परोक्ष: Difference between revisions
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<p class="HindiText">प्रमाण के भेदों में से परोक्ष भी एक है। इन्द्रियों व विचारणा द्वारा जो कुछ भी जाना जाता है वह सब परोक्ष प्रमाण है। छद्मस्थों को पदार्थ विज्ञान के लिए एकमात्र यही साधन है। स्मृति, तर्क, अनुमान आदि अनेकों इसके रूप हैं। यद्यपि अविशद व इन्द्रियों आदि से होने के कारण इसे परोक्ष कहा गया है, परन्तु यह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि इसके द्वारा पदार्थ का निश्चय उतना ही दृढ़ होता है, जितना कि प्रत्यक्ष के द्वारा। <br /> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">प्रमाण के भेदों में से परोक्ष भी एक है। इन्द्रियों व विचारणा द्वारा जो कुछ भी जाना जाता है वह सब परोक्ष प्रमाण है। छद्मस्थों को पदार्थ विज्ञान के लिए एकमात्र यही साधन है। स्मृति, तर्क, अनुमान आदि अनेकों इसके रूप हैं। यद्यपि अविशद व इन्द्रियों आदि से होने के कारण इसे परोक्ष कहा गया है, परन्तु यह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि इसके द्वारा पदार्थ का निश्चय उतना ही दृढ़ होता है, जितना कि प्रत्यक्ष के द्वारा। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">इन्द्रियसापेक्षज्ञान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">इन्द्रियसापेक्षज्ञान</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./58<span class="PrakritText"> जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमट्ठेसु। 58। </span>= <span class="HindiText">पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। (प्र.सा./मू./40); (स.सि./1/11/101/5); (रा.वा./1/11/7/52/30), (प्र.सा./ता.वृ./58/76/12)</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/11/6/52/24 <span class="SanskritText">उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्। 6। उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि परः तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम्। ...तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात्तदुभयं परोक्षमित्युच्ये। </span>= <span class="HindiText">उपात्त-इन्द्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि ‘पर’ हैं। पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। (स.सा./आ./13/क, 8), (त.सा./1/16) (ध.9/4,1,45/143/5); (ध. 13/5,5,21/212/1); (प्र.सा./त.प्र./55); (गो.जी./जी.प्र./369/765/8) तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज्ञस्वभाव परन्तु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करने के लिए असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है। (स.सि./1/11/101/5); (ध. 9/4,1,45/144/1)। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./58 <span class="SanskritText">यत्त खलु परद्रव्यभूतादन्तः करणादिन्द्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमात्स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षयते।</span> = <span class="HindiText">निमित्तताको प्राप्त जो परद्रव्यभूत अन्तःकरण (मन) इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि (जानने की शक्ति) संस्कार या प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होनेवाला स्वविषयप्रभूत पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है, इसलिए परोक्ष के रूप में जाना जाता है। (द्र.सं./टी./5/15/12)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">अविशदज्ञान</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">अविशदज्ञान</strong> </span><br /> | ||
प.मु./ | प.मु./3/1 <span class="HindiText">(विशदं प्रत्यक्षं प.मु./2/1)</span> <span class="SanskritText">परोक्षमितरत्। 1।</span> = <span class="HindiText">विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। इससे भिन्न अर्थात् अविशद को परोक्षप्रमाण कहते हैं। </span><br /> | ||
