|
|
Line 1: |
Line 1: |
| <ol> | | <p> श्रुतज्ञान के बीस भेदों में पांचवां भेद । यह अर्थ पद, प्रमाणपद और मध्यमपद के भेद से तीन प्रकार का होता है । एक से सात अक्षर तक का पद अर्थपद, आठ अक्षररूप प्रमाणपद और सोलह सो अठासी अक्षर का मध्यमपद होता है । अंगों तथा पूर्वों की पद-संख्या इसी मध्यमपद से होती है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.12-13, 22-25 </span></p> |
| <li><strong class="HindiText" name="1" id="1">गच्छ अर्थात् </strong>Number of Terms.<br />
| | |
| <ol>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">सिद्ध पद आदि की अपेक्षा</strong></span> <br />
| |
| न्या./वि./टी./१/७/१४०/१९<span class="SanskritText"> पद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति पदं। </span>=<span class="HindiText"> जिसके द्वारा जाना जाता है वह पद है। </span><br />
| |
| ध.१०/४,२,४,१/१८/६ <span class="PrakritText">जस्स जम्हि अवट्ठाणं तस्स तं पदं.... जहा सिद्धि-खेत्तं सिद्धाणं पदं। अत्थालावो अत्थावगमस्स पदं। ...पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम्।</span> = <span class="HindiText">जिसका जिसमें अवस्थान है वह उसका पद अर्थात् स्थान कहलाता है। जैसे सिद्धिक्षेत्र सिद्धों का पद है। <br />
| |
| अर्थालाप अर्थपरिज्ञान का पद है।.... पद शब्द का निरुक्त्यर्थ है जो जाना जाय वह पद है। <br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">अक्षर समूह की अपेक्षा</strong> </span><br />
| |
| न्या. सू./मू./२/२/५५/१३७ <span class="SanskritText">ते विभत्तयन्ताः पदम्। ५५। </span>= <span class="HindiText">वर्णों के अन्त में यथा शास्त्रानुसार विभक्ति होने से इनका नाम पद होता है। <br />
| |
| </span></li>
| |
| </ol>
| |
| </li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">पद के भेद</strong> <br />
| |
| </span>
| |
| <ol>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अर्थपदादि की अपेक्षा</strong> </span><br />
| |
| क.पा.१/१,१/§७१/९०/१ <span class="PrakritText">पमाणपदं अत्थपदं मज्झिमपदं चेदि तिविहं पदं होदि।</span> =<span class="HindiText"> प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यपद इस प्रकार वह तीन प्रकार का है। (ध.९/४,१,४५/१९६/गा.६९); (ध.१३/५,५,४८/२६५/१३); (गो.जी./जी.प्र./३३६/७३३/१)</span><br />
| |
| <strong>क.पा.२/२</strong>-२२/§३४/१७/५ <span class="PrakritText">एत्थ पदं चउव्विहं, अत्थपदं, पमाणपदं, मज्झिमपदं, ववत्थापदं चेदि।</span> = <span class="HindiText">पद चार प्रकार का है - अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद और व्यवस्थापद। </span><br />
| |
| ध.१०/४,२,४,१/१८/६ <span class="PrakritText">पदं दुविहं - ववत्थापदं भेदपदमिदि।... उक्क-स्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्ण-सादि-अणादिधुव-अद्धुव-ओज-जुम्म-ओम-विसिट्ठ-णोमणोविसिट्ठिपदभेदेण एत्थ तेरस पदाणि।</span> = <span class="HindiText">पद दो प्रकार है - व्यवस्था पद और भेदपद। ...उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम, नो विशिष्ट पद के भेद से यहाँ तेरह पद हैं। <br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">नाम उपक्रम की अपेक्षा</strong> </span><br />
