भक्ति: Difference between revisions
From जैनकोष
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<ol> | == सिद्धांतकोष से == | ||
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<li><span class="HindiText"> साधुओं की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के प्रयोग में आनेवाली निम्न दस भक्तियाँ । - | <li><span class="HindiText"> साधुओं की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के प्रयोग में आनेवाली निम्न दस भक्तियाँ । - | ||
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<li><span class="HindiText"> समाधि भक्ति । इनके अतिरिक्त भी </span></li> | <li><span class="HindiText"> समाधि भक्ति । इनके अतिरिक्त भी </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> निर्वाण भक्ति; </span></li> | <li><span class="HindiText"> निर्वाण भक्ति; </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> नन्दीश्वर भक्ति, और शान्ति भक्ति आदि | <li><span class="HindiText"> नन्दीश्वर भक्ति, और शान्ति भक्ति आदि 3 भक्तियाँ हैं । परन्तु मुख्य रूप से 10 ही मानी गयी हैं । इनमें प्रथम 6 भक्तियाँ तथा निर्वाण भक्ति संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषा में प्राप्त हैं । शेष सब संस्कृत में हैं . (1) प्राकृत भक्ति के पाठ आ. कुन्दकुन्द व पद्मनन्दि (ई. 127-179) कृत हैं । (2) संस्कृत भक्ति के पाठ आ. पूज्यपाद (ई.श.5), कृत हैं । तथा अन्य भी भक्ति पाठ उपलब्ध हैं । यथा - (3) श्रुतसागर (ई. 1473-1533) द्वारा रचित सिद्धभक्ति । (क्रिया-कलाप/पृ. 167) । </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> भक्ति सामान्य का लक्षण -</strong> </span> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.1.1" id="1.1.1"> <strong>निश्चय </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1.1" id="1.1.1"> <strong>निश्चय </strong></span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./134 <span class="SanskritText">निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थ: । एकादशपदेषु श्रावकेषु ... सर्व शुद्धरत्नत्रयभक्ति कुर्वन्ति ।</span> = <span class="HindiText">निज परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-अवबोध-आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय-परिणामों का जो भजन वह भक्ति है, आराधना ऐसा उसका अर्थ है । एकादशपदी श्रावकों में ... सब शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं ।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./173-176/243/11 <span class="SanskritText">भक्तिः पुनः ... निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मतत्त्वभावनारूपा चेति ।</span> = <span class="HindiText">निश्चय नय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध आत्म तत्त्व की भावनारूप भक्ति होती है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.1.2" id="1.1.2"> <strong>व्यवहार </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1.2" id="1.1.2"> <strong>व्यवहार </strong></span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./135 <span class="PrakritGatha">मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि । जो कुणदि परम भक्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।135। </span>= <span class="HindiText">जो जीव मोक्ष-गत पुरुषों का गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीव को व्यवहार नय से भक्ति कही गयी है ।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/24/339/4<span class="SanskritText"> भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । </span>=<span class="HindiText"> भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना भक्ति है । </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./47/159/20 का <span class="SanskritText">भत्ती ... । अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः ।</span> = <span class="HindiText">अर्हदादि गुणों में प्रेम करना भक्ति है । (भा.पा./टी./77/221/10) । </span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./173-176/243/11 <span class="SanskritText">भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठय्याराधनारूपा ।</span> = <span class="HindiText">व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियों के पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप सम्यक् भक्ति होती है । </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./470<span class="SanskritText"> तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । ... ।</span> = <span class="HindiText">उन दोनों में दर्शनमोहनीय का उपशम होने से वचन काय और मन सम्बन्धी उद्धतपने के अभाव को भक्ति कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय भक्ति ही वास्तविक भक्ति है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय भक्ति ही वास्तविक भक्ति है </strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./30 <span class="PrakritGatha">णयरमि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ।30।</span> = <span class="HindiText">जैसे नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन नहीं किया जाता इसी प्रकार शरीर के गुण का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है ।30। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सच्ची भक्ति सम्यग्दृष्टि को ही होती है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सच्ची भक्ति सम्यग्दृष्टि को ही होती है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध. 8/3,41/89/5 <span class="PrakritText">ण च एसा (अरंहत भत्ती) दंसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहादो ।</span> = <span class="HindiText">यह (अर्हन्त भक्ति) दर्शन विशुद्धि आदि के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है ।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/327/8 यथार्थपने की अपेक्षा तौ ज्ञानी कै सांची भक्ति है - अज्ञानी कै नाहीं है । <br /> | ||
प.प्र./पं.दौलत/ | प.प्र./पं.दौलत/2/143/259 बाह्य लौकिक भक्ति इससे संसार के प्रयोजन के लिए हुइ, वह गिनती में नहीं । ऊपर की सब बातें निःसार (थोथी) हैं, भाव ही कारण होते हैं, सो भाव-भक्ति मिथ्यादृष्टि के नहीं होती (सम्यग्दृष्टि के ही होती है ) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> व्यवहार भक्ति में ईश्वर कर्तावाद का निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> व्यवहार भक्ति में ईश्वर कर्तावाद का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