न्या.दी./ | न्या.दी./3/1/51/1 <span class="HindiText">अविशदप्रतिभासं परोक्षम्। ...यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षमित्यर्थः। ...अवैशद्यमस्पष्टत्वम्ं।</span> = <span class="HindiText">अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। ...जिस ज्ञान का प्रतिभास विशद नहीं है, वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टता को कहते हैं। (स.भ.त./47/10)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">मति श्रुत की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">मति श्रुत की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/11 <span class="SanskritText">आद्ये परोक्षम्। 11।</span> = <span class="HindiText">आदि के दो ज्ञान अर्थात् मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। (ध.9/4,1,45/143/5); (न.च.वृ./171); (ज.प./13/53)। </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./5/15/2<span class="SanskritText"> शेषचतुष्टयं परोक्षमिति। </span>= <span class="HindiText">शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुतज्ञान ये चार परोक्ष हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">स्मृति आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">स्मृति आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/13<span class="SanskritText"> मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्। </span>= <span class="HindiText">मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं। </span><br /> | ||
न्या.स./मू./ | न्या.स./मू./1/1/3/9<span class="SanskritText"> प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। 3। </span><br /> | ||
न्या.सू./मू./ | न्या.सू./मू./2/2/1/106<span class="SanskritText"> न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसंभवाभाव-प्रामाण्यात्। 1।</span> = <span class="HindiText">न्यायदर्शन में प्रमाण चार होते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। 3। प्रमाण चार ही नहीं होते हैं किन्तु ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये चार और मिलकर आठ प्रमाण हैं। </span><br /> | ||
प.सु./ | प.सु./3/2<span class="SanskritText"> प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदं। 2। </span>= <span class="HindiText">वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष आदि की सहायता से होता है और उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद हैं। 2। (स्या.मं./28/321/21); (न्या.दी./3/§3/53/1)। </span><br /> | ||
स्या.म./ | स्या.म./28/322/5 <span class="SanskritText">प्रमाणान्तराणां पुनरर्थापच्युपमानसंभवप्राति-भैतिह्यादीनामत्रैव अन्तर्भावः। </span>= <span class="HindiText">अर्थापत्ति, उपमान, सम्भव, प्रातिभ, ऐतिह्य आदि का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में हो जाता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">परोक्षाभास का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">परोक्षाभास का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प.मू./ | प.मू./6/7 <span class="SanskritText">वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत्।</span> = <span class="HindiText">परोक्षज्ञान को विशद् मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्षरूप से अभिमत मीमांसकों का इन्द्रियज्ञान विशद होने से परोक्षाभास कहा जाता है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>मति श्रुतज्ञान</strong>- | <li class="HindiText"><strong>मति श्रुतज्ञान</strong>- देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>स्मृति आदि सम्बन्धी विषय</strong>- | <li class="HindiText"><strong>स्मृति आदि सम्बन्धी विषय</strong>- देखें [[ मति ज्ञान#3 | मति ज्ञान - 3]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>स्मृति आदि में परस्पर कारणकार्यभाव</strong>- | <li class="HindiText"><strong>स्मृति आदि में परस्पर कारणकार्यभाव</strong>- देखें [[ मतिज्ञान#3 | मतिज्ञान - 3]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">मति श्रुत ज्ञान की परोक्षता का कारण </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4">मति श्रुत ज्ञान की परोक्षता का कारण </strong> </span><br /> | ||
प्र.स./मू./ | प्र.स./मू./57 <span class="PrakritGatha">परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्च्क्खं अप्पणो होदि। 57। </span>= <span class="HindiText">वे इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है, उसके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। 57। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/8/18/122/6 <span class="SanskritText">अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत्। अग्राहकमिन्द्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणात् गवाक्षवत्।</span> = <span class="HindiText">इन्द्रिय अग्राहक हैं, क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इन्द्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है, अतः अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही हैं। </span><br /> | ||
