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| <p><span class="HindiText">विश्वास के अर्थ में </span><br /> | | <p id="1">(1) व्यवहार काल का एक भेद । पन्द्रह अहोरात्र (दिनरात्र) के समय को पक्ष कहते हैं । प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं― कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष । <span class="GRef"> महापुराण 3. 21, 13. 2, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.21 </span></p> |
| म. पु./३९/१४६ <span class="SanskritGatha">तत्र पक्षो हि जैनानां कृस्नहिंसाविवर्जनम्। मैत्रीप्रमोद-कारुण्यमाध्यस्थैरुपबृंहितम्। १४६। </span>= <span class="HindiText">मैत्री, प्रमाद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष कहलाता है। (सा.ध./१/१९)। </span></p>
| | <p id="2">(2) षट्कर्म जनित हिंसा-दोषों की शुद्धि का प्रथम उपाय । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव से समस्त हिंसा का त्याग करना पक्ष कहलाता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.142-146 </span></p> |
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| <li><span class="HindiText" name="1" id="1">न्यायविषयक </span><br />
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| पं.मु./३/२५-२६ <span class="SanskritText">साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी। २५। पक्ष इति यावत्। २६। </span>= <span class="HindiText">कहीं तो (व्याप्ति काल में) धर्म साध्य होता है और कहीं धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। धर्मी को पक्ष भी कहते हैं। २५-२६। </span><br />
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| स्या.मं./३०/३३४/१७<span class="SanskritText"> पच्यते व्यक्तीक्रियते साध्यधर्मवैशिष्ट्येन हेत्वा-दिभिरिति पक्षः। पक्षीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः। </span>=<span class="HindiText"> जो साध्य से युक्त होकर हेतु आदि के द्वारा व्यक्त किया जाये उसे पक्ष कहते हैं। जिस स्थल में हेतु देखकर साध्य का निश्चय करना हो उस स्थल को पक्ष कहते हैं। <br />
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| <strong>जैन सिद्धान्त प्रवेशिका </strong>- जहाँ साध्य के रहने का शक हो। ‘जैसे इस कोठे में धूम है’ इस दृष्टान्त में कोठा पक्ष है। <br />
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| <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">साध्य का लक्षण</strong> </span><br />
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| न्या.वि./मू./२/३/८ <span class="SanskritText">साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम्।....। ३। </span><br />
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| न्या.दी./३/२०/६९/९ <span class="SanskritText">यत्प्रत्यक्षादिप्रमाणाबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम् वाद्यभिमतत्वेनाभिप्रेतम्, संदेहाद्याक्रान्तत्वेनाप्रसद्धिम्, तदेव साध्यम्।</span> = <span class="HindiText">शक्य अभिप्रेत और अप्रसिद्ध को साध्य कहते हैं। (श्लो. वा. ३/१/१३/१२२/१/२६९)। <u>शक्य</u> वह है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित न होने से सिद्ध किया जा सकता है। <u>अभिप्रेत</u> वह है जो वादी को सिद्ध करने के लिए अभिमत है इष्ट है। और <u>अप्रसिद्ध</u> वह है जो सन्देहादि से युक्त होने से अनिश्चित है। वही साध्य है। </span><br />
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| प.मु./३/२०-२४ <span class="SanskritText">इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम्। २०। संदिग्धविपर्यस्ता-व्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम्। २१। अनिष्टाध्यक्षादि-बाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम्। २२। न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः। २३। प्रत्यायनाय हि इच्छा वक्तुरेव। २४। </span>= <span class="HindiText">जो वादी को इष्ट हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित न हो और सिद्ध न हो उसे साध्य कहते हैं। २०। - सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ ही साध्य हो इसलिए सूत्र में असिद्ध पद दिया है। २१। वादी को अनिष्ट पदार्थ साध्य नहीं होता इसलिए साध्य को <u>इष्ट</u> विशेषण लगाया है। तथा प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से बाधित पदार्थ भी साध्य नहीं होते, इसलिए <u>अबाधित</u>विशेषण दिया है। २२। इनमें से ‘असिद्ध’ विशेषण तो प्रतिवादी की अपेक्षा से और ‘इष्ट’ विशेषण वादी की अपेक्षा से है, क्योंकि दूसरे को समझने की इच्छा वादी को ही होती है। २३-२४। <br />
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| </span></li>
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| <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">साध्याभास या पक्षाभास का लक्षण</strong> </span><br />
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| न्या.वि./मू./२/३/१२ <span class="SanskritText">ततोऽपरम् साध्याभासं विरुद्धादिसाधनाविषयत्वतः। ३। इति</span> =<span class="HindiText"> साध्य से विपरीत विरुद्धादि साध्याभास हैं। आदि शब्द से अनभिप्रेत और प्रसिद्ध का ग्रहण करना चाहिए क्योंकि ये तीनों ही साधन के विषय नहीं हैं, इसलिए ये साध्याभास हैं। (न्या.दी./३/§२०/७०/३)। </span><br />
