गई है ऐसी भिक्षा को विधिपूर्वक ग्रहण करने वाले योगियों का तप पुष्ट होता है ॥48।। तदनंतर शत्रुघ्न ने कहा कि हे मुनिश्रेष्ठो ! आप प्रार्थना करने वालों पर अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतः हमारे ऊपर यह प्रसन्नता करने के योग्य हैं कि आप कुछ काल तक मेरी इस नगरी में और ठहरिये जिससे कि इसमें रहने वाली प्रजा को आनंददायी सुभिक्ष की प्राप्ति हो सके ॥46-50॥ आप लोगों के आने पर यह नगरी उस तरह सब ओर से समृद्ध हो गई है जिस तरह कि वर्षा के नष्ट हो जाने पर कमलिनी सब ओर से समृद्ध हो जाती है― खिल उठती है ॥51॥ इतना कहकर श्रद्धा से भरा शत्रुघ्न चिंता करने लगा कि मैं प्रमादरहित हो विधिपूर्वक मुनियों के लिए मनवांछित आहार कब दूंगा ॥52॥
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन उत्तम मुनिराज ने उसके लिए यथायोग्य काल के प्रभाव का निरूपण किया ॥53।। उन्होंने कहा कि जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायगा तब यहाँ धर्म-कर्म से रहित अत्यंत भयंकर समय होगा ॥54॥ दुष्ट पाखंडी लोगों के द्वारा यह परमोन्नत जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायगा जिस तरह कि धूलि के छोटे-छोटे कणों के द्वारा सूर्य का बिंब तिरोहित हो जाता है ॥55॥ उस समय ग्राम श्मशान के समान, नगर यमलोक के समान और देश क्लेश से युक्त निंदित तथा दुष्ट चेष्टाओं के करने वाले होंगे ॥56॥ यह संसार चोरों के समान कुकर्म में निरत तथा क्रूर दुष्ट पाखंडी लोगों से निरंतर व्याप्त होगा ॥57॥ यह पृथिवीतल दुष्ट तथा निर्धन गृहस्थ से व्याप्त होआ; साथ ही यहाँ हिंसा संबंधी हजारों दुःख निरंतर प्राप्त होते रहेंगे ॥58॥ पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेहरहित होंगे तथा कलिकाल के प्रकट होने पर राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे ॥59॥ कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे तथापि उनके मन में पाप होगा और वे दुर्गति को प्राप्त कराने में समर्थ कथाओं से परस्पर एक दूसरे को मोहित करते हुए क्रीड़ा करेंगे ॥60॥ हे शत्रुघ्न ! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जावेंगे ॥61॥ तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रत रूप गुणों से सहित एवं दिगंबर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे ॥62॥ अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुहृदय लोग भय के पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं ।।63॥ हँसी करने में उद्यत कितने ही मूढ मनुष्य शांतचित्त मुनियों को तिरस्कृत कर मूढ मनुष्यों के लिए आहार देवेंगे ॥64॥ इस प्रकार अनिष्ट भावना को धारण करने वाले गृहस्थ उत्तम मुनि का तिरस्कार कर तथा मोही मुनि को बुलाकर उसके लिए योग्य आहार आदि देंगे ॥65॥ जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तथापि निरर्थक होता है― उसमें फल नहीं लगता है उसी प्रकार शीलरहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ गृहस्थों का दान भी निरर्थक होता है ॥66।। जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार आदि देता है वह मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करता है ॥67॥
इस प्रकार दुःषमता के कारण अधम काल को आया जान आत्मा का हित करने वाला कुछ शुभ तथा स्थायी कार्य कर ॥68।। तू नामी पुरुष है अतः निर्ग्रंथ मुनियों को भिक्षावृत्ति देने का निश्चय कर। यही तेरी धन-संपदा का सार है ॥69॥ हे राजन् ! आगे आने वाले काल में थके हुए मुनियों के लिए भिक्षा देना अपने गृहदान के समान एक बड़ा भारी आश्रय होगा इसलिए हे वत्स ! तू यह दान देकर इस समय गृहस्थ के शीलव्रत का नियम धारण कर तथा अपना जीवन सार्थक बना ॥70-71॥ मथुरा के समस्त लोग समीचीन धर्म के धारण करने में तत्पर, दया और वात्सल्य भाव से संपन्न तथा जिन शासन को भावना से युक्त हों ॥