<strong>क.पा. | <strong>क.पा.1/1,1/§16/24/3 </strong><span class="PrakritText">मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदंसणादो।</span> = <span class="HindiText">मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इनमें प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है। </span><br /> | ||
प.मु./ | प.मु./2/12 <span class="SanskritText">सावरणत्वे करण जन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात्। 12।</span> = <span class="HindiText">आवरण सहित और इन्द्रियों की सहायता से होनेवाले ज्ञान का प्रतिबन्ध संभव है। (इसलिए वह परोक्ष है)। </span><br /> | ||
न्या.वि./वृ./ | न्या.वि./वृ./1/3/96/24<span class="SanskritText"> इदं तु पुनरिन्द्रियज्ञानं परिस्फुटमपि नात्ममात्रापेक्षं तदन्यस्येन्द्रियस्याप्यपेक्षणात्। अत एकाङ्गविकलतया परोक्षमेवेति मतम्। </span>= <span class="HindiText">इन्द्रियज्ञान यद्यपि विशद है परन्तु आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न न होकर अन्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा से उत्पन्न होता है, अतः प्रत्यक्षज्ञान के लक्षण में एकांग विकल होने से परोक्ष ही माना गया है। </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./12 <span class="SanskritText">मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षम्। व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति।</span> = <span class="HindiText">मति और श्रुतज्ञान दोनों ही परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष होते हैं। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./55/73/15 <span class="SanskritText">इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव।</span> = <span class="HindiText">इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चयनय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है। (न्या.दी./2/§12/34/2)। </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./700<span class="SanskritGatha"> आभिनिबोधिकबोधो विषयविषयिसंनिकर्षजस्तस्मात्। भवति परोक्षं नियमादपि च मतिपुरस्सरं श्रुतं ज्ञानम्। 700।</span> = <span class="HindiText">मतिज्ञान विषय विषयी के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी नियम से मतिज्ञान पूर्वक होता है, इसलिए वे दोनों ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं। 700। (पं.ध./पू./701, 707)। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> इन्द्रिय ज्ञान की परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान - | <li class="HindiText"> इन्द्रिय ज्ञान की परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान - देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान का परमार्थ में कोई मूल्य नहीं - | <li class="HindiText"> मतिज्ञान का परमार्थ में कोई मूल्य नहीं - देखें [[ मतिज्ञान#2 | मतिज्ञान - 2]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन की कथंचित् परोक्षता- | <li class="HindiText"> सम्यग्दर्शन की कथंचित् परोक्षता- देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.3 | सम्यग्दर्शन - I.3]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">परोक्षज्ञान को प्रमाणपना कैसे घटित होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">परोक्षज्ञान को प्रमाणपना कैसे घटित होता है</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/11/7/52/29 <span class="SanskritText">अत्राऽन्ये उपालभन्ते - परोक्षं प्रमाणं न भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयते-परोक्षत्वादेवं इतिः सोऽनुपालम्भः। कुतः। अतएव। यस्मात् ‘परायत्तं परोक्षम्’ इत्युच्यते न ‘अनवबोधः’ इति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> ‘जिसके द्वारा निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं’ इस लक्षण के अनुसार परोक्ष होने के कारण उससे (इन्द्रिय ज्ञान से) किसी भी बात का निर्णय नहीं किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नाम का कोई प्रमाण है? <strong>उत्तर -</strong> यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किन्तु पराधीन ज्ञान है। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रुत ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है । इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । <span class="GRef"> महापुराण 2. 61, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 144-145, 155 </span></p> | |||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