भा.पा./मू./ | भा.पा./मू./163 <span class="PrakritGatha">ते मे तिहुवणहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा । दिंतु बर भावसुद्धिं दंसण णाण चरित्ते य ।163।</span> = <span class="HindiText">जो नित्य हैं, निरंजन हैं, शुद्ध हैं तथा तीन लोक के द्वारा पूजनीक हैं, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ उत्तम भाव की शुद्धता दो ।163।</span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./1... <span class="PrakritText">पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।1।</span> = ... <span class="HindiText">तीर्थरूप और धर्म के कर्ता श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो ।1। </span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./20/1,6 <span class="SanskritGatha">त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व । मयि किकरेऽत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ।1। अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये । तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव प्राल पित्वम् ।6।</span> = <span class="HindiText">तीनों लोकों के गुरु और उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर ! इस मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये ।1। हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए , यही एक बात मुझे आपसे कहनी है । परन्तु चूँकि मैं इस संसार से अति पीड़ित हूँ, इसलिए मैं बहुत बकवादी हुआ हूँ ।</span><br /> | ||
थोस्सामि दण्डक / | थोस्सामि दण्डक /7 <span class="PrakritGatha">कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धी । आरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिं च मे बोहिं ।7।</span> = <span class="HindiText">वचनों से कीर्तन किये गये, मन से वन्दना किये गये, और काय से पूजे गये, ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करें ।7।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> प्रसन्न हो इत्यादि का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> प्रसन्न हो इत्यादि का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
आप्त. परि./टी./ | आप्त. परि./टी./2/8/6 <span class="SanskritText">प्रसादः पुनः परमेष्ठिनस्तद्विनेयानां प्रसन्नमनविषयत्वमेव, वीतरागाणां तुष्टिलक्षणप्रसादादसम्भवात् कोपासंभववत् । तदाराधकजनैस्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान् ‘प्रसन्नः इत्यभिधीयते, रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासेव्य तत्फलमवाप्नुवन्तः सन्तो ‘रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नम्’ इति प्रतिपाद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्ठिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षणं प्रतिपाद्यमानस्तद्विनेयजनाः ‘भगवत्परमेष्ठिनः प्रसादादस्माकं श्रेयोमार्गाधिगमः संपन्नः ’ इति समनुमन्यन्ते । </span>=<span class="HindiText">परमेष्ठी में जो प्रसाद गुण कहा गया है, वह उनके शिष्यों का प्रसन्न मन होना ही उनकी प्रसन्नता है, क्योंकि वीतरागों के तुष्ट्य्यात्मक प्रसन्नता सम्भव नहीं हैं । जैसे क्रोध का होना उनमें सम्भव नहीं है । किन्तु आराधकजन जब प्रसन्न मन से उनकी उपासना करते हैं तो भगवान् को ‘प्रसन्न’ ऐसा कह दिया जाता है । जैसे प्रसन्न मन से रसायन (औषधि) का सेवन करके उसके फल को प्राप्त करने वाले समझते हैं और शब्द व्यवहार करते हैं कि ‘रसायन’ के प्रसाद से यह हमें आरोग्यादि फल मिला । ’ उसी प्रकार प्रसन्न मन से भगवान् परमेष्ठी की उपासना करके उसके फल - श्रेयोमार्ग के ज्ञान को प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते हैं कि ‘भगवन् परमेष्ठी के प्रसाद से हमें श्रेयोमार्ग का ज्ञान हुआ ।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./5/325/17 उस (अर्हंत) के उपचार से यह विशेषण (अधमोद्धारकादिक) सम्भवै है । फल तौ अपने परिणामनिका लागै है । <br /> | ||
देखें [[ पूजा#2.3 | पूजा - 2.3 ]]जिन गुण परिणत परिणाम पाप का नाशक समझना चाहिए । <br /> | |||
सल्लेखना की स्मृति - देखें | सल्लेखना की स्मृति - देखें [[ भ ]]आ. /अमित./2248-2242) । <br /> | ||
भक्तिका महत्त्व- | भक्तिका महत्त्व- देखें [[ विनय#2 | विनय - 2 ]]तथा पूजा /2/4 । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">भक्ति विशेष निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2" id="2"></a>भक्ति विशेष निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्ति के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.1" id="2.1"></a>अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्ति के लक्षण</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/24/339/4 <span class="SanskritText">अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धि- युक्तोऽनुरागो भक्तिः । </span>= <span class="HindiText">अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावों की विशुद्धता के साथ अनुराग रखना अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति है । (रा.वा./6/24/10/530/6); (चा.सा.51/3;/51/1); (भा.पा./टी./77/221/10) । </span><br /> | ||
ध. | ध. 8/3,41/89-90/4 <span class="PrakritText">तेसु (अरहतेसु) भत्ती अरहंतभत्ती । ... अरहंत वुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ... बारसंग- पारया बहुसुदा णाम, तेसु भत्ती-तेहि वक्खाणिद आगमत्थाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा बहुसुदभत्ती । ... तम्हि (पवयणे) भत्ती तत्थ पदुप्पादिदत्थाणुट्ठाणं । ण च अण्णहा तत्थ भत्ती संभवइ, असंपुणण्णे संपुण्णववहारविरोहादो ।</span> = <span class="HindiText">अरहन्तों में जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है, वह अरहन्त भक्ति कहलाती है ... । अथवा अरहन्त के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अरहन्त भक्ति कहते हैं । ... जो बारह अंगों के पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं, उनके द्वारा उपद्ष्टि आगमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श करने को बहुश्रुतभक्ति कहते हैं । ... प्रवचन में (देखें [[ प्रवचन#1 | प्रवचन - 1]]) कहे हुए अर्थ का अनुष्ठान करना, यह प्रवचन में भक्ति कही जाती है । इसके बिना अन्य प्रकार से प्रवचन में भक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि असम्पूर्ण में सम्पूर्ण के व्यवहार का विरोध है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सिद्ध भक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सिद्ध भक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./134-135 <span class="PrakritGatha">सम्मत्तणाण चरणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो । तस्स दु णिव्वुदि भत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।134। मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि । जो कुणदि परमभक्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।135।</span> = <span class="HindiText">जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की भक्ति करता है, उसे निर्वृतिभक्ति (निर्वाण की भक्ति) है, ऐसा जिनोंने कहा है ।134। जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीव के व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति कही है ।135।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./18/56 पर उद्धृत -<span class="PrakritText"> सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अणतणाणाइगुण-समिद्धोऽहं । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसी अमुत्तो य । इति गाथा-कथितसिद्धभक्तिरूपेण ... ।</span> = <span class="HindiText">मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञानादि गुणों का धारक हूँ, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, तथा अमूर्तिक हूँ ।1। इस गाथा में कही हुई सिद्धभक्ति के रूप से ... ।</span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./169 <span class="SanskritText">शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्ति- मनुबिभ्राण: ... ।