वृक्ष: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/341 <span class="PrakritGatha">गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्वकप्पतरू। णियणियमणसंकप्पियवत्थूणिं देंति जुगलाणं।341। </span>= <span class="HindiText">इस (भोगभूमि के) समय वहाँ पर गाँव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं, जो जुगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> 10 कल्पवृक्षों के नाम निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/342<span class="PrakritGatha"> पाणंगतूरियंगा भूसणवत्थंगभोयणंगा य। आलयदीवियभायणमालातेजंग आदि कप्पतरू।342। </span>= <span class="HindiText">भोगभूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग आदि कल्पवृक्ष होते हैं।342। (म.पु./9/35); (त्रि.सा./787)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> 10 कल्पवृक्षों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/343-353<span class="PrakritGatha"> पाणं मधुरसुसादं छरसेहिं जुदं पसत्थमइसीदं। बत्तीसभेदजुत्तं पाणंगा देंति तुट्ठिपुट्ठियरं।343। तूरंगा वरवीणापटुपटहमुइंगझल्लरीसंखा। दुंदुभिभंभाभेरीकोहलपहुदाइ देंति तूरग्गा।344। तरओ वि भूसणंगा कंकणकडिसुत्तहारकेयूरा। मंजीरकडयकुंडलतिरीडमउडादियं देंति।345। वत्थंगा णित्तं पडचीणसुवरखउमपहुदिवत्थाणिं। मणणयणाणंदकरं णाणावत्थादि ते देंति।346। सोलसविहमाहारं सोलसमेयाणि वेंजणाणिं पि। चोद्दसविहसोवाइं खज्जाणिं विगुणचउवण्णं ।347। सायाणं च पयारे तेसट्ठीसंजुदाणि तिसयाणि रसभेदा। तेसट्ठी देंति फुडं भोयणंगदुमा।348। सत्थिअणंदावत्तप्पमुहा जे के वि दिव्वपासादा। सोलसभेदा रम्मा देंति हुते आलयंगदुमा।349। दीवंदुमा साहापवालफलकुसुममंकुरादीहिं। दीवा इव पज्जलिदा पासादे देंति उज्जीवं।350। भायणअंगा कंचणबहुरयणविणिम्मियाइ धवलाइं। भिंगारकलसगग्गरिचामरपीढादियं देंति।351। वल्लीतरुगुच्छलदुब्भवाण सोलससहस्सभेदाणं। मालांगदुमा देंति हु कुसुमाणं विविहमालाओ।352 । तेजंगा मज्झंदिणदिणयरकोडीणकिरणसंकासा। णक्खत्तचंदस्रप्पहुदीणं कंतिसंहरणा।353। </span><br /> | ||
म.पु./ | म.पु./9/37-39 <span class="SanskritGatha">मद्यांगा मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान्। रसभेदांस्ततामोदान् वितरन्त्यमृतोपमान्।37। कामोद्दीपन-साधर्म्यात् मद्यमित्युपचर्यते। तारवो रसभेदोऽयं यः सेव्यो भोगभूमिजैः।38। मदस्य करणं मद्यं पानशौण्डैर्यदादृतम्। तद्वर्जनीयमार्याणाम् अन्तःकरणमोहदम्।39। </span>= <span class="HindiText">इनमें से पानांग जाति के कल्पवृख भोगभूमिजों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त, प्रशस्त, अतिशीत और तुष्टि एवं पुष्टि को करने वाले, ऐसे बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को दिया करते हैं। (इसी का अपर नाम मद्यांग भी है, जिसका लक्षण अन्त में किया है)।343। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार के वादित्रों को देते हैं।344। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुण्डल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं।345। वे वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष नित्य चीनपट एवं उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनों को आनन्दित करने वाले नाना प्रकार के वस्त्रादि देते हैं ।346। भीजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार का आहार व सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप (दाल आदि), एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, स्वाद्य पदार्थों के तीन सौ तिरेसठ प्रकार और तिरेसठ प्रकार के रसभेदों को पृथक-पृथक दिया करते हैं।347-348। आलयांग जाति के कल्पवृक्ष, स्वस्तिक और नन्द्यावर्त इत्यादिक जो सोलह प्रकार के रमणीय दिव्य भवन होते हैं, उनको दिया करते हैं।349 । दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल (नवजात पत्र), फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं।350। भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष सुवर्ण एवं बहुत से रत्नों से निर्मित धवल झारी, कलश, गागर, चामर और आसनादिक प्रदान करते हैं।351। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेद रूप पुष्पों की विविध मालाओं को देते हैं।352। तेजांग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादिक की कान्ति का संहरण करते हैं।353। (म.पु./9/39-48) (पानांग जाति के कल्पवृक्ष को मद्यांग भी कहते हैं) इनमें मद्यांग जाति के वृक्ष फैलती हुई सुगन्धी से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं।37। कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं।38। मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशा करने वाला है और अन्तःकरण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।39। <br /> | ||
’ वृक्षों व कमलों आदि का अवस्थान, विस्तार व चित्र–देखें | ’ वृक्षों व कमलों आदि का अवस्थान, विस्तार व चित्र–देखें [[ लोक ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> लोक में वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी कायिक होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> लोक में वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी कायिक होते हैं</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4 गाथा नं. <span class="PrakritGatha">गंगाणईण मज्झे उव्भासदि एउ मणिमओ कूडो।205। वियलियकमलायारो रम्मो वेरुलियणालसंजुत्तो।...।206। चामीयरकेसरेहिं संजुत्ते।207। ते सव्वे कप्पदुमा ण बणप्फदी णो वेंतरा सव्वे। णवरिं पुढविसरूवा पुण्णफलं देंति जीवाणं।354। सहिदो वियसिअकुसुमेहिं सुहसंचयरयणरचिदेहिं।1659। दहमज्झे अरविंदयणालं बादालकोसमुव्विद्धं। इगिकोसं बाहल्लं तस्स मुणालं ति रजदमयं।1667। कंदो यरिट्ठरयणं णालो वेरुलियरयणणिम्मविदो। तस्सुवरिं दरवियसियपउमं चउकोसमुव्विद्धं।1668। सोहेदि तस्स खंधो फुरंतवरकिरणपुस्सरागमओ ।2155 । साहासुं पत्ताणिं मरगयवेरुलियणीलइंदाणिं। विविहाइं कक्केयणचामीयर-व्रिद्दुममयाणिं।2157। सम्मलितरुणो अंकुर कुसुमफलाणिं विचित्तरयणाणिं। पणपवण्णसोहिदाणिं णिरुवमरूवाणि रेहंति।2158। सामलिरुक्खसरिच्छं जंबूरुक्खाण वण्णणं सयलं।2196। </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./8/405<span class="PrakritGatha"> सयलिंदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति। एक्केक्कं पुढमिमया पुव्वोदिद जंबुदुमसरिसा।405 । </span>= | ||
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<li class="HindiText"> गंगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान | <li class="HindiText"> गंगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान है।205। यह मणिमय कूट विकसित कमल के आकार, रमणीय और वैडूर्यमणि नाल से संयुक्त है।206। यह सुवर्णमय पराग से संयुक्त है।207। (ति.प./4/353-355)। </li> | ||
<li class="HindiText"> ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं, किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते | <li class="HindiText"> ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं, किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं।354। (म.पु./9/49); (अन.ध./1/38/58 पर उद्धृत। </li> | ||
<li class="HindiText"> पद्म द्रह शुभ संचय युक्त रत्नों से रचे गये विकसित फूलों से सहित | <li class="HindiText"> पद्म द्रह शुभ संचय युक्त रत्नों से रचे गये विकसित फूलों से सहित है।1659। तालाब के मध्य में व्यालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमल का नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाहल्य से युक्त है।1667। उस कमल का कन्द अरिष्ट रत्नमय और नाल वैडूर्य मणि से निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा विकसित पद्म है।1668। (सो कमल पृथिवी साररूप है वनस्पति रूप नाहीं है–(त्रि.सा./भाषाकार)। (त्रि.सा./569)। </li> | ||
