पिच्छिका: Difference between revisions
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भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./98 <span class="PrakritGatha">रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च। जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति। 98। </span>= <span class="HindiText">जिसमें ये पाँच गुण हैं उस शोधनोपकरण पिच्छिका आदि की साधुजन प्रशंसा करते हैं - धूलि और पसेव से मैली न हो, कोमल हो, कड़ी न हो। अर्थात् नमनशील हो, और हलकी हो। (मू.आ./910)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>पिच्छिका की उपयोगिता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>पिच्छिका की उपयोगिता</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./97-98 <span class="PrakritGatha">इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे। उव्वत्तणपरिवत्तण पसारणा उंटणामस्से। 96। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्हं च होइ सगपक्खे। विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूवदा चेव। 97।</span> = <span class="HindiText">जब मुनि बैठते हैं, खड़े हो जाते हैं, सो जाते हैं, अपने हाथ और पाँव पसारते हैं, संकोच लेते हैं, जब वे उत्तानशयन करते हैं, कर्वट बदलते हैं, तब वे अपना शरीर पिच्छिका से स्वच्छ करते हैं। 96। पिच्छिका से ही जीव दया पाली जाती है। पिच्छिका लोगों में यति विषयक विश्वास उत्पन्न करने का चिह्न है। तथा पिच्छिका धारण करने से वे मुनिराज प्राचीन मुनियों के प्रतिनिधि स्वरूप हैं, ऐसा सिद्ध होता है। 97। (मू.आ./911)। </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./912,914<span class="PrakritGatha"> उच्चारं पस्सवणं णिसि मुत्तो उट्ठिदोहु काऊण। अप्पडिलिहिय सुवंतो जीववहं कुणदि णियदंतु। 912। णाणे चंकमणादाणणिक्खेवे सयणआसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे। (9/4)। </span>= <span class="HindiText">रात में सोते से उठा फिर मल का क्षेपण मूत श्लेष्मा आदि का क्षेपण कर सोधन बिना किये फिर सो गया ऐसा साधु पीछी के बिना जीवहिंसा अवश्य करता है। 912। कायोत्सर्ग में, गमन में, कमंडलु आदि के उठाने में, पुस्तकादि के रखने में, शयन में, झूठन के साफ करने में यत्न से पीछीकर जीवों की हिंसा की जाती है, और यह मुनि संयमी है ऐसा अपने पक्ष में चिह्न हो जाता है। 914।</span></li> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
- पिच्छिका
भ.आ./मू./98 रयसेयाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लघुत्तं च। जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति। 98। = जिसमें ये पाँच गुण हैं उस शोधनोपकरण पिच्छिका आदि की साधुजन प्रशंसा करते हैं - धूलि और पसेव से मैली न हो, कोमल हो, कड़ी न हो। अर्थात् नमनशील हो, और हलकी हो। (मू.आ./910)।
- पिच्छिका की उपयोगिता
भ.आ./मू./97-98 इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे णिसीयणे सयणे। उव्वत्तणपरिवत्तण पसारणा उंटणामस्से। 96। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ चिण्हं च होइ सगपक्खे। विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूवदा चेव। 97। = जब मुनि बैठते हैं, खड़े हो जाते हैं, सो जाते हैं, अपने हाथ और पाँव पसारते हैं, संकोच लेते हैं, जब वे उत्तानशयन करते हैं, कर्वट बदलते हैं, तब वे अपना शरीर पिच्छिका से स्वच्छ करते हैं। 96। पिच्छिका से ही जीव दया पाली जाती है। पिच्छिका लोगों में यति विषयक विश्वास उत्पन्न करने का चिह्न है। तथा पिच्छिका धारण करने से वे मुनिराज प्राचीन मुनियों के प्रतिनिधि स्वरूप हैं, ऐसा सिद्ध होता है। 97। (मू.आ./911)।
मू.आ./912,914 उच्चारं पस्सवणं णिसि मुत्तो उट्ठिदोहु काऊण। अप्पडिलिहिय सुवंतो जीववहं कुणदि णियदंतु। 912। णाणे चंकमणादाणणिक्खेवे सयणआसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे। (9/4)। = रात में सोते से उठा फिर मल का क्षेपण मूत श्लेष्मा आदि का क्षेपण कर सोधन बिना किये फिर सो गया ऐसा साधु पीछी के बिना जीवहिंसा अवश्य करता है। 912। कायोत्सर्ग में, गमन में, कमंडलु आदि के उठाने में, पुस्तकादि के रखने में, शयन में, झूठन के साफ करने में यत्न से पीछीकर जीवों की हिंसा की जाती है, और यह मुनि संयमी है ऐसा अपने पक्ष में चिह्न हो जाता है। 914।