</span> = <span class="HindiText">शुद्धात्म द्रव्य में विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध- भक्ति घारण करता हुआ ... । </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./17/55/8 <span class="SanskritText">सिद्धवदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादि व्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुक्तानां ... ।</span> = <span class="HindiText">मैं सिद्ध भगवान् के समान अनन्तज्ञानादि गुणरूप हूँ इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्धभक्ति के धारक ... । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">योगिभक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">योगिभक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./137 <span class="PrakritGatha">रायादीपरिहारे अप्पाणं जोदु जुंजदे साहू । सो जोगभक्तिजुत्तो इदरस्स य कह हवे जोगो ।137।</span> = <span class="HindiText">जो साधु रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है (अर्थात् आत्मा में आत्मा को लगाकर रागादि का परिहार करता है ) वह योगिभक्ति युक्त है, दूसरे को योग किस प्रकार हो सकता है ।137. (नि.सा./मू./138) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> अर्हन्तादि में से किसी एक भक्ति में शेष | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> अर्हन्तादि में से किसी एक भक्ति में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध. 8/3, 41/89/4 <span class="PrakritText">कधमेत्थ सेसकारणाणं संभवो । बुच्चदे अरहंतवुत्ताणु-ट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ण च एसा दंसणविसुज्झदादीहि विणा ण संभवइ, विरोहादो । ... दंसणविसुज्झदादीहि विणाएदिस्से (बहुसुदभत्तीए) असंभवादो । ... एत्थ (पवयण भत्तीए) सेसकारणाणमंतव्भावो वत्तव्वो ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> इसमें शेष कारणों की सम्भावना कैसे है । <strong>उत्तर-</strong> अरहन्त के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने को या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अरहन्त भक्ति कहते हैं । यह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है । ... यह (बहुश्रुत भक्ति) भी दर्शन विशुद्धि आदिक शेष कारणों के बिना सम्भव नहीं है । ... इस (प्रवचन भक्ति) में शेष कारणों का अन्तर्भाव कहना चाहिए ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि -</strong> | <li class="HindiText"><strong> दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि -</strong> देखें [[ कृतिकर्म#4.2 | कृतिकर्म - 4.2]],3<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong> प्रत्येक भक्ति के साथ आवर्त आदि करने का विधान -</strong> | <li class="HindiText"><strong> प्रत्येक भक्ति के साथ आवर्त आदि करने का विधान -</strong> देखें [[ कृतिकर्म ]]। 2/8 <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> साधु की आहारचर्या सम्बन्धी नवभक्ति निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> साधु की आहारचर्या सम्बन्धी नवभक्ति निर्देश</strong> </span><br /> | ||
म.पु./ | म.पु./20/86-87 <span class="SanskritText">प्रतिग्रहमित्युच्चैः स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रधावनं चर्चा नतिः शुद्धिश्च सा त्रयी ।86। विशुद्धिश्चाशनस्येति नवपुण्यानि दानिनाम् । ...।87।</span> = <span class="HindiText">मुनिराज का पडिगाहन करना, उन्हें उच्चस्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि रखना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है । (पु.सि.उ./168); (चा.सा./26/3 पर उद्धृत); (वसु.श्रा./225); (गुण.श्रा./152); (का.अ./पं. जयचन्द/360) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> नवधा भक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> नवधा भक्ति का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
वसु. श्रा./ | वसु. श्रा./226-231<span class="PrakritGatha"> पत्तं णियघरदारे दट्ठूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता । पडिगहणंकायञ्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण ।226। णेऊण णिययगेहं णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तओ चलणाणधोवणं होइ कायव्वं ।227। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अचणं कुज्जा । गंधक्खय - कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहिं ।228। पुप्फंजलिं खिवित्ता पयपुरओ वंदण तओ कुज्जा । चऊण अट्ठरुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा ।229। णिट्ठुर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिं । सव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि ।230। चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए । संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ।231। </span>= <span class="HindiText">पात्र को अपने घर के द्वार पर देखकर अथवा अन्यत्र से विमार्गणकर, ‘नमस्कार हो, ठहरिए’ ऐसा कहकर प्रतिग्रह करना चाहिए ।226। पुनः अपने घर में ले जाकर निर्दोष तथा ऊँचे स्थान पर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणों को धोना चाहिए ।27। पवित्र पादोदकको सिर में लगाकर पुनः गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से पूजन करना चाहिए । 228। तदनन्तर चरणों के समीप पुष्पांजलि क्षेपण कर वन्दना करे । तथा आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मन शुद्धि करना चाहिए । 229। निष्ठुर और कर्कश आदि वचनों के त्याग करने को वचनशुद्धि जानना चाहिए, सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातार के कायशुद्धि होती है ।230। चौदह मलदोषों (देखें [[ आहार#I.2.3 | आहार - I.2.3]]) से रहित, यत्न से शोधकर, संयमी जनको जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> मन वचन काय तथा आहार शुद्धि - देखें | <li><span class="HindiText"><strong> मन वचन काय तथा आहार शुद्धि - देखें [[ शुद्धि ]]।3</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.1" id="3.1.1">निश्चय स्वतन </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.1" id="3.1.1">निश्चय स्वतन </strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./31-32 <span class="PrakritGatha">जोइन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं । तं खलु जिदिंदियं ते भणंति ये णिच्छिदा साहू ।31। जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं । तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विंति ।32।</span> = <span class="HindiText">जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं उन्हें, जो निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं ।31। जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य भावों से अधिक जानता है, उस मुनि को परमार्थ के जानने वाले जितमोह कहते हैं । (इस प्रकार निश्चय स्तुति कही) ।</span><br /> | ||
यो.सा.अ./ | यो.सा.अ./5/48<span class="SanskritGatha"> रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकं । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवज्ञैः स्तूयते स्तवः ।48।</span> = <span class="HindiText">जो पुरुष रत्नत्रय-स्वरूप शुद्ध, चैतन्य गुणों के धारक और समस्त कर्मजनित उपाधियों से रहित आत्मा की स्तुति करता है, स्तवन के जानकार महापुरुषों ने उसके स्तवन को उत्तम स्तवन माना है ।48।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./1/4/12 <span class="SanskritText">एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनालक्षण- भावस्तवनेन ... नमस्करोमि । </span>= <span class="HindiText">एकदेश शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा से निज शुद्ध आत्मा का आराधन करनेरूप भावस्तवन से ... नमस्कार करता हूँ । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.2" id="3.1.2">व्यवहार स्तवन वा स्तुति </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.2" id="3.1.2">व्यवहार स्तवन वा स्तुति </strong></span><br /> | ||