| |
| क.पा.१/१,१/चूर्णिसूत्र/§२३/३० <span class="PrakritText">णामं छव्विहं। </span><br />
| |
| क.पा.१/१,१/§२४/३१/१ <span class="PrakritText">एदस्स सुत्तस्स अत्थपरूवणं करिस्सामो। तं तहा-गोण्णपदे णोगोण्णपदे आदाणपदेपडिवक्खपदे अवचयपदे उवचयपदे चेदि।</span> = <span class="HindiText">नाम छह प्रकार का है। अब इस सूत्र के अर्थ का कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अपचयपद और उपचय पद ये नाम के छह भेद हैं। </span><br />
| |
| ध.१/१,१,१/७४/५ <span class="PrakritText">णामस्स दस ट्ठाणाणि भवंति। तं जहा, गोण्णपदे णोगोण्णपदे आदाणपदे पडिवक्खपदे अणादियसिद्धंतपदे पाधण्णपदे णामपदे पमाणपदे अवयवपदे संजोगपदे चेदि। </span><br />
| |
| ध. १/१,१,१/७७/४ <span class="SanskritText">सोऽवयवो द्विविधः, उपचितोऽपचित इति। ...स संयोगश्चतुर्विधो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंयोगभेदात्।</span> =<span class="HindiText"> नाम उपक्रम के दस भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अनादिसिद्धान्तपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद और संयोगपद। अवयव (अवयवपद) दो प्रकार के होते हैं - उपचितावयव और अपचितावयव। ...तथा द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसंयोग, कालसंयोग और भाव संयोग के भेद से संयोग चार प्रकार का है। (ध.९/४,१,४५/१३५/४)<br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बीजपद का लक्षण</strong> </span><br />
| |
| ध. ९/४,१,४४/१२७/१ <span class="PrakritText">संक्खित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंग-संगयं बीजपदं णाम। </span>=<span class="HindiText"> संक्षिप्त शब्द रचना से सहित अनन्त अर्थों के ज्ञान के हेतुभूत अनेक चिह्नों से संयुक्त बीजपद कहलाता है। <br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">अर्थ पदादि के लक्षण</strong> </span><br />
| |
| ह.पु./१०/२३-२५<span class="SanskritText"> एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताक्षरमर्थवत्। पदमाद्यं द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम्। २३। कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश। त्र्यशीतिश्च पुनर्लक्षा शतान्यष्टौ च सप्ततिः। २४। अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तुपदे स्थितः। पुर्वाङ्गपदसंख्या-स्यान्मध्यमेन पदेन सा। २५।</span> =<span class="HindiText"> इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः और सात अक्षर तक का पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षररूपप्रमाण पद होता है। और मध्यमपद में (१६३४८३०७८८८) अक्षर होते हैं और अंग तथा पर्वो के पद की संख्या इसी मध्यम पद से होती है। २३-२५। </span><br />
| |
