विषय: Difference between revisions
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<p>स.सि./1/25/132/4 <span class="SanskritText">विषयो ज्ञेयः।</span> = <span class="HindiText">विषय ज्ञेय को कहते हैं। (रा.वा./1/25-/86/15)। </span><br /> | |||
गो.जी./मू./479/885 <span class="PrakritGatha">पञ्चरसपञ्चवण्णा दो गंधा अट्ठफाससत्तसरा। मणसहिदट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा।479।</span> = <span class="HindiText">पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श और सात स्वर ऐसे यह 27 भेद तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों के हैं और एक भेद मन का अनेक विकल्परूप विषय है। ऐसे कुल विषय 28 हैं। </span></p> | |||
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<p id="2">(2) इन्द्रिय-भोगोपभोग । ये स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण मीर स्वर के भेद से पांच प्रकार के होते हैं । इनमें स्पर्श के आठ, रस के छ:, गन्ध के दो, वर्ण के पांच और स्वर के सात भेद कहे हैं । इस प्रकार स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के कुल अट्ठाईस विषय होते हैं । इनके इष्ट और अनिष्ट की अपेक्षा से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं । अत भेद-प्रभेदों को मिलाकर ये छप्पन होते हैं । ये विषय आरम्भ में सुखद् और परिणाम में दुखद् होते हैं । इनका सेवन संसार-भ्रमण का कारण है । <span class="GRef"> महापुराण 4.149, 5.125-130, 875, 11.171-174, 75. 620-624, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5.230, 29.76-77 </span></p> | |||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
स.सि./1/25/132/4 विषयो ज्ञेयः। = विषय ज्ञेय को कहते हैं। (रा.वा./1/25-/86/15)।
गो.जी./मू./479/885 पञ्चरसपञ्चवण्णा दो गंधा अट्ठफाससत्तसरा। मणसहिदट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा।479। = पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श और सात स्वर ऐसे यह 27 भेद तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों के हैं और एक भेद मन का अनेक विकल्परूप विषय है। ऐसे कुल विषय 28 हैं।
पुराणकोष से
(1) देश । महापुराण 62.363, हरिवंशपुराण 2.149
(2) इन्द्रिय-भोगोपभोग । ये स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण मीर स्वर के भेद से पांच प्रकार के होते हैं । इनमें स्पर्श के आठ, रस के छ:, गन्ध के दो, वर्ण के पांच और स्वर के सात भेद कहे हैं । इस प्रकार स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों के कुल अट्ठाईस विषय होते हैं । इनके इष्ट और अनिष्ट की अपेक्षा से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं । अत भेद-प्रभेदों को मिलाकर ये छप्पन होते हैं । ये विषय आरम्भ में सुखद् और परिणाम में दुखद् होते हैं । इनका सेवन संसार-भ्रमण का कारण है । महापुराण 4.149, 5.125-130, 875, 11.171-174, 75. 620-624, पद्मपुराण 5.230, 29.76-77