<li class="HindiText"> उस शाल्मली वृक्ष का प्रकाशमान और उत्तम किरणों से संयुक्त पुखराजमय स्कन्ध शोभायमान | <li class="HindiText"> उस शाल्मली वृक्ष का प्रकाशमान और उत्तम किरणों से संयुक्त पुखराजमय स्कन्ध शोभायमान है।2155। उसकी शाखाओं में मरकत, वैडूर्य, इन्द्रनील, कर्केतन, सुवर्ण और मूँगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं।2157। शाल्मली वृक्ष के विचित्र रत्नस्वरूप और पाँच वर्णों से शोभित अनुपम रूप वाले अंकुर, फूल एवं फल शोभायमान हैं।2158। जम्बूवृक्षों का सम्पूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षों के ही समान है।2196। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> समस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें एक एक वृक्ष पृथिवीस्वरूप और पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के सदृश है। ( | <li><span class="HindiText"> समस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें एक एक वृक्ष पृथिवीस्वरूप और पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के सदृश है। (8/404)। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./3/सूत्र/पृष्ट/पंक्ति <span class="SanskritText">उत्तरकुरूणां मध्ये जम्बूवृक्षेऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारः। (9/212/9) जम्बूद्वीपे यत्र जम्बूवृक्षः स्थितः, तत्र धातकीखण्डे धातकीवृक्षः सपरिवारः। (33/227/6)। यत्र जम्बूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। (34/228/4)। </span>= <span class="HindiText">उत्तरकुरु में अनादि निधन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षों से युक्त जम्बूवृक्ष है। जम्बूद्वीप में जहाँ जम्बूवृक्ष स्थित हैं, धातकी खण्ड द्वीप में परिवार वृक्षों के साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और पुष्कर द्वीप में वहाँ अपने परिवार वृक्षों के साथ पुष्कर वृक्ष है। </span><br /> | ||
त्रि.सा./ | त्रि.सा./648 <span class="PrakritText">णाणारयणवसाहा पवालसुमणा मिदिंगसरिसफला। पुढविमया दसतुंगा मज्झग्गे छच्चदुव्वासा।</span> = <span class="HindiText">वह जम्बूवृक्ष नाना प्रकार रत्नमयी उपशाखाओं से मूँगा समान फूलों से तथा मृदंग समान फलों से युक्त है। पृथिवीकायमयी है, वनस्पतिरूप नहीं है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./3/38<span class="PrakritGatha"> चेत्ततरूणं मूलं पत्तेक्कं चउदिसासु पञ्चेव। चेट्ठंति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरेहि महणिज्जा।38। </span>=<span class="HindiText"> चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों से पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं।38। (ति.प./3/137); (त्रि.सा./215)। </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/80 <span class="PrakritGatha">मणिमयजिणपडिमाओ अट्ठमहापडिहेर संजुत्ता। एक्केक्कसिं चेत्तद्दुमम्मि चत्तारि चत्तारि।807।</span> =<span class="HindiText"> एक-एक चैत्य वृक्ष के आश्रित आठ महाप्रातिहार्यों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिन प्रतिमाएँ होती हैं।807। (त्रि.सा./254, 1002)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> चैत्य वृक्ष का स्वरूप व विस्तार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> चैत्य वृक्ष का स्वरूप व विस्तार</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./3/31-36 <span class="PrakritGatha">तव्वाहिरे असोयं सत्तच्छदचंपचूदवणपुण्णा। णियणाणातरुजुत्ता चेट्टंति चेत्ततरुसहिदा।31। चेत्तदुमत्थलरुं दं दोण्णि समा जोयणाणि पण्णासा। चत्तारो मज्झम्मि य अंते कोसद्धमुच्छेहो।32। छद्दोभूमुहरुंदा चउजोयण उच्छिदाणि पीढाणि। पीढोवरि बहुमज्झे रम्मा चेट्ठंति चेत्तदुमा।33। पत्तेकं रुक्खाणं अवगाढं कासमेक्कमुद्दिट्ठं। जोयणखंदुच्छेहो साहादीहत्तणं च चत्तरि।34। विविहवररयणसाहा विचित्तकुसुमोवसोभिदा सव्वे। वरमरगयवरपत्ता दिव्वतरू ते विरायंति।35।वहिंकुरुचेंचइया विविहफला विविहरयणपरिणामा। छत्तादिछत्तजुत्ता घंटाजालादिरमणिज्जा।36।</span> = <span class="HindiText">भवनवासी देवों के भवनों के बाहर वेदियाँ है। वेदियों के बाह्य भाग में चैत्यवृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार 250 योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अन्त में अर्द्ध कोसप्रमाण होती है।