| ध. १३/५,५,४८/२६५/१३ <span class="PrakritText">तत्त्थ जेत्तिएहि अत्थोवलद्धी होदि तमत्थपदं णाम। [यथा दण्डेन शालिभ्यो गां निवारय, त्वमग्निमानय इत्यादयः (गो.जी.)] एदं च अणवट्ठिदं, अणियअक्खरेहिंतो अत्थुवलद्धि-दंसणादो। ण चेदमसिद्धं, अः विष्णुः, इः कामः, कः ब्रह्मा इच्चेव-मादिसु एगेगक्खरादो चेव अत्थुवलंभादो। अट्ठक्खरणिप्फणं पमाण-पदं। एदं च अवट्ठिदं, णियदट्ठसंखादो। - सोलससदचोतीसं कोडी तेसीदि चेव लक्खाइं। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा। १८। एत्तियाणि अक्खराणि धेत्तूण एगं मज्झिमपदं होदि। एदं पि संजो-गक्खरसंखाए अवट्ठिदं, बुत्तपमाणादो अक्खरेहि वड्ढि-हाणीणम-भावादो।</span> =<span class="HindiText"> जितने पदों के द्वारा अर्थ ज्ञान होता है वह अर्थपद है। [यथा ‘गायकौ धेरि सुफेदकौं दंड करि’ इसमें चार पद भये। ऐसे ही ‘अग्निको ल्याओ’ ऐ दो पद भये।] यह अनवस्थित है, क्योंकि अनियत अक्षरों के द्वारा अर्थ का ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि ‘अ’ का अर्थ विष्णु है, ‘इ’ का अर्थ काम है, और ‘क’ का अर्थ ब्रह्मा है; इस प्रकार इत्यादि स्थलों पर एक-एक अक्षर से ही अर्थ की उपलब्धि होती है। आठ अक्षर से निष्पन्न हुआ प्रमाणपद है। यह अवस्थित है, क्योंकि इसकी आठ संख्या नियत है। सोलहसौ चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) इतने मध्य पद के वर्ण होते हैं॥ १८॥ इतने अक्षरों को ग्रहण कर एक मध्यमपद होता है। यह भी संयोगी अक्षरों की संख्या की अपेक्षा अवस्थित है, क्योंकि उसे उक्त प्रमाण से संख्या की अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती। (क.१/१,१/§७१/९०/२), (क.पा. २/२-२२/§३४/१७/६), (गो.जी./जी.प्र./३३६/७३३/१)</span><br />
| |
| क.पा. २/२-२२/§३४/१७/८<span class="PrakritText"> जत्तिएण वक्कसमूहेण अहियारो समप्पदि तं ववत्थापदं सुवंतमिगंतं वा।</span> =<span class="HindiText"> जितने वाक्यों के समूह से एक अधिकार समाप्त होता है, उसे व्यवस्थापद कहते हैं। अथवा सुगन्त और मिगन्त पद को व्यवस्था पद कहते हैं। </span><br />
| |
| क. पा. २/२,२२/§४७५/७ <span class="PrakritText">जहण्णुक्कस्सपदविसयणिच्छए खिवदि पादेति त्ति पदणिक्खेवो।</span> = <span class="HindiText">जो जघन्य और उत्कृष्ट पद विषयक निश्चय में ले जाता है, उसे पदनिक्षेप कहते हैं। <br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">गौण्यपदादि के लक्षण</strong> </span><br />
| |
| ध. १/१,१,१/७४/७ <span class="SanskritText">गुणानां भावो गौण्यम्। तद् गौण्यं पदं स्थानमाश्रयो येषां नाम्नां तानि गौण्यपदानि। यथा, आदित्यस्य तपनो भास्कर इत्यादीनि नामानि। नोगौण्यपदं नाम गुणनिरपेक्षमनन्वर्थमिति यावत्। तद्यथा, चन्द्रस्वामी सूर्यस्वामी इन्द्रगोप इत्यादीनि नामानि। आदानपदं नाम आत्तद्रव्यनिबन्धनम्। ...पूर्णकलश इत्येतदादानपदम्... अविधवेत्यादि। ...प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि आदान-प्रतिपक्षनिबन्धनत्वात्। अनादिसिद्धान्तपदानि धर्मास्तिरधर्मास्तिरित्येवमादीनि। अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्तः स पदं स्थानं यस्य तदनादिसिद्धान्तपदम्। प्राधान्यपदानि आम्रवनं निम्बवनमित्यादीनि। वनान्तः सत्स्वप्यन्येष्वविवक्षितवृक्षेषु विवक्षाकृतप्राधान्यचूतपिचुमन्द-निबन्धनत्वात्। नाम-पदं नाम गौडोऽन्ध्रो द्रमिल इति गौडान्ध्रद्रमिल-भाषानामधामत्वात्। प्रमाणपदानि शतं सहस्रं द्रोणः खारी पल तुला कर्षादीनि प्रमाणनाम्ना प्रमेयेषूपलम्भात्। ...