राजा: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) देश का प्रधान पुरुष । यह प्रजा का रक्षक होता है । प्रजा का पालन करने में इसकी न कठोरता अच्छी होती है और न कोमलता । इसे मध्यवृत्ति का आचरण करना होता है । अन्तरंग शत्रु—काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह को जीतकर बाह्य शत्रुओं को भी अपने अधीन करना इसका कर्त्तव्य है । यह धर्म, अर्थ और काम तीनों का सेवन करता है, राज्य प्राप्त होने पर मद नहीं करता, यौवन, रूप, कुल, ऐश्वर्य, जाति आदि मिलने पर अहंकार नहीं करता तथा प्रजा का क्षोभ और भय दूर करके उन्हें न्याय देता है । अन्याय, अत्यधिक विषय-सेवन और अज्ञान इसके दुर्गुण हैं । मुख्यत: राजा के पाँच कर्त्तव्य होते है-कुल का पालन, बुद्धि का पालन, स्व-रक्षा, प्रजा-रक्षा और समंजसत्व । इनमें कुल के आम्नाय की रक्षा करना कुलानुपालन और लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थो के हिताहित का ज्ञान प्राप्त करना मत्यनुपालन है । स्वात्मा का विकास आत्मरक्षा तथा प्रजा की रक्षा प्रजापालन है । दुष्टों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करना समंजसत्व कहलाता है । राज्य संचालन में इसे अमान्य सहयोग करते हैं । इसकी मंत्रिपरिषद में कम से कम चार मंत्री होते हैं । कार्य की योजना इसे ये ही बनाकर देते हैं । यह भी मंत्रियों की स्वीकृति लिये बिना योजना बार नहीं करता । पुरोहित भी राजकाज मे इसका सहयोग करते हैं । सेनापति इसकी सेना का संचालन करता है । यह साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार उपायों से अपना प्रयोजन सिद्ध करता है । सन्धि, विग्रह, आसन, मान, संश्रय और द्वेधीभाव ये इसके छ: गुण तथा स्वामी, मंत्री, देश, खजाना, दण्ड, गढ़ और मित्र ये सात प्रकृतियां होती हैं । ये तीन प्रकार के होते हैं― लोभविजय, धर्मविजय और असुरविजय । इनमें प्रथम वे हैं जो दान देकर राजाओं पर विजय करते हैं । दूसरे वे हैं जो शान्ति का व्यवहार करके विजय करते हैं और तीसरे वे हैं जो भेद तथा दण्ड का प्रयोग करके राजाओं को अपने अधीन करते हैं । शत्रु, मित्र और उदासीन के भेद से भी ये तीन प्रकार के होते हैं । मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति से युक्त राजा श्रेष्ठ होता है । राजा के गुप्तचर भी होते हैँ । ये रहस्यपूर्ण बातों का पता लगाकर राज्यशासन को सुदृढ़ बनाते हैं । प्रभुशक्ति की हीनाधिकता के कारण ये आठ प्रकार के होते हैं― चक्रवर्ती, अधचक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, अर्धमण्डलेश्वर, महामाण्डलिक अधिराज, राजा और भूपाल । <span class="GRef"> महापुराण 4.70, 195, 5.7, 16.257, 262, 23.60, 37. 174-175, 42.4-5, 31-32, 49-199, 62-208, 68.60-72, 384-445 </span></p> | |||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- राजा
ध. 1/1, 1, 1/गा. 36/57 अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिर्विनम्राणाम्। राजा स्यान्मुकुटधरः कल्पतरुः सेवमानानाम्।36। = जो नम्रीभूत अठारह श्रेणियों का अधिपति हो, मुकुट को धारण करने वाला हो और सेवा करने वालों के लिए कल्पवृक्ष के समान हो उसको राजा कहते हैं। (त्रि. सा./684)।
भ. आ./वि./421/613/19 राज शब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः। राजते प्रकृतिं रंजयति इति वा राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते। = इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजा का पालन करना, उनको दुष्टों से रक्षण करना इत्यादि उपायों से अनुरंजन करता है उसको राजा कहते हैं। राजा के समान जो महर्द्धि का धारक है उसको भी राजा कहते हैं।
- राजा के भेद
(अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिराज, महाराजाधिराज तथा परमेश्वरादि); (ध. 1/1, 1, 1/56/7 का भावार्थ); (राजा, अधीश्वर, महाराज, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, त्रिखण्डाधिपति तथा चक्री आदि); (ध. 1/1, 12/गा. 37 - 43/57-58)।