स्व. स्तो./मू. | स्व. स्तो./मू.86 <span class="SanskritText">गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्बहुत्बकथास्तुतिः । </span>= <span class="HindiText">विद्यमान गुणों की अल्पता को उल्लंघन करके जो उनके बहुत्व की कथा (बढ़ा-चढ़ाकर कहना ) की जाती है उसे लोक में स्तुति कहते हैं ।86। </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./7/23/364/11<span class="SanskritText"> मनसा ... ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, भूताभूतगुोद्भाववचनं संस्तवः । </span>= <span class="HindiText">ज्ञान और चारित्र का मन से उद्भावन करना प्रशंसा है, और ... जो गुण हैं या जो गुण नहीं है इन दोनों का सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है । (रा.वा./7/23/1/552/12) ।</span><br /> | ||
ध. | ध. 8/3,41/84/1 <span class="PrakritText">तीदा-नागद-वट्टमाणकालविसयपंचपरमेसराणं भेदमकाऊण णमो अरहंताणं णमो जिणाणमिच्चादि णमोक्कारो दव्वट्ठियणिबंधणो थवो णाम ।</span>= <span class="HindiText">अतीत, अनागत और वर्तमानकाल विषयक पाँच परमेष्ठियों के भेद को न करके ‘अरहन्तों को नमस्कार हो, जिनों को नमस्कार हो’ आदि द्रव्यार्थिक निबन्धन नमस्कार का नाम स्तव है ।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी. | द्र.सं./टी.1/4/13 <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च नमस्करोमि । </span>= <span class="HindiText">असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा उस निज शुद्ध आत्मा का प्रतिपादन करने वाले वचनरूप द्रव्य स्तवन से नमस्कार करता हूँ । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.3" id="3.1.3">स्तव आगमोपसंहार के अर्थ में </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.3" id="3.1.3">स्तव आगमोपसंहार के अर्थ में </strong></span><br /> | ||
ध. | ध. 9/4,1,55/263/2<span class="PrakritText"> बारसंगसंघारो सयलंगविसयप्पंणादो थवो णाम । तम्हि जो उवजोगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्खणसरूवो सो वि थओवयारेण</span> = <span class="HindiText">सब अंगों के विषयों की प्रधानता से बारह अंगों के उपसंहार करने को स्तव कहते हैं । उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षणस्वरूप उपयोग है वह भी उपचार से स्तव कहा जाता है ।</span><br /> | ||
ध. | ध. 14/5,6,12/9/6<span class="PrakritText"> सव्वसुदणाणविसओ उवजोगो थवो णाम ।</span> = <span class="HindiText">समस्त श्रुतज्ञान को विषय करने वाला उपयोग स्तव कहलाता है ।</span><br /> | ||
गो.क./मू./ | गो.क./मू./73/88 <span class="PrakritText">सयलंग ... सवित्थरं ससंखेवं वण्णणसत्थं थय ... होइ नियमेण ।88।</span> = <span class="HindiText">सकल अंग सम्बन्धी अर्थ को विस्तार से वा संक्षेप से विषय करने वाले शास्त्र को स्तव कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.4" id="3.1.4">स्तुति आगमोपसंहार के अर्थ में </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.4" id="3.1.4">स्तुति आगमोपसंहार के अर्थ में </strong></span><br /> | ||
ध. | ध. 9/4,1,55/263/3 <span class="PrakritText">बारसंगेसु एक्कंगोबसंघारो थुदी णाम । तम्हि जो उवजोगो सो विथुदि त्ति घेत्तव्वो । </span>= <span class="HindiText">बारह अंगों में से एक अंग के उपसंहार का नाम स्तुति है । उसमें जो उपयोग है, वह भी स्तुति है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।</span><br /> | ||
ध. | ध. 14/5,6,14/9/6 <span class="PrakritText">एगंगविसओ एयपुव्वविसओ वा उवजोगो थुदी णाम । </span>= <span class="HindiText">एक अंग या एक पूर्व को विषय करनेवाला उपयोग (या शास्त्र गो.क.) स्तुति कहलाता है । (गो.क./मू./88) ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>प्रशंसा व | <li class="HindiText"><strong>प्रशंसा व स्तुति में अन्तर </strong>- देखें [[ अन्यदृष्टि ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> चतुर्विंशतिस्तव का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> चतुर्विंशतिस्तव का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./24 <span class="PrakritGatha">उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च । काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धपणमो थओ णेओ ।24।</span> =<span class="HindiText"> ऋषभ अजित आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम की निरुक्ति के अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणों को प्रगट करना, उनके चरणों को पूजकर मन-वचन-काय की शुद्धता से स्तुति करना उसे चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । (अन.ध./8/37) ।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/24/11/530/12<span class="SanskritText"> चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थंकरगुणानुकीर्तनम् ।</span> = <span class="HindiText">तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्त्व है । (चा.सा./56/1); (भा.पा./टी./77/221/13) ।</span><br /> | ||
भ.आ./बि./ | भ.आ./बि./116/274/27 <span class="SanskritText">चतुर्विंशतिसंख्यानां तीर्थकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा चतुर्विंशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते ।</span> = <span class="HindiText">इस भरतक्षेत्र में वर्तमानकाल में वृषभनाथ से महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हो गये हैं । उनमें अर्हन्तपना वगैरह अनन्तगुण हैं, उनको जानकर तथा उस पर श्रद्धान रखते हुए उनकी स्तुति पढ़ना यह नोआगमभाव चतुर्विंशतिस्तव है ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> स्तव के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> स्तव के भेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./538 <span class="PrakritGatha">णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो थवम्हि णेओ णिक्खेवो छव्विहो होइ ।538।</span> = <span class="HindiText">नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव स्तव के भेद से चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के छह भेद हैं । (अन. ध./8/38) ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> स्तव के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> स्तव के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./509/728/11 <span class="SanskritText">मनसा चतुर्विंशति तीर्थंकृतां गुणानुस्मरणं ‘लोगस्सुज्जोययरे’ इत्येवमादीनां गुणानां वचनं ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्यः कायेन । </span>= <span class="HindiText">मनसे चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना, वचन से ‘लोयस्सुज्जोययरे’ इत्यादि श्लोकों में कही हुई तीर्थंकर स्तुति बोलना, ललाट पर हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विंशतिस्तुति के तीन भेद होते हैं ।