उपचितावयवनिबन्धनानि यथा गलगण्डः शिलीपदः लम्बकर्ण इत्यादीनि नामानि। अवयवापचय-निबन्धनानि यथा, छिन्नकर्णः छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि। ...द्रव्य-संयोगपदानि, यथा, इभ्यः गौथः दण्डी छत्री गर्भिणी इत्यादीनि द्रव्य-संयोगनिबन्धनत्वात् तेषां। नासिपरश्वादयस्तेवामादानपदेऽन्तर्भावात्।...<br />
| |
| क्षेत्रसंयोगपदानि, माधुरः वालभः दाक्षिणात्यः औदीच्य इत्यादीनि। यदि नामत्वेनाविवक्षितानि भवन्ति। कालसंयोगपदानि यथा, शारदाः वासन्तक इत्यादीनि। न वसन्तशरद्धेमन्तादीनि तेषां नामपदेऽन्तर्भावात्। भावसंयोगपदानि, क्रोधी मानी मायावी लोभीरत्यादीनि। न शीलसादृश्य-निबन्धनयमसिंहाग्निरावणादीनि नामानि तेषां नामपदेऽन्तर्भावात्। न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तं नामास्त्यनुपलम्भात्। </span>= <span class="HindiText">गुणों के भाव को गौण्य कहते हैं। जो पदार्थ गुणों की मुख्यता से व्यवहृत होते हैं वे गौण्यपदार्थ हैं। वे गौण्यपदार्थ पद अर्थात् स्थान या आश्रय जिन नामों के होते हैं उन्हें गौण्यपद नाम कहते हैं। जैसे - सूर्य की तपन और भास गुण की अपेक्षा तपन और भास्कर इत्यादि संज्ञाएँ हैं। जिन संज्ञाओं में गुणों की अपेक्षा न हो अर्थात् जो असार्थक नाम हैं उन्हें नौगौण्यपद नाम कहते हैं। जैसे - चन्द्रस्वामी, सूर्यस्वामी, इन्द्रगोप इत्यादि नाम। ग्रहण किये गये द्रव्य के निमित्त से जो नाम व्यवहार में आते हैं, उन्हें आदानपद नाम कहते हैं।... ‘पूर्णकलश’ इस पद को आदानपद नाम समझना चाहिए।... इस प्रकार ‘अविधवा’ इस पद को भी विचारकर आदानपदनाम से अन्तर्भाव कर लेना चाहिए।... कुमारी बन्ध्या इत्यादिक प्रतिपक्षनामपद हैं क्योंकि आदानपद में ग्रहण किये गये दूसरे द्रव्य की निमित्त कारण पड़ती है और यहाँ पर अन्य द्रव्य का अभाव कारण पड़ता है। इसलिए आदानपदनामों के प्रतिपक्ष कारण होने से कुमारी या बन्ध्या इत्यादि पद प्रतिपक्ष पदनाम जानना चाहिए। अनादिकाल से प्रवाह रूप से चले आये सिद्धान्तवाचक पदों को अनादिसिद्धान्तपद नाम कहते हैं। जैसे - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि। अपौरुषेय होने से सिद्धान्त अनादि है। वह सिद्धान्त जिस नामरूपपद का आश्रय हो उसे अनादिसिद्धान्तपद कहते हैं। बहुत से पदार्थों के होने पर भी किसी एक पदार्थ की बहुलता आदि द्वारा प्राप्त हुई प्रधानता से जो नाम बोले जाते हैं उन्हें प्राधान्य-पदनाम कहते हैं। जैसे –आम्रवन, निम्बवन इत्यादि। वन में अन्य अविवक्षित पदों के रहने पर भी विवक्षा से प्रधानता को प्राप्त आम्र और निम्ब के वृक्षों के कारण आम्रवन और निम्बवन आदि नाम व्यवहार में आते हैं। जो भाषा के भेद से बोले जाते हैं उन्हें नामपद नाम कहते हैं। जैसे - गौड़, आन्ध्र, द्रमिल इत्यादि। गणना अथवा माप की अपेक्षा से जो संज्ञाएँ प्रचलित हैं उन्हें प्रमाणपद नाम कहते हैं। जैसे - सौ, हजार, द्रौण, खारी, पल, तुला, कर्ष