लक्षण: Difference between revisions
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रा. वा./ | रा. वा./2/8/2/119/6 <span class="SanskritText">परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।2। </span>= <span class="HindiText">परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है। </span><br /> | ||
न्या. वि./टी./ | न्या. वि./टी./1/3/85/5<span class="SanskritText"> लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्। </span>= <span class="HindiText">जिसके द्वारा पदार्थ लक्ष्य किया जाये उसको लक्षण कहते हैं। </span><br /> | ||
ध./ | ध./7/2, 1, 55/96/3<span class="PrakritText"> किं लक्खणं। जस्साभावे दव्वस्साभावो होदि तं तस्स लक्खणं, जहा पोग्गलदव्वस्स रूव - रस-गंध-फासा, जीवस्स उवजोगो। </span>= <span class="HindiText">जिसके अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जाता है, वही उस द्रव्य का लक्षण है। जैसे - पुद्गल द्रव्य का लक्षण रूप, रस, गन्ध और; जीव का उपयोग। </span><br /> | ||
न्या. दी./ | न्या. दी./1/3/5/9<span class="SanskritText"> व्यतिकीर्ण - वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्। </span>=<span class="HindiText"> मिली हुई वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को (चिह्न को) लक्षण कहते हैं। <br /> | ||
देखें [[ गुण#1.1 | गुण - 1.1 ]](शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृत्ति, शील, आकृति और अंग एकार्थवाची हैं)। </span><br /> | |||
न्या. सू./टी./ | न्या. सू./टी./1/1/2/8/7 <span class="SanskritText">उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्। </span>= <span class="HindiText">उद्दिष्ट (नाम मात्र से कहे हुए) पदार्थ के अयथार्थ (विपरीत या असत्य) बोध के निवारण करने वाले धर्म को लक्षण कहते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> लक्षण के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> लक्षण के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
रा. वा./ | रा. वा./2/8/3/119/11 <span class="SanskritText">तल्लक्षणं द्विविधम्आत्मभूतमनात्मभूतं चेति। तत्र आत्मभूतमग्नेरौष्ण्यम्, अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः।</span> =<span class="HindiText"> लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार होता है। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुष का मेदक दण्ड अनात्मभूत है। </span><br /> | ||
न्या. दी./ | न्या. दी./1/4/6/4 <span class="SanskritText">द्विविधं लक्षणम्, आत्मभूतमनात्ममूतं चेति। तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम्, यथाग्नेरौष्ण्यम्। औष्ण्यं ह्यग्नेः स्वरूपं सदग्निमवादिभ्यो व्यावर्त्तयति। तद्विपरीतमनात्मभूतम्, यथादण्डः पुरुषस्य। दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्डः पुरुषाननुप्रवष्टिः एव पुरुषं व्यावर्त्तयति। </span>= <span class="HindiText">लक्षण के दो भेद हैं−आत्मभूत और अनात्मभूत। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं जैसे अग्नि की उष्णता। यह उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई अग्नि को जलादि पदार्थों से जुदा करती है। इसलिए उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे–दण्डीपुरुष का दण्ड। दण्डी को लाओ ऐसा करने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुआ ही पुरुष को पुरुष भिन्न पदार्थों से पृथक् करता है। इसलिए दण्ड पुरुष का अनात्मभूत लक्षण है। <br /> | ||
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न्या. दी./ | न्या. दी./1/5/7/22 की टिप्पणी <span class="SanskritText">सदोषलक्षणं लक्षणाभासम्। </span>= <span class="HindiText">मिथ्या अर्थात् सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> लक्षणाभास के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> लक्षणाभास के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
