बाह्य परिग्रह की कथंचित् मुख्यता व गौणता: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">बाह्य परिग्रह को ग्रन्थ कहना उपचार है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">बाह्य परिग्रह को ग्रन्थ कहना उपचार है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,67/323/6 <span class="PrakritText">कथं खेत्तादोणं भावगंथसण्णा। कारणे कज्जोवयारादो। व्यवहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथी, अब्भंतरगंथकारणत्तादो एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> क्षेत्रादि को भावग्रन्थ संज्ञा कैसे हो सकती है? <strong>उत्तर -</strong> कारण में कार्य का उपचार करने से क्षेत्रादिकों की भावग्रन्थ संज्ञा बन जाती है। व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं, और इनका त्याग करने से निर्ग्रन्थता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">बाह्य त्याग के बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">बाह्य त्याग के बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./1120 <span class="PrakritGatha">जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स। तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स। 1120।</span> =<span class="HindiText"> ऊपर का छिलका निकाले बिना चावल का अन्तरंग मल नष्ट नहीं होता। वैसे बाह्य परिग्रह रूप मल जिसके आत्मा में उत्पन्न हुआ है, ऐसे आत्मा का कर्ममल नष्ट होना अशक्य है। 1120। (प्र.सा./त.प्र./220) (अन.ध./4/105)। </span><br /> | ||
प्र.सा.मू./ | प्र.सा.मू./220<span class="PrakritGatha"> णहि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिवखुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ। 22॥</span> =<span class="HindiText"> यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती; और जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है। 220। </span><br /> | ||
भा.पा.मू./ | भा.पा.मू./3 <span class="PrakritText">भावविसुद्धि णिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।</span> = <span class="HindiText">बाह्य परिग्रह का त्याग भाव विशुद्धि के अर्थ किया जाता है। </span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./1/1,1/शा.50/104 <span class="PrakritGatha">सक्कं परिहरियव्वं असक्कगिज्जम्मि णिम्ममा समणा। तम्हा हिंसायदणे अपरिहरंते कथमहिंसा। 50। </span>= <span class="HindiText">साधुजन जो त्याग करने के लिए शक्य होता है उसके त्याग करने का प्रयत्न करते हैं, और जो त्याग करने के लिए अशक्य होता है उससे निर्मम होकर रहते हैं, इसलिए त्याग करने के लिए शक्य भी हिंसायतन के परिहार नहीं करने पर अहिंसा कैसे हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती। 50। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./284-287<span class="SanskritText"> यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामतिं न प्रत्याचष्टे तावत्कर्तैव स्यात्। 284-285। समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्यचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे। 286-287।</span> = <span class="HindiText">1. जब तक उसके (आत्मा के) निमित्तभूत परद्रव्य के अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तब तक उसके रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जब तक रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, तब तक रागादि भावों का कर्ता ही है। 284-285। समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव को नहीं त्यागता। 286-287। </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./16/26-27/180 <span class="SanskritGatha">अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम् स्थिरत्वं वा सुराचलः। न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संवृतेन्द्रियः। 26। बाह्यानपि च यः सङ्गान्परित्यक्तुमनीश्वरः। स क्लीवः कर्मणां सैन्यं कथमग्रेहनिष्यति। 27। </span>= <span class="HindiText">कदाचित् सूर्य अपना स्थान छोड़ दे और सुमेरु पर्वत स्थिरता छोड़ दे तो सम्भव है, परन्तु परिग्रह सहित मुनि कदापि जितेन्द्रिय नहीं हो सकता। 26। जो पुरुष बाह्य के भी परिग्रह को छोड़ने में असमर्थ है वह नपुंसक आगे कर्मों की सेना को कैसे हनेगा?। 27। <br /> | ||
रा.वा./हिं./ | रा.वा./हिं./9/46/766 बाह्य परिग्रह का सद्भाव होय तो अभ्यन्तर के ग्रन्थ का अभाव होय नहीं।... जातैं विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है। जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करै है सो मूर्च्छा तो करै है। सो जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">बाह्य पदार्थों का आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">बाह्य पदार्थों का आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./265 <span class="PrakritGatha">वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि। 265।</span> = <span class="HindiText">जीवों के जो अध्यवसान होता है, वह वस्तु को अवलम्बन कर होता है तथापि वस्तु से बन्ध नहीं होता, अध्यवसान से ही बन्ध होता है। 265। (क.पा.1,/गा. 51। 105) (देखें [[ राग#5.3 | राग - 5.3]])। </span><br /> | ||