32। पीठों की भूमि का विस्तार छह योजन और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठों के ऊपर बहुमध्य भाग में रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं।33। प्रत्येक वृक्ष का अवगाढ़ एक कोस, स्कन्ध का उत्सेध एक योजन और शाखाओं की लम्बाई योजन प्रमाण कही गयी है।34। वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभा को प्राप्त होते हैं।35। विविध प्रकार के अंकुरों से मण्डित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित छत्र के ऊपर छत्र से संयुक्त घण्टाजाल आदि से रमणीय है।36। <br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/806-814 का भावार्थ 2.समवशरणों में स्थित चैत्यवृक्षों के आश्रित तीन-तीन कोटों से वेष्टित तीन पीठों के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं।809। जो वापियों, क्रीडनशालाओं व नृत्यशालाओं व उपवनभूमियों से शोभित हैं।810-812। (इसका चित्र दे.‘समवशरण’) चैत्य वृक्षों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई से 12 गुणी है।806। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते हैं</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/37 <span class="PrakritGatha">आदिणिहणेण हीणा पृढविमया सव्वभवणचेत्तदुमा। जीवुप्पत्तिलयाणं होंति णिमित्तणि ते णियमा।37।</span> = <span class="HindiText">(भवनवासी देवों के भवनों में स्थित) ये सब चैत्यवृक्ष आदिअन्त से रहित तथा पृथिवीकाय के परिणामरूप होते हुए नियम से जीवों की उत्पत्ति और विनाश के निमित्त होते हैं।37। इसी प्रकार पाण्डुकवन के चैत्यालय में तथा व्यन्तरदेवों के भवनों में स्थित जो चैत्यवृक्ष हैं उनके सम्बन्ध में भी जानना।] (ति.प./4/1908); (ति.प./6/29) (और भी देखें [[ ऊपर का शीर्षक ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> चैत्यवृक्षों के भेद निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> चैत्यवृक्षों के भेद निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./3/136<span class="PrakritGatha"> सस्सत्थसत्तवण्णा संमलजंबू य वेतसकंडवा। तह पीयंगुसरिसा पलासरायद्दूमा कमसो।136। </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./6/28 <span class="PrakritGatha">कमसो असोयचंपयणागद्दुमतुंबूर य णग्गोहे। कंटयरुक्खो तुलसी कदंब विदओ त्ति ते अट्ठं।28। </span>= <span class="HindiText">असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से -अश्वत्थ (पीपल), सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदम्ब तथा प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम ये दश प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं।136। किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवों के भवनों में क्रम से–अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तम्बूरु, न्यग्रोध (वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष ये आठ प्रकार के होते हैं।28। </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/805 <span class="PrakritGatha">एक्केकाए उववणखिदिए तरवो यसोयसत्तदला। चंपयचूदा सुंदरभूदा चत्तारि चत्तारि।805।</span> =<span class="HindiText"> समवशरणों में ये अशोक, सप्तच्छद, चम्पक व आम्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं।805। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> चैत्यवृक्ष देवों के चिह्न स्वरूप हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> चैत्यवृक्ष देवों के चिह्न स्वरूप हैं</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/135 <span class="PrakritGatha">ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होंति विविहरयणमया। असुरप्पहुदि कुलाणं ते चिण्हाइं इमा होंति।135। </span>= <span class="HindiText">(भवनवासी देवों के भवनों में) ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। वे ये चैत्यवृक्ष असुरादि देवों के कुलों से चिह्नरूप होते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> अशोकवृक्ष निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> अशोकवृक्ष निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/915-919 <span class="PrakritGatha">जेसिं तरूणमूले उप्पण्ण जाण केवलं णाणं। उपसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।