रस: Difference between revisions
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स. सि./ | स. सि./2/20/178-179/9 <span class="SanskritText">रस्यत इति रसः ।....रसनं रसः ।</span> = <span class="HindiText">जो स्वाद को प्राप्त होता है वह रस है ।...अथवा रसन अर्थात् स्वादमात्र रस है । (स. सि./5/23/293/12), (रा. वा./2/20/132/31)। </span><br /> | ||
ध. | ध. 1/1, 1, 33/242/2 <span class="SanskritText">यदा वस्तु प्राधान्येन विवक्षितं तदा वस्तु व्यतिरिक्तपर्यायाभावाद्वस्त्वेव रसः । एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं रसस्य, यथा रस्यत इति रसः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेः औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्व रसस्य, रसनं रस इति । </span>=<span class="HindiText"> जिस समय प्रधान रूप से वस्तु विवक्षित होती है, उस समय वस्तु को छोड़कर पर्याय नहीं पायी जाती है, इसलिए वस्तु ही रस है । इस विवक्षा में रस के कर्म साधनपना है । जैसे जो चखा जाये वह रस है । तथा जिस समय प्रधान रूप से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए जो उदासीन रूप से भाव अवस्थित है उसका कथन किया जाता है । इस प्रकार रस के भाव-साधन भी बन जाता है, जैसे−आस्वादन रूप क्रियाधर्म को रस कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> रस नामकर्म का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> रस नामकर्म का लक्षण</strong></span><br /> | ||
स. सि./ | स. सि./8/11/390/9<span class="SanskritText"> यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रस नाम । </span>=<span class="HindiText"> जिसके उदय से रस में भेद होता है वह रस नामकर्म है । (रा. वा./8/11/10/577/15), (गो. क./जी. प्र./33/29/14)। </span><br /> | ||
ध. | ध. 6/1, 9-1, 28/55/7 <span class="PrakritText">जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादि पडिणियदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स रस-सण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे जीवसरीरे जाइपडिणियदरसो ण होज्ज । ण च एवं णिबंवजंबीरादिसु णियदरसस्सुवलंभादो ।</span> = <span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में जाति प्रतिनियत तिक्त आदि रस उत्पन्न हो, उस कर्म स्कन्ध की ‘रस’ यह संज्ञा है । (ध. 13/5, 5, 101/ 364/8)। इस कर्म के अभाव में जीव के शरीर में जाति प्रतिनियत रस नहीं होगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि नीम, आम और नींबू आदि में प्रतिनियत रस पाया जाता है । <br /> | ||
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ष. खं./ | ष. खं./6/1, 9-1/सू. 39/75 <span class="PrakritText">जं तं रसणामकम्मं तं पंचविहं, तित्तणामं कडुवणामं कसायणामं अंबणामं महुणामं चेदि ।75। </span>= <span class="HindiText">जो रस नामकर्म है वह पाँच प्रकार का है - तिक्त नामकर्म, कटुकनामकर्म, कषायनामकर्म, आम्लनामकर्म और मधुर नामकर्म । (ष. खं./13/5, 5/सू. 112/370); (स. सि./8/11/390/10); (स. सि./5/23/293/12); (प. स./प्रा./2/4/48/1); (रा. वा./8/11/10/577/15); (प. प्र./टी./1/19/26/2); (द्र. सं./टी./7/19/12); (गो. जी./जी. प्र./479/ 885/1) । </span><br /> | ||
स. सि./ | स. सि./5/23/294/2<span class="SanskritText"> त एते मूलभेदाः प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानन्तभेदाश्च भवन्ति । </span>= <span class="HindiText">ये रस के मूल भेद हैं, वैसे प्रत्येक (रसादि के) के संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । <br /> | ||
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सा. ध./ | सा. ध./5/35 पर उद्धृत - <span class="SanskritText">गोरसः क्षीरघृतादि, इक्षुरसः खण्डगुड आदि, फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैलमण्डादि । </span>= <span class="HindiText">घी, दूध आदि गोरस हैं । शक्कर, गुड़ आदि इक्षुरस हैं । द्राक्षा, आम आदि के रस को फल रस कहते हैं और तेल, माँड़ आदि को धान्यरस कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> रस नामकर्म में रस सकारण है या निष्कारण | <li><span class="HindiText"> रस नामकर्म में रस सकारण है या निष्कारण ।−देखें [[ वर्ण#4 | वर्ण - 4 ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> रस नाम प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा ।−दे वह वह नाम । <br /> | <li><span class="HindiText"> रस नाम प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा ।−दे वह वह नाम । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> अग्नि आदि में भी रस की सिद्धि ।−देखें | <li><span class="HindiText"> अग्नि आदि में भी रस की सिद्धि ।−देखें [[ पुद्गल#10 | पुद्गल - 10 ]]। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) रसना-इन्द्रिय का विषय । यह छ: प्रकार का होता है—कडुवा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कषायला और खारा । <span class="GRef"> महापुराण 9.46, 75.620-621 </span></p> | |||
