उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दना के पात्र हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दना के पात्र हैं</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./127/304<span class="PrakritGatha"> राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे। विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण।127।</span> = <span class="HindiText">‘राइणिय’ उत्कृष्ट परिणाम वाले मुनि, ‘अराइणीय’ न्यून भूमिकाओं वाले अर्थात् आर्यिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। (मू.आ./384)। </span><br /> | ||
द.पा./मू. | द.पा./मू.23<span class="PrakritText"> दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। </span>=<span class="HindiText"> दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपविनय इनमें जो स्थित हैं वे सराहनीय व स्वस्थ हैं और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते हैं, ऐसे साधु वन्दने योग्य है ।23। (मू.आ./596), (सू.पा./मू./12); (बो.पा./मू./11)। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./674, 735 <span class="SanskritText">इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं....।674। नारीभ्योऽपि व्रताढयाभ्यो न निषिद्धं’ जिनागमे। देयं संमानदानादि लोकानामविरुद्धतः।735।</span> = <span class="HindiText">अनेक प्रकार के साधु सम्बन्धी गुणों से युक्त पूज्य साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों द्वारा वन्दने योग्य हैं।674। जिनागम में व्रतों से परिपूर्ण स्त्रियों का भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नहीं है, इसलिए उनका भी लोक व्यवहार के अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए।735। <br /> | ||
देखें [[ विनय#3.1 | विनय - 3.1]]–(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी आज का नवदीक्षित साधु वन्द्य है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जो इन्हें वन्दन नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> जो इन्हें वन्दन नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है</strong> </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./24 <span class="PrakritGatha">सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।24।</span> = <span class="HindiText">जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नहीं करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि संयमप्रतिपन्न भी हैं, तो भी मिथ्यादृष्टि है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/275/8 <span class="SanskritText">वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वैरेव। </span>= <span class="HindiText">जो ग्रन्थ और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में हीन भी है, तो भी उसके आने पर जो-जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सर्वजन खड़े हो जावें। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./263/354/15 <span class="SanskritText">यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवन्ति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छ्रु तविनयार्थमभ्युत्थेयाः। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./267/358/17 <span class="SanskritText">यदि बहुश्रुतानां पार्श्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं स्वयं चारित्रगुणाधिका अपि वन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा दोषो नास्ति। यदि पुनः केवलं ख्यातिपूजालाभार्थं वर्तन्ते तदातिप्रसंगाद्दोषो भवति। </span>= <span class="HindiText">चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुत की विनय के अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनों के पास वन्दनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभ के अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोष का प्रसंग प्राप्त होता है। <br /> | ||
पेज नं. | पेज नं.553 <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु वन्द्य नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु वन्द्य नहीं है</strong> </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./2, 26 <span class="PrakritText">दंसणहीणो ण वंदिव्वो।2। असंजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।26।</span> = <span class="HindiText">दर्शनहीन वन्द्य नहीं है।2। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिंगी साधु भी वन्द्य नहीं हैं, क्योंकि दोनों ही संयम रहित समान हैं।26। </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./594 <span class="PrakritGatha">दंसणणाणचरित्ते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं।594। </span>= <span class="HindiText">दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयों से सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी संयमियों के सदा दोषों को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि हैं, इसलिए वे वन्द्य नहीं हैं।594। </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/275/6<span class="SanskritText"> नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपञ्चकस्य वा। रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्युत्थानं कर्त्तव्यं कुर्यात्। सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृंहणकारणात्।</span> = <span class="HindiText">मुनियों को पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों का आगमन होने पर उठकर खड़े होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरण में तत्पर हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुख के वश होकर अपने आचार में शिथिल हो गये हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करने से कर्मबन्ध होता है, क्योंकि वह प्रमाद की स्थापना का व उसकी वृद्धि का कारण है। <br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./2/129/6 पर उद्धृत</span>–<span class="SanskritText">उक्तं चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने–‘द्रव्यलिङ्गं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्।</span> = <span class="HindiText">समयभूषण प्रवचन में इन्द्रनन्दि भट्टारक ने कहा है–द्रव्यलिंग में सम्यक् प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिंगी होता है। उस द्रव्य-लिंग के बिना वह वन्द्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न किया हो। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./263 <span class="SanskritText">इतरेषां तु श्रमणाभासानां ताः प्रतिषिद्धा एव।</span> = <span class="HindiText">उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभसों के प्रति वे (अभ्युत्थानादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./7/52/771 <span class="SanskritText">कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयतैः।52।</span> = <span class="HindiText">पार्श्वस्थादि कुलिंगियों तथा शासनदेव आदि कुदेवों की वन्दना संयमियों को (या असंयमियों को भी) नहीं करनी चाहिए। </span><br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./14/137/23 <span class="SanskritText">एते पञ्च श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः।</span> = <span class="HindiText">ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के श्रमण जिनधर्म बाह्य हैं, इसलिए वन्दनीय नहीं हैं। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./674 <span class="SanskritText">नेतरो विदुषां महान्।734।</span> = <span class="HindiText">इन गुणों से रहित जो इतर साधु हैं, तत्त्वज्ञानियों द्वारा वन्दनीय नहीं हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वन्द्य नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वन्द्य नहीं है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./266 <span class="PrakritText">गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी।</span> = <span class="HindiText">जो श्रमण्य में अधिक गुण वाले हैं तथापि हीन गुण वालों के प्रति (वन्दनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट होते हैं। </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./12 <span class="PrakritGatha">जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।12। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकों को अपने पाँव में पड़ाते हैं, वे गूँगे-लूले होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय निगोद योनि में जन्म पाते हैं। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/275/5 <span class="SanskritText">असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्। </span>= <span class="HindiText">मनुष्यों को असंयत व संयतासंयत जनों के आने पर खड़ा होना योग्य नहीं है। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./7/52/771 <span class="SanskritGatha">श्रावकेणापि पितरौ गुरु राजाप्यसंयताः। कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयतैः।52। </span>= <span class="HindiText">माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एवं राजा और मन्त्री आदि असयंत जनों की तथा श्रावक की भी संयमियों को वन्दना नहीं करनी चाहिए और व्रती श्रावकों को भी उपरोक्त असंयमियों की वन्दना नहीं करनी चाहिए। </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./26 <span class="SanskritText">असंजदं ण वंदे।