915। णग्गोहसत्तपण्णं सालं सरलं पियंगु तं चेव। सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली पलास तेंदूवं।916। पाडलजंबूपिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा य। कंकल्लि चंपबउलं मेसयसिंगं धवं सालं।917। सोहंति असोयतरू पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहिं। लंबंतमालदामा घंटाजालादिरमणिज्जा।918। णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहिं सरिसउच्छेहा। उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा वियरंति।919।</span> = <span class="HindiText">ऋषभ आदि तीर्थंकरों को जिनवृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है (देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]) वे ही अशोकवृक्ष हैं।915। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरल, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूलिपलाश, तेंदू, पाटल, जम्बू, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक), चम्पक, बकुल, मेषशृंग, धव और शाल ये 24 तीर्थंकरों के 24 अशोकवृक्ष हैं, जो लटकती हुई मालाओं से युक्त और घण्टासमूहादिक से रमणीक होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं।916-918। ऋषभादि तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने-अपने जिनकी (तीर्थंकर की) ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।919। प्रत्येक तीर्थंकर की ऊँचाई–देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]। </span></li> | ||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
जैनाम्नाय में कल्पवृक्ष व चैत्य वृक्षों का प्रायः कथन आता है। भोगभूमि में मनुष्यों की सम्पूर्ण आवश्यकताओं को चिन्ता मात्र से पूरी करने वाले कल्पवृक्ष हैं और प्रतिमाओं के आश्रयभूत चैत्यवृक्ष हैं। यद्यपि वृक्ष कहलाते हैं, परन्तु ये सभी पृथिवीकायिक होते हैं, वनस्पति कायिक नहीं।
- कल्पवृक्ष निर्देश
- कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण
ति.प./4/341 गामणयरादि सव्वं ण होदि ते होंति सव्वकप्पतरू। णियणियमणसंकप्पियवत्थूणिं देंति जुगलाणं।341। = इस (भोगभूमि के) समय वहाँ पर गाँव व नगरादिक सब नहीं होते, केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं, जो जुगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।
- 10 कल्पवृक्षों के नाम निर्देश
ति.प./4/342 पाणंगतूरियंगा भूसणवत्थंगभोयणंगा य। आलयदीवियभायणमालातेजंग आदि कप्पतरू।342। = भोगभूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग आदि कल्पवृक्ष होते हैं।342। (म.पु./9/35); (त्रि.सा./787)।
- 10 कल्पवृक्षों के लक्षण
ति.प./4/343-353 पाणं मधुरसुसादं छरसेहिं जुदं पसत्थमइसीदं। बत्तीसभेदजुत्तं पाणंगा देंति तुट्ठिपुट्ठियरं।343। तूरंगा वरवीणापटुपटहमुइंगझल्लरीसंखा। दुंदुभिभंभाभेरीकोहलपहुदाइ देंति तूरग्गा।344। तरओ वि भूसणंगा कंकणकडिसुत्तहारकेयूरा। मंजीरकडयकुंडलतिरीडमउडादियं देंति।345। वत्थंगा णित्तं पडचीणसुवरखउमपहुदिवत्थाणिं। मणणयणाणंदकरं णाणावत्थादि ते देंति।346। सोलसविहमाहारं सोलसमेयाणि वेंजणाणिं पि। चोद्दसविहसोवाइं खज्जाणिं विगुणचउवण्णं ।347। सायाणं च पयारे तेसट्ठीसंजुदाणि तिसयाणि रसभेदा। तेसट्ठी देंति फुडं भोयणंगदुमा।348। सत्थिअणंदावत्तप्पमुहा जे के वि दिव्वपासादा। सोलसभेदा रम्मा देंति हुते आलयंगदुमा।349। दीवंदुमा साहापवालफलकुसुममंकुरादीहिं। दीवा इव पज्जलिदा पासादे देंति उज्जीवं।350। भायणअंगा कंचणबहुरयणविणिम्मियाइ धवलाइं। भिंगारकलसगग्गरिचामरपीढादियं देंति।351। वल्लीतरुगुच्छलदुब्भवाण सोलससहस्सभेदाणं। मालांगदुमा देंति हु कुसुमाणं विविहमालाओ।352 । तेजंगा मज्झंदिणदिणयरकोडीणकिरणसंकासा। णक्खत्तचंदस्रप्पहुदीणं कंतिसंहरणा।353।