प्रमाण के भेदों में से परोक्ष भी एक है। इन्द्रियों व विचारणा द्वारा जो कुछ भी जाना जाता है वह सब परोक्ष प्रमाण है। छद्मस्थों को पदार्थ विज्ञान के लिए एकमात्र यही साधन है। स्मृति, तर्क, अनुमान आदि अनेकों इसके रूप हैं। यद्यपि अविशद व इन्द्रियों आदि से होने के कारण इसे परोक्ष कहा गया है, परन्तु यह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि इसके द्वारा पदार्थ का निश्चय उतना ही दृढ़ होता है, जितना कि प्रत्यक्ष के द्वारा।
- परोक्ष प्रमाण का लक्षण
- इन्द्रियसापेक्षज्ञान
प्र.सा./मू./58 जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमट्ठेसु। 58। = पर के द्वारा होनेवाला जो पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, वह परोक्ष कहा गया है। (प्र.सा./मू./40); (स.सि./1/11/101/5); (रा.वा./1/11/7/52/30), (प्र.सा./ता.वृ./58/76/12)
रा.वा./1/11/6/52/24 उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्। 6। उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि परः तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम्। ...तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वमेवार्थानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात्तदुभयं परोक्षमित्युच्ये। = उपात्त-इन्द्रियाँ और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेशादि ‘पर’ हैं। पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। (स.सा./आ./13/क, 8), (त.सा./1/16) (ध.9/4,1,45/143/5); (ध. 13/5,5,21/212/1); (प्र.सा./त.प्र./55); (गो.जी./जी.प्र./369/765/8) तथा उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर ज्ञस्वभाव परन्तु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करने के लिए असमर्थ हुए आत्मा के पूर्वोक्त प्रत्ययों की प्रधानता से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है। (स.सि./1/11/101/5); (ध. 9/4,1,45/144/1)।
प्र.सा./त.प्र./58 यत्त खलु परद्रव्यभूतादन्तः करणादिन्द्रियात्परोपदेशादुपलब्धेः संस्कारादालोकादेर्वा निमित्ततामुपगमात्स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्षयते। = निमित्तताको प्राप्त जो परद्रव्यभूत अन्तःकरण (मन) इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि (जानने की शक्ति) संस्कार या प्रकाशादिक हैं, उनके द्वारा होनेवाला स्वविषयप्रभूत पदार्थ का ज्ञान पर के द्वारा प्रगट होता है, इसलिए परोक्ष के रूप में जाना जाता है। (द्र.सं./टी./5/15/12)।
- अविशदज्ञान
प.मु./3/1 (विशदं प्रत्यक्षं प.मु./2/1) परोक्षमितरत्। 1। = विशद अर्थात् स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। इससे भिन्न अर्थात् अविशद को परोक्षप्रमाण कहते हैं।
न्या.दी./3/1/51/1 अविशदप्रतिभासं परोक्षम्। ...यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षमित्यर्थः। ...अवैशद्यमस्पष्टत्वम्ं। = अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। ...जिस ज्ञान का प्रतिभास विशद नहीं है, वह परोक्षप्रमाण है। अविशदता अस्पष्टता को कहते हैं। (स.भ.त./47/10)
- इन्द्रियसापेक्षज्ञान
- परोक्षज्ञान के भेद-
- मति श्रुत की अपेक्षा
त.सू./1/11 आद्ये परोक्षम्। 11। = आदि के दो ज्ञान अर्थात् मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। (ध.9/4,1,45/143/5); (न.च.वृ./171); (ज.प./13/53)।
द्र.सं./टी./5/15/2 शेषचतुष्टयं परोक्षमिति। = शेष कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुतज्ञान ये चार परोक्ष हैं।
- स्मृति आदि की अपेक्षा
त.सू./1/13 मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्। = मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं।
न्या.स./मू./1/1/3/9 प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि। 3।
न्या.सू./मू./2/2/1/106 न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसंभवाभाव-प्रामाण्यात्। 1। = न्यायदर्शन में प्रमाण चार होते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। 3। प्रमाण चार ही नहीं होते हैं किन्तु ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये चार और मिलकर आठ प्रमाण हैं।
प.सु./3/2 प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदं। 2। = वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष आदि की सहायता से होता है और उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद हैं। 2। (स्या.मं./28/321/21); (न्या.दी./3/§3/53/1)।
स्या.म./28/322/5 प्रमाणान्तराणां पुनरर्थापच्युपमानसंभवप्राति-भैतिह्यादीनामत्रैव अन्तर्भावः। = अर्थापत्ति, उपमान, सम्भव, प्रातिभ, ऐतिह्य आदि का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में हो जाता है।