<p id="2">(2) काव्य का एक अंग । ये नौ होते हैं― शृंगार, हास्य, करुण, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, बीभत्स और शान्त । <span class="GRef"> पद्मपुराण 24.22-23 </span></p> | |||
<p id="3">(3) रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग का नौवाँ पटल । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.53 </span></p> | |||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- रस सामान्य का लक्षण
स. सि./2/20/178-179/9 रस्यत इति रसः ।....रसनं रसः । = जो स्वाद को प्राप्त होता है वह रस है ।...अथवा रसन अर्थात् स्वादमात्र रस है । (स. सि./5/23/293/12), (रा. वा./2/20/132/31)।
ध. 1/1, 1, 33/242/2 यदा वस्तु प्राधान्येन विवक्षितं तदा वस्तु व्यतिरिक्तपर्यायाभावाद्वस्त्वेव रसः । एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं रसस्य, यथा रस्यत इति रसः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेः औदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्व रसस्य, रसनं रस इति । = जिस समय प्रधान रूप से वस्तु विवक्षित होती है, उस समय वस्तु को छोड़कर पर्याय नहीं पायी जाती है, इसलिए वस्तु ही रस है । इस विवक्षा में रस के कर्म साधनपना है । जैसे जो चखा जाये वह रस है । तथा जिस समय प्रधान रूप से पर्याय विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए जो उदासीन रूप से भाव अवस्थित है उसका कथन किया जाता है । इस प्रकार रस के भाव-साधन भी बन जाता है, जैसे−आस्वादन रूप क्रियाधर्म को रस कहते हैं ।
- रस नामकर्म का लक्षण
स. सि./8/11/390/9 यन्निमित्तो रसविकल्पस्तद्रस नाम । = जिसके उदय से रस में भेद होता है वह रस नामकर्म है । (रा. वा./8/11/10/577/15), (गो. क./जी. प्र./33/29/14)।
ध. 6/1, 9-1, 28/55/7 जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण जीवसरीरे जादि पडिणियदो तित्तादिरसो होज्ज तस्स कम्मक्खंधस्स रस-सण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे जीवसरीरे जाइपडिणियदरसो ण होज्ज । ण च एवं णिबंवजंबीरादिसु णियदरसस्सुवलंभादो । = जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में जाति प्रतिनियत तिक्त आदि रस उत्पन्न हो, उस कर्म स्कन्ध की ‘रस’ यह संज्ञा है । (ध. 13/5, 5, 101/ 364/8)। इस कर्म के अभाव में जीव के शरीर में जाति प्रतिनियत रस नहीं होगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि नीम, आम और नींबू आदि में प्रतिनियत रस पाया जाता है ।
- रस के भेद
ष. खं./6/1, 9-1/सू. 39/75 जं तं रसणामकम्मं तं पंचविहं, तित्तणामं कडुवणामं कसायणामं अंबणामं महुणामं चेदि ।75। = जो रस नामकर्म है वह पाँच प्रकार का है - तिक्त नामकर्म, कटुकनामकर्म, कषायनामकर्म, आम्लनामकर्म और मधुर नामकर्म । (ष. खं./13/5, 5/सू. 112/370); (स. सि./8/11/390/10); (स. सि./5/23/293/12); (प. स./प्रा./2/4/48/1); (रा. वा./8/11/10/577/15); (प. प्र./टी./1/19/26/2); (द्र. सं./टी./7/19/12); (गो. जी./जी. प्र./479/ 885/1) ।
स. सि./5/23/294/2 त एते मूलभेदाः प्रत्येकं संख्येयासंख्येयानन्तभेदाश्च भवन्ति । = ये रस के मूल भेद हैं, वैसे प्रत्येक (रसादि के) के संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं ।
- गोरस आदि के लक्षण
सा. ध./5/35 पर उद्धृत - गोरसः क्षीरघृतादि, इक्षुरसः खण्डगुड आदि, फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैलमण्डादि । = घी, दूध आदि गोरस हैं । शक्कर, गुड़ आदि इक्षुरस हैं । द्राक्षा, आम आदि के रस को फल रस कहते हैं और तेल, माँड़ आदि को धान्यरस कहते हैं ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- रस परित्याग की अपेक्षा रस के भेद ।−देखें रस परित्याग ।
- रस नामकर्म में रस सकारण है या निष्कारण ।−देखें वर्ण - 4 ।
- गोरस शुद्धि ।−देखें भक्ष्याभक्ष्य - 3 ।
- रस नाम प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा ।−दे वह वह नाम ।
- अग्नि आदि में भी रस की सिद्धि ।−देखें पुद्गल - 10 ।
पुराणकोष से
(1) रसना-इन्द्रिय का विषय । यह छ: प्रकार का होता है—कडुवा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कषायला और खारा । महापुराण 9.46, 75.620-621
(2) काव्य का एक अंग । ये नौ होते हैं― शृंगार, हास्य, करुण, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, बीभत्स और शान्त । पद्मपुराण 24.22-23
(3) रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग का नौवाँ पटल । हरिवंशपुराण 4.53