म.पु./9/37-39 मद्यांगा मधुमैरेयसीध्वरिष्टासवादिकान्। रसभेदांस्ततामोदान् वितरन्त्यमृतोपमान्।37। कामोद्दीपन-साधर्म्यात् मद्यमित्युपचर्यते। तारवो रसभेदोऽयं यः सेव्यो भोगभूमिजैः।38। मदस्य करणं मद्यं पानशौण्डैर्यदादृतम्। तद्वर्जनीयमार्याणाम् अन्तःकरणमोहदम्।39। = इनमें से पानांग जाति के कल्पवृख भोगभूमिजों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त, प्रशस्त, अतिशीत और तुष्टि एवं पुष्टि को करने वाले, ऐसे बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को दिया करते हैं। (इसी का अपर नाम मद्यांग भी है, जिसका लक्षण अन्त में किया है)।343। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग, झालर, शंख, दुंदुभि, भंभा, भेरी और काहल इत्यादि भिन्न-भिन्न प्रकार के वादित्रों को देते हैं।344। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुण्डल, किरीट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं।345। वे वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष नित्य चीनपट एवं उत्तम क्षौमादि वस्त्र तथा अन्य मन और नयनों को आनन्दित करने वाले नाना प्रकार के वस्त्रादि देते हैं ।346। भीजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार का आहार व सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप (दाल आदि), एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, स्वाद्य पदार्थों के तीन सौ तिरेसठ प्रकार और तिरेसठ प्रकार के रसभेदों को पृथक-पृथक दिया करते हैं।347-348। आलयांग जाति के कल्पवृक्ष, स्वस्तिक और नन्द्यावर्त इत्यादिक जो सोलह प्रकार के रमणीय दिव्य भवन होते हैं, उनको दिया करते हैं।349 । दीपांग जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल (नवजात पत्र), फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश देते हैं।350। भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष सुवर्ण एवं बहुत से रत्नों से निर्मित धवल झारी, कलश, गागर, चामर और आसनादिक प्रदान करते हैं।351। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेद रूप पुष्पों की विविध मालाओं को देते हैं।352। तेजांग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादिक की कान्ति का संहरण करते हैं।353। (म.पु./9/39-48) (पानांग जाति के कल्पवृक्ष को मद्यांग भी कहते हैं) इनमें मद्यांग जाति के वृक्ष फैलती हुई सुगन्धी से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं।37। कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं।38। मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशा करने वाला है और अन्तःकरण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।39।
’ वृक्षों व कमलों आदि का अवस्थान, विस्तार व चित्र–देखें लोक ।
- लोक में वर्णित सब वृक्ष व कमल आदि पृथिवी कायिक होते हैं
ति.प./4 गाथा नं. गंगाणईण मज्झे उव्भासदि एउ मणिमओ कूडो।205। वियलियकमलायारो रम्मो वेरुलियणालसंजुत्तो।...।206। चामीयरकेसरेहिं संजुत्ते।207। ते सव्वे कप्पदुमा ण बणप्फदी णो वेंतरा सव्वे। णवरिं पुढविसरूवा पुण्णफलं देंति जीवाणं।354। सहिदो वियसिअकुसुमेहिं सुहसंचयरयणरचिदेहिं।1659। दहमज्झे अरविंदयणालं बादालकोसमुव्विद्धं। इगिकोसं बाहल्लं तस्स मुणालं ति रजदमयं।1667। कंदो यरिट्ठरयणं णालो वेरुलियरयणणिम्मविदो। तस्सुवरिं दरवियसियपउमं चउकोसमुव्विद्धं।1668। सोहेदि तस्स खंधो फुरंतवरकिरणपुस्सरागमओ ।2155 । साहासुं पत्ताणिं मरगयवेरुलियणीलइंदाणिं। विविहाइं कक्केयणचामीयर-व्रिद्दुममयाणिं।2157। सम्मलितरुणो अंकुर कुसुमफलाणिं विचित्तरयणाणिं। पणपवण्णसोहिदाणिं णिरुवमरूवाणि रेहंति।2158। सामलिरुक्खसरिच्छं जंबूरुक्खाण वण्णणं सयलं।2196।
ति.प./8/405 सयलिंदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति। एक्केक्कं पुढमिमया पुव्वोदिद जंबुदुमसरिसा।405 । =- गंगा नदी के बीच में एक मणिमय कूट प्रकाशमान है।205। यह मणिमय कूट विकसित कमल के आकार, रमणीय और वैडूर्यमणि नाल से संयुक्त है।206। यह सुवर्णमय पराग से संयुक्त है।207। (ति.प./4/353-355)।
- ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं, किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं।354। (म.पु./9/49); (अन.ध./1/38/58 पर उद्धृत।