</span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/1,85/110/1 <span class="PrakritText">गुणाणुसरणदुवारेण चउबीसण्हंपितित्थयराणं णामट्ठसहस्सग्गहणं णामत्थओ । कट्टिमाकट्टिमजिणपडिमाणं सव्भावासब्भावट्ठवणाए ट्ठविदाणं बुद्धीए तित्थयरेहिं एयत्तं गयाणं तित्थयराणंतासेसगुणभरियाणं कित्तणं वा ट्ठवणाथवो णाम । ... चउवीसण्हं पि तित्थयरसरीराणं ... असेसवेयणुम्मुक्काणं ... चउसट्ठि लक्खणावुण्णाणं सुहसंठाणसंघणाणं... सवण्णदंडसुरहिचामरविराइयाणं सुहवण्णाणं सरूवाणुसरणपुरस्सरं तक्कित्तणं दव्वत्थओ णाम । तेसिं जिणाणमणंतणाण-दंसण-विरियनुहसम्मत्तव्वाबाह-विराय-भावादि गुणाणुसरणपरूवणओ भावत्थओ णाम ।</span> = <span class="HindiText">चौबीस तीर्थंकरों के गुणों के अनुसरण द्वारा उनके एक हजार आठ नामों का ग्रहण करना नामस्तव है । जो सद्भाव-असद्भावरूप स्थापना में बुद्धि के द्वारा तीर्थंकरों से एकत्व को प्राप्त हैं, अतएव तीर्थंकरों के समस्त गुणों को धारण करती हैं, ऐसी जिन प्रतिमाओं के स्वरूप का अनुसरण (कीर्तन) करना स्थापनास्तव है । ... जो अशेष वेदनाओं से रहित हैं ... स्वस्तिकादि चौंसठ लक्षण चिह्नों से व्याप्त हैं, शुभ संस्थान व शुभ संहनन है ... सुवर्णदण्ड से युक्त चौसठ सुरभि चामरों से सुशोभित हैं, तथा जिनका वर्ण शुभ है, ऐसे चौबीस तीर्थंकरों के शरीरों के स्वरूप का अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है (क्षेत्र व कालस्तव देखें [[ अगला प्रमाण अन ]]ध.) उन चौबीस जिनों के अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य और अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्याबाध और बिरागता आदि गुणों के अनुसरण करने की प्ररूपणा करना भावस्तव है । (अन. ध./8/39-44) ।</span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./8/42-43<span class="SanskritGatha"> क्षेत्रस्तवीऽर्हतां स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पूतस्य पूर्वनाद्रद्यादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् ।42। कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो यदनेहसः । तद्गर्भावतराद्युद्घक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ।43।</span> = <span class="HindiText">तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों के द्वारा पवित्र हुए नगर, वन, पर्वत आदि के वर्णन करने को क्षेत्रस्तव कहते हैं । जैसे - अयोध्यानगरी, सिद्धार्थवन, व कैलास पर्वत आदि ।42। भगवान् के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से जो महत्ताको प्राप्त हो चुका है ऐसे समय का वर्णन करने को कालस्तव कहते हैं ।43।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">चतुर्विंशतिस्तव विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.5" id="3.5"></a>चतुर्विंशतिस्तव विधि</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./539, 573 <span class="PrakritGatha">लोगुज्जोराधम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ।539। चउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो । अव्वव्वारिवतो वुत्तो कुणदि य चउवीस- थोत्तयं भिक्खू ।573।</span> = <span class="HindiText">जगत् को प्रकाश करने वाले उत्तम क्षमादिधर्म तीर्थ के करने वाले सर्वज्ञ प्रशंसा करने योग्य प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र देव उत्तम अर्हन्त मुझे बोधि दें ।539। जिसने पैरों का अन्तर चार अंगुल किया है, शरीर भूमि चित्त को जिसने शुद्ध कर लिया हो, अंजलि को करने से सौम्य भाववाला हो, सब व्यापारों से रहित हो, ऐसा संयमी मुनि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करे ।573।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> चुतर्विंशतिस्तव प्रकरण में कायोत्सर्ग के कालका प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> चुतर्विंशतिस्तव प्रकरण में कायोत्सर्ग के कालका प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./661 <span class="SanskritGatha">उद्देसे णिद्देसे संज्झाए वंदणे य परिधाणे । सत्तावीसु- स्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा ।661।</span> = <span class="HindiText">ग्रन्थादि के आरम्भ में, पूर्णताकाल में, स्वाध्याय में, वन्दना में, अशुभ परिणाम होने में जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य हैं ।661। <strong>नोट -</strong> वास्तव में इस क्रिया का कोई विशेष विधान नहीं हैं । प्रत्येक क्रिया में पढ़ी जाने वाली भक्ति के पूर्व में नियम से चतुर्विंशति स्तुति पढ़ी जाती है । अतः प्रतिक्रमण, वन्दनादि क्रियाओं में इसका अन्तर्भाव हो जाता है ।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> दानदाता के श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और त्याग इन सात गुणों में तीसरा गुण । इसमें पात्र के गुणों के प्रति श्रद्धा का भाव रहता है । <span class="GRef"> महापुराण 20.82-83 </span></p> | |||
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Revision as of 21:44, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- साधुओं की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के प्रयोग में आनेवाली निम्न दस भक्तियाँ । -
- सिद्ध भक्ति;
- श्रुतभक्ति;
- चारित्र भक्ति;
- योगि भक्ति;
- आचार्य भक्ति;
- पंच महागुरु भक्ति;
- चैत्य भक्ति;
- वीर भक्ति;
- चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति;
- समाधि भक्ति । इनके अतिरिक्त भी
- निर्वाण भक्ति;
- नन्दीश्वर भक्ति, और शान्ति भक्ति आदि 3 भक्तियाँ हैं । परन्तु मुख्य रूप से 10 ही मानी गयी हैं । इनमें प्रथम 6 भक्तियाँ तथा निर्वाण भक्ति संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषा में प्राप्त हैं । शेष सब संस्कृत में हैं . (1) प्राकृत भक्ति के पाठ आ. कुन्दकुन्द व पद्मनन्दि (ई. 127-179) कृत हैं । (2) संस्कृत भक्ति के पाठ आ. पूज्यपाद (ई.श.5), कृत हैं । तथा अन्य भी भक्ति पाठ उपलब्ध हैं । यथा - (3) श्रुतसागर (ई. 1473-1533) द्वारा रचित सिद्धभक्ति । (क्रिया-कलाप/पृ. 167) ।
- प्राथमिक भूमिका में अर्हन्त आदि की भक्ति मोक्षमार्ग का प्रधान अंग हैं । यद्यपि बाहर में उपास्य को कर्ता आदि बनाकर भक्ति की जाती है परन्तु अन्तरंग भावों के सापेक्ष होने पर ही यह सार्थक है अन्यथा नहीं । आत्मस्पर्शी सच्ची भक्ति से तीर्थंकरत्व पद की प्राप्ति तक भी सम्भव है । इसके अतिरिक्त साधु को आहारदान करते हुए नवधा भक्ति और साधु के नित्य के कृतिकर्म में चतुर्विंशतिस्तव आदि भी भक्ति ही है ।
- भक्ति सामान्य निर्देश
- भक्ति सामान्य का लक्षण -
- निश्चय
नि.सा./ता.वृ./134 निजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानावबोधाचरणात्मकेषु शुद्धरत्नत्रयपरिणामेषु भजनं भक्तिराराधनेत्यर्थ: । एकादशपदेषु श्रावकेषु ... सर्व शुद्धरत्नत्रयभक्ति कुर्वन्ति । = निज परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-अवबोध-आचरणस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय-परिणामों का जो भजन वह भक्ति है, आराधना ऐसा उसका अर्थ है । एकादशपदी श्रावकों में ... सब शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं ।
स.सा./ता.वृ./173-176/243/11 भक्तिः पुनः ... निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मतत्त्वभावनारूपा चेति । = निश्चय नय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध आत्म तत्त्व की भावनारूप भक्ति होती है ।
- व्यवहार
नि.सा./मू./135 मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि । जो कुणदि परम भक्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।135। = जो जीव मोक्ष-गत पुरुषों का गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीव को व्यवहार नय से भक्ति कही गयी है ।