- अधिराज व महाराज का लक्षण
ति. प./1/45 पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो। रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महाराजो।45। = जो पाँच सौ राजाओं का स्वामी हो वह अधिराज है। उसकी कीर्ति सारी दिशाओं में फैली रहती है। जो एक हजार राजाओं का पालन करता है वह महाराज है।45। (ध. 1/1, 1/गा. 40/57); (त्रि. सा./684)।
- अर्धमण्डलीक व मण्डलीक का लक्षण
ति. प./1/46 दुसहस्समउडबद्ध भुववसहो तत्थ अद्धमंडलिओ। चउराजसहस्साणं अहिणाओ होइ मंडलिओ।46। = जो दो हजार मुकुटबद्ध भूपों में प्रधान हो वह अर्धण्मडलीक है और जो चार हजार राजाओं का अधिनाथ हो वह मण्डलीक कहलाता है।46। (ध. 1/1, 1, 1/गा. 41/57); (त्रि. सा./685)।
- महामण्डलीक का लक्षण
ति. प./1/42 अष्टसहस्रमहीपतिनायकमाहुर्बुधाः महामण्डलिकम्....। = बुधजन आठ हजार राजाओं के स्वामी को मण्डलीक कहते हैं। (ध. 1/1, 1, 1/गा. 47/57); (त्रि. सा./685)।
- अर्धचक्री व चक्रवर्ती का लक्षण−देखें शलाकापुरुष - 4, 2।
- कल्कि राजा−देखें कल्कि ।
पुराणकोष से
(1) देश का प्रधान पुरुष । यह प्रजा का रक्षक होता है । प्रजा का पालन करने में इसकी न कठोरता अच्छी होती है और न कोमलता । इसे मध्यवृत्ति का आचरण करना होता है । अन्तरंग शत्रु—काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह को जीतकर बाह्य शत्रुओं को भी अपने अधीन करना इसका कर्त्तव्य है । यह धर्म, अर्थ और काम तीनों का सेवन करता है, राज्य प्राप्त होने पर मद नहीं करता, यौवन, रूप, कुल, ऐश्वर्य, जाति आदि मिलने पर अहंकार नहीं करता तथा प्रजा का क्षोभ और भय दूर करके उन्हें न्याय देता है । अन्याय, अत्यधिक विषय-सेवन और अज्ञान इसके दुर्गुण हैं । मुख्यत: राजा के पाँच कर्त्तव्य होते है-कुल का पालन, बुद्धि का पालन, स्व-रक्षा, प्रजा-रक्षा और समंजसत्व । इनमें कुल के आम्नाय की रक्षा करना कुलानुपालन और लोक तथा परलोक सम्बन्धी पदार्थो के हिताहित का ज्ञान प्राप्त करना मत्यनुपालन है । स्वात्मा का विकास आत्मरक्षा तथा प्रजा की रक्षा प्रजापालन है । दुष्टों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन करना समंजसत्व कहलाता है । राज्य संचालन में इसे अमान्य सहयोग करते हैं । इसकी मंत्रिपरिषद में कम से कम चार मंत्री होते हैं । कार्य की योजना इसे ये ही बनाकर देते हैं । यह भी मंत्रियों की स्वीकृति लिये बिना योजना बार नहीं करता । पुरोहित भी राजकाज मे इसका सहयोग करते हैं । सेनापति इसकी सेना का संचालन करता है । यह साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार उपायों से अपना प्रयोजन सिद्ध करता है । सन्धि, विग्रह, आसन, मान, संश्रय और द्वेधीभाव ये इसके छ: गुण तथा स्वामी, मंत्री, देश, खजाना, दण्ड, गढ़ और मित्र ये सात प्रकृतियां होती हैं । ये तीन प्रकार के होते हैं― लोभविजय, धर्मविजय और असुरविजय । इनमें प्रथम वे हैं जो दान देकर राजाओं पर विजय करते हैं । दूसरे वे हैं जो शान्ति का व्यवहार करके विजय करते हैं और तीसरे वे हैं जो भेद तथा दण्ड का प्रयोग करके राजाओं को अपने अधीन करते हैं । शत्रु, मित्र और उदासीन के भेद से भी ये तीन प्रकार के होते हैं । मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति और उत्साहशक्ति से युक्त राजा श्रेष्ठ होता है । राजा के गुप्तचर भी होते हैँ । ये रहस्यपूर्ण बातों का पता लगाकर राज्यशासन को सुदृढ़ बनाते हैं । प्रभुशक्ति की हीनाधिकता के कारण ये आठ प्रकार के होते हैं― चक्रवर्ती, अधचक्रवर्ती, मण्डलेश्वर, अर्धमण्डलेश्वर, महामाण्डलिक अधिराज, राजा और भूपाल । महापुराण 4.70, 195, 5.7, 16.257, 262, 23.60, 37. 174-175, 42.4-5, 31-32, 49-199, 62-208, 68.60-72, 384-445