न्या./दी./ | न्या./दी./1/5/7/5<span class="SanskritText"> त्रयोलक्षणाभासभेदाः - अव्याप्तमतिव्याप्तमसंभवि चेति। तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम्, यथा गोः शावलेयत्वम्। लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम् यथा तस्यैव पशुत्वम्। बाधितलक्ष्यवृत्त्यसंभवति, यथा नरस्य विषाणित्वम्। </span>= <span class="HindiText">लक्षणाभास के तीन भेद हैं−अव्याप्त, अतिव्याप्त और असम्भवि। (मोक्ष पंचाशत।14) लक्ष्य के एक देश में लक्षण के रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे - गाय का शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे−गाय का ही पशुत्व लक्षण करना। यह पशुत्व गाय के सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्य में बिलकुल ही न रहे वह असम्भवि लक्षणाभास है। जैसे−मनुष्य का लक्षण सींग। सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता। अतः वह असम्भवि लक्षणाभास है। (मोक्ष पंचाशत/15 - 17)। </span><br /> | ||
मोक्ष पंचाशत/ | मोक्ष पंचाशत/17 <span class="SanskritText">लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरितः। यथा वर्णादियुक्तत्वमसिद्धं सर्वथात्मनि। </span>= <span class="HindiText">लक्ष्य में उत्पन्न न होना सो असम्भव दोष का लक्षण है, जैसे आत्मा में वर्णादि की युक्ति असिद्ध है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> आत्मभूत लक्षण की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> आत्मभूत लक्षण की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
रा. वा./ | रा. वा./2/8/8-9/119/24 <span class="SanskritText">इह लोके यद्यदात्मकं न तत्तेनोपयुज्यते यथा क्षीरं क्षीरात्मकं न तत्तेनैवात्मनोपयुज्यते।..... जीव एव ज्ञानादनन्यतवे सति ज्ञानात्मनोपयुज्यते।....आकाशस्य रुपाद्युपयोगाभाववत्।.....आत्मापि ज्ञानादिस्वभावशक्तिप्रत्ययवशात् घटपटाद्याकारावग्रहरूपेण परिणमतीत्युपयोगः सिद्धः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>जैसे दूध का दूध रूप से परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूप से होता है। उसी तरह ज्ञानात्मक आत्मा का ज्ञान रूप से परिणमन नहीं हो सकेगा। अतः जीव के ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>चूँकि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसलिए उसका ज्ञान रूप से उपयोग होता है। आकाश का सर्वथा भिन्न रूपादिक रूप से उपयोग नहीं देखा जाता।......ज्ञान पर्याय के अभिमुख जीव भी ज्ञान व्यपदेश को प्राप्त करके स्वयं घट−पटादि विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्याय को धारण करता है। अतः द्रव्य दृष्टि से उसका ही उसी रूप से परिणमन सिद्ध होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">लक्ष्य<br> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="6" id="6"></a>लक्ष्य<br> | ||
</strong>लक्षण में समानाधिकरण अवश्य है </span><br /> | </strong>लक्षण में समानाधिकरण अवश्य है </span><br /> | ||
न्या. दी./ | न्या. दी./1/5/7/2 <span class="SanskritText">असाधारणर्मवचनं लक्षणम् इति केचित्; तदनुपपन्नम्ः लक्ष्यधर्मिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन समानाधिकरण्याभावप्रसङ्गात्।</span> = <span class="HindiText">असाधारणधर्म के कथन को लक्षण कहते हैं ऐसी किन्हीं का कहना ठीक नहीं है। क्योंकि लक्ष्य रूप धर्मिवचन का लक्षणरूप धर्म वचन के साथ समानाधिकरण्य के अभाव का प्रसंग आता है। <br /> | ||