स.सि./6/24/339/4 भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । = भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना भक्ति है ।
भ.आ./वि./47/159/20 का भत्ती ... । अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः । = अर्हदादि गुणों में प्रेम करना भक्ति है । (भा.पा./टी./77/221/10) ।
स.सा./ता.वृ./173-176/243/11 भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठय्याराधनारूपा । = व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियों के पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप सम्यक् भक्ति होती है ।
पं.ध./उ./470 तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात् । ... । = उन दोनों में दर्शनमोहनीय का उपशम होने से वचन काय और मन सम्बन्धी उद्धतपने के अभाव को भक्ति कहते हैं ।
- निश्चय
- निश्चय भक्ति ही वास्तविक भक्ति है
स.सा./मू./30 णयरमि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ।30। = जैसे नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन नहीं किया जाता इसी प्रकार शरीर के गुण का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है ।30।
- सच्ची भक्ति सम्यग्दृष्टि को ही होती है
ध. 8/3,41/89/5 ण च एसा (अरंहत भत्ती) दंसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहादो । = यह (अर्हन्त भक्ति) दर्शन विशुद्धि आदि के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है ।
मो.मा.प्र./7/327/8 यथार्थपने की अपेक्षा तौ ज्ञानी कै सांची भक्ति है - अज्ञानी कै नाहीं है ।
प.प्र./पं.दौलत/2/143/259 बाह्य लौकिक भक्ति इससे संसार के प्रयोजन के लिए हुइ, वह गिनती में नहीं । ऊपर की सब बातें निःसार (थोथी) हैं, भाव ही कारण होते हैं, सो भाव-भक्ति मिथ्यादृष्टि के नहीं होती (सम्यग्दृष्टि के ही होती है ) ।
- व्यवहार भक्ति में ईश्वर कर्तावाद का निर्देश
भा.पा./मू./163 ते मे तिहुवणहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा । दिंतु बर भावसुद्धिं दंसण णाण चरित्ते य ।163। = जो नित्य हैं, निरंजन हैं, शुद्ध हैं तथा तीन लोक के द्वारा पूजनीक हैं, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ उत्तम भाव की शुद्धता दो ।163।
प्र.सा./मू./1... पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।1। = ... तीर्थरूप और धर्म के कर्ता श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो ।1।
पं.वि./20/1,6 त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व । मयि किकरेऽत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ।1। अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये । तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव प्राल पित्वम् ।6। = तीनों लोकों के गुरु और उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर ! इस मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये ।1। हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए , यही एक बात मुझे आपसे कहनी है । परन्तु चूँकि मैं इस संसार से अति पीड़ित हूँ, इसलिए मैं बहुत बकवादी हुआ हूँ ।
थोस्सामि दण्डक /7 कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धी । आरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिं च मे बोहिं ।7। = वचनों से कीर्तन किये गये, मन से वन्दना किये गये, और काय से पूजे गये, ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करें ।7।
- प्रसन्न हो इत्यादि का प्रयोजन
आप्त. परि./टी./2/8/6 प्रसादः पुनः परमेष्ठिनस्तद्विनेयानां प्रसन्नमनविषयत्वमेव, वीतरागाणां तुष्टिलक्षणप्रसादादसम्भवात् कोपासंभववत् । तदाराधकजनैस्तु प्रसन्नेन मनसोपास्यमानो भगवान् ‘प्रसन्नः इत्यभिधीयते, रसायनवत् । यथैव हि प्रसन्नेन मनसा रसायनमासेव्य तत्फलमवाप्नुवन्तः सन्तो ‘रसायनप्रसादादिदमस्माकमारोग्यादिफलं समुत्पन्नम्’ इति प्रतिपाद्यन्ते तथा प्रसन्नेन मनसा भगवन्तं परमेष्ठिनमुपास्य तदुपासनफलं श्रेयोमार्गाधिगमलक्षणं प्रतिपाद्यमानस्तद्विनेयजनाः ‘भगवत्परमेष्ठिनः प्रसादादस्माकं श्रेयोमार्गाधिगमः संपन्नः ’ इति समनुमन्यन्ते । =परमेष्ठी में जो प्रसाद गुण कहा गया है, वह उनके शिष्यों का प्रसन्न मन होना ही उनकी प्रसन्नता है, क्योंकि वीतरागों के तुष्ट्य्यात्मक प्रसन्नता सम्भव नहीं हैं । जैसे क्रोध का होना उनमें सम्भव नहीं है । किन्तु आराधकजन जब प्रसन्न मन से उनकी उपासना करते हैं तो भगवान् को ‘प्रसन्न’ ऐसा कह दिया जाता है । जैसे प्रसन्न मन से रसायन (औषधि) का सेवन करके उसके फल को प्राप्त करने वाले समझते हैं और शब्द व्यवहार करते हैं कि ‘रसायन’ के प्रसाद से यह हमें आरोग्यादि फल मिला । ’ उसी प्रकार प्रसन्न मन से भगवान् परमेष्ठी की उपासना करके उसके फल - श्रेयोमार्ग के ज्ञान को प्राप्त हुए उनके शिष्यजन मानते हैं कि ‘भगवन् परमेष्ठी के प्रसाद से हमें श्रेयोमार्ग का ज्ञान हुआ ।
मो.मा.प्र./5/325/17 उस (अर्हंत) के उपचार से यह विशेषण (अधमोद्धारकादिक) सम्भवै है । फल तौ अपने परिणामनिका लागै है ।
देखें पूजा - 2.3 जिन गुण परिणत परिणाम पाप का नाशक समझना चाहिए ।
सल्लेखना की स्मृति - देखें भ आ. /अमित./2248-2242) ।
भक्तिका महत्त्व- देखें विनय - 2 तथा पूजा /2/4 ।
- भक्ति सामान्य का लक्षण -
- <a name="2" id="2"></a>भक्ति विशेष निर्देश
- <a name="2.1" id="2.1"></a>अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्ति के लक्षण
स.सि./6/24/339/4 अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धि- युक्तोऽनुरागो भक्तिः । = अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावों की विशुद्धता के साथ अनुराग रखना अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति है । (रा.वा./6/24/10/530/6); (चा.सा.51/3;/51/1); (भा.पा./टी./77/221/10) ।
ध. 8/3,41/89-90/4 तेसु (अरहतेसु) भत्ती अरहंतभत्ती । ... अरहंत वुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ... बारसंग- पारया बहुसुदा णाम, तेसु भत्ती-तेहि वक्खाणिद आगमत्थाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा बहुसुदभत्ती । ... तम्हि (पवयणे) भत्ती तत्थ पदुप्पादिदत्थाणुट्ठाणं । ण च अण्णहा तत्थ भत्ती संभवइ, असंपुणण्णे संपुण्णववहारविरोहादो । = अरहन्तों में जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है, वह अरहन्त भक्ति कहलाती है ... । अथवा अरहन्त के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अरहन्त भक्ति कहते हैं । ... जो बारह अंगों के पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं, उनके द्वारा उपद्ष्टि आगमार्थ के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श करने को बहुश्रुतभक्ति कहते हैं । ... प्रवचन में (देखें प्रवचन - 1) कहे हुए अर्थ का अनुष्ठान करना, यह प्रवचन में भक्ति कही जाती है । इसके बिना अन्य प्रकार से प्रवचन में भक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि असम्पूर्ण में सम्पूर्ण के व्यवहार का विरोध है ।
- सिद्ध भक्ति का लक्षण
नि.सा./मू./134-135 सम्मत्तणाण चरणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो । तस्स दु णिव्वुदि भत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।134। मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि । जो कुणदि परमभक्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।135। = जो श्रावक अथवा श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की भक्ति करता है, उसे निर्वृतिभक्ति (निर्वाण की भक्ति) है, ऐसा जिनोंने कहा है ।134। जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है, उस जीव के व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति कही है ।135।