- पद्म द्रह शुभ संचय युक्त रत्नों से रचे गये विकसित फूलों से सहित है।1659। तालाब के मध्य में व्यालीस कोस ऊँचा और एक कोस मोटा कमल का नाल है। इसका मृणाल रजतमय और तीन कोस बाहल्य से युक्त है।1667। उस कमल का कन्द अरिष्ट रत्नमय और नाल वैडूर्य मणि से निर्मित है। इसके ऊपर चार कोस ऊँचा विकसित पद्म है।1668। (सो कमल पृथिवी साररूप है वनस्पति रूप नाहीं है–(त्रि.सा./भाषाकार)। (त्रि.सा./569)।
- उस शाल्मली वृक्ष का प्रकाशमान और उत्तम किरणों से संयुक्त पुखराजमय स्कन्ध शोभायमान है।2155। उसकी शाखाओं में मरकत, वैडूर्य, इन्द्रनील, कर्केतन, सुवर्ण और मूँगे से निर्मित विविध प्रकार के पत्ते हैं।2157। शाल्मली वृक्ष के विचित्र रत्नस्वरूप और पाँच वर्णों से शोभित अनुपम रूप वाले अंकुर, फूल एवं फल शोभायमान हैं।2158। जम्बूवृक्षों का सम्पूर्ण वर्णन शाल्मली वृक्षों के ही समान है।2196।
- समस्त इन्द्र मन्दिरों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। इनमें एक एक वृक्ष पृथिवीस्वरूप और पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के सदृश है। (8/404)।
स.सि./3/सूत्र/पृष्ट/पंक्ति उत्तरकुरूणां मध्ये जम्बूवृक्षेऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारः। (9/212/9) जम्बूद्वीपे यत्र जम्बूवृक्षः स्थितः, तत्र धातकीखण्डे धातकीवृक्षः सपरिवारः। (33/227/6)। यत्र जम्बूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम्। (34/228/4)। = उत्तरकुरु में अनादि निधन, पृथिवी से बना हुआ, अकृत्रिम और परिवार वृक्षों से युक्त जम्बूवृक्ष है। जम्बूद्वीप में जहाँ जम्बूवृक्ष स्थित हैं, धातकी खण्ड द्वीप में परिवार वृक्षों के साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और पुष्कर द्वीप में वहाँ अपने परिवार वृक्षों के साथ पुष्कर वृक्ष है।
त्रि.सा./648 णाणारयणवसाहा पवालसुमणा मिदिंगसरिसफला। पुढविमया दसतुंगा मज्झग्गे छच्चदुव्वासा। = वह जम्बूवृक्ष नाना प्रकार रत्नमयी उपशाखाओं से मूँगा समान फूलों से तथा मृदंग समान फलों से युक्त है। पृथिवीकायमयी है, वनस्पतिरूप नहीं है।
- कल्पवृक्ष का सामान्य लक्षण
- चैत्य वृक्ष निर्देश
- जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं
ति.प./3/38 चेत्ततरूणं मूलं पत्तेक्कं चउदिसासु पञ्चेव। चेट्ठंति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरेहि महणिज्जा।38। = चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों से पूजनीय पाँच-पाँच जिन प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं।38। (ति.प./3/137); (त्रि.सा./215)।
ति.प./4/80 मणिमयजिणपडिमाओ अट्ठमहापडिहेर संजुत्ता। एक्केक्कसिं चेत्तद्दुमम्मि चत्तारि चत्तारि।807। = एक-एक चैत्य वृक्ष के आश्रित आठ महाप्रातिहार्यों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिन प्रतिमाएँ होती हैं।807। (त्रि.सा./254, 1002)।
- चैत्य वृक्ष का स्वरूप व विस्तार
ति.प./3/31-36 तव्वाहिरे असोयं सत्तच्छदचंपचूदवणपुण्णा। णियणाणातरुजुत्ता चेट्टंति चेत्ततरुसहिदा।31। चेत्तदुमत्थलरुं दं दोण्णि समा जोयणाणि पण्णासा। चत्तारो मज्झम्मि य अंते कोसद्धमुच्छेहो।32। छद्दोभूमुहरुंदा चउजोयण उच्छिदाणि पीढाणि। पीढोवरि बहुमज्झे रम्मा चेट्ठंति चेत्तदुमा।33। पत्तेकं रुक्खाणं अवगाढं कासमेक्कमुद्दिट्ठं। जोयणखंदुच्छेहो साहादीहत्तणं च चत्तरि।34। विविहवररयणसाहा विचित्तकुसुमोवसोभिदा सव्वे। वरमरगयवरपत्ता दिव्वतरू ते विरायंति।35।वहिंकुरुचेंचइया विविहफला विविहरयणपरिणामा। छत्तादिछत्तजुत्ता घंटाजालादिरमणिज्जा।36। = भवनवासी देवों के भवनों के बाहर वेदियाँ है। वेदियों के बाह्य भाग में चैत्यवृक्षों से सहित और अपने नाना वृक्षों से युक्त पवित्र अशोक वन, सप्तच्छदवन, चंपकवन और आम्रवन स्थित हैं।31। चैत्यवृक्षों के स्थल का विस्तार 250 योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अन्त में अर्द्ध कोसप्रमाण होती है।32। पीठों की भूमि का विस्तार छह योजन और ऊँचाई चार योजन होती है। इन पीठों के ऊपर बहुमध्य भाग में रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित होते हैं।33। प्रत्येक वृक्ष का अवगाढ़ एक कोस, स्कन्ध का उत्सेध एक योजन और शाखाओं की लम्बाई योजन प्रमाण कही गयी है।34। वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त, विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मरकत मणिमय उत्तम पत्रों से व्याप्त होते हुए अतिशय शोभा को प्राप्त होते हैं।35। विविध प्रकार के अंकुरों से मण्डित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित छत्र के ऊपर छत्र से संयुक्त घण्टाजाल आदि से रमणीय है।36।