न्या. दी./भाषा/ | न्या. दी./भाषा/1/5/141/20 यह नियम है कि लक्ष्य - लक्षण भावस्थल में लक्ष्य वचन और लक्षण वचन में एकार्थप्रतिपादकत्व रूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध−देखें | <li><span class="HindiText"> लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध−देखें [[ सम्बन्ध ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> लक्षण निमित्त | <li><span class="HindiText"> लक्षण निमित्त ज्ञान−देखें [[ निमित्त#2 | निमित्त - 2]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> भगवान् के 1008 लक्षण−देखें [[ अर्हंत#1 | अर्हंत - 1]]। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) अष्टांग निमित्त ज्ञान का छठा अंग । इससे शारीरिक चिह्न देखकर मनुष्य के ऐश्वर्य एवं द्रारिद्रय आदि को बताया जाता है । तीर्थंकरों के शरीर पर स्वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षण होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 15. 37-44, 62. 181, 188, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 117 </span>दे अष्टांगनिमित्तज्ञान</p> | |||
<p id="2">(2) परमेष्ठियों के गुण रूप में कहे गये सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद इसमें मुनि जिनेन्द्र के लक्षणों का चिन्तन करते हुए तप करता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.163-166, 171 </span></p> | |||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- लक्षण
रा. वा./2/8/2/119/6 परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।2। = परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है।
न्या. वि./टी./1/3/85/5 लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्। = जिसके द्वारा पदार्थ लक्ष्य किया जाये उसको लक्षण कहते हैं।
ध./7/2, 1, 55/96/3 किं लक्खणं। जस्साभावे दव्वस्साभावो होदि तं तस्स लक्खणं, जहा पोग्गलदव्वस्स रूव - रस-गंध-फासा, जीवस्स उवजोगो। = जिसके अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जाता है, वही उस द्रव्य का लक्षण है। जैसे - पुद्गल द्रव्य का लक्षण रूप, रस, गन्ध और; जीव का उपयोग।
न्या. दी./1/3/5/9 व्यतिकीर्ण - वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्। = मिली हुई वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को (चिह्न को) लक्षण कहते हैं।
देखें गुण - 1.1 (शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृत्ति, शील, आकृति और अंग एकार्थवाची हैं)।
न्या. सू./टी./1/1/2/8/7 उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्। = उद्दिष्ट (नाम मात्र से कहे हुए) पदार्थ के अयथार्थ (विपरीत या असत्य) बोध के निवारण करने वाले धर्म को लक्षण कहते हैं।
- लक्षण के भेद व उनके लक्षण
रा. वा./2/8/3/119/11 तल्लक्षणं द्विविधम्आत्मभूतमनात्मभूतं चेति। तत्र आत्मभूतमग्नेरौष्ण्यम्, अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः। = लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार होता है। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुष का मेदक दण्ड अनात्मभूत है।
न्या. दी./1/4/6/4 द्विविधं लक्षणम्, आत्मभूतमनात्ममूतं चेति। तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम्, यथाग्नेरौष्ण्यम्। औष्ण्यं ह्यग्नेः स्वरूपं सदग्निमवादिभ्यो व्यावर्त्तयति। तद्विपरीतमनात्मभूतम्, यथादण्डः पुरुषस्य। दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्डः पुरुषाननुप्रवष्टिः एव पुरुषं व्यावर्त्तयति। = लक्षण के दो भेद हैं−आत्मभूत और अनात्मभूत। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं जैसे अग्नि की उष्णता। यह उष्णता अग्नि का स्वरूप होती हुई अग्नि को जलादि पदार्थों से जुदा करती है। इसलिए उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है। जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे–दण्डीपुरुष का दण्ड। दण्डी को लाओ ऐसा करने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुआ ही पुरुष को पुरुष भिन्न पदार्थों से पृथक् करता है। इसलिए दण्ड पुरुष का अनात्मभूत लक्षण है।