द्र.सं./टी./18/56 पर उद्धृत - सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अणतणाणाइगुण-समिद्धोऽहं । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसी अमुत्तो य । इति गाथा-कथितसिद्धभक्तिरूपेण ... । = मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्तज्ञानादि गुणों का धारक हूँ, शरीर प्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, तथा अमूर्तिक हूँ ।1। इस गाथा में कही हुई सिद्धभक्ति के रूप से ... ।
पं.का./त.प्र./169 शुद्धात्मद्रव्यविश्रान्तिरूपां पारमार्थिकीं सिद्धभक्ति- मनुबिभ्राण: ... । = शुद्धात्म द्रव्य में विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध- भक्ति घारण करता हुआ ... ।
द्र.सं./टी./17/55/8 सिद्धवदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादि व्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुक्तानां ... । = मैं सिद्ध भगवान् के समान अनन्तज्ञानादि गुणरूप हूँ इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्धभक्ति के धारक ... ।
- योगिभक्ति का लक्षण
नि.सा./मू./137 रायादीपरिहारे अप्पाणं जोदु जुंजदे साहू । सो जोगभक्तिजुत्तो इदरस्स य कह हवे जोगो ।137। = जो साधु रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है (अर्थात् आत्मा में आत्मा को लगाकर रागादि का परिहार करता है ) वह योगिभक्ति युक्त है, दूसरे को योग किस प्रकार हो सकता है ।137. (नि.सा./मू./138) ।
- अर्हन्तादि में से किसी एक भक्ति में शेष 15 भावनाओं का समावेश
ध. 8/3, 41/89/4 कधमेत्थ सेसकारणाणं संभवो । बुच्चदे अरहंतवुत्ताणु-ट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ण च एसा दंसणविसुज्झदादीहि विणा ण संभवइ, विरोहादो । ... दंसणविसुज्झदादीहि विणाएदिस्से (बहुसुदभत्तीए) असंभवादो । ... एत्थ (पवयण भत्तीए) सेसकारणाणमंतव्भावो वत्तव्वो । = प्रश्न - इसमें शेष कारणों की सम्भावना कैसे है । उत्तर- अरहन्त के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने को या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अरहन्त भक्ति कहते हैं । यह दर्शनविशुद्धतादिकों के बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है । ... यह (बहुश्रुत भक्ति) भी दर्शन विशुद्धि आदिक शेष कारणों के बिना सम्भव नहीं है । ... इस (प्रवचन भक्ति) में शेष कारणों का अन्तर्भाव कहना चाहिए ।
- दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि - देखें कृतिकर्म - 4.2,3
- प्रत्येक भक्ति के साथ आवर्त आदि करने का विधान - देखें कृतिकर्म । 2/8
- दशभक्ति निर्देश व उनकी प्रयोग विधि - देखें कृतिकर्म - 4.2,3
- साधु की आहारचर्या सम्बन्धी नवभक्ति निर्देश
म.पु./20/86-87 प्रतिग्रहमित्युच्चैः स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रधावनं चर्चा नतिः शुद्धिश्च सा त्रयी ।86। विशुद्धिश्चाशनस्येति नवपुण्यानि दानिनाम् । ...।87। = मुनिराज का पडिगाहन करना, उन्हें उच्चस्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि रखना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है । (पु.सि.उ./168); (चा.सा./26/3 पर उद्धृत); (वसु.श्रा./225); (गुण.श्रा./152); (का.अ./पं. जयचन्द/360) ।
- नवधा भक्ति का लक्षण
वसु. श्रा./226-231 पत्तं णियघरदारे दट्ठूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता । पडिगहणंकायञ्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण ।226। णेऊण णिययगेहं णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तओ चलणाणधोवणं होइ कायव्वं ।227। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अचणं कुज्जा । गंधक्खय - कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहिं ।228। पुप्फंजलिं खिवित्ता पयपुरओ वंदण तओ कुज्जा । चऊण अट्ठरुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा ।229। णिट्ठुर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिं । सव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि ।230। चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए । संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ।231। = पात्र को अपने घर के द्वार पर देखकर अथवा अन्यत्र से विमार्गणकर, ‘नमस्कार हो, ठहरिए’ ऐसा कहकर प्रतिग्रह करना चाहिए ।226। पुनः अपने घर में ले जाकर निर्दोष तथा ऊँचे स्थान पर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणों को धोना चाहिए ।27। पवित्र पादोदकको सिर में लगाकर पुनः गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से पूजन करना चाहिए । 228। तदनन्तर चरणों के समीप पुष्पांजलि क्षेपण कर वन्दना करे । तथा आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मन शुद्धि करना चाहिए । 229। निष्ठुर और कर्कश आदि वचनों के त्याग करने को वचनशुद्धि जानना चाहिए, सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखनेवाले दातार के कायशुद्धि होती है ।230। चौदह मलदोषों (देखें आहार - I.2.3) से रहित, यत्न से शोधकर, संयमी जनको जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए ।
- <a name="2.1" id="2.1"></a>अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत व प्रवचन भक्ति के लक्षण
- मन वचन काय तथा आहार शुद्धि - देखें शुद्धि ।3
- स्तव निर्देश
- स्तव सामान्य का लक्षण
- निश्चय स्वतन
स.सा./मू./31-32 जोइन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं । तं खलु जिदिंदियं ते भणंति ये णिच्छिदा साहू ।31। जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं । तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विंति ।32। = जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं उन्हें, जो निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं ।31। जो मुनि मोह को जीतकर अपने आत्मा को ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य भावों से अधिक जानता है, उस मुनि को परमार्थ के जानने वाले जितमोह कहते हैं । (इस प्रकार निश्चय स्तुति कही) ।
यो.सा.अ./5/48 रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकं । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवज्ञैः स्तूयते स्तवः ।48। = जो पुरुष रत्नत्रय-स्वरूप शुद्ध, चैतन्य गुणों के धारक और समस्त कर्मजनित उपाधियों से रहित आत्मा की स्तुति करता है, स्तवन के जानकार महापुरुषों ने उसके स्तवन को उत्तम स्तवन माना है ।48।
द्र.सं./टी./1/4/12 एकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनालक्षण- भावस्तवनेन ... नमस्करोमि । = एकदेश शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा से निज शुद्ध आत्मा का आराधन करनेरूप भावस्तवन से ... नमस्कार करता हूँ ।
- व्यवहार स्तवन वा स्तुति
स्व. स्तो./मू.86 गुण-स्तोकं सदुल्लङ्घ्य तद्बहुत्बकथास्तुतिः । = विद्यमान गुणों की अल्पता को उल्लंघन करके जो उनके बहुत्व की कथा (बढ़ा-चढ़ाकर कहना ) की जाती है उसे लोक में स्तुति कहते हैं ।86।
स.सि./7/23/364/11 मनसा ... ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, भूताभूतगुोद्भाववचनं संस्तवः । = ज्ञान और चारित्र का मन से उद्भावन करना प्रशंसा है, और ... जो गुण हैं या जो गुण नहीं है इन दोनों का सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है । (रा.वा./7/23/1/552/12) ।
ध. 8/3,41/84/1 तीदा-नागद-वट्टमाणकालविसयपंचपरमेसराणं भेदमकाऊण णमो अरहंताणं णमो जिणाणमिच्चादि णमोक्कारो दव्वट्ठियणिबंधणो थवो णाम ।= अतीत, अनागत और वर्तमानकाल विषयक पाँच परमेष्ठियों के भेद को न करके ‘अरहन्तों को नमस्कार हो, जिनों को नमस्कार हो’ आदि द्रव्यार्थिक निबन्धन नमस्कार का नाम स्तव है ।