- मति श्रुत की अपेक्षा
- परोक्षाभास का लक्षण
प.मू./6/7 वैशद्येऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत्। = परोक्षज्ञान को विशद् मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्षरूप से अभिमत मीमांसकों का इन्द्रियज्ञान विशद होने से परोक्षाभास कहा जाता है।
- मति श्रुतज्ञान- देखें वह वह नाम ।
- स्मृति आदि सम्बन्धी विषय- देखें मति ज्ञान - 3।
- स्मृति आदि में परस्पर कारणकार्यभाव- देखें मतिज्ञान - 3।
- मति श्रुतज्ञान- देखें वह वह नाम ।
- मति श्रुत ज्ञान की परोक्षता का कारण
प्र.स./मू./57 परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा। उवलद्धं तेहि कधं पच्च्क्खं अप्पणो होदि। 57। = वे इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है, उसके द्वारा ज्ञात आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। 57।
रा.वा./2/8/18/122/6 अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाद् धूमाद्यनुमिताग्निवत्। अग्राहकमिन्द्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतस्मरणात् गवाक्षवत्। = इन्द्रिय अग्राहक हैं, क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इन्द्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है, अतः अग्राहक निमित्त से ग्राह्य होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही हैं।
क.पा.1/1,1/§16/24/3 मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ अविसदभावदंसणादो। = मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इनमें प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है।
प.मु./2/12 सावरणत्वे करण जन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात्। 12। = आवरण सहित और इन्द्रियों की सहायता से होनेवाले ज्ञान का प्रतिबन्ध संभव है। (इसलिए वह परोक्ष है)।
न्या.वि./वृ./1/3/96/24 इदं तु पुनरिन्द्रियज्ञानं परिस्फुटमपि नात्ममात्रापेक्षं तदन्यस्येन्द्रियस्याप्यपेक्षणात्। अत एकाङ्गविकलतया परोक्षमेवेति मतम्। = इन्द्रियज्ञान यद्यपि विशद है परन्तु आत्ममात्र की अपेक्षा से उत्पन्न न होकर अन्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा से उत्पन्न होता है, अतः प्रत्यक्षज्ञान के लक्षण में एकांग विकल होने से परोक्ष ही माना गया है।
नि.सा./ता.वृ./12 मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षम्। व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति। = मति और श्रुतज्ञान दोनों ही परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष होते हैं।
प्र.सा./ता.वृ./55/73/15 इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव। = इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चयनय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है। (न्या.दी./2/§12/34/2)।
पं.ध./पू./700 आभिनिबोधिकबोधो विषयविषयिसंनिकर्षजस्तस्मात्। भवति परोक्षं नियमादपि च मतिपुरस्सरं श्रुतं ज्ञानम्। 700। = मतिज्ञान विषय विषयी के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी नियम से मतिज्ञान पूर्वक होता है, इसलिए वे दोनों ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं। 700। (पं.ध./पू./701, 707)।
- इन्द्रिय ज्ञान की परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान - देखें श्रुतज्ञान - I.5।
- मतिज्ञान का परमार्थ में कोई मूल्य नहीं - देखें मतिज्ञान - 2।
- सम्यग्दर्शन की कथंचित् परोक्षता- देखें सम्यग्दर्शन - I.3।
- इन्द्रिय ज्ञान की परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान - देखें श्रुतज्ञान - I.5।
- परोक्षज्ञान को प्रमाणपना कैसे घटित होता है
रा.वा./1/11/7/52/29 अत्राऽन्ये उपालभन्ते - परोक्षं प्रमाणं न भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयते-परोक्षत्वादेवं इतिः सोऽनुपालम्भः। कुतः। अतएव। यस्मात् ‘परायत्तं परोक्षम्’ इत्युच्यते न ‘अनवबोधः’ इति। = प्रश्न - ‘जिसके द्वारा निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं’ इस लक्षण के अनुसार परोक्ष होने के कारण उससे (इन्द्रिय ज्ञान से) किसी भी बात का निर्णय नहीं किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नाम का कोई प्रमाण है? उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किन्तु पराधीन ज्ञान है।
पुराणकोष से
प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रुत ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है । इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है । महापुराण 2. 61, हरिवंशपुराण 10. 144-145, 155