- लक्षणाभास सामान्य का लक्षण
न्या. दी./1/5/7/22 की टिप्पणी सदोषलक्षणं लक्षणाभासम्। = मिथ्या अर्थात् सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं।
- लक्षणाभास के भेद व उनके लक्षण
न्या./दी./1/5/7/5 त्रयोलक्षणाभासभेदाः - अव्याप्तमतिव्याप्तमसंभवि चेति। तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम्, यथा गोः शावलेयत्वम्। लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम् यथा तस्यैव पशुत्वम्। बाधितलक्ष्यवृत्त्यसंभवति, यथा नरस्य विषाणित्वम्। = लक्षणाभास के तीन भेद हैं−अव्याप्त, अतिव्याप्त और असम्भवि। (मोक्ष पंचाशत।14) लक्ष्य के एक देश में लक्षण के रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे - गाय का शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे−गाय का ही पशुत्व लक्षण करना। यह पशुत्व गाय के सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्य में बिलकुल ही न रहे वह असम्भवि लक्षणाभास है। जैसे−मनुष्य का लक्षण सींग। सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता। अतः वह असम्भवि लक्षणाभास है। (मोक्ष पंचाशत/15 - 17)।
मोक्ष पंचाशत/17 लक्ष्ये त्वनुपपन्नत्वमसंभव इतीरितः। यथा वर्णादियुक्तत्वमसिद्धं सर्वथात्मनि। = लक्ष्य में उत्पन्न न होना सो असम्भव दोष का लक्षण है, जैसे आत्मा में वर्णादि की युक्ति असिद्ध है।
- आत्मभूत लक्षण की सिद्धि
रा. वा./2/8/8-9/119/24 इह लोके यद्यदात्मकं न तत्तेनोपयुज्यते यथा क्षीरं क्षीरात्मकं न तत्तेनैवात्मनोपयुज्यते।..... जीव एव ज्ञानादनन्यतवे सति ज्ञानात्मनोपयुज्यते।....आकाशस्य रुपाद्युपयोगाभाववत्।.....आत्मापि ज्ञानादिस्वभावशक्तिप्रत्ययवशात् घटपटाद्याकारावग्रहरूपेण परिणमतीत्युपयोगः सिद्धः। = प्रश्न−जैसे दूध का दूध रूप से परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूप से होता है। उसी तरह ज्ञानात्मक आत्मा का ज्ञान रूप से परिणमन नहीं हो सकेगा। अतः जीव के ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए ? उत्तर−चूँकि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसलिए उसका ज्ञान रूप से उपयोग होता है। आकाश का सर्वथा भिन्न रूपादिक रूप से उपयोग नहीं देखा जाता।......ज्ञान पर्याय के अभिमुख जीव भी ज्ञान व्यपदेश को प्राप्त करके स्वयं घट−पटादि विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्याय को धारण करता है। अतः द्रव्य दृष्टि से उसका ही उसी रूप से परिणमन सिद्ध होता है।
- <a name="6" id="6"></a>लक्ष्य
लक्षण में समानाधिकरण अवश्य है
न्या. दी./1/5/7/2 असाधारणर्मवचनं लक्षणम् इति केचित्; तदनुपपन्नम्ः लक्ष्यधर्मिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन समानाधिकरण्याभावप्रसङ्गात्। = असाधारणधर्म के कथन को लक्षण कहते हैं ऐसी किन्हीं का कहना ठीक नहीं है। क्योंकि लक्ष्य रूप धर्मिवचन का लक्षणरूप धर्म वचन के साथ समानाधिकरण्य के अभाव का प्रसंग आता है।
न्या. दी./भाषा/1/5/141/20 यह नियम है कि लक्ष्य - लक्षण भावस्थल में लक्ष्य वचन और लक्षण वचन में एकार्थप्रतिपादकत्व रूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध−देखें सम्बन्ध ।
- लक्षण निमित्त ज्ञान−देखें निमित्त - 2।
- भगवान् के 1008 लक्षण−देखें अर्हंत - 1।
पुराणकोष से
(1) अष्टांग निमित्त ज्ञान का छठा अंग । इससे शारीरिक चिह्न देखकर मनुष्य के ऐश्वर्य एवं द्रारिद्रय आदि को बताया जाता है । तीर्थंकरों के शरीर पर स्वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षण होते हैं । महापुराण 15. 37-44, 62. 181, 188, हरिवंशपुराण 10. 117 दे अष्टांगनिमित्तज्ञान
(2) परमेष्ठियों के गुण रूप में कहे गये सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद इसमें मुनि जिनेन्द्र के लक्षणों का चिन्तन करते हुए तप करता है । महापुराण 39.163-166, 171