द्र.सं./टी.1/4/13 असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च नमस्करोमि । = असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा उस निज शुद्ध आत्मा का प्रतिपादन करने वाले वचनरूप द्रव्य स्तवन से नमस्कार करता हूँ ।
- स्तव आगमोपसंहार के अर्थ में
ध. 9/4,1,55/263/2 बारसंगसंघारो सयलंगविसयप्पंणादो थवो णाम । तम्हि जो उवजोगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्खणसरूवो सो वि थओवयारेण = सब अंगों के विषयों की प्रधानता से बारह अंगों के उपसंहार करने को स्तव कहते हैं । उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षणस्वरूप उपयोग है वह भी उपचार से स्तव कहा जाता है ।
ध. 14/5,6,12/9/6 सव्वसुदणाणविसओ उवजोगो थवो णाम । = समस्त श्रुतज्ञान को विषय करने वाला उपयोग स्तव कहलाता है ।
गो.क./मू./73/88 सयलंग ... सवित्थरं ससंखेवं वण्णणसत्थं थय ... होइ नियमेण ।88। = सकल अंग सम्बन्धी अर्थ को विस्तार से वा संक्षेप से विषय करने वाले शास्त्र को स्तव कहते हैं ।
- स्तुति आगमोपसंहार के अर्थ में
ध. 9/4,1,55/263/3 बारसंगेसु एक्कंगोबसंघारो थुदी णाम । तम्हि जो उवजोगो सो विथुदि त्ति घेत्तव्वो । = बारह अंगों में से एक अंग के उपसंहार का नाम स्तुति है । उसमें जो उपयोग है, वह भी स्तुति है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
ध. 14/5,6,14/9/6 एगंगविसओ एयपुव्वविसओ वा उवजोगो थुदी णाम । = एक अंग या एक पूर्व को विषय करनेवाला उपयोग (या शास्त्र गो.क.) स्तुति कहलाता है । (गो.क./मू./88) ।
- प्रशंसा व स्तुति में अन्तर - देखें अन्यदृष्टि ।
- प्रशंसा व स्तुति में अन्तर - देखें अन्यदृष्टि ।
- निश्चय स्वतन
- चतुर्विंशतिस्तव का लक्षण
मू.आ./24 उसहादिजिणवराणं णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च । काऊण अच्चिदूण य तिसुद्धपणमो थओ णेओ ।24। = ऋषभ अजित आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम की निरुक्ति के अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणों को प्रगट करना, उनके चरणों को पूजकर मन-वचन-काय की शुद्धता से स्तुति करना उसे चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । (अन.ध./8/37) ।
रा.वा./6/24/11/530/12 चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थंकरगुणानुकीर्तनम् । = तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्त्व है । (चा.सा./56/1); (भा.पा./टी./77/221/13) ।
भ.आ./बि./116/274/27 चतुर्विंशतिसंख्यानां तीर्थकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा चतुर्विंशतिस्तवनपठनक्रिया नोआगमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते । = इस भरतक्षेत्र में वर्तमानकाल में वृषभनाथ से महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हो गये हैं । उनमें अर्हन्तपना वगैरह अनन्तगुण हैं, उनको जानकर तथा उस पर श्रद्धान रखते हुए उनकी स्तुति पढ़ना यह नोआगमभाव चतुर्विंशतिस्तव है ।
- स्तव के भेद
मू.आ./538 णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो थवम्हि णेओ णिक्खेवो छव्विहो होइ ।538। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव स्तव के भेद से चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के छह भेद हैं । (अन. ध./8/38) ।
- स्तव के भेदों के लक्षण
भ.आ./वि./509/728/11 मनसा चतुर्विंशति तीर्थंकृतां गुणानुस्मरणं ‘लोगस्सुज्जोययरे’ इत्येवमादीनां गुणानां वचनं ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्यः कायेन । = मनसे चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना, वचन से ‘लोयस्सुज्जोययरे’ इत्यादि श्लोकों में कही हुई तीर्थंकर स्तुति बोलना, ललाट पर हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विंशतिस्तुति के तीन भेद होते हैं ।
क.पा.1/1,85/110/1 गुणाणुसरणदुवारेण चउबीसण्हंपितित्थयराणं णामट्ठसहस्सग्गहणं णामत्थओ । कट्टिमाकट्टिमजिणपडिमाणं सव्भावासब्भावट्ठवणाए ट्ठविदाणं बुद्धीए तित्थयरेहिं एयत्तं गयाणं तित्थयराणंतासेसगुणभरियाणं कित्तणं वा ट्ठवणाथवो णाम । ... चउवीसण्हं पि तित्थयरसरीराणं ... असेसवेयणुम्मुक्काणं ... चउसट्ठि लक्खणावुण्णाणं सुहसंठाणसंघणाणं... सवण्णदंडसुरहिचामरविराइयाणं सुहवण्णाणं सरूवाणुसरणपुरस्सरं तक्कित्तणं दव्वत्थओ णाम । तेसिं जिणाणमणंतणाण-दंसण-विरियनुहसम्मत्तव्वाबाह-विराय-भावादि गुणाणुसरणपरूवणओ भावत्थओ णाम । = चौबीस तीर्थंकरों के गुणों के अनुसरण द्वारा उनके एक हजार आठ नामों का ग्रहण करना नामस्तव है । जो सद्भाव-असद्भावरूप स्थापना में बुद्धि के द्वारा तीर्थंकरों से एकत्व को प्राप्त हैं, अतएव तीर्थंकरों के समस्त गुणों को धारण करती हैं, ऐसी जिन प्रतिमाओं के स्वरूप का अनुसरण (कीर्तन) करना स्थापनास्तव है । ... जो अशेष वेदनाओं से रहित हैं ... स्वस्तिकादि चौंसठ लक्षण चिह्नों से व्याप्त हैं, शुभ संस्थान व शुभ संहनन है ... सुवर्णदण्ड से युक्त चौसठ सुरभि चामरों से सुशोभित हैं, तथा जिनका वर्ण शुभ है, ऐसे चौबीस तीर्थंकरों के शरीरों के स्वरूप का अनुसरण करते हुए उनका कीर्तन करना द्रव्यस्तव है (क्षेत्र व कालस्तव देखें अगला प्रमाण अन ध.) उन चौबीस जिनों के अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य और अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अव्याबाध और बिरागता आदि गुणों के अनुसरण करने की प्ररूपणा करना भावस्तव है । (अन. ध./8/39-44) ।
अन.ध./8/42-43 क्षेत्रस्तवीऽर्हतां स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पूतस्य पूर्वनाद्रद्यादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् ।42। कालस्तवस्तीर्थकृतां स ज्ञेयो यदनेहसः । तद्गर्भावतराद्युद्घक्रियादृप्तस्य कीर्तनम् ।43। = तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों के द्वारा पवित्र हुए नगर, वन, पर्वत आदि के वर्णन करने को क्षेत्रस्तव कहते हैं । जैसे - अयोध्यानगरी, सिद्धार्थवन, व कैलास पर्वत आदि ।42। भगवान् के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से जो महत्ताको प्राप्त हो चुका है ऐसे समय का वर्णन करने को कालस्तव कहते हैं ।43।
- <a name="3.5" id="3.5"></a>चतुर्विंशतिस्तव विधि
मू.आ./539, 573 लोगुज्जोराधम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ।539। चउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो । अव्वव्वारिवतो वुत्तो कुणदि य चउवीस- थोत्तयं भिक्खू ।573। = जगत् को प्रकाश करने वाले उत्तम क्षमादिधर्म तीर्थ के करने वाले सर्वज्ञ प्रशंसा करने योग्य प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र देव उत्तम अर्हन्त मुझे बोधि दें ।539। जिसने पैरों का अन्तर चार अंगुल किया है, शरीर भूमि चित्त को जिसने शुद्ध कर लिया हो, अंजलि को करने से सौम्य भाववाला हो, सब व्यापारों से रहित हो, ऐसा संयमी मुनि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करे ।573।
- चुतर्विंशतिस्तव प्रकरण में कायोत्सर्ग के कालका प्रमाण
मू.आ./661 उद्देसे णिद्देसे संज्झाए वंदणे य परिधाणे । सत्तावीसु- स्सासा काओसग्गम्हि कादव्वा ।661। = ग्रन्थादि के आरम्भ में, पूर्णताकाल में, स्वाध्याय में, वन्दना में, अशुभ परिणाम होने में जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य हैं ।661। नोट - वास्तव में इस क्रिया का कोई विशेष विधान नहीं हैं । प्रत्येक क्रिया में पढ़ी जाने वाली भक्ति के पूर्व में नियम से चतुर्विंशति स्तुति पढ़ी जाती है । अतः प्रतिक्रमण, वन्दनादि क्रियाओं में इसका अन्तर्भाव हो जाता है ।
- स्तव सामान्य का लक्षण
पुराणकोष से
दानदाता के श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और त्याग इन सात गुणों में तीसरा गुण । इसमें पात्र के गुणों के प्रति श्रद्धा का भाव रहता है । महापुराण 20.82-83