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| प.मु./६/१२-१४ <span class="SanskritText">तत्रानिष्टादि:पक्षाभासः। १२। अनिष्टो मीमांसकस्यानित्य:शब्दः। १३। सिद्धः श्रावणः शब्दः। १४। </span>= <span class="HindiText">इष्ट असिद्ध और अबाधित इन विशेषणों से विपरीत-अनिष्ट सिद्ध व बाधित ये पक्षाभास हैं। १२। शब्द की अनित्यता मीमांसक को अनिष्ट है; क्योंकि, मीमांसक शब्द को नित्य मानता है। १३। शब्द कान से सुना जाता है यह सिद्ध है। १४ । <br />
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| </span></li>
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| <li class="HindiText"><strong>बाधित पक्षाभास या साध्याभास के भेद व लक्षण।</strong> <br />
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| - देखें - [[ बाधित | बाधित। ]]<br />
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| <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">अनुमान योग्य साध्यों का निर्देश</strong> </span><br />
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| प.मु./३/३०-३३ <span class="SanskritText">प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता। ३०। अग्निमानयं देशः, परिणामी शब्द इति यथा। ३१। व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव। ३२। अन्यथा तदघटनात्। ३३।</span> = <span class="HindiText">[कहीं तो धर्म साध्य होता है और कहीं धर्मी साध्य होता है ( देखें - [[ पक्ष#1 | पक्ष / १ ]])।] तहाँ-प्रमाण-सिद्ध धर्मी और उभयसिद्ध धर्मी में (साध्यरूप) धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। जैसे - ‘यह देश अग्निवाला है’, यह प्रमाण सिद्ध धर्मी का उदाहरण है; क्योंकि यहाँ देश प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। ‘शब्द परिणमन स्वभाववाला है’ यह उभय सिद्ध धर्मी का उदाहरण है; क्योंकि, यहाँ पर शब्द का धर्मी उभय सिद्ध है। ३०-३१। व्याप्ति में धर्म ही साध्य होता है। यदि व्याप्तिकाल में धर्म को छोड़कर धर्मी साध्य माना जायेगा तो व्याप्ति नहीं बन सकेगी। ३२-३३। <br />
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| <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">पक्ष व प्रतिपक्ष का लक्षण</strong> </span><br />
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| न्या.सू./टी./१/४/४१/४०/१६ <span class="HindiText">तौ साधनोपालम्भौ पक्षप्रतिपक्षाश्रयौ व्यतिषक्तावनुबन्धेन प्रवर्तमानौ पक्षप्रतिपक्षावित्युच्यते। ४१। </span><br />
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| न्या.सू./टी./१/२/१/४१/२१ <span class="SanskritText">एकाधिकरणस्थौ विरुद्धौ धर्मौ पक्षप्रतिपक्षौ प्रत्यनीकभावादस्त्यात्मा नास्त्यात्मेति। नानाधिकरणौ विरुद्धौ न पक्षप्रतिपक्षौ यथा नित्य आत्मा अनित्या बुद्धिरिति।</span> = <span class="HindiText">साधन और निषेध का क्रम से आश्रय (साधन का) पक्ष है। और निषेध का आश्रय प्रतिपक्ष है। (स्या.मं./३०/३३४/१९)। एक स्थान पर रहनेवाले परस्पर विरोधी दो धर्मपक्ष (अपना मत) और प्रतिपक्ष (अपने विरुद्ध वादी का मत अर्थात् प्रतिवादी का मत) कहाते हैं। जैसे कि - एक कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि आत्मा नहीं है। भिन्न-भिन्न स्थान में रहनेवाले परस्पर विरोधी धर्म पक्ष प्रतिपक्ष नहीं कहाते। जैसे - एक ने कहा आत्मा नित्य है और दूसरा कहता है कि बुद्धि अनित्य है। <br />
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| <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6">साध्य से अतिरिक्त पक्ष के ग्रहण का कारण</strong> </span><br />
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| प.मु/३/३४-३६। <span class="SanskritText">साध्यधर्माधारसंदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम्। ३४। साध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत्। ३५। को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति। ३६।</span> = <span class="HindiText">साध्यविशिष्ट पर्वतादि धर्मी में हेतुरूप धर्म को समझाने के लिए जैसे उपनय का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार साध्य (धर्म) के आधार में सन्देह दूर करने के लिए प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी पक्ष का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि ऐसा कौन वादी प्रतिवादी है, जो कार्य, व्यापक, अनुपलम्भ के भेद से तीन प्रकार का हेतु कहकर समर्थन करता हुआ भी पक्ष का प्रयोग न करे। अर्थात् सबको पक्ष का प्रयोग करना ही पड़ेगा। <br />
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| <li><span class="HindiText"><strong> अन्य सम्बन्धित नियम </strong><br />
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| </ul>
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| <li><span class="HindiText">प्रत्येक पक्ष के लिए परपक्ष का निषेध - देखें - [[ सप्तभंगी#4 | सप्तभंगी / ४ ]]। </span></li>
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| <li><span class="HindiText">पक्ष विपक्षों के नाम निर्देश - देखें - [[ अनेकांत। ।#4 | अनेकांत। । / ४]]</span></li>
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| <li><span class="HindiText"> काल का एक प्रमाण - देखें - [[ गणित#II.4 | गणित / II / ४ ]]। </span></li>
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| </ol>
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