72॥ घर-घर में जिन-प्रतिमाएं स्थापित की जावें, उनकी पूजाएँ हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजा का पालन किया जाय ॥73।। हे शत्रुघ्न ! इस नगरी की चारो दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएं स्थापित करो। उसी से सब प्रकार की शांति होगी ।।74। आज से लेकर जिस घर में जिन-प्रतिमा नहीं होगी उस घर को मारी उस तरह खा जायगी जिस तरह कि व्याघ्री अनाथ मृग को खा जाती है ॥7॥ जिसके घर में अँगूठा प्रमाण भी जिन-प्रतिमा होगी उसके घर में गरुड़ से डरी हुई सर्पिणी के समान मारी का प्रवेश नहीं होगा ।।76॥ तदनंतर 'जैसी आप आज्ञा करते हैं वैसा ही होगा' इस प्रकार हर्ष से युक्त सुग्रीव ने कहा और उसके बाद उत्तम अभिप्राय को धारण करने वाले वे सभी साधु आकाश में उड़कर चले गये ।।77॥
अथानंतर निर्वाण क्षेत्रों की प्रदक्षिणा देकर शुभगति को धारण करने वाले वे मुनिराज सीता के घर में उतरे ॥78। सो अत्यधिक हर्ष को धारण करने वाली एवं श्रद्धा आदि गुणों से सुशोभित सीता ने उन्हें विधिपूर्वक उत्तम अन्न से पारणा कराई ।।79 ।। जानकी के द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए सर्वगुणसंपन्न अन्न को अपने हस्ततल में ग्रहणकर तथा आशीर्वाद देकर वे मुनि चले गये ।।80॥ तदनंतर शत्रुघ्न ने नगर के भीतर और बाहर सर्वत्र उपमा रहित जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमाएं स्थापित कराई ।।81॥ और सुंदर अवयवों की धारक तथा समस्त ईतियों का निवारण करने वाली सप्तर्षियों की प्रतिमाएँ भी चारों दिशाओं में विराजमान कराई ।।82।। उसने एक दूसरी ही नगरी की रचना कराई जो ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वर्ग के ऊपर ही रची गई हो। वह सब ओर से मनोहर थी, विस्तृत थी, सब प्रकार के उपद्रवों से रहित थी, तीन योजन विस्तार वाली थी, सब ओर से त्रिगुण थी, विशाल थी, मंडलाकार में स्थित थी और उत्तम तेज की धारक थी॥83-84।। जिनकी जड़ें पाताल तक फूटी थीं ऐसी सुंदर वहाँ की भूमियाँ थीं तथा जो बड़े-बड़े वृक्षों के निवास गृह के समान जान पड़ती थीं ऐसी परिखा उसके चारों ओर सुशोभित हो रही थी ॥85॥ वहाँ के बाग-बगीचे फूलों और फलों से युक्त अत्यधिक शोभा को धारण कर रहे थे और कमल तथा कुमुदों से आच्छादित वहाँ की वापिकाएँ पक्षियों के नाद से मुखरित हो रही थीं ॥86॥ जो कैलास के शिखरों के समान थे, सुंदर-सुंदर लक्षणों से युक्त थे, तथा नेत्रों के चोर थे ऐसे वहाँ के भवन विमानों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥87।। वहाँ के सर्व कुटुंबी सुवर्ण अनाज तथा रत्न आदि से संपन्न थे, सम्मेद शिखर की उपमा धारण करते थे, राजाओं के समान प्रसिद्धि से युक्त तथा अत्यंत प्रशंसनीय थे ॥88॥ वहाँ के राजा देवों के समान अनुपम विभूति के धारक थे, धर्म, अर्थ और काम में सदा आसक्त रहते थे तथा उत्तम चेष्टाओं के करने में निपुण थे ॥89।। इच्छानुसार उन राजाओं पर आज्ञा चलाता हुआ विशिष्ट ज्ञानी शत्रुघ्न मथुरा नगरी में उस प्रकार सुशोभित होता था जिस प्रकार कि देवों पर आज्ञा चलाता हुआ वरुण सुशोभित होता है ।।90।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो इस प्रकार मथुरापुरी में सप्तर्षियों के निवास और उनके आश्चर्यकारी प्रभाव को सुनता अथवा कहता है वह शीघ्र ही चारों प्रकार के मंगल को प्राप्त होता है ॥91।। जो मनुष्य साधुओं के समागम में सदा तत्पर रहते हैं वे सर्व मनोरथों को प्राप्त होते हैं इसीलिए हे सत्पुरुषो ! साधुओं का समागम कर सदा सूर्य के समान देदीप्यमान होओ ॥32॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मथुरापुरी में सप्तर्षियों के निवास, दान, गुण तथा उपसर्ग के नष्ट होने का वर्णन करने वाला बानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥92॥