प्र.सा./मू/ | प्र.सा./मू/221 <span class="PrakritGatha">किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि।</span> = <span class="HindiText">उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा, आरम्भ या असंयम न हो, यह कैसे हो सकता है? (कदापि नहीं हो सकता) तथा जो पर द्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है?<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4">बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्ध का कारण है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4">बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्ध का कारण है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./219<span class="PrakritGatha"> हवदि व ण हवदि बन्धो मदम्हि जीवेऽध काय चेटम्हि। बंधी धुवमुवधीदो इदिसमणा छड्ढिया सव्वं। 219।</span> =<span class="HindiText"> (साधु के) काय चेष्टा पूर्वक जीव के मरने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता, (किन्तु) उपधि से-परिग्रह से निश्चय ही बन्ध होता है। इसलिए श्रमणों ने (सर्वज्ञदेव ने) सर्व परिग्रह को छोड़ा है। 219। </span></li> | ||
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Revision as of 21:44, 5 July 2020
- बाह्य परिग्रह की कथंचित् मुख्यता व गौणता
- बाह्य परिग्रह को ग्रन्थ कहना उपचार है
ध.9/4,1,67/323/6 कथं खेत्तादोणं भावगंथसण्णा। कारणे कज्जोवयारादो। व्यवहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथी, अब्भंतरगंथकारणत्तादो एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं। = प्रश्न - क्षेत्रादि को भावग्रन्थ संज्ञा कैसे हो सकती है? उत्तर - कारण में कार्य का उपचार करने से क्षेत्रादिकों की भावग्रन्थ संज्ञा बन जाती है। व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं, और इनका त्याग करने से निर्ग्रन्थता है।
- बाह्य त्याग के बिना अन्तरंग त्याग अशक्य है
भ.आ./मू./1120 जह कुंडओ ण सक्को सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स। तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स। 1120। = ऊपर का छिलका निकाले बिना चावल का अन्तरंग मल नष्ट नहीं होता। वैसे बाह्य परिग्रह रूप मल जिसके आत्मा में उत्पन्न हुआ है, ऐसे आत्मा का कर्ममल नष्ट होना अशक्य है। 1120। (प्र.सा./त.प्र./220) (अन.ध./4/105)।
प्र.सा.मू./220 णहि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिवखुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ। 22॥ = यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती; और जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है। 220।
भा.पा.मू./3 भावविसुद्धि णिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। = बाह्य परिग्रह का त्याग भाव विशुद्धि के अर्थ किया जाता है।
क.पा./1/1,1/शा.50/104 सक्कं परिहरियव्वं असक्कगिज्जम्मि णिम्ममा समणा। तम्हा हिंसायदणे अपरिहरंते कथमहिंसा। 50। = साधुजन जो त्याग करने के लिए शक्य होता है उसके त्याग करने का प्रयत्न करते हैं, और जो त्याग करने के लिए अशक्य होता है उससे निर्मम होकर रहते हैं, इसलिए त्याग करने के लिए शक्य भी हिंसायतन के परिहार नहीं करने पर अहिंसा कैसे हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती। 50।
स.सा./आ./284-287 यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामतिं न प्रत्याचष्टे तावत्कर्तैव स्यात्। 284-285। समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्यचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे। 286-287। = 1. जब तक उसके (आत्मा के) निमित्तभूत परद्रव्य के अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है तब तक उसके रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, और जब तक रागादि भावों का अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान है, तब तक रागादि भावों का कर्ता ही है। 284-285। समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव को नहीं त्यागता। 286-287।
ज्ञा./16/26-27/180 अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम् स्थिरत्वं वा सुराचलः। न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संवृतेन्द्रियः। 26। बाह्यानपि च यः सङ्गान्परित्यक्तुमनीश्वरः। स क्लीवः कर्मणां सैन्यं कथमग्रेहनिष्यति। 27। = कदाचित् सूर्य अपना स्थान छोड़ दे और सुमेरु पर्वत स्थिरता छोड़ दे तो सम्भव है, परन्तु परिग्रह सहित मुनि कदापि जितेन्द्रिय नहीं हो सकता। 26। जो पुरुष बाह्य के भी परिग्रह को छोड़ने में असमर्थ है वह नपुंसक आगे कर्मों की सेना को कैसे हनेगा?। 27।
रा.वा./हिं./9/46/766 बाह्य परिग्रह का सद्भाव होय तो अभ्यन्तर के ग्रन्थ का अभाव होय नहीं।... जातैं विषय का ग्रहण तो कार्य है और मूर्च्छा ताका कारण है। जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करै है सो मूर्च्छा तो करै है। सो जाका मूर्च्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रह का ग्रहण कदाचित् नहीं होयगा।
- बाह्य पदार्थों का आश्रय करके ही रागादि उत्पन्न होते हैं
स.सा./मू./265 वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि। 265। = जीवों के जो अध्यवसान होता है, वह वस्तु को अवलम्बन कर होता है तथापि वस्तु से बन्ध नहीं होता, अध्यवसान से ही बन्ध होता है। 265। (क.पा.1,/गा. 51। 105) (देखें राग - 5.3)।
प्र.सा./मू/221 किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि। = उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा, आरम्भ या असंयम न हो, यह कैसे हो सकता है? (कदापि नहीं हो सकता) तथा जो पर द्रव्य में रत हो वह आत्मा को कैसे साध सकता है?
- बाह्य परिग्रह सर्वदा बन्ध का कारण है
प्र.सा./मू./219 हवदि व ण हवदि बन्धो मदम्हि जीवेऽध काय चेटम्हि। बंधी धुवमुवधीदो इदिसमणा छड्ढिया सव्वं। 219। = (साधु के) काय चेष्टा पूर्वक जीव के मरने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता, (किन्तु) उपधि से-परिग्रह से निश्चय ही बन्ध होता है। इसलिए श्रमणों ने (सर्वज्ञदेव ने) सर्व परिग्रह को छोड़ा है। 219।
- बाह्य परिग्रह को ग्रन्थ कहना उपचार है