26। </span>= <span class="HindiText">असंयत जन वंद्य नहीं हैं।–(विशेष देखें [[ आगे शीर्षक नं#8 | आगे शीर्षक नं - 8]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण</strong> </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./13 <span class="PrakritGatha">जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभएण। तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।13। </span>= <span class="HindiText">जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्ट को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भय के कारण उनके पाँव में पड़ते हैं अर्थात् उनकी विनय आदि करते हैं, तिनको भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती, है, क्योंकि वे पाप के अनुमोदक हैं।13। </span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./92 <span class="PrakritGatha">कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु।</span> = <span class="HindiText">कुत्सित देवको, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिंगधारी गुुरु को लज्ज भय या गारव के वश वन्दना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है।92। </span><br /> | ||
शी.पा./मू./ | शी.पा./मू./14 <span class="PrakritGatha">कुमयकुसुदपसंसा जाणंता जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति।14। </span>= <span class="HindiText">बहु प्रकार से शास्त्र को जानने वाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्र की प्रशंसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनों से रहित है, इनका आराधक नहीं है। </span><br /> | ||
र.क.श्रा./ | र.क.श्रा./30 <span class="SanskritGatha">भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्। प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः।30।</span> = <span class="HindiText">शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, प्रीति और लोभ से कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियों को प्रणाम और विनय भी न करे। </span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./1/167 <span class="SanskritText">न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां, प्राप्त वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छनन्नरत्वं यदि। मिथ्यादेवगुरुपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति॥167।</span> = <span class="HindiText">संसारी प्राणियों को यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अन्धे को बटेर की प्राप्ति। फिर यदि करोड़ों कल्पकालों में किसी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एवं मिथ्या गुरु के उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदि के द्वारा सहसा विफलता को प्राप्त हो जाती है।167। <br /> | ||
और भी देखें | और भी देखें [[ मूढ़ता ]](कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म को देवगुरु शास्त्र व धर्म मानना मूढ़ता है।) <br /> | ||
देखें [[ अमूढ़ दृष्टि#3 | अमूढ़ दृष्टि - 3 ]](प्राथमिक दशा में अपने श्रद्धान की रक्षा करने के लिए इनसे बचकर ही रहना योग्य है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> द्रव्य लिंगी भी | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> द्रव्य लिंगी भी कथंचित् वन्द्य है</strong> </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./5/56 <span class="SanskritGatha">द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः।56।</span> = <span class="HindiText">व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है, परन्तु जो मोक्ष के इच्छुक हैं उन्हें तो भाव-लिंगी ही पूज्य है। </span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./2/64 <span class="SanskritGatha">विन्यस्यैदयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव। भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनाम्।64। </span><br /> | ||
<span class="HindiText">उपरोक्त श्लोक की टीका में | <span class="HindiText">उपरोक्त श्लोक की टीका में उद्धृत</span>-<span class="SanskritText">‘‘यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः।</span> =<span class="HindiText"> जिस प्रकार प्रतिमाओं में जिनेन्द्र देव की स्थापना कर उनकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार सद्गृहस्थ को इस पञ्चमकाल में होने वाले मुनियों में पूर्वकाल के मुनियों की स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। कहा भी है ‘‘जिस प्रकार लेपादि से निर्मित जिनेन्द्र देव का रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकाल के मुनियों के प्रतिरूप होने से पूज्य हैं। [परन्तु अन्य विद्वानों को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियों को पूज्य मानना स्वीकार नहीं है–(देखें [[ विनय#5.3 | विनय - 5.3]])] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> साधुओं को नमस्कार क्यों</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> साधुओं को नमस्कार क्यों</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4, 1, 1/11/1<span class="PrakritText"> होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणमेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>सकल जिन नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं। किन्तु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाये जाते? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि सकल जिनों के समान देश जिनों में (आचार्य उपाध्याय साधु में) भी तीन रत्न पाये जाते हैं। [जो यद्यपि असम्पूर्ण हैं, परन्तु सकल जिनों के सम्पूर्ण रत्नों से भिन्न नहीं है।]–(विशेष देखें [[ देव#I.1.5 | देव - I.1.5]]) । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4, 1, 2/41/1<span class="PrakritText"> महव्वयविरहिददोरयणहराणं। ओहिणाणीणमणोहिणाणीणं च किमट्ठं णमोक्कारो ण कीरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावटठं उत्तिमग्गविसयभत्तिपयासणटठं च ण कीर दे।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>महाव्रतों से रहित दो रत्नों अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी क्यों नहीं नमस्कार किया जाता? <strong>उत्तर–</strong>अहंकार से महान् जीवों में चरणाचार अर्थात् सम्यग्चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्ति के प्रकाशनार्थ उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता है। </span></li> | ||
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Revision as of 21:38, 5 July 2020
- उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र
- यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दना के पात्र हैं
भ.आ./मू./127/304 राइणिय अराइणीएसु अज्जासु चेव गिहिवग्गे। विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण।127। = ‘राइणिय’ उत्कृष्ट परिणाम वाले मुनि, ‘अराइणीय’ न्यून भूमिकाओं वाले अर्थात् आर्यिका व श्रावक तथा गृहस्थ आदि इन सबका उन उनकी योग्यतानुसार आदर व विनय करना चाहिए। (मू.आ./384)।
द.पा./मू.23 दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था। एदे दु वंदणीय। जे गुणवादी गुणधराणं। = दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपविनय इनमें जो स्थित हैं वे सराहनीय व स्वस्थ हैं और गणधर आदि भी जिनका गुणानुवाद करते हैं, ऐसे साधु वन्दने योग्य है ।23। (मू.आ./596), (सू.पा./मू./12); (बो.पा./मू./11)।
पं.ध./उ./674, 735 इत्याद्यनेकधानेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं....।674। नारीभ्योऽपि व्रताढयाभ्यो न निषिद्धं’ जिनागमे। देयं संमानदानादि लोकानामविरुद्धतः।735। = अनेक प्रकार के साधु सम्बन्धी गुणों से युक्त पूज्य साधु ही मोक्ष की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञानियों द्वारा वन्दने योग्य हैं।674। जिनागम में व्रतों से परिपूर्ण स्त्रियों का भी सम्मान आदि करना निषिद्ध नहीं है, इसलिए उनका भी लोक व्यवहार के अनुसार सम्मान आदि करना चाहिए।735।
देखें विनय - 3.1–(सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी आज का नवदीक्षित साधु वन्द्य है।)
- जो इन्हें वन्दन नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है
द.पा./मू./24 सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठुं जो मण्णएण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो।24। = जो सहजोत्पन्न यथाजात रूप को देखकर मान्य नहीं करता तथा उसका विनय सत्कार नहीं करता और मत्सरभाव करता है, वे यदि संयमप्रतिपन्न भी हैं, तो भी मिथ्यादृष्टि है।
- चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है
भ.आ./वि./116/275/8 वाचनामनुयोगं वा शिक्षयतः अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं तन्मूलेऽध्ययनं कुर्वद्भिः सर्वैरेव। = जो ग्रन्थ और अर्थ को पढ़ाता है अथवा सदादि अनुयोगों का शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपने से रत्नत्रय में हीन भी है, तो भी उसके आने पर जो-जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सर्वजन खड़े हो जावें।
प्र.सा./ता.वृ./263/354/15 यद्यपि चारित्रगुणेनाधिका न भवन्ति तपसा वा तथापि सम्यग्ज्ञानगुणेन ज्येष्ठत्वाच्छ्रु तविनयार्थमभ्युत्थेयाः।