इत्यादि। ये सब प्रमाणपद प्रमेयों में पाये जाते हैं।... रोगादि के निमित्त मिलने पर किसी अवयव के बढ़ जाने से जो नाम बोले जाते हैं उन्हें उपचितावयवपद नाम कहते हैं। जैसे - गलगंड, शिलीपद, लम्बकर्ण इत्यादि। जो नाम अवयवों के अपचय अर्थात् उनके छिन्न हो जाने के निमित्त से व्यवहार में आते हैं उन्हें अपचितावयवपद नाम कहते हैं। जैसे - छिन्नकर्ण, छिन्ननासिक इत्यादि नाम।... इभ्य, गौथ, दण्डी, छत्री, गर्भिणी इत्यादि द्रव्य संयोगपद नाम हैं, क्योंकि धन, गूथ, दण्डा, छत्ता इत्यादि द्रव्य के संयोग से ये नाम व्यवहार में आते हैं। असि, परशु इत्यादि द्रव्यसंयोगपद नाम नहीं है, क्योंकि उनका आदानपद में अन्तर्भाव होता है।... माथुर, वालभ, दाक्षिणात्य और औदीच्य इत्यादि क्षेत्रसंयोगपद नाम हैं, क्योंकि माथुर आदि संज्ञाएँ व्यवहार में आती हैं। जब माथुर आदि संज्ञाएँ नामरूप से विवक्षित न हों तभी उनका क्षेत्रसंयोगपद में अन्तर्भाव होता है अन्यथा नहीं। शारद वासन्त इत्यादि काल संयोगपद नाम हैं। क्योंकि शरद और वसन्त ऋतु के संयोग से यह संज्ञाएँ व्यवहार में आती हैं किन्तु वसन्त शरद् हेमन्त इत्यादि संज्ञाओं का कालसंयोगपद नामों में ग्रहण नहीं होता, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव हो जाता है। क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी इत्यादि नाम भावसंयोगपद हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ आदि भावों के निमित्त से ये नाम व्यवहार में आते हैं। किन्तु जिनमें स्वभाव की सदृशता कारण है ऐसी यम, सिंह, अग्नि और रावण आदि संज्ञाएँ भावसंयोगपद रूप नहीं हो सकती हैं, क्योंकि उनका नामपद में अन्तर्भाव होता है। उक्त दश प्रकार के नामों से भिन्न और कोई नामपद नहीं है, क्योंकि व्यवहार में इनके अतिरिक्त अन्य नाम पाये जाते हैं। (ध. ९/४,१,४५/१३५/४), (क.पा. १/१,१/§२४/३१/१)। <br />
| |
| </span></li>
| |
| <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">श्रुतज्ञान के भेदों में कथित पदनामा ज्ञान व इस ‘पद’ ज्ञान में अन्तर</strong></span><strong><br></strong>ध. ६/१,९-१,१४/२३/३ <span class="PrakritText">कुदो एदस्स पदसण्णा। सोलहसयचोत्तीसकोडओ तेसीदिलक्खा अट्ठहत्तरिसदअट्ठासीदिअक्खरे च घेत्तूण एगं दव्वसुदपदं होदि। एदेहिंतो उप्पण्णभावसुदं पि उवयारेण पदं ति उच्चदि।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> उस प्रकार से इस (अल्पमात्र) श्रुतज्ञान के (पाँचवें भेद की) ‘पद’ यह संज्ञा कैसे है? <strong>उत्तर -</strong> सोलह सौ चौंतीस करोड़, तेरासी लाख, अठहत्तर सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षरों को लेकर द्रव्यश्रुत का एक पद होता है। इन अक्षरों से उत्पन्न हुआ भावश्रुत भी उपचार से ‘पद’ ऐसा कहा जाता है।
| |
| </span></li></ol></li></ol>
| |
|
| |
|
| [[पत्रपरीक्षा | Previous Page]]
| | <noinclude> |
| [[पदज्ञान | Next Page]] | | [[ पत्र-रचना | पूर्व पृष्ठ ]] |
|
| |
|
| [[Category:प]] | | [[ पदगोष्ठी | अगला पृष्ठ ]] |
| | |
| | </noinclude> |
| | [[Category: पुराण-कोष]] |
| | [[Category: प]] |