ति.प./4/806-814 का भावार्थ 2.समवशरणों में स्थित चैत्यवृक्षों के आश्रित तीन-तीन कोटों से वेष्टित तीन पीठों के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं।809। जो वापियों, क्रीडनशालाओं व नृत्यशालाओं व उपवनभूमियों से शोभित हैं।810-812। (इसका चित्र दे.‘समवशरण’) चैत्य वृक्षों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई से 12 गुणी है।806।
- चैत्यवृक्ष पृथिवीकायिक होते हैं
ति.प./4/37 आदिणिहणेण हीणा पृढविमया सव्वभवणचेत्तदुमा। जीवुप्पत्तिलयाणं होंति णिमित्तणि ते णियमा।37। = (भवनवासी देवों के भवनों में स्थित) ये सब चैत्यवृक्ष आदिअन्त से रहित तथा पृथिवीकाय के परिणामरूप होते हुए नियम से जीवों की उत्पत्ति और विनाश के निमित्त होते हैं।37। इसी प्रकार पाण्डुकवन के चैत्यालय में तथा व्यन्तरदेवों के भवनों में स्थित जो चैत्यवृक्ष हैं उनके सम्बन्ध में भी जानना।] (ति.प./4/1908); (ति.प./6/29) (और भी देखें ऊपर का शीर्षक )।
- चैत्यवृक्षों के भेद निर्देश
ति.प./3/136 सस्सत्थसत्तवण्णा संमलजंबू य वेतसकंडवा। तह पीयंगुसरिसा पलासरायद्दूमा कमसो।136।
ति.प./6/28 कमसो असोयचंपयणागद्दुमतुंबूर य णग्गोहे। कंटयरुक्खो तुलसी कदंब विदओ त्ति ते अट्ठं।28। = असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से -अश्वत्थ (पीपल), सप्तपर्ण, शाल्मली, जामुन, वेतस, कदम्ब तथा प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम ये दश प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं।136। किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तर देवों के भवनों में क्रम से–अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तम्बूरु, न्यग्रोध (वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष ये आठ प्रकार के होते हैं।28।
ति.प./4/805 एक्केकाए उववणखिदिए तरवो यसोयसत्तदला। चंपयचूदा सुंदरभूदा चत्तारि चत्तारि।805। = समवशरणों में ये अशोक, सप्तच्छद, चम्पक व आम्र ऐसे चार प्रकार के होते हैं।805।
- चैत्यवृक्ष देवों के चिह्न स्वरूप हैं
ति.प./4/135 ओलगसालापुरदो चेत्तदुमा होंति विविहरयणमया। असुरप्पहुदि कुलाणं ते चिण्हाइं इमा होंति।135। = (भवनवासी देवों के भवनों में) ओलगशालाओं के आगे विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं। वे ये चैत्यवृक्ष असुरादि देवों के कुलों से चिह्नरूप होते हैं।
- अशोकवृक्ष निर्देश
ति.प./4/915-919 जेसिं तरूणमूले उप्पण्ण जाण केवलं णाणं। उपसहप्पहुदिजिणाणं ते चिय असोयरुक्ख त्ति।915। णग्गोहसत्तपण्णं सालं सरलं पियंगु तं चेव। सिरिसं णागतरू वि य अक्खा धूली पलास तेंदूवं।916। पाडलजंबूपिप्पलदहिवण्णो णंदितिलयचूदा य। कंकल्लि चंपबउलं मेसयसिंगं धवं सालं।917। सोहंति असोयतरू पल्लवकुसुमाणदाहि साहाहिं। लंबंतमालदामा घंटाजालादिरमणिज्जा।918। णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेहिं सरिसउच्छेहा। उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा वियरंति।919। = ऋषभ आदि तीर्थंकरों को जिनवृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है (देखें तीर्थंकर - 5) वे ही अशोकवृक्ष हैं।915। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, साल, सरल, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा), धूलिपलाश, तेंदू, पाटल, जम्बू, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक), चम्पक, बकुल, मेषशृंग, धव और शाल ये 24 तीर्थंकरों के 24 अशोकवृक्ष हैं, जो लटकती हुई मालाओं से युक्त और घण्टासमूहादिक से रमणीक होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं।916-918। ऋषभादि तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने-अपने जिनकी (तीर्थंकर की) ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।919। प्रत्येक तीर्थंकर की ऊँचाई–देखें तीर्थंकर - 5।
- जिन प्रतिमाओं के आश्रय स्थान होते हैं