प्र.सा./ता.वृ./267/358/17 यदि बहुश्रुतानां पार्श्वे ज्ञानादिगुणवृद्धयर्थं स्वयं चारित्रगुणाधिका अपि वन्दनादिक्रियासु वर्तन्ते तदा दोषो नास्ति। यदि पुनः केवलं ख्यातिपूजालाभार्थं वर्तन्ते तदातिप्रसंगाद्दोषो भवति। = चारित्र व तप में अधिक न होते हुए भी सम्यग्ज्ञान गुण से ज्येष्ठ होने के कारण श्रुत की विनय के अर्थ वह अभ्युत्थानादि विनय के योग्य है। यदि कोई चारित्र गुण में अधिक होते हुए भी ज्ञानादि गुण की वृद्धि के अर्थ बहुश्रुत जनों के पास वन्दनादि क्रिया में वर्तता है तो कोई दोष नहीं है। परन्तु यदि केवल ख्याति पूजा व लाभ के अर्थ ऐसा करता है तब अतिदोष का प्रसंग प्राप्त होता है।
पेज नं.553
- मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु वन्द्य नहीं है
द.पा./मू./2, 26 दंसणहीणो ण वंदिव्वो।2। असंजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।26। = दर्शनहीन वन्द्य नहीं है।2। असंयमी तथा वस्त्रविहीन द्रव्यलिंगी साधु भी वन्द्य नहीं हैं, क्योंकि दोनों ही संयम रहित समान हैं।26।
मू.आ./594 दंसणणाणचरित्ते तवविणएँ णिच्चकाल पासत्था। एदे अवंदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणं।594। = दर्शन ज्ञान चारित्र और तपविनयों से सदाकाल दूर रहनेवाले गुणी संयमियों के सदा दोषों को देखने वाले पार्श्वस्थ आदि हैं, इसलिए वे वन्द्य नहीं हैं।594।
भ.आ./वि./116/275/6 नाभ्युत्थानं कुर्यात्, पार्श्वस्थपञ्चकस्य वा। रत्नत्रये तपसि च नित्यमभ्युद्यतानां अभ्युत्थानं कर्त्तव्यं कुर्यात्। सुखशीलजनेऽभ्युत्थानं कर्मबन्धनिमित्तं प्रमादस्थापनोपबृंहणकारणात्। = मुनियों को पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों का आगमन होने पर उठकर खड़े होना योग्य नहीं है। जो मुनि रत्नत्रय व तपश्चरण में तत्पर हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करना योग्य है। जो सुख के वश होकर अपने आचार में शिथिल हो गये हैं उनके आने पर अभ्युत्थान करने से कर्मबन्ध होता है, क्योंकि वह प्रमाद की स्थापना का व उसकी वृद्धि का कारण है।
भा.पा./टी./2/129/6 पर उद्धृत–उक्तं चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने–‘द्रव्यलिङ्गं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्। = समयभूषण प्रवचन में इन्द्रनन्दि भट्टारक ने कहा है–द्रव्यलिंग में सम्यक् प्रकार स्थिति पाकर ही यति भाव-लिंगी होता है। उस द्रव्य-लिंग के बिना वह वन्द्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न किया हो।
प्र.सा./त.प्र./263 इतरेषां तु श्रमणाभासानां ताः प्रतिषिद्धा एव। = उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभसों के प्रति वे (अभ्युत्थानादिक) प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं।
अन.ध./7/52/771 कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयतैः।52। = पार्श्वस्थादि कुलिंगियों तथा शासनदेव आदि कुदेवों की वन्दना संयमियों को (या असंयमियों को भी) नहीं करनी चाहिए।
भा.पा./टी./14/137/23 एते पञ्च श्रमणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः। = ये पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के श्रमण जिनधर्म बाह्य हैं, इसलिए वन्दनीय नहीं हैं।
पं.ध./उ./674 नेतरो विदुषां महान्।734। = इन गुणों से रहित जो इतर साधु हैं, तत्त्वज्ञानियों द्वारा वन्दनीय नहीं हैं।
- अधिकगुणी द्वारा हीनगुणी वन्द्य नहीं है
प्र.सा./मू./266 गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति। होज्जं गुणधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी। = जो श्रमण्य में अधिक गुण वाले हैं तथापि हीन गुण वालों के प्रति (वन्दनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मिथ्या उपयुक्त होते हुए चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।
द.पा./मू./12 जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।12। = जो पुरुष दर्शनभ्रष्ट होकर भी दर्शन के धारकों को अपने पाँव में पड़ाते हैं, वे गूँगे-लूले होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय निगोद योनि में जन्म पाते हैं। उनको बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है।
भ.आ./वि./116/275/5 असंयतस्य संयतासंयतस्य वा नाभ्युत्थानं कुर्यात्। = मनुष्यों को असंयत व संयतासंयत जनों के आने पर खड़ा होना योग्य नहीं है।
अन.ध./7/52/771 श्रावकेणापि पितरौ गुरु राजाप्यसंयताः। कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयतैः।52। = माता, पिता, दीक्षागुरु व शिक्षागुरु, एवं राजा और मन्त्री आदि असयंत जनों की तथा श्रावक की भी संयमियों को वन्दना नहीं करनी चाहिए और व्रती श्रावकों को भी उपरोक्त असंयमियों की वन्दना नहीं करनी चाहिए।
द.पा./मू./26 असंजदं ण वंदे।26। = असंयत जन वंद्य नहीं हैं।–(विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 8)।
- कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण
द.पा./मू./13 जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभएण। तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।13। = जो दर्शनयुक्त पुरुष दर्शनभ्रष्ट को मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी लज्जा गारव या भय के कारण उनके पाँव में पड़ते हैं अर्थात् उनकी विनय आदि करते हैं, तिनको भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती, है, क्योंकि वे पाप के अनुमोदक हैं।13।
मो.पा./मू./92 कुच्छियदेवं धम्मं कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु। = कुत्सित देवको, कुत्सित धर्म को और कुत्सित लिंगधारी गुुरु को लज्ज भय या गारव के वश वन्दना आदि करता है, वह प्रगट मिथ्यादृष्टि है।92।
शी.पा./मू./14 कुमयकुसुदपसंसा जाणंता जाणंता बहुविहाई सत्थाई। सीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होंति।14। = बहु प्रकार से शास्त्र को जानने वाला होकर भी यदि कुमत व कुशास्त्र की प्रशंसा करता है, तो वह शील, व्रत व ज्ञान इन तीनों से रहित है, इनका आराधक नहीं है।
र.क.श्रा./30 भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्। प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः।30। = शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, प्रीति और लोभ से कुदेव, कुशास्त्र और कुलिंगियों को प्रणाम और विनय भी न करे।
पं.वि./1/167 न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां, प्राप्त वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छनन्नरत्वं यदि। मिथ्यादेवगुरुपदेशविषयव्यामोहनीचान्वय-प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति॥167। = संसारी प्राणियों को यह मनुष्यपर्याय इतनी ही कष्ट प्राप्य है जितनी कि अन्धे को बटेर की प्राप्ति। फिर यदि करोड़ों कल्पकालों में किसी प्रकार प्राप्त भी हो गयी, तो वह मिथ्या देव एवं मिथ्या गुरु के उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदि के द्वारा सहसा विफलता को प्राप्त हो जाती है।167।
और भी देखें मूढ़ता (कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म को देवगुरु शास्त्र व धर्म मानना मूढ़ता है।)
देखें अमूढ़ दृष्टि - 3 (प्राथमिक दशा में अपने श्रद्धान की रक्षा करने के लिए इनसे बचकर ही रहना योग्य है।)
- द्रव्य लिंगी भी कथंचित् वन्द्य है
यो.सा./अ./5/56 द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ पूज्यो मोक्षं यियासुभिः।56। = व्यवहारी जनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है, परन्तु जो मोक्ष के इच्छुक हैं उन्हें तो भाव-लिंगी ही पूज्य है।
सा.ध./2/64 विन्यस्यैदयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव। भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनाम्।64।
उपरोक्त श्लोक की टीका में उद्धृत-‘‘यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम्। तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः संप्रति संयताः। = जिस प्रकार प्रतिमाओं में जिनेन्द्र देव की स्थापना कर उनकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार सद्गृहस्थ को इस पञ्चमकाल में होने वाले मुनियों में पूर्वकाल के मुनियों की स्थापना कर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। कहा भी है ‘‘जिस प्रकार लेपादि से निर्मित जिनेन्द्र देव का रूप पूज्य है, उसी प्रकार वर्तमान काल के मुनि पूर्वकाल के मुनियों के प्रतिरूप होने से पूज्य हैं। [परन्तु अन्य विद्वानों को इस प्रकार स्थापना द्वारा इन मुनियों को पूज्य मानना स्वीकार नहीं है–(देखें विनय - 5.3)]
- साधुओं को नमस्कार क्यों
ध.9/4, 1, 1/11/1 होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो। ण देसजिणाणमेदेसु तदणुवलंभादो त्ति। ण, सयलजिणेसु व देसजिणेसु तिण्हं रयणाणमुवलंभादो। = प्रश्न–सकल जिन नमस्कार पाप का नाशक भले ही हो, क्योंकि उनमें सब गुण पाये जाते हैं। किन्तु देशजिनों को किया गया नमस्कार पाप प्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि इनमें वे सब गुण नहीं पाये जाते? उत्तर–नहीं, क्योंकि सकल जिनों के समान देश जिनों में (आचार्य उपाध्याय साधु में) भी तीन रत्न पाये जाते हैं। [जो यद्यपि असम्पूर्ण हैं, परन्तु सकल जिनों के सम्पूर्ण रत्नों से भिन्न नहीं है।]–(विशेष देखें देव - I.1.5) ।
- असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं
ध.9/4, 1, 2/41/1 महव्वयविरहिददोरयणहराणं। ओहिणाणीणमणोहिणाणीणं च किमट्ठं णमोक्कारो ण कीरदे। गारवगुरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावटठं उत्तिमग्गविसयभत्तिपयासणटठं च ण कीर दे। = प्रश्न–महाव्रतों से रहित दो रत्नों अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञान से रहित जीवों को भी क्यों नहीं नमस्कार किया जाता? उत्तर–अहंकार से महान् जीवों में चरणाचार अर्थात् सम्यग्चारित्र रूप प्रवृत्ति कराने के लिए तथा प्रवृत्तिमार्ग विषयक भक्ति के प्रकाशनार्थ उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता है।
- यथार्थ साधु आर्यिका